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Wednesday, September 11, 2019

हरियाणा के लोहारू किले का इतिहास खोजती है आदित्य सांगवान की डॉक्युमेंट्री फिल्म

हरियाणा के भिवाऩी के आदित्य सांगवान ने जब एक दिन फिल्मकार बनने का फैसला किया तो उनके पास विषय की कमी नहीं थी. बचपन के दिनों से ही वह रोज स्कूल जाते समय एक किले को देखा करते थे, जो सुनसान पड़ा रहता था. सांगवान जब बड़े हुए तो उस किले का इतिहास जानने की इच्छा जोर मारने लगी. फिर इस युवा फिल्मकार ने 18 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाई और उसे निर्देशित भी किया. भिवाऩी के उपेक्षित लेकिन शानदार और गौरवशाली इतिहास वाले लोहारू किले की कहानी कहने वाली उनकी फिल्म कई फिल्म महोत्सवों में दिखाई जा चुकी है. 

लोहारू किले को लोहारु के नवाबों ने 1802 में बनवाया था और यह बिट्स पिलानी से यह महज 10 किलोमीटर की दूरी पर है. सांगवान कहते हैं, " मैंंने फ़िल्म इसलिए बनाई क्योंकि लोहारू ही मेरा घर है. ये किला बहुत जीर्ण-शीर्ण हालत में था और हम चाहते थे इसकी मरम्मत की जाए और इसको पर्यटन स्थल की तरह विकसित किया जाए. ताकि लोहारू के लोगों को रोजगार मिल सके और यहां के इतिहास के बारे में लोगों को पता लग सके."
आदित्य सांगवान की फिल्म का पोस्टर. फोटो सौजन्यः आदित्य सांगवान


अब जबकि फिल्म बन गई है इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों का ध्यान खींचा है और 9 फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी यह फिल्म दो पुरस्कार भी जीत चुकी है.

लोहारू रियासत को अंग्रेजों के शासनकाल में 9 तोपों की सलामी दी जाती थी. सांगवान के मुताबिक, इस किले के स्थापत्य ने उनका मन मोह लिया, जिसमें बहुत किस्म की वास्तु शैलियों का मिश्रण है. यह किला 1971 तक नवाबों के अधिकार में रहा. आखिरी नवाब ने इस किले को सरकार के हाथों बेच दिया. उसके बाद से यह किला बेसहारा हो गया और उपेक्षित पड़ा रहा. 
लोहारू का वीरान पड़ा किला फोटो सौजन्यः आदित्य सांगवान

लोहारू से उर्दू-फारसी साहित्य का भी रिश्ता है और मिर्ज़ा ग़ालिब की पत्नी उमराव जान लोहारू के नवाब की बेटी थीं. मिर्जा गालिब प्रायः लोहारू आया करते थे. गालिब ही नहीं, गालिब के समकालीन एक और बड़े शायर दाग देहलवी का भी ताल्लुक इस किले से था. सांगवान कहते हैं, "अगर इस किले की मरम्मत की जाए और आम लोगों के लिए खोलकर पर्यटन के लिहाज से इसका प्रचार-प्रसार किया जाए तो लोग इसकी बेशकीमती इतिहास और विरासत को जान पाएंगे."

वे कहते हैं, "लोहारू में पर्यटन की संभावनाएं हैं क्योंकि यह हरियाणा और राजस्थान के बॉर्डर पर है और इस के आस-पास पिलानी ओर मंडावा जैसे पर्यटन स्थल हैं जहां पर काफी सैलानी आते-जाते हैं. इसको भी उस बेल्ट में जोड़ा जा सकता है. इसके लिए मैंने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से भी मुलाकात की थी. पर कोई खास परिणाम नहीं निकला. इस किले को लाईब्रेरी या कोई आर्ट सेंटर भी बना सकते हैं."

