Sunday, June 30, 2013

लालू-पासवान-नीतीश पुराण भाग-एक

 ये आलेख कुमार आलोक का है। कुमार आलोक, राजनीति कवर करने वाले विचारवान पत्रकार हैं। खासकर वामपंथी राजनीति पर खास नजर भी रखते हैं और श्रद्धा भी। बिहार में लालू युग के बाद की घटनाओं पर अपने तजुरबे को हमारे साथ साझा कर रहे हैं। 
कुमार आलोक

शाहनवाज हुसैन ने पटना में एक रैली को संबोधित करते हुये कहा कि नीतिश सत्ता से बाहर रह ही नहीं सकते। वो सन् 1995 का हवाला दे रहे थे, जब समता पार्टी बिहार में लालू के मुकाबले बुरी तरीके से पिट गई थी। चुनाव परिणामों के बाद नीतिश ने कहा था कि अब वो राजनीति छोड़कर किताब लिखेंगे।

कुछ दिनों बाद खबर आई कि नीतिश बिहार में रहकर ही लालू सरकार के खिलाफ सड़क पर संघर्ष करेंगे। बात आई-गई हो गई। बिहार में उनका भाजपा के साथ गठबंधन हुआ और केंद्र में एनडीए की सरकार बनी।

नीतिश कुमार को अटल बिहारी बाजपेयी का आशीर्वाद प्राप्त था। उन्हें रेल मंत्री के पद से नवाजा गया। बिहार में रहकर संघर्ष करने की बात हवा में रह गई।

नीतिश और लालू के बीच आपसी वैमनस्य इतना था कि रेल डिब्बों में लालू की जाति के दूधिया लोगों को नीतिश के आदेश पर आरपीएसएफ डंडों से पीटते थे। रेल के विभिन्न मलाईदार पदों पर नीतिश ने अपनी जाति के लोगों को चुन-चुन कर बिठाया। हां, नीतिश को इतना आभास था कि लालू को भविष्य में पछाड़ा जा सकता है।

लालू कहा करते थे कि वोट के लिए विकास पैमाना नहीं, जातिगत समीकरण हैं। इस नब्ज को पकडकर नीतिश ने बिहार में रेल के विकास पर बहुत काम किया। पहली बार जब लालू पशुपालन घोटाले में जेल गये तो बेउर जेल उनके समर्थ उन्हें दूल्हे की तरह बिठाकर जेल के दरवाजे पर ले गये।

समर्थक नारे लगा रहे थे कि जेल का फाटक टूटेगा, लालू यादव छूटेगा। राजनीति में परिवारवाद की मुखालफत करने वाले लालू को अपनी पार्टी के किसी नेता पर विश्वास नहीं रहा। बातें हवा में चल रही थी। कयास लगाए जा रहे थे कि लालू के जेल जाने के बाद सीएम का पद कौन संभालेगा।

टाइम्स आफ इंडिया में एक खबर छपी कि रंजन प्रसाद यादव, जयप्रकाश नारायण यादव या आर के राणा में से किसी एक को लालू गद्दीनशीं करेंगे। अगले दिन जनसत्ता ने छापा कि अंदरखाने में लालू ने बिहार की कमान अपनी पत्नी को सौंप दी है।

इस खबर पर राजद और अन्य दलों के नेता खूब हंसे। अगले दिन विधायक दल की बैठक हुई। किसी को इसका आभास भी नहीं था कि राबड़ी देवी को नेता चुन लिया जाएगा। हालांकि सब पूर्व-नियोजित ही था। लालू के सबसे विश्वस्त श्याम रजक ने राबडी के नाम का प्रस्ताव किया ..भला किसमें दम था इसका विरोध करने का।
राबड़ी मुख्यमंत्री बनीं और लालू जेल-यात्रा पर निकल गये।

साहब के लिये खैनी मांगकर लाने वाली राबड़ी, सीएम क्वॉर्टर के आस-पास के लोगों से सीधे बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बन गईं। अनपढ और सियासत की गलियों से अनजान राबड़ी के लिये ये एक डरावना मंज़र रहा होगा।

साथ ही रहा होगा, पार्टी के अंदर ही सीएम पद का ख्वाब देख रहे तमाम नेताओं के विद्रोह का डर। तब राबडी ने अपने दोनों प्यारे भाईय़ों के हाथों बिहार की कमान अघोषित रुप से सौंप दी। एक राजनीतिक अपराधी था तो एक शुद्ध गंवई अपराधी।

