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Sunday, April 12, 2020

लॉकडाउन डायरीः अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान

लॉकडाउन के अकेलेपन ने हमसे बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ दिया है. धरती की आबो-हवा भी थोड़ी साफ हुई है, पर इस बात का अलग तरह से विश्लेषण करने की भी जरूरत है. पीएम ही एकमात्र प्रदूषक नहीं है. इस साफ आबोहवा में हमें आत्मविरीक्षण करने की जरूरत है कि 15 अप्रैल के बाद क्या होगा और सबसे जरूरी, कोरोना के बाद की दुनिया हम कैसी चाहते हैं. 

लॉकडाउन का, आसमान जाने, कौन-सा दिन है. दो-ढाई हफ्ते बीत गए हैं. तारीखों के बीच की रेखा धुंधली होकर मिट गई है. शुक्र हो, शनीचर हो या इतवार... क्या फर्क पड़ना है! यहां तक कि इतने बड़े महानगर में माचिस की डिबिया जैसे फ्लैट में, जहां बमुश्किल ही सूरज की किरनें आती हैं, दिन और रात का फर्क भी खत्म हो गया है.

हम सब वक्त के उस विमान में बैठे हैं जो लगता है कि स्थिर है, पर आसमान में बड़ी तेजी से भाग रहा है. कइयों के लिए वक्त नहीं कट रहा, वे एक मिनट में पंखे के डैने कितनी बार घूमता है इसका ठट्ठा कर रहे हैं. पर, वक्त के साथ उनके ठट्ठे धीमे पड़ते जा रहे हैं.

हम सबके बीच अकेलेपन का स्वर अब सीलने लगा है, भींगने लगा है. जैसे जाड़ों की सुबह चाय की कप की परिधि पर जम जाता है. हम उदास भारी सांसें लिए बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करते हैं. अपने कंप्यूटर पर हम बार-बार काम निबटाने बैठते हैं. काम खिंचता जाता है. नेट की स्पीड कम होती जा रही है. लोगों ने नेट पर फिल्में और वेबसीरीज देखनी शुरू कर दी है. समय की स्पीड की नेट की स्पीड की तरह हो गई है. बीच-बीच में समय की भी बफरिंग होने लगती है.


दिल्ली का आसमान, लॉकडाउन के दौरान, फोटोः मंजीत ठाकुर

बॉस का आदेश है, हमें अच्छी खबरें खोजनी चाहिए. कहां से मिलेंगी अच्छी खबर? दुनिया भर में मौत का आंकड़ा एक लाख के करीबन पहुंचने वाला है. एक लाख! हृदय कांप उठता है. एक लाख अर्थियां! एक लाख कब्रें! एक लाख परिवारों की पीड़ा. क्या आसमान का हृदय नहीं फट पड़ेगा?

मैं देखता हूं निकोटिन के दाग से पीली पड़ी मेरी उंगलियों से पीलापन मद्धम पड़ता जा रहा है. लग रहा है मेरी पहचान मिट रही हो. आखरी कश लिए तीन हफ्ते निकल गए हैं.

तीन हफ्तों में मैं जान गया हूं कि मेरी बिल्डिंग में मेरी फ्लैट के ऐन सामने दो लड़के रहते हैं, दोनों दिन भर सोते हैं और रात को उनके कमरे की रोशनी जलती रहती है. मुझे हाल ही में पता चला है कि एक पड़ोसी है जिसके घर में दो बच्चे हैं. उनमें एक रोज सिंथेसाइजर बजाता है. मुझे पता नहीं था. सुबह नौ बजे रोज कैलाश खेर की टेर ली हुई आवाज़ में सफाई के महत्व वाला गाना बजाती कूड़े की गाड़ी आती है. मैं पहले उसकी आवाज नहीं सुन पाता था.

मेरी बिटिया को ठीक साढ़े नौ बजे रात को सोने की आदत है और मुझे यह भी पता चला है कि उसको सोते वक्त लोरी सुनने की आदत है.