पहले पत्रकार रहे सांगवान की कला, संस्कृति, सिनेमा, संगीत और रंगमंच में गहरी रुचि है. फिल्म निर्माण का किस्सा बताते हुए वे कहते हैं, "इस फ़िल्म में काम करने वाले सभी आर्टिस्ट कॉलेज के छात्र थे. किसी ने सिनेमैटोग्राफी की है तो किसी ने फ़िल्म को डिज़ाइन किया है और किसी ने स्क्रिप्ट लिखी है. ये किला मेरे घर के पास होने की वजह से हमेशा से मुझे लगता था कि इस पर काम होना चाहिए तो जब मौका मिला तो फ़िल्म बना दी."
आदित्य सांगवान उभरते हुए फिल्मकार हैं.

वे कहते हैं, फिल्म बनाने के लिए इसमें दाखिल होना भी मुश्किल था. पूरी टीम को किले के अंदर दीवार फांदकर जाना पड़ा था. लेकिन यह चुनौती उतनी बड़ी नहीं थी. असली चुनौती थी इस किले से जुड़े तथ्यात्मक दस्तावेजों की कमी. ऐसे में सांगवान और उनके दोस्तों ने किले के आसपास रहने वाले लोगों से बातचीत शुरू की और इस किले के बारे में लिखी किताबों को ढूंढना शुरू किया. साथ ही किले के वास्तुकला, और नवाबों की जीवनशैली पर भी उन्होंने काफी शोध किया. सांगवान बताते हैं, "किले के बारे में रिसर्च के लिए लोहारू के नवाब खानदान से मिला और कई किताबें पढ़ीं. मिर्जा गालिब इंस्टीट्यूट से भी जानकारी मिली, कई ऐसे लोगों से मिला जो इस किले से जुड़े हुए हैं और इसके बारे में जानते हैं. मिसाल के तौर पर, जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे बदर दुरेज अहमद और लेखिका नमिता गोखले से भी काफी जानकारी मिली. लोहारू के बारे में लिखा हुआ इतिहास बहुत कम है तो लोगों से ही ज्यादा जानकारी मिली."

सांगवान की 18 मिनट की फिल्म ने 9 फिल्म महोत्सवों में दर्शकों का ध्यान खींचा है और 2 महोत्सवों में पुरस्कृत भी हुई है. अब सांगवान का सारा ध्यान अपनी अगली परियोजना पर है. पर, उनको उम्मीद है कि हरियाणा और केंद्र की सरकार लोहारू के लिए कुछ करेगी.

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Saturday, November 19, 2016

बेपानी सियासत में पानी की राजनीति

चुनावी वक्त में पानी की तरह रूपया ज़रूर बहाया जाता है लेकिन पानी को पानी की ही तरह बहाना मुद्दा है। ताजा विवाद पंजाब बनाम हरियाणा का है, जहां मसला सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद गहरा गया। शीर्ष अदालत ने पंजाब सरकार को बड़ा झटका देते हुए सतलज का पानी हरियाणा को देने का आदेश दिया था। लेकिन, गुरूवार यानी 17 नवंबर को उच्चतम न्यायालय पंजाब द्वारा सतलुज-यमुना संपर्क नहर के लिए भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने के शीर्ष अदालत के अंतरिम आदेश का कथित उल्लंघन करने के मामले में हरियाणा की याचिका पर 21 नवंबर को सुनवाई के लिए सहमत हो गया।

अदालत के सामने हरियाणा सरकार के वकील ने इस याचिका का उल्लेख करते हुए इस पर तुरंत सुनवाई का अनुरोध किया था। हरियाणा का कहना था कि नहर परियोजना के निमित्त भूमि पर यथास्थिति बनाए रखने का पंजाब सरकार को निर्देश देने संबंधी ऊपरी अदालत के पहले के आदेश का हनन करने के प्रयास हो रहे हैं।

हाल ही में पंजाब सरकार ने इस परियोजना के निमित्त अधिग्रहीत भूमि को तत्काल प्रभाव से अधिसूचना के दायरे से बाहर करने और इसे मुफ्त में इसके मालिकों को लौटाने का फैसला किया था। राज्य सरकार का यह निर्णय काफी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि न्यायमूर्ति दवे की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने पिछले सप्ताह पंजाब समझौता निरस्तीकरण, 2004 कानून को असंवैधानिक करार दिया था। इस कानून के जरिए ही पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने संबंधी 1981 के समझौते को एकतरफा निरस्त कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी राय में कहा था कि पंजाब समझौते को ‘एकतरफा’ निरस्त नहीं कर सकता है और न ही शीर्ष अदालत के निर्णय को ‘निष्प्रभावी’ बना सकता है।