साधु तो राजनीति सीख गये थे लेकिन सुभाष को लगता था कि कमाने का तरीका रंगदारी, अपहरण और ट्रांसफर-पोस्टिंग से ही हो सकता है।

लालू के इन दो लाडले सालों ने गदर मचाया कि बिहार की जनता की नजरों में हीरो रहे लालू की छवि ज़ीरो की हो गई।

मुझे याद है कि सुभाष यादव का कार्यक्रम अगर बिहार के किसी कोने में आपको लेना है तो सुभाष की ये शर्त होती थी कि आने के बाद उन्हें सिक्कों से तौला जाये । 85 किलो के सुभाष यादव को अगर सिक्कों से तौला जाए तो आप उसकी कीमत का आकलन कर लीजिए।

हां, एक बात जरूर थी कि जिस किसी छुटभैये ने युवा हृदय-सम्राट (?) सुभाष यादव का कार्यक्रम ले लिया, वह उस इलाके या जिले का डॉन हो गया। अब वो अफसर से लेकर दुकानदारों तक से सारी वसूली इकट्ठा करता, और उसमें से अपना हिस्सा काटकर सुभाष बाबू को पहुंचाया करता।

जनता की नजरों में राजद की सरकार दिन-ब-दिन गिरती जा रही थी। इधर, नीतिश एनडीए में रहकर बतौर रेलमंत्री जो काम कर रहे थे, वो लोगों को दिखने लगा।

बिहार की जनता को विकास का पहला टेस्ट नीतिश ने रेल में काम करके चखाया। इसके बावजूद लालू इतने कमजोर नही हुए थे। फरवरी, 2005 में विधानसभा चुनावों में खंडित जनादेश मिला। नीतिश, सरकार बनाने की जुगत लगा रहे थे। अगर वो जोड़-तोड़कर सरकार बना लेते तो उनका भी हाल मधु कोडा सरीखा होता।
लालू को ये क़त्तई बर्दाश्त नहीं था। लालू को उस समय भी यह लग रहा था कि बिहार उनके परिवार की जागीर है। केंद्र में यूपीए के साथ सांठ-गांठ करके राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

राष्ट्रपति शासन के दौरान बूटा सिंह और उनके दो पुत्रों बंटी और लवली ने मिलकर वही काम किया, जो साधु और सुभाष राबड़ी के लिये किया करते थे। यही कारण रहा कि अक्तूबर के चुनाव में जनता ने नीतीश के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की मुहर लगाकर लालू और पासवान को बाहर का रास्ता दिखा दिया।

Sunday, June 16, 2013

दिवंगत बाबूजी के नाम बेटे का एक खत

डियर डैड, 
सादर प्रणाम,

कहां से शुरु करुं...आज से ही करता हूं।

आज अंग्रेजी के एक अख़बार के पहले पन्ने पर बिस्किट के एक ब्रांड का विज्ञापन है। विज्ञापन कुछ नहीं...बस एक खाली पन्ना. जिसमें एक चिट्ठी लिखी जा सकती है। अपने पिता के नाम....पीछे एक पंक्ति छपी है, कोई भी पुरुष बाप बन सकता है, लेकिन पिता बनने के लिए खास होना पड़ता है (मैंने नजदीकी तर्जुमा किया है, मूल पाठ हैः एनी मैन कैन बी अ फ़ादर, इट टेक्स समवन स्पेशल टू बी डैड

मुझे नहीं पता, कि फ़ादर, डैड और पापा में क्या अंतर है। मुझे ये भी नहीं समझ में आता कि आखिर बाबूजी (जिस नाम से हम सारे भाई-बहन आपके याद करते हैं) पिताजी और बाकी के संबोधनों में शाब्दिक अर्थों से कहीं कोई फ़र्क पड़ता है क्या। क्या बाप पुकारना डेरोगेटरी है?