अच्छी खबरों की तलाश में आखिरकार एक अच्छी खबर मिलती है. कोरोना के इस दौर में भी सुकून की एक खबरः धरती मरम्मत के दौर से गुजर रही है. चीन का एसईजेड, जिसको दुनिया का सबसे प्रदूषित इलाका माना जाता था, वहां की हवा में नासा बदलाव देखता है. नासा कहता है वहां की हवा साफ हो रही है. नासा की खबर कहती है वेनिस के नहरों का पानी फिर से पन्ने की तरह हरा हो गया है जिसमें डॉल्फिनें उछल रही हैं. गांव के चौधरी की निगाह हर जगह है. बस चौधरी अपना गांव न बचा पाया. कल तक सुना था करीब 15 हजार अमेरिकी मौत के मुंह में समा गए. मैंने सुना है, अमेरिका अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क रहता है. क्या सब निबट जाए तो अमेरिका, चीन से बदला लेगा? हम तीसरे विश्वयुद्ध की प्रतीक्षा करें?

वेनिस की नहरें तो साफ हो गईं और अपने हिंदुस्तान में क्या होगा? गंगा-यमुना साफ होगी? मुंबई के जुहू बीच पर भी दिखेगी डॉल्फिन? पर नीला आसमान तो सबको दिख रहा है. दिल्ली में लोग सुपर मून, पिंक मून की तस्वीरें सोशल मीडिया पर उछाल रहे हैं. कुछ कह रहे हैं उन्हें परिंदो की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. लोग खिड़कियों के पास बैठे परिंदे देख रहे हैं.

मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली स्काईमेट जैसी एजेंसी कह रही है, गुरुग्राम से लेकर नोएडा तक पार्टिक्युलेट मैटर (पीएम) की मौजूदगी हवा में कम हुई है. यह कमी लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले 60 फीसद तक है.

जाहिर है, यह लॉकडाउन का असर है. तो फिर 15 अप्रैल के बाद क्या होगा? हालांकि प्रदूषण का स्तर नीचे गया है पर यह तो सिर्फ पीएम के स्तर में कमी है. वैज्ञानिक स्तर पर देखें, तो कारें प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है. कम से कम दिल्ली में तो ऐसा ही है. पर किसी भी सियासी मसले के हल के लिए सिर्फ पीएम (प्रधानमंत्री) और किसी भी प्रदूषणीय मसले के लिए पीएम (पार्टिक्युनलेट मैटर) के भरोसे रहना अनुचित होगा. हमको सल्फर ऑक्साइड आधारित और नाइट्रोजन ऑक्साइट आधारित प्रदूषकों पर भी नजर रखनी चाहिए.

अभी तो प्रदूषण के मसले पर हमारी आपकी स्थिति वैसी ही है, जैसे कबीर कह गए हैं

अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान

ऊंचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान.

लोग लोहे की चोरी करते हैं और सूई का दान करते हैं. तब ऊंचे चढ़कर देखते हैं कि विमान कितनी दूर है. अल्पदान करके हम सोच भी कैसे सकते हैं कि हमें बैकुंठ की ओर ले जाने वाला विमान कब आएगा?

हमने प्रदूषण को लेकर कुछ नहीं किया. न हिंदुस्तान ने, न चीन ने, न इटली ने...न चौधरी अमेरिका ने. हमने साफ पानी, माटी और साफ हवा के मसले को कार्बन ट्रेडिंग जैसे जटिल खातों में डालकर चेहरे पर दुकानदारी मुस्कुराहट चिपका ली है. कोप औप पृथ्वी सम्मेलनों में हम धरती का नहीं, अपना भला करते हैं.

याद रखिए, यह कयामत का वक्त गुजर जाएगा. बिल्कुल गुजरेगा. फिर खेतों में परालियां जलाई जाएंगी और तब हवा में मौजूद गैसों की सांद्रता ट्रैफिक के पीक आवर से समय से कैसे अलग होती हैं उसका विश्लेषण अभी कर लें तो बेहतर.

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Wednesday, March 6, 2019

कश्मीर में भिखारी क्यों नहीं होते?