वैसे, पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज यमुना के जल-बंटवारे को लेकर विवाद पचास साल से भी ज्यादा पुराना है। पंजाब सरकार का पक्ष है कि उनके सूबे में भूमिजल स्तर बेहद कम है। अगर पंजाब ने सतलुज-यमुना नहर के जरिए हरियाणा को पानी दिया तो पंजाब में पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। वहीं हरियाणा सरकार सतलुज के पानी पर अपना दावा ठोंक रही है।

चुनावी वक्त में पानी ने पंजाब की राजनीति को गरमा दिया है। इस मुद्दे पर पंजाब के विधायकों और कुछ सांसदो ने इस्तीफे का दौर भी चला।

दरअसल, इस विवाद की शुरूआत तो सन् 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के साथ ही हो गई थी। इसी साल हरियाणा राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पंजाब और हरियाणा के बीच नदियों के पानी का बंटवारा तय नहीं हो पाया था।

उस वक्त, केन्द्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके तहत कुल 7.2 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में से 3.5 एमएएफ पानी हरियाणा को दिया जाना था। इसी पानी को हरियाणा तक लाने के वास्ते सतलुज-यमुना नहर (एसवाईएल) बनाने का फैसला हुआ। इस नहर की कुल लम्बाई 212 किलोमीटर है।

हरियाणा को पानी की जरूरत थी, सो उसने अपने हिस्से की 91 किलोमीटर नहर तयशुदा वक्त में पूरी कर ली। लेकिन, पंजाब ने अपने हिस्से की 122 किमी लम्बी नहर का निर्माण को अभी तक लटकाए रखा है। यही नहीं, पंजाब ने इसी साल यानी 2016 के मार्च में नहर निर्माण के लिए अधिग्रहीत ज़मीनें किसानों को वापस करने का फैसला कर लिया। इसका एक मतलब यह भी है कि पंजाब ने हरियाणा को पानी न देने की अपनी नीयत साफ कर दी।

नतीजतन, हरियाणा सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। शीर्ष अदालत ने पंजाब को यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। लेकिन अब इस मामले पर अन्तिम फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने नहर का निर्माण को पूरा करने का फैसला सुना दिया है।

हालांकि इसी तरह के रोड़े अटकाए जाने के दौरान अदालत 1996 और 2004 में भी यही फैसला सुना चुकी है। इस दौरान कांग्रेस और अकाली दल भाजपा गठबन्धन की सरकारें पंजाब में रहीं, लेकिन नहर के निर्माण को किसी ने गति नहीं दी। मसलन एक तरह से न्यायालय के आदेश की अवमानना की स्थिति बनाई जाती रही।

ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे को सुलझाने की कोशिशें नहीं हुईं। 31 दिसंबर, 1981 को केन्द्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक इसी मसले पर बुलाई थी। बैठक में रावी-व्यास नदियों में अतिरिक्त पानी की उपलब्धता का भी अध्ययन कराया गया।

इस समय पानी की उपलब्धता 158.50 लाख एमएएफ से बढ़कर 171.50 लाख एमएएफ हो गई थी। इसमें से 13.2 लाख एमएएफ अतिरिक्त पानी पंजाब को देने का प्रस्ताव मंजूर करते हुए तीनों राज्यों ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर भी कर दिए थे। शर्त थी कि पंजाब सतलुज-यमुना लिंक नहर बनाएगा। काम को तेज़ी के लिए तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 अप्रैल, 1982 को पटियाला जिले के कपूरी गाँव के पास नहर की खुदाई का भूमि-पूजन भी किया। लेकिन तभी सन्त लोंगोवाल की अगुआई में अकाली दल ने नहर निर्माण के खिलाफ धर्म-युद्ध छेड़ दिया। नतीजतन पूरे पंजाब में इस नहर के खिलाफ एक आंदोलन जैसी स्थिति पैदा हो गई।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव-लोंगोवाल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। जिसकी शर्तों में अगस्त 1986 तक नहर का निर्माण पूरा करने पर सहमति बनी। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में प्राधिकरण गठित किया गया, जिसने साल 1987 में रावी-व्यास के अतिरिक्त पानी को पंजाब और हरियाणा दोनों ही राज्यों में बांटने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला भी ठंडे बस्ते में चला गया।

