बंगाल में बदलाव की बयार नही, अंधड़ आ गया। मेरे अनुमानों से कहीं ज्यादा घना बदलाव था यह। ममता की आंधी में खुद मुख्यमंत्री उड़ गए। वह भी साढे 17हजार से ज्यादा वोटों से। लेकिन यहां कहानी खत्म नहीं होती। चुनौतियों की तो यहां से शुरुआत होती है। ममता बनर्जी ने जो दावे और वायदे किए है बंगाल की जनता के साथ...उन्हें निभाना होगा।
पहले उत्तर से शुरु करते हैं। पहली बार चुनाव में उतरी, लेकिन सौ फीसदी परिणाम पाने वाली पार्टी, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का आत्मविश्वास सबसे ज्यादा उबाल खा रहा होगा। दीदी कही जाने वाली, अबतक सबसे बेचैन दिखने वाली नेताओं में से एक ममता माटी और मानुष से जुड़े इस साव पर क्या करेंगी। ममता ने पहले ही साफ कर दिया है कि गोरखालैंड अलग करने के मसले पर वह कोई बात नहीं करने वाली हैं। तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा आगे क्या करेगा..यह देखने वाली बात होगी।
हालांकि जीजेएम ने पहाड़ की तीन और दुआर की एक सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे (और सभी जीते) लेकिन बाकी की जगहों पर उसने तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन किया था। ममता ने अगले 200 दिनों के अजेंडे में दार्जिलिंग को स्विट्ज़रलैंड बनाने का वायदा किया है...फिलहाल तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। दार्जिलिंग में सबसे खराब स्थिति सड़कों की है। पर्यटकों का आना बेहद कम हो चुका है। न्यूजलपाईगुड़ी से बेहतर स्थिति तो हमारे झारखंड मे मधुपुर-गिरिडीह रोड की है। (जो अपने आप में घटिया सड़कों के मामले में एक मिसाल है।)
ममता ने मुर्शिदाबाद-बहरामपुर इलाके में अधिरंजन चौधुरी के किले में सेंध लगा दी है। अगली बार, यानी अगले लोकसभा चुनाव में वह इन इलाकों में सीटों की मांग करेंगी..अधीर चौधरी इसी के विरोध में बागी उम्मीदवारो को सपोर्ट कर रहे थे, लेकिन फौरी तौर पर तो यही लगता है कि वह नाकाम रहे हैं। लेकिन आने वाले वक्त में वह अगर इसी तरह उपेक्षित होते रहे तो कांग्रेस के अगले ममता बनर्जी साबित होगे।
दक्षिण में सुंदरबन इलाके में सात में से पांच सीटें तृणमूल ने जीती हैं। मुझे इसका कत्तई इल्म नहीं था कि कांति गांगुली जैसा जमीन से जुडा़ नेता भी हार सकता है। लेकिन जनता का फैसला। वैसे अब सबसे पहले तो ममता को इस इलाके में आईला तूफान की वजह से बरबाद हुए गांवों तक मुआवजा पहुंचाना होगा। क्योंकि इसी तूफान के सहारे वह जीत का परचम लहरा पाई हैं।
ममता बनर्जी ने वाम ( यानी व्यवस्था विरोधी) शासन के सामने खुद वामपंथी राह पकड़ी। वह वाम की भी वाम साबित हुई। लेकिन जिस नंदीग्राम और सिंगूर के दम पर ममता ने जीत हासिल की है। वह उनके सामने भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा होगा।
अगर ममता की मंशा सूबे का विकास होगा, तो उन्हें औद्योगीकरण की राह पर चलना होगा। लेकिन अगर वह उद्योगों और निवेश का आना राज्य में ठीक करना चाहती हैं तो यह बहुत मुश्किल साबित होनेवाला है। पहली बाधा तो खुद उनकी उद्योग-भगाऊ छवि है। दूसरे, उद्योग लगाने के लिए उन्हे भी जमीनों का अधिग्रहण करना होगा...फिर वाममोर्चा अपनी पारंपरिक राजनीति अपनाएगा।
यानी जिस राजनीति का हाइजैक ममता ने वाम से कर लिया था वह उनको वापस मिल जाएगा। फिर हर अधिग्रहण के मोर्चे पर वाम कई नंदीग्राम और कई सिंगूर बनाएगा।
लब्बोलुआब यह कि ममता के लिए राह उतनी आसान नहीं। रेलवे के पिछले दो साल के कामकाज से मुझे तो ममता से कोई उम्मीद नहीं । वैसे,, खुद माओवादियों से हाथ मिलाकर ममता ने राज्य सरकार के लिए शांति के कुछ महीने तो सुरक्षित कर लिए हैं, लेकिन माओवादी चरमपंथी निश्चित रुप से केंद्र के लिए खतरनाक साबित होंगे। ममता उनके लिए बंगाल को पनाहगाह बनाएगी तो झारखंड और छत्तीसगढ़ को नुकसान होगा।