8 जुलाई, 2016 को जब कश्मीरी आतंकवादियों के पोस्टर बॉय बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने एक मुठभेड़ में मार गिराया था. उस वक्त मैं श्रीनगर में था और हफ्ते भर पहले अमरनाथ यात्रा शुरू हुई थी. मैंने अमरनाथ गुफा तक की यात्रा बालटाल और पहलगाम दोनों रास्तों से की थी और तब घाटी के विभिन्न इलाकों में रिपोर्टिंग के वास्ते घूमा भी था.

उस साल ईद 6 या 7 तारीख की हुई थी और मैं कश्मीरी सिवइयों का स्वाद लेने डल झील के पास के बाजार में घूम रहा था और वहीं एक भिखारी कुछ मांगने आ गया. कश्मीरी पंडित मूल की एक साथी पत्रकार ने तब मुझे बताया था कि कश्मीरी लोग भीख नहीं मांगते और बाहरी (खासकर बिहारी लोग) आकर कश्मीर की समृद्ध फिजां में भीख मांगने की रवायत शुरू कर रहे हैं.

वैसे, मैंने कश्मीर घाटी में कहीं मकान झोंपड़ानुमा नहीं देखे. हर जगह मकान बढ़िया बने थे. जबकि इसकी तुलना में उत्तर भारतीय राज्यों का लैंडस्केप ज्यादा टेढ़ा-मेढ़ा है, गुरबत और धूल-धक्कड़ से भरा है.

तब से यह सवाल मेरे जेहन में लगातार घूम रहा था कि क्या वाकई कश्मीरी लोग भीख नहीं मांगते? और अगर उस पत्रकार की बात सच थी तो क्यों नहीं मांगते?

जबकि, सरकारी आंकड़े कश्मीर की आर्थिक स्थिति का कुछ और ही खुलासा दे रहे हैं. आंकड़े बता रहे हैं कि कश्मीर में 2014 के बाद से आतंकवाद में इजाफा हुआ है. सिर्फ 2018 की बात करें तो कश्मीर घाटी में 614 आतंकी घटनाएं हुईं हैं. जबकि 2014 में 222 हुई थीं. 2018 में 257 आतंकवादी मारे गए हैं और 2014 में 110 आतंकवादी ढेर किए गए थे.

इसीतरह पाकिस्तान ने भी घाटी में अपनी गतिविधियां तेज की हैं. 2016 से 2018 के बीच 398 आतंकियों ने कश्मीर में घुसपैठ की. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर के मुताबिक, 686 आतंकवादी मारे गए और 56 पकड़ लिए गए.

वैसे, कश्मीर में वहां बेरोजगारी की दर भी बाकी देश के औसत से कहीं अधिक है. पर्यटन के आंकड़े भी गोते लगा रहे हैं. कश्मीर में 18 से 29 साल के आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 24.6 फीसदी है. जबकि बेरोजगारी में यह राष्ट्रीय औसत कोई 13.2 फीसदी है. जुलाई 2016 से जून 2017 के बीच 130 कार्यदिवसों का नुक्सान घाटी में हड़ताल और कर्फ्यू से हुआ था. इसकी अनुमानित लागत करीब 13,261 करोड़ रु. आंकी गई है.


जहां तक आर्थिक वृद्धि की बात है कश्मीर में वित्त वर्ष 2017 में 8.2 फीसदी की विकास दर दर्ज की गई थी. जबकि इसी अवधि के लिए राष्ट्रीय औसत 10.8 फीसदी रहा. कश्मीर का 2019 में राज्य जीडीपी करीबन 25 अरब डॉलर का है और देश के तमाम राज्यों के लिहाज से विकास की सीढ़ी पर कश्मीर 21वें पायदान पर है.

घाटी में पर्यटन भी गोते लगा रहा है. साल 2018 में कश्मीर में 8.5 लाख देशी और विदेशी सैलानी आए थे. 2017 की तुलना में यह 23 फीसदी कम है.

दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कश्मीर घाटी में आए बाढ़ के बाद राहत और ढांचागत विकास और स्वास्थ्य कल्याण और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 80,000 करोड़ रु. का पैकेज दिया था. फिर भी, इन आंकड़ो से एक बात साफ होती है कि कश्मीर की आर्थिक हालत खराब ही है.