लेकिन बाबूजी, बाजा़र कहता है कि डैड होने के निहितार्थ सिर्फ फ़ादर होने से अधिक है। आप होते तो पता नहीं कैसे रिएक्ट करते और मेरी इस चिट्ठी की भ्रष्ट भाषा पर मुझे निहायत नाकारा कह कर शायद धिक्कारते भी। लेकिन बाबूजी, आपको अभी कई सवालों के जवाब देने हैं।

आपको उस वक्त हमें छोड़कर जाने का कोई अधिकार नहीं था, जब हमें आपकी बहुत जरूरत थी। जब हमें अगले दिन की रोटी के बारे में सोचना पड़ता था, आपको उस स्वर्ग की ओर जाने की जल्दी पड़ गई, जिसके अस्तित्व पर मुझे संशय है।

मां कहती है, कि आपके गुण जितने थे उसके आधे तो क्या एक चौथाई भी हममें नहीं हैं। आप ही कहिए बाबूजी, कहां से आएंगे गुण? दो साल के लड़के को क्या पता कि घर के कोने में धूल खा रहे सामान दरअसल आपके सितार, हारमोनियम, तबले हैं, जिन्हें बजाने में आपको महारत थी। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी...कि कागज़ों के पुलिंदे जो आपने बांध रख छोड़े हैं, उनमें आपकी कहानियां, कविताएं और लेख हैं।... और उन कागज़ों का दुनिया के लिए कोई आर्थिक मोल नहीं। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी कि आपने सिर्फ रोशनाई से जो चित्र बनाए, उनकी कला का कोई जोड़ नहीं। 

बाबूजी, दो साल का लड़का जब बड़ा होता गया, तो उसका पेट भी बढ़ता गया। उसकी आँखों के सामने जब सितार, हारमोनियम तबले सब बिकते चले गए, कविता वाले कागज़ों के पुलिंदे और उसके बाबूजी के बनाए रेखा-चित्र दीमकों का भोजन बनते चले गए, तो बाबूजी ये गुण कैसे उसमें बढ़ेंगे।

मां कहती है, कि आप बहुत सौम्य, सुशील और नम्र आवाज़ में बातें करते थे। बाबूजी, मैं आपके जैसा नहीं बन पाया। मां कहती हैं मैं अक्खड़ हूं, बदतमीज हूं, किसी की बात मानने से पहले सौ बार सोचता हूं...बाबूजी अभी तो आप ऊपर से झांक कर सब देख रहे होंगे...जरा बताइएगा मैं ऐसा क्यों हूं? 

बाबूजी जब आप इतने गुणों (अगर सच में गुण हैं) से भरकर भी एक आम स्कूल मास्टर ही बने रह गए, तो हम से मां असाधारण होने की उम्मीद क्यों पाले है? उसकी आंखों का सपना मुझे आज भी परेशान करता है। बाबूजी मां को समझाइए, आप जैसे आम आदमी के हम जैसे आम बच्चों से वो उम्मीद न पाले। उससे कहिए कि वो हमें नालायक समझे।

डियर डैड, ये संबोधन शायद आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा। आज फादर्स डे है, कायदे से तो एक गुलदस्ता लेकर मुझे उस जगह जाना चाहिए था, जहां आपकी चिता सजाई गई थी, या उस पेड़ के पास जहां आपकी चिता के फूल चुनकर हरिद्वार ले जाने से पहले रखे गए थे। लेकिन बाबूजी, आपको याद करने के लिए मुझे किसी फादर्स डे या आपकी पुण्यतिथि, या मेरे खुद के जन्मदिन की जरूरत नहीं है। आप मेरे मन में है। 

बाबूजी, मरने के लिए बयालीस की उम्र ज्यादा नहीं होती। उस आदमी के लिए तो कत्तई नहीं, जिसका एक कमजोर सा बेटा सिर्फ दो साल का हो, और बाद में उस कमजोर बेटे को समझौतों से भरी जिंदगी जीनी पड़ी हो। जब सारी दुनिया के लोग अपने पिता की तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं, तो मुझे बहुत शौक होता था कि आप होते तो...बाबूजी मुझे पता है कि आप होते तो, जेठ की जलती दोपहरी में ज़मीन पर नंगे पांव नहीं चलना होता मुझे...आप मेरे पैर अपनी हथेलियों में थाम लेते। 

आपको बता दूं बाबू जी, आपके निधन के कुछ महीनों बाद ही लोगों ने हम पर दया दिखानी शुरु कर दी थी...मुहल्ले वाली मामी ने जूठी दूध का गिलास भी देना चाहा था...मुझे पता है बाबूजी, आप होते तो किसी कि इतनी हिम्मत नहीं होती। अब तो आप जान गए होंगे न कि क्यों इतना अक्खड़ हो गया है आपका वो कमजोर दिखने वाला बेटा।

आप चले गए, नाना जी ने रुआंसा होकर कहा था उनकी उतनी ही उम्र थी। मैं नहीं मानता...आपको इस कदर नहीं जाना चाहिए था...चिलचिलाते जेठ में, ऐसे लू वाले समाज में आप छोड़ गए हमें...क्यों बाबू जी?