जब पंजाब के मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला था, तो उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौते के तहत नहर का काम शुरू करवा दिया, लेकिन फिर पंजाब में उग्रवादियों ने नहर निर्माण में काम करने वाले 35 मजदूरों का नरसंहार कर दिया। बाद में नहर के दो इंजीनियरों की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद काम रूक गया।

1990 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हुकुम सिंह ने केन्द्र सरकार की मदद से नहर का अधूरा काम किसी केन्द्रीय एजेंसी से कराने की पहल की। सीमा सड़क संगठन को यह काम सौंपा भी गया, किन्तु शुरू नहीं हो पाया। मार्च 2016 में तो पंजाब ने सभी समझौतों को दरकिनार करते हुए नहर के लिये की गई 5376 एकड़ भूमि के अधिग्रहण को निरस्त करने का ही फैसला ले लिया।

लेकिन पंजाब में सियासी दल जिस तरह के रूख पर अड़े हैं, उससे यह कावेरी मसले की तरह के विवाद में बने रहने की ही आशंका है। लगता नहीं कि यह मुद्दा फौरी तौर पर सुलझ भी पाएगा।

एक बात साफ है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में सियासतदानों की नज़रें सिर्फ वोटों पर ही हैं, समावेशी विकास में पंजाब और हरियाणा एक साथ नहीं आ सकते, यह बात भी स्पष्ट हो रही है।




मंजीत ठाकुर

Saturday, February 14, 2015

दो टूकः बेटी है अनमोल

पहली तस्वीरः हरियाणा का पानीपत। 22 जनवरी। मंच पर प्रधानमंत्री, महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर मशहूर हीरोईन माधुरी दीक्षित हैं। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरूआत करते हैं। भाषण भावुक है। तालियां बजती हैं।
फोटो सौजन्यः गांव कनेक्शन

दूसरी तस्वीरः रायसीना पहाड़ी पर स्थित भव्य राष्ट्रपति भवन। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा सलामी गारद का निरीक्षण कर रहे हैं। उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दे रही हैं पूजा ठाकुर।

टेलिविज़न पर पूजा ठाकुर चमकते उन्नत भाल और आत्मविश्वास को देखकर घरों में तालियां बजती हैं। कई माएं अपनी बेटियों की बलाएं ले रही हैं, कई लड़कियों में कुछ कर गुज़रने की तमन्ना जागती है।

अब दीपा मलिक की बात। दीपा सोनीपत हरियाणा से पैरा-ओलिंपिक खिलाड़ी हैं और अर्जुन पुरस्कार जीत चुकी हैं। दीपा ने बताया कि उनके ससुराल में उनके खेलने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। हरियाणा में खेल की संस्कृति है। लड़की खेले, पदक जीते तो कोई बंधन नहीं। परदे का भी बंधन नहीं। 

विडंबना यही है कि इसी हरियाणा में खेल भावना चाहे जितनी हो, लड़कियों को लेकर भेदभाव भी उतना ही अधिक है। लिंगानुपात में सबसे अधिक अंतर और गर्भ में पल रही संतानों का लिंगनिर्धारण करने के लिए सबसे अधिक अल्ट्रा-साउंड मशीऩें इसी राज्य में हैं। नतीजतनः हरियाणा के बहुत सारे गांवों में लड़के कुंवारे बैठे हैं, उनको दुल्हन ही नहीं मिल रही। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ हो या सोनीपत लड़को को दुलहनियां खोजने बाहर तक जाना पड़ता है। बाहर के सूबों से गरीब घरों की लड़कियां ब्याह लाई जाती हैं। हरियाणा में इनको पारोकहा जाता है। किसी घर में मध्य प्रदेश की बहू है तो कहीं बंगाल की।