सवाल है कि क्या बेहतर आर्थिक वृद्धि और विकास कश्मीर के नौजवानों में बढ़ते अलगाव को थामने में कामयाब होगा? संकेत हैं कि आर्थिक गतिविधियों के साथ ही खुले मन से बातचीत के रास्ते भी बढ़ाए जाने चाहिए. सवाल यह है कि केंद्र सरकार के पास बातचीत की कोई गुंजाइश बची है?

खराब आर्थिक हालत, बेरोजगारी और पर्यटन जैसे एकमात्र उद्योग के बिखरने के बावजूद कश्मीर में भिखारी क्यों नहीं हैं और बिहार-यूपी-झारखंड-बंगाल के लोग घाटी में जान जोखिम में डालकर भीख क्यों मांगते हैं, इसका उत्तर मिलना बाकी है.

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Tuesday, March 13, 2018

'ये जो देश है मेरा' पर विनय कुमार की प्रतिक्रिया

मूलतः विस्थापन और वंचित इलाकों के विकास को केंद्र में रखकर लिखी गई मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा', पर मेरे मित्र और अच्छे कथाकार विनय कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक पर लिखी है, आप सबके साथ साझा करने का लालच नहीं रोक पा रहा. उन्हीं के शब्दः

जब से इस पुस्तक 'ये जो देश है मेरा' के बारे में पता चला था, तब से इसे पढ़ने की तीव्र इच्छा थी. और पिछले हफ्ते जब यह पुस्तक मिली तो जैसे जैसे समय मिला, इसको पढ़ता गया. 

यह तो पहले से ही मालूम था कि 'ये जो देश है मेरा' न तो उपन्यास है और न ही कोई दिलचस्प कहानी संग्रह, लेकिन एक रिपोर्ताज भी आपको इतना प्रभावित करती है और अगर दूसरे शब्दों में कहें तो पढ़ने के बाद इतना विचलित कर देती है तो इसका मतलब साफ है, लेखक अपनी बात को उसी शिद्दत से कहने में सफल है, जितनी शिद्दत से उसने इसे रचा है. 

पांच खंडों वाली इस किताब 'ये जो देश है मेरा' को पढ़ना एक अलग हिंदुस्तान से रूबरू होना है जिससे आम मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय जनमानस बड़ी आसानी से अपना मुंह फेर लेता है. 

आज के तथाकथित विकसित हिंदुस्तानी समाज के एक ऐसे वर्ग के बारे में यह किताब 'ये जो देश है मेरा' न सिर्फ बताती है बल्कि पूरी ईमानदारी से हमें उन लोगों और उन क्षेत्रों से परिचित भी कराती है, जिसके विकास के नाम पर आज भी राजनीतिज्ञ अपनी दुकान चला रहे हैं और जिन्हें सरकारी तंत्र भी बड़ी आसानी से भुला देता है. और अगर यह लोग अपनी जायज मांगों के लिए आंदोलन करते हैं तो उसे बड़ी आसानी से नक्सली आंदोलन बताकर बेरहमी से कुचल दिया जाता है.
ये जो देश है मेरा


'ये जो देश है मेरा' किताब का पहला खंड ही पानी की कमी का ऐसा भयावह चित्र प्रस्तुत करता है कि दिल भविष्य के आसन्न संकट को लेकर कांप उठता है. 'ये जो देश है मेरा' के पांचों खंड अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों के बारे मे तथाकथित विकास का भयावह पहलू दिखाते हैं जिनके बारे मे कुछ करना तो दूर, सरकार सोचना भी गंवारा नहीं करती. 

कहीं कहीं किताब थोड़ी बोझिल भी हो जाती है लेकिन तथ्यों की ऐसी पड़ताल पढ़कर लेखक की मेहनत के बारे मे अंदाजा हो जाता है. 

कुल मिलाकर 'ये जो देश है मेरा' हर गंभीर पाठक के लिए पठनीय और संग्रहणीय किताब है जिसके लिए श्री मंजीत ठाकुर बधाई के पात्र हैं.