मुझे बहुत शिकायत है बाबूजी, बहुत शिकायत है....

आपका बेटा 
(आज्ञाकारी नहीं , कत्तई नहीं)

Wednesday, June 12, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः उफ़्! गुलबर्गा

गुलबर्गा जिस दिन पहुंचा था, सुबह थी। सुबह में तो कहीं का मौसम बड़ा प्यारा होता है। दिल्ली का भी। सुबह-सुबह पहुंचे और जिस रास्ते से पहुंचे उसके किनारे पेड़ लगे हुए थे। हरियाली थी थोड़ी...

हरियाली और खूबसूरती में बंगलोर ज्यादा बेहतर है। कर्नाटक में जैसे-जैसे उत्तर की तरफ जाएंगे, हरियाली भी कम होती जाती है और संपन्नता भी। उत्तरी कर्नाटक सूखे से त्रस्त होता है। लेकिन वो किस्सा फिर कभी।

अभी तो बंगलोर के उस लाल बाग का जिक्र, जहां हम भरी दोपहरी में गए थे।

बंगलोर के लाल बाग में, थोड़ा स्टाइल, थोड़ी नौटंकी, फोटोः बनवारी लाल


गरम धूप चेहरे पर तीखी किरचों की तरह लग रही थी, लेकिन गरमी के बावजूद कुछ फूल अपने अंदाज में मुस्कुरा रहे थे।

पीले फूल हरी पृष्ठभूमि में, गजब का कंट्रास्ट है। फोटोः मंजीत ठाकुर

इस गरमी में भी कुछ लोग लाल बाग में घूम रहे थे, जाहिर है वो हम जैसे दीवाने तो नहीं थे कि बिना छतरी और टोपी के घूमें। वैसे हमारे कैमरा सहायक टोपी लगाए हुए थे, लेकिन यह जरूरी भी था, सीधी धूप उनके खल्वाट सर पर पड़ती तो मस्तिष्क गरम हो सकता है।

कुछ ऐसा दिखता है बंगलोर का लाल बाग, पिछला हिस्सा फोटोः मंजीत ठाकुर



पूरे बाग़ में माहौल पारिवारिक ही था, दिल्ली के लोदी गार्डन या बुद्ध जयंती पार्क या कोलकाता के विक्टोरिया मेमोरियल से अलहदा।  थोड़ा सूरज तिरछा हुआ, वक्त के साथ, तो बादलों को मौका मिल गया। तालाब जैसी बेकार की चीजें और गुलमोहर जैसे रोज मुलाकात होने वाले पेड़ों और बांस की झुरमुटों को देखकर हमें लगा कि अब हमें बैठ जाना चाहिए।

एक पहाड़ी जैसा है, उस पर कोई मंदिर बना है। जाहिर है, हमारे काम का न था। पत्थर पर बैठे तो लगा कि पिछवाड़ा रोटी की तरह सिंक गया हो, आखिर पत्थर तवे की तरह गरम भी थे।
पत्थर तवे की तरह गरम था, फफोल नहीं पड़े यही गनीमत रही। फोटोः विनोद ओझा


बहरहाल, हम बंगलोर में बहुत तो घूम नहीं पाए, क्योंकि वक्त काफी कम था। लेकिन, हवाखोरी कर ही ली थी।

गुलबर्गा में मेरी बालकनी में झांकता इमली के पत्ते शिकायत कर रहे हैं। कहां गुलबर्गा कहां बंगलोर। मैं डांटने की मुद्रा में हूं, मैं क्या करूं...दिल्ली तक बात नहीं पहुंचती तो मैं क्या करूं...ये कहानी तुम्हारी ही नहीं है, झारखंड, बुंदेलखंड, जंगल महल, दंतेवाड़ा, अबूझमाड़, मेवात, कालाहांडी...विकास की खाई हर जगह मौजूद है।

इमली का पेड़ आशाभरी निगाहों से देख रहा है। मैं कहता हूं, मैं महज क़िस्साग़ो हूं, कहानी कह दूंगा, इसके असरात पर मेरा क्या मेरे बाप का भी बस नहीं।