बीती वामपंथी सरकार ने ममता के लिए कई मोर्चे खुले छोड़ दिए हैं..उनसब पर काम करना इस क्रांतिकारी तैवरों वाली इस नेता के लिए आसान नहीं होगा। अभी तो उनकी पहली चिंता रेलमंत्री पर अपने किसी सिपहसालार को बिठाने की होगी।
पहले उत्तर से शुरु करते हैं। पहली बार चुनाव में उतरी, लेकिन सौ फीसदी परिणाम पाने वाली पार्टी, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का आत्मविश्वास सबसे ज्यादा उबाल खा रहा होगा। दीदी कही जाने वाली, अबतक सबसे बेचैन दिखने वाली नेताओं में से एक ममता माटी और मानुष से जुड़े इस साव पर क्या करेंगी। ममता ने पहले ही साफ कर दिया है कि गोरखालैंड अलग करने के मसले पर वह कोई बात नहीं करने वाली हैं। तो गोरखा जनमुक्ति मोर्चा आगे क्या करेगा..यह देखने वाली बात होगी।
हालांकि जीजेएम ने पहाड़ की तीन और दुआर की एक सीट पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे (और सभी जीते) लेकिन बाकी की जगहों पर उसने तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन को समर्थन किया था। ममता ने अगले 200 दिनों के अजेंडे में दार्जिलिंग को स्विट्ज़रलैंड बनाने का वायदा किया है...फिलहाल तो स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। दार्जिलिंग में सबसे खराब स्थिति सड़कों की है। पर्यटकों का आना बेहद कम हो चुका है। न्यूजलपाईगुड़ी से बेहतर स्थिति तो हमारे झारखंड मे मधुपुर-गिरिडीह रोड की है। (जो अपने आप में घटिया सड़कों के मामले में एक मिसाल है।)
ममता ने मुर्शिदाबाद-बहरामपुर इलाके में अधिरंजन चौधुरी के किले में सेंध लगा दी है। अगली बार, यानी अगले लोकसभा चुनाव में वह इन इलाकों में सीटों की मांग करेंगी..अधीर चौधरी इसी के विरोध में बागी उम्मीदवारो को सपोर्ट कर रहे थे, लेकिन फौरी तौर पर तो यही लगता है कि वह नाकाम रहे हैं। लेकिन आने वाले वक्त में वह अगर इसी तरह उपेक्षित होते रहे तो कांग्रेस के अगले ममता बनर्जी साबित होगे।
दक्षिण में सुंदरबन इलाके में सात में से पांच सीटें तृणमूल ने जीती हैं। मुझे इसका कत्तई इल्म नहीं था कि कांति गांगुली जैसा जमीन से जुडा़ नेता भी हार सकता है। लेकिन जनता का फैसला। वैसे अब सबसे पहले तो ममता को इस इलाके में आईला तूफान की वजह से बरबाद हुए गांवों तक मुआवजा पहुंचाना होगा। क्योंकि इसी तूफान के सहारे वह जीत का परचम लहरा पाई हैं।
ममता बनर्जी ने वाम ( यानी व्यवस्था विरोधी) शासन के सामने खुद वामपंथी राह पकड़ी। वह वाम की भी वाम साबित हुई। लेकिन जिस नंदीग्राम और सिंगूर के दम पर ममता ने जीत हासिल की है। वह उनके सामने भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा होगा।
अगर ममता की मंशा सूबे का विकास होगा, तो उन्हें औद्योगीकरण की राह पर चलना होगा। लेकिन अगर वह उद्योगों और निवेश का आना राज्य में ठीक करना चाहती हैं तो यह बहुत मुश्किल साबित होनेवाला है। पहली बाधा तो खुद उनकी उद्योग-भगाऊ छवि है। दूसरे, उद्योग लगाने के लिए उन्हे भी जमीनों का अधिग्रहण करना होगा...फिर वाममोर्चा अपनी पारंपरिक राजनीति अपनाएगा।
यानी जिस राजनीति का हाइजैक ममता ने वाम से कर लिया था वह उनको वापस मिल जाएगा। फिर हर अधिग्रहण के मोर्चे पर वाम कई नंदीग्राम और कई सिंगूर बनाएगा।
लब्बोलुआब यह कि ममता के लिए राह उतनी आसान नहीं। रेलवे के पिछले दो साल के कामकाज से मुझे तो ममता से कोई उम्मीद नहीं । वैसे,, खुद माओवादियों से हाथ मिलाकर ममता ने राज्य सरकार के लिए शांति के कुछ महीने तो सुरक्षित कर लिए हैं, लेकिन माओवादी चरमपंथी निश्चित रुप से केंद्र के लिए खतरनाक साबित होंगे। ममता उनके लिए बंगाल को पनाहगाह बनाएगी तो झारखंड और छत्तीसगढ़ को नुकसान होगा।
बीती वामपंथी सरकार ने ममता के लिए कई मोर्चे खुले छोड़ दिए हैं..उनसब पर काम करना इस क्रांतिकारी तैवरों वाली इस नेता के लिए आसान नहीं होगा। अभी तो उनकी पहली चिंता रेलमंत्री पर अपने किसी सिपहसालार को बिठाने की होगी।