राजस्थान का किस्सा भी कुछ अलग नहीं है। बेटियों को भार समझने वालों ने कुछ ऐस कहर ढाया कि जैसलमेर के एक गांव देवड़ा में एक सौ बीस साल के बाद बारात आई।

मुझे कुछ और चीजें याद आ रही हैं। बचपन से मैं दुर्गा पूजा के दौरान धुंदुची डांस देखता आ रहा हूं। धुंदुची मतलब देवी दुर्गा की मूर्त्ति के आगे धूप-गुग्गल जलाकर भक्तों का नृत्य। इधर, उत्तर भारत में नवरात्र में माता के जागरण और माता की चौकी की परंपरा है।

इन दृश्यों पर कुछ आंकड़े सुपर-इंपोज हो जा रहे हैं। रेप की ख़बरें, कन्या भ्रूण हत्या की खबरें, और केरल छोड़कर देश के तकरीबन हर सूबे में तेजी से गिरता लिंगानुपात।

अब मैं यहां दो क़िस्से सुनाना चाहता हूं, पहली कहानी राजस्थान के उदयपुर की है। उदयपुर की मशहूर झीलों में जब नवजात बच्चियां मिलने लगीं, तो झील की खूबसूरती में दाग़-सा लग गया था।

ऐसे में सामने आए देवेन्द्र अग्रवाल। साल 2006 में कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों के बाद देवेन्द्र ने कन्याओं की मदद करने के लिए अपना मार्केटिंग करियर छोड़ दिया। उन्होंने महेश आश्रम में एक पालना रखवा दिया और नारा दिया, फेंकिए मत, हमें दीजिए।

इन नवजातों के बचाने के लिए सबसे बड़ी जरूरत होती है मां के दूध की और देवेन्द्र ने इसके लिए भी अनूठी पहल की। उन्होंने दुग्ध-दान आयोजित किया। इनमें प्रसूता माताएं आश्रम आकर अपना दूध दे जाती हैं, जिन्हें इन बच्चियों को पिलाया जाता है। उन मांओ की पहचान गुप्त रखी जाता है।

देवेन्द्र अग्रवाल बताते हैं कि उदयपुर में दुग्धदान सफल रहा है और एक बार तो 494 माताओं ने शिविर में आकर दुग्ध-दान किया था, इतनी बड़ी संख्या में तो कभी रक्तदान भी नहीं हुआ है।

साल 2007 से अब तक इसमें 110 बच्चियों लाई जा चुकी हैं। हालांकि राहत की बात यह है इनमें से 94 लड़कियों को किसी न किसी दंपत्ति ने गोद ले लिया है।

राजस्थान नवजात कन्याओं की हत्या के मामले में कुख्यात है और हरियाणा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने के। राजस्थान में लिंगानुपात 883 लड़कियों का है।

दूसरा क़िस्सा हरियाणा के झज्जर का है जहां साल 2011 में लिंगानुपात 774 था। तब वहां के जिलाधिकारी अजीत बालाजी जोशी ने जिले के सभी 39 अल्ट्रासाउंड केन्द्रों को एडवांस एक्टिव ट्रैकर से जोड़ दिया। यानी जितने भी अल्ट्रासाउंड केन्द्र थे वहां होने वाले हर अल्ट्रासाउंड की जानकारी सीधे केन्द्रीकृत व्यवस्था के एक्टिव ट्रैकर में फीड होती थी। इससे झज्जर में भ्रूणहत्याओं की संख्या में कमी आई।

इन दोनों ही किस्सों से सीख ली जा सकती है। हम स्त्रियों पर चिंता जताकर उनपर कोई उपकार नहीं कर रहे। आधी आबादी को उनके अधिकार देने की बात करना अहंमन्यता है। उनको बस अवसर दिए जाने और बराबरी का व्यवहार करना जरूरी है, बाकी आसमान वह खुद हासिल कर सकती हैं। फिर, दुर्गा सप्तशती में देवीस्त्रोत पढ़ते हुए, या माती की चौकी में जगराता पढ़ते हुए कभी भी अपराधबोध से माथा नीचे नहीं झुकेगा।


( यह लेख गांव कनेक्शन अखबार के दो टूक स्तंभ में प्रकाशित हो चुका है)