भाप भरी गरमी से पेड़ भी हलकान है..मैं भी। उफ़् गुलबर्गा।

Tuesday, June 11, 2013

आडवाणीः काल के कपाल पर

लाल कृष्ण आडवाणी को भारतीय राजनीति में कुछ जगह तो जरूर मिलेगी, आडवाणी  बीजेपी में शनैः शऩैः अप्रासंगिक होते जाएंगे। हर उम्रदराज़ होते नेता की नियति होती है। लेकिन इतिहास में उनकी वक़त बरकरार रहेगी।

उनके राजनैतिक जीवन का टाइम लाइन कुछ इसतरह हैः

1947: कराची में आरएसएस के सचिव चुने गए।

1951--भारतीय जनसंघ के सदस्य बने, 1975 में अध्यक्ष बने।

1975-77--जनसंघ का आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी  में विलय,  चुनाव के बाद मोरारजी देसाई की सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री बने

1979-80--जनसंघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं ने जनता पार्टी छोड़ी, जनता पार्टी टूटी, भारतीय जनता पार्टी की स्थापना

1986--आडवाणी  बीजेपी के अध्यक्ष बने

1989--बीजेपी की मदद से केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी, आडवाणी ने रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू किया।

1992--आडवाणी की रथ यात्रा शुरू, बिहार के समस्तीपुर में लालू ने गिरफ़्तार किया, 6 दिसंबर को विवादित ढांचे का ध्वंस

1998, 1999-04---एनडीए को सत्ता मिली, आडवाणी गृह मंत्री बनाए गए। बाद में उप-प्रधानमंत्री बने। इस दौर में, कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ हुई। हवाला कांड सामने आया, बाद में हवाला कांड में आडवाणी को सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया

2004--आडवाणी को पीएम बनाने की मंशा से समयपूर्व चुनाव, एनडीए की चुनावों में हार, आडवाणी लोकसभा में विपक्ष के नेता बने। इस दौर में उमा भारती और मदन लाल खुराना ने विद्रोह किया, मुरली मनोहर जोशी ने आडवाणी की आलोचना की,

2005--आडवाणी का पाकिस्तान दौरा, जिन्ना की तारीफ में कशीदे काढ़े, आडवाणी और आरएसएस में खाई उजागर, आडवाणी ने बीजेपी अध्यक्ष पद छोड़ा, राजनाथ बीजेपी अध्यक्ष बने

2007--आडवाणी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया गया।

2009--एनडीए दोबारा चुनाव हारी, आडवाणी को किनारे किया गया, सुषमा स्वराज लोकसभा में विपक्ष की नेता बनीं



मोदी, नए जमाने के आडवाणी हैं।


अब आडवाणी बीता हुआ युग हैं। मुझे नहीं पता कि आडवाणी के मन में क्या है, लेकिन सबसे ताज्जुब की बात है कि आडवाणी खुद को सेक्युलर घोषित करने में कामयाब हो गए, और विभिन्न राजनैतिक दलों में उनकी स्वीकार्यता भी साबित हो गई है। यानी एनडीए प्लस की बात हो तो आडवाणी मोदी की बनिस्बत ज्यादा स्वीकार्य होंगे। 

इस्तीफा आडवाणी का तुरूप का पत्ता है। 
इस्तीफा, आडवाणी के तुरुप का पत्ता है।
 बहरहाल, बीजेपी के हालिया मूव पर गौर करें तो देखेंगे कि मोदी को प्रचार समिति की कमान सौंपकर मोदी की अहमियत साबित कर ही दी गई है। लेकिन, यह भी ध्यान देने लायक बात है कि पार्टी ने उनको अभी तक प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। वह ऐसा कदम होगा जिससे पार्टी को सिर्फ मोदी के नाम पर वोट खींचने होंगे, फिर भी मोदी पोस्टर बॉय तो बन ही चुके हैं।

लेकिन क्या मोदी का भविष्य भी आडवाणी सरीखा ही होगा..? मोदी की भी छवि आडवाणी सरीखी ही है, आडवाणी भी विभाजनकारी और उग्र-आक्रामक राजनीति के लिए जाने जाते थे और मोदी ने भी अपनी वक़त 2002 के गुजरात दंगों के बाद ही बढ़ाई। ध्यान दीजिए कि आडवाणी ने 80 और 90 के दशक में रथयात्राएं की थीं, और तब उनका भी ध्रुवीकरण पैदा करने में असर आज के मोदी जैसा ही था।

