बहुत दिनों से फिल्में देख रहा हूं, देशी सुपर मैनों की फिल्में भी देखीं...ज्यादातर में हीरो अपने बाप या अपने परिवार की मौत का बदला लेता है या हीरोइन को बचाता है। पिछली कुछ फिल्में इस गड़बड़झाले से अलहदा दिखी हैं। अच्छा लग रहा है।
बर्फी के बाद ओह माई गॉड भी ऐसी फिल्म है जो मन को छूती है।
हिंदी फिल्मों में पेड़ों के इर्द गिर्द नाचना और गाना एक पवित्र परंपरा है, इसी फिल्म ओह माई गॉड में एक गोंविदा आयटम गाने को छोड़ दें, जिसमें मादक होती जा रहीं बिहारी बाला सोनाक्षी कूल्हे मटका रही हैं तो बाकी की पूरी फिल्म बहुत तर्कपूर्ण है।
फिल्म नास्तिक तर्क और आस्तिक आस्था और धर्म के दुकानदारों के त्रिकोण के बीच झूलती है। चूंकि फिल्म है, कल्पना है इसलिए नास्तिक बने परेश रावल के तर्कों के बरअक्स निर्देशक उमेश शुक्ला खुद भगवान को ही ले आते हैं।
यह फिल्म भावेश मांडलिया के नाटक ‘कांजी वर्सेज कांजी’ नाटक पर आधारित है। कैमियो के रुप में फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में अक्षय कुमार कृष्ण बनकर आते हैं। दोनों ने अभी तक 32 फिल्मों में एक साथ काम किया है। दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती है।
अक्षय के पास भी वैसी ही मारक मुस्कान है जैसी कृष्ण की होगी बताई जाती है। फिल्म मूल रूप से हिंदू धर्म के ठेकेदारों को घेरती है, मिथुन चक्रवर्ती श्री श्री रविशंकर जैसे किरदार की धज में है लेकिन बेहद हास्यास्पद और फूहड़ दिखते हैं। गोविंद नामदेव बनारस के पंडे के किरदार में बेहतरीन हैं और हर बात में आपा खो देते दिखते हैं। जबकि एक अन्य महिला किरदार राधे मां या ऐसी ही किसी मादक महिला धर्म कथावाचक के तौर पर दिखती हैं।
फिल्म ऐसे दौर में आई है जब एक फिल्म ने पूरे मुस्लिम जगत को आंदोलित कर रखा है। यह तो अच्छा है कि अभी बजरंगी हुड़दगी और भगवा ब्रिगेड ज्यादा सक्रिय नहीं है।
फिल्म में बार-बार पूरे फ्रेम में एबीपी न्यूज़ का लोगो आ जाता है जो फिल्म के प्रवाह को रोक देता है। संपादन भी दुरुस्त नहीं है, हालांकि कहानी में झोल है तो इतना ही अदालत में ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते परेश रावल को लकवा मार जाता है और फिर ईश्वर ही उसे ठीक करते हैं।
यहां निर्देशक एक बार फिर ईश्वर की शरण में चले जाते हैं। फिल्म को मध्यांतर तक थामे हुए तर्क यहां आकर फिसड्डी साबित होते हैं। खैर, परेश रावल ने पूरे फिल्म को अपने कंधों पर ढोया है, हालांकि प्रोमो में भगवान अक्षय ही ज्यादा दिखते हैं।
फिल्म के संवाद बहुत मेहनत से लिखे गए हैं, जो हंसाते भी हैं और चुटीले भी हैं। धर्म के टेकेदारों की जमकर हंसी उड़ाई गई है। फिल्म आप किसी भी एक वजह से देख सकते हैं- बढिया कहानी, चुटीले संवाद, या ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते तर्क, या फिर धर्म के ठेकेदारों को कठघरे में खड़ेकर शर्मसार करने के दृश्यों पर।
सबसे बेहतर तो लगता है जब एबीपी न्यूज़ की एंकर बनी टिस्का चोपड़ा परेश से पूछती हैं, धर्म या मज़हब इंसान को क्या बनाता है...परेश सोचकर जवाब देते हैं....बेबस या आतंकवादी।
बात चुभती जरूर है लेकिन है सच।
बर्फी के बाद ओह माई गॉड भी ऐसी फिल्म है जो मन को छूती है।
हिंदी फिल्मों में पेड़ों के इर्द गिर्द नाचना और गाना एक पवित्र परंपरा है, इसी फिल्म ओह माई गॉड में एक गोंविदा आयटम गाने को छोड़ दें, जिसमें मादक होती जा रहीं बिहारी बाला सोनाक्षी कूल्हे मटका रही हैं तो बाकी की पूरी फिल्म बहुत तर्कपूर्ण है।
फिल्म नास्तिक तर्क और आस्तिक आस्था और धर्म के दुकानदारों के त्रिकोण के बीच झूलती है। चूंकि फिल्म है, कल्पना है इसलिए नास्तिक बने परेश रावल के तर्कों के बरअक्स निर्देशक उमेश शुक्ला खुद भगवान को ही ले आते हैं।
यह फिल्म भावेश मांडलिया के नाटक ‘कांजी वर्सेज कांजी’ नाटक पर आधारित है। कैमियो के रुप में फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में अक्षय कुमार कृष्ण बनकर आते हैं। दोनों ने अभी तक 32 फिल्मों में एक साथ काम किया है। दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती है।
अक्षय के पास भी वैसी ही मारक मुस्कान है जैसी कृष्ण की होगी बताई जाती है। फिल्म मूल रूप से हिंदू धर्म के ठेकेदारों को घेरती है, मिथुन चक्रवर्ती श्री श्री रविशंकर जैसे किरदार की धज में है लेकिन बेहद हास्यास्पद और फूहड़ दिखते हैं। गोविंद नामदेव बनारस के पंडे के किरदार में बेहतरीन हैं और हर बात में आपा खो देते दिखते हैं। जबकि एक अन्य महिला किरदार राधे मां या ऐसी ही किसी मादक महिला धर्म कथावाचक के तौर पर दिखती हैं।
फिल्म ऐसे दौर में आई है जब एक फिल्म ने पूरे मुस्लिम जगत को आंदोलित कर रखा है। यह तो अच्छा है कि अभी बजरंगी हुड़दगी और भगवा ब्रिगेड ज्यादा सक्रिय नहीं है।
फिल्म में बार-बार पूरे फ्रेम में एबीपी न्यूज़ का लोगो आ जाता है जो फिल्म के प्रवाह को रोक देता है। संपादन भी दुरुस्त नहीं है, हालांकि कहानी में झोल है तो इतना ही अदालत में ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते परेश रावल को लकवा मार जाता है और फिर ईश्वर ही उसे ठीक करते हैं।
यहां निर्देशक एक बार फिर ईश्वर की शरण में चले जाते हैं। फिल्म को मध्यांतर तक थामे हुए तर्क यहां आकर फिसड्डी साबित होते हैं। खैर, परेश रावल ने पूरे फिल्म को अपने कंधों पर ढोया है, हालांकि प्रोमो में भगवान अक्षय ही ज्यादा दिखते हैं।
सबसे बेहतर तो लगता है जब एबीपी न्यूज़ की एंकर बनी टिस्का चोपड़ा परेश से पूछती हैं, धर्म या मज़हब इंसान को क्या बनाता है...परेश सोचकर जवाब देते हैं....बेबस या आतंकवादी।
बात चुभती जरूर है लेकिन है सच।