अस्सी और नब्बे के दशक में आडवाणी ने रथयात्राओं के ज़रिए देश में जनता को ध्रुवीकृत किया था, जिसके बाद दंगों का इतिहास है। इन यात्राओं का परिणाम अय़ोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस में हुआ था। इसका एक परिणाम 1993 में मुंबई धमाकों में हुआ था। बहरहाल, 1984 में  दो सीटों से 1996 में 161 सीटों तक पहुंचाने में आडवाणी का वाजपेयी के साथ मिलकर किया योगदान बीजेपी के इतिहास में अविस्मरणीय होना चाहिए था।

सबको पता ही है कि इतनी मेहनत के बावजूद जब पीएम चुनने का वक्त आया तो पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी पर मुहर लगाई थी। वाजपेयी की छवि उदार थी, यह कहने की जरूरत नहीं।
तो क्या मोदी को भी क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व के इस दौर में ऐसी ही स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है?

सन् 1991 के आम चुनाव में, राष्ट्रीय दलों का कुल मतदान में वोट शेयर 81 फीसद था। लेकिन साल 2009 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े बताते है कि कांग्रेस को 29 फीसद और बीजेपी को 19 फीसद वोट मिले हैं।

मोदी को पीएम प्रत्याशी घोषित करके शायद बीजेपी को हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की उम्मीद होगी। हालांकि हिंदू वोट शायद ही कभी ध्रुवीकृत होते हैं। यह हमेशा जातियों में बंटकर वोट करता है। कभी जाट बनकर, कभी लिंगायत, कभी यादव और कम्युनिस्ट बनकर।

वैसे मोदी को हल्के में नहीं लिया जा सकता, लेकिन फिलहाल तो उनको पीएम इन वेटिंग ही रहना पड़ेगा...ठीक आडवाणी की तरह।

Wednesday, June 5, 2013

चौधरी का ब्याह, गांव बलहा, मधुबनी

शादी का मसला बड़ा नाजुक होता है. हमारे एक दोस्त का हाल ही में ब्याह हुआ है। नहीं, उनके ब्याह में कोई लोचा नहीं हुआ, लेकिन दोस्ती निभाना कई दफा कितना कष्टप्रद होता है, इसका तजुर्बा हुआ हाल ही में।

चौधरी जी मेरे मित्र हैं। उनकी तरफ से कोई गलती नहीं हुई, ये पहले ही बता दूं।

शुरू से शुरू करते हैं। मई में गांव गया था, मधुबनी के पास है, बल्कि यूं कहें राजनगर के पास है मेरा गांव। मिथिला। गांव जाने का बहुत दिनों से इंतजार कर रहा था। मज़ा भी बहुत आया। बहुत सारे मांगलिक कार्य ते निबटा दिए।

26 मई को मेरे उन दोस्त का ब्याह थे। बारात जाने की इच्छा थी। (हम मैथिल हैं और भोज खाने में हमारी बड़ी  महारत है, खाते भी अच्छे से हैं, आप भोज पर बुला सकते हैं) लेकिन घरेलू काम में व्यस्त रहा बारात नहीं जा पाया।

तय र हा कि 27 की सुबह जाकर उनसे मिलूंगा। लेकिन 27 की सुबह से मिथिला क्षेत्र में इतनी भारी बरसात शुरू हुई कि जाने का कार्यक्रम टल गया।

बारिश थी कि रूक ही नहीं रही थी, तेज़ हवाएं, लगातार होती बारिश...लेकिन मित्र का ब्याह हमारे गांव के पड़ोस में ही हुआ था। जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। आखिरकार 30 तारीख को बारिश रूकते न रूकते मैंने अपने भतीजे मयंक को रथ निकालने को कहा।

हमारा रथ हीरो होंडा का है। बड़ी भरोसेमंद गाड़ी है। चालक भी भरोसेमंद था। बादलों के घेरे में, ठंडी हवा के थपेड़ों के बीच हम गांव बलहा के लिए निकले।

हमारे गांव से राजनगर की तरफ जाने वाली दो सड़कें हैं। एक खडंजे की दूसरी पक्की। डामर वाली सड़क हमने पकड़ी...अगल बगल फैली हरियाली से मिजाज प्रसन्न हो गया।

डामर वाली सड़क तक नीतीश साधुवाद के पात्र बने रहे, सड़क आगे जाकर खडंजे में तब्दील हो गई। बाईक टलमलाती हुई चल रही थी। आगे जाकर, खडंजा भी खत्म हुआ, सड़क बन रही थी। बड़े बड़े बोल्डर पड़े थे। लगा चले तो टायर पंक्चर हो जाएंगे।

बीच में दो जगह पुलें बन रही थीं, डायवर्जन पर खासी फिसलन थी। चप्पलें कीचड़ में सन गईं।

उतर कर हमने बाइक को ठेलना शुरू किया। एक किलोमीटर तक चलने के बाद बलहा गांव की सीमा में प्रवेश किया। अब समस्या थी कि चौधरी जी की ससुराल कैसे खोजी जाए। उनके श्वसुर जी के नाम से पूछा, तो पता लगा कि कई सारे टोले हैं गांव में। फिर चौधरी से फोन किया तो पता लगा उत्तरी टोले में ससुराल है उनकी।

खैर, अंधेरे के भ्रष्टाचार की तरह फैलते साम्राज्य के बीच हम उनके घर के आगे पहुंचे, तो चौधरी जी खुद अगवानी करने पहुंचे। चौधरी जी कशीदे वाले गुलाबी कुरते और लाल धोती में जंच रहे थे।

उनके अंदर गए तो पहला हमला उनके छोटे साले ने किया। उनने हमसे अनुरोध नहीं किया आदेश सुनाया, आपको खाना खाकर जाना होगा। मछली बन रही है। मछली खाने में हम कभी इनकार नहीं करते, लेकिन मौसम का मिजाज दुश्मन सरीखा हो रहा था। मेघों का गला भी रूंध रहा था,पता नहीं कब रो देते।

चाय पीकर और चौधरी जी की श्रीमती जी से दुआ-सलाम करके हम किसी तरह निकलना चाहते थे। लेकिन उनके साढ़ुओं (उनकी बड़ी सालियों के पतियों) ने रोक लिया। वो दालान में मछली तल रहे थे।

वरिष्ठ बहनोईयों का कर्तव्य होता है कि छोटी साली के विवाह में मछली तलें।

खैर, उनसे कुशल क्षेम हुई, पत्तल भर तली मछली डकारने के बाद मयंक ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। इसबार हमने दूसरा रास्ता पकड़ने का फ़ैसला किया था। रशीदपुर के रास्ते।

रास्ता गांव के बाहर जाते ही सांप की जीभ की तरह दो फांक हो गया। दूसरा रास्ता एक छोटे पुरवे के बाद रसीदपुर को जाता था। हमने वो राह पकड़ी। रास्ते में घनी अमराईयां थीं।

मयंक बच्चा ही है। महज 20 साल का। उसने रास्ते में बताया कि उसको भूतों से डर लगता है। हमने कहा कि हम हैं ना। उसको मुझ पर जरा भी भरोसा नहीं था, उसे कत्तई नहीं लगा होगा कि मैं भूतो का मुकाबला कर सकता हूं, क्योंकि उसी दोपहर क्रिकेट मैच खेलते वक्त में बहुत सस्ते में आउट हो गया था और उसकी टीम हार गई थी।

बहरहाल, टोले के बाद खडंजे की सड़क कच्ची-सी दिख रही थी। नहीं, दिख नहीं रही थी, घने घुप्प अंधेरे में क्या खाक़ दिखेगा..हमें महसूस हुआ कि अरे यह तो कच्ची है। मुंह के भारी-सी वज़नी गाली निकली।

कोने के दालान पर बैठे शख्स से पूछा, रशीदपुर कितनी दूर। उसने जवाब दिया, सड़क ठीक रहे तो दस मिनट में आप पहुंच जाएंगे, लेकिन...

हमने उसके  लेकिन पर ध्यान नहीं दिया। बारह-पंद्रह फुट के बाद ही हम लोग घुटनों क कीचड़ में थे। गाड़ी स्किड कर रही थी। उतरने के बाद भी बाईक स्किड कर रही थी। गाड़ी हमने स्टार्ट ही रखी...ताकि कम से कम रौशनी में दिखता रहे, रास्ते में इक्का-दुक्का लोग मिले भी तो हमने पूछा, रशीदपुर कितनी दूर।

सबने एक ही जवाब दिया, कनिके दूर (थोड़ी ही दूर)

लेकिन, सब झूठे थे। हम चलते जा रहे थे, चल नहीं रहे थे, हम गाड़ी के साथ घिसट रहे थे, गाड़ी हमारे साथ घिसट रही थी, कभी हम गाड़ी से लिपटते, कभी गाड़ी हमसे लिपटती। ऊपर से आम के घने बागीचे...आसमान से बूंदें टपकती, कौंधती रौशनी..गड़गड़ाहट...भुतहा फिल्मों का पूरा परिदृश्य..रामसे ब्रदर्स को हमारे इलाको को भादों की अमवस्या में जरूर चलना चाहिए।

साउंड इफैक्ट की थोड़ी कमी थी...वो कसर झींगुरों के कोरस और सियारों की हुंकारों ने पूरी कर दी। मयंक हनुमान चालीसा पढ़ रहा था, मैं नहीं पढ़ रहा था। काहे कि याद ही नहीं है...वैसे स्थियां ऐसी थीं कि पढ़ा जाना चाहिए था।

बारंबार फोन भी बज रहा था। फोन करने वालो का पता रहना चाहिए कि सामने वाला आदमी किस परिस्थिति में है। बेशर्मों ध्यान रखा करो। फोन किसी भी कीमत में नहीं उटाया जा सकता था।

बारिश में  फोन शर्तिया भींग जाता, दोयम, दोनों हाथ बाईक को पीछे से थामे हुए थे। इससे मैं बाईक को फिसलने से  बचा रहा था और खुद को भी। घुटने भर कीचड़ में उसी दिन धुली साफ पहनी जीन्स का कचरा हो गया। हमारे तरफ की मिट्टी और राजनीति बड़ी फिसलन भरी है। मिट्टी भी चिकनी है, और राजनीति भी।

खैर, डेढ़ घंटे तक बाईक खींचने और बाईक के साथ खिंचने के बाद रशीदपुर का वह कोना--टी पॉइंट--आया, जहां से हम पक्की सड़क पर चढ़ने वाले थे। लेकिन, वह मोड़ जीवन के जवानी के मोड़ सा था, जहां जरा-सी असावधानी से आदमी फिसल ही जाता है।

हम दोनों चचा-भतीजे तकरीबन कीचड़ में लोट ही गए थे कि टॉर्च पकड़े कुछ दयालु नौजवानों ने हमारी बाईक, और हमें  भी कीचड़ से खींच निकाला। हम पसीने से लथपथ थे, बारिश की बूंदो ने पूरे कपड़े तर कर दिए थे। पहियों और इंजने वाली जगह तकरीबन एक ट्रक कीचड़ लिथड़ा हुआ था। हाथ से कीचड़ की सफाई की।

सड़क के गड़ढे में जमा पानी से हाथ धोया, यह जानेत हुए कि उस गड्ढे में कई लोग मलत्याग के बाद धोते होंगे। तथापि कष्टों का अंत यहीं नहीं हुआ।

चौधरी जी के गांव में खाई मछली कब की पच गई थी। चौधरी जी अपनी चतुर्थी की तैयारियों में व्यस्त होंगे, उधर उनके मित्र इस घनघोर संकट में पड़े थे, पता होगा उनको?? नहीं ना।

तो साहब, बाईक स्टार्ट कर अपन जब चढ़े ही, तब ही इंद्र देवता ने घनघोर बरसात शुरू कर दी। पता नहीं इंद्र मुझसे जलता क्यों है,मुझे देखते ही उसका सिंहासन डोलने लगता है।

वहां से महज 8 किलोमीटर है हमारा गांव, लेकिन जनाब छक्के छूट गए। पूरा रास्ता ऐसा है जिसमें टिकने केलिए कोई जगह नहीं, ना सड़क के ऐन किनारे कोई पेड़. पेड़ नीचे हैं, जहां झाड़ियों में शंकर जी का सांप मुलाकात के लिए मौजूद होता।

गांव पहुंचे तो भाभी से गुजारिश की कि गरमागरम कॉफी पिलाई जाए। भैया काफी परेशान थे, कि इतनी रात को बलहा से लौटेगा कैसे..लेकिन हम लौट आए।

बारिश में लौट तो आए, लेकिन ऐसी खांसी लेकर लौटे, तेज़ जुकाम हुआ और जनाब 5 दिन बीतने के बात आज भी ऐसे खांस रहे हैं, कि कई मित्रों को लग रहा है कि तपेदिक का मरीज तो नहीं हो गया।

चौधरी साहब, प्रायश्चित करना होगा आपको इसका...समझे आप। आपके ब्याह में जाकर हमने भी किसी न किसी पाप का प्रायश्चित ही किया होगा।