Friday, July 28, 2017

बिहारः क्या शरद पर आएगा वसंत?

नीतीश के पाला बदलने और आनन-फानन में शपथ-ग्रहण करके भाजपा के साथ सरकार बना लेने पर कुछ सवाल उठने लाजिमी है. पहला स्वाभाविक सवाल तो यही उठता है कि आखिर नीतीश प्रधानमंत्री द्वारा किए गए डीएनए वाले बिहारी अस्मिता पर चोट से आहत थे वह फिर से भाजपा की शरण में क्यों आ गए. सवाल है कि आखिर भाजपा ने नीतीश को अपने पाले में क्यों करना चाहा? क्या 2019 के लोकसभा में उसे बिहार में आधार खिसकने का इतना डर था? तीसरा सवाल है कि आखिर नीतीश के विरोधी माने जाने वाले और महागठबंधन से बाहर निकलने की मुखालफत करने वाले शरद यादव का क्या होगा?

चूंकि मोदी युग के उदय के बाद मोदी-शाह के अश्वमेघ यज्ञ में सिर्फ बिहार और दिल्ली विधानचुनाव ही असली कांटे साबित हुए हैं और बिहार का झटका ज्यादा बड़ा था जिसमें भारत की पिछड़ी जातियों के दो बड़े नेता शामिल थे और मंडल से जुड़े हुए थे. ऐसे में बिहार में मोदी की सत्ता स्वीकार्यता का एक विशेष अर्थ है और मोदी की सर्व-व्यापकता की तस्वीर बिना बिहार में एनडीए की सत्ता के पूरी नहीं होती थी. ऐसे में ये जरूरी था कि नीतीश कुमार को अपने पाले में लाया जाए और जिसके लिए वे तनिक-तनिक तैयार भी दिखने का संकेत कर रहे थे.

साथ ही ऑपरेशन बिहार इसलिए भी हड़बड़ी में जरूरी था क्योंकि लालू और नीतीश में जो मतभेद हो रहे थे, उसके बाद राजनीतिक गलियारों में ये कानाफूसी थी कि लालू, जद-यू के कुछ विधायकों पर भी निशाना साधने की तैयारी में थी. इसीलिए आनन-फानन में नीतीश ने इस्तीफा दिया और अगले दिन सुबह-सुबह फिर से शपथ ले ली!

नीतीश कुमार के पाला बदलने के सवाल के कुछ बेहद सामान्य उत्तर हैं, उनमें से एक है नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने वाली अपनी चट्टानी छवि को नई ऊंचाईयों पर ले जाना चाहते थे. लेकिन यह हिमशैल का सिर्फ दिखने वाला सिरा है. असल में इसकी भीतरी वजहे और भी हैं. सूत्रों के हवाले से खबर है कि लालू प्रसाद ने नीतीश का तख्तापलट करने की तैयारी कर ली थी. इसके साथ ही जेडी-यू में टूट भी हो जाती. जाहिर है, नीतीश ज्यादा तेज निकले और उन्होंने ब्रह्मास्त्र चला दिया. नीतीश कुमार महागठबंधन में मुख्यमंत्री तो थे लेकिन उनकी हैसियत 80 के मुकाबले 71 विधायकों के साथ जूनियर पार्टनर की ही थी. भाजपा के साथ अब नीतीश पहले की तरह बड़े भैया हो जाएंगे.

हालांकि, बिहार भाजपा में हर कोई नए गठजोड़ से खुश नहीं है लेकिन सुशील मोदी एक बार फिर उप-मुख्यमंत्री बनकर प्रसन्नचित्त होंगे. दूसरी बात, उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत को नीतीश ने कायदे से पढ़ लिया है. यूपी में भाजपा को उन पार्टियों ने भी वोट दिया है जिसे समाज में दुर्बल जातियां कहा जाता है. बिहार में नीतीश भी उन्हीं जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अगर 2019 में भाजपा यूपी की तरह बिहार में भी उन जातियों को अपने पाले में कर लेती तो नीतीश के पास जमापूंजी क्या रह जाती? क और वजह तेजस्वी यादव भी रहे. नहीं, उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप नहीं. नीतीश तेजी से सीखते तेजस्वी को पैर जमाते देख रहे थे और उनको विवादित करके छोटा कर देना भी एक मकसद रहा होगा.

दूसरी तरफ, भाजपा के लिए 2019 से भी फौरी जरूरत थी गुजरात के चुनाव. भाजपा गुजरात विधानसभा को खोने नहीं देने के लिए कितनी बेताब है इसका अंदाजा हालिया महीनों में वहां बढ़ गए प्रधानमंत्री के दौरों से लग जाता है. गुजरात में भाजपा के वोट बैंक रहे पटेल पार्टी से नाराज चल रहे हैं और सड़कों पर सरकार के खिलाफ पटेलों की उमड़ी भीड़ भाजपा के लिए अनिष्टसूचक प्रतीत हो रही थी. गलियारों में चर्चा थी कि हार्दिक पटेल के सिर पर नीतीश कुमार का हाथ था. अब यह महज संयोग नहीं होगा कि नीतीश कुमार उन्हीं कुर्मियों के नेता हैं, जिसे गुजरात में पटेल कहा जाता है. भाजपा को उम्मीद है कि इससे गुजरात में पटेलों के विरोध को एक हद तक साधा जा सकेगा. इस बात को भी संयोग नहीं माना जा सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार (और अब राष्ट्रपति) रामनाथ कोविंद कोली जाति के हैं, जिसकी तादाद गुजरात में करीब 18 फीसदी है. नीतीश के साथ कोविंद के मीठे संबंध रहे हैं.

अब बच रहे शरद यादव. शरद यादव के बारे में बिना हील-हुज्जत के यह माना जा सकता है कि वह अपने सियासी करियर के आखिरी दौर से गुजर रहे हैं. हालांकि शरद महागठबंधन तोड़ने की मुखालफत कर रहे थे लेकिन उनके राजनीतिक जीवन में वसंत तभी आएगा जब वह भाजपा के साथ जद-यू के इस गठजोड़ को मान लेंगे. जद-यू के अंदरूनी सूत्रों का मानना है कि केंद्र सरकार में शरद यादव के लिए कबीना मंत्री के पद का प्रस्ताव है और शरद इसके लिए सहमत भी हैं.

वैसे राजनीतिक पंडित इस बात के कयास लगा रहे हैं कि जद-यू के 18 मुस्लिम और यादव विधायक टूट के लिए तैयार हैं. लेकिन वैधानिक टूट के लिए 24 विधायकों का होना जरूरी है. अगर यह टूट हुई और कुछ न्य विधायकों को जोड़कर लालू सरकार बनाने का दावा भी करें तो भी शरद यादव को राज्यसभा सीट गंवानी पड़ेगी. उनको दोबारा राज्यसभा में भेजना कठिन होगा. आरजेडी ने मायावती को राज्य सभा में भेजने का वचन पहले ही दे दिया है. ऐसे में बस एक और नाम ख्याल में आता है ममता बनर्जी का, जो मायावती को राज्य सभा भेजने पर हामी भर सकती हैं. लेकिन यह गणित सियासी खामख्याली भी हो सकती है, क्योंकि विश्वस्त सूत्र दावा कर रहे हैं कि शरद जल्दी ही कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले सकते हैं. दूसरी तरफ, आरजेडी के कई विधायक तेजस्वी का इस्तीफा चाहते थे और इस टूट से नाराज होकर उन्होंने गुरुवार की बैठक में मौजूद रहना मुनासिब नहीं समझा. एक और कोण कांग्रेस का है और अगर जेडी-यू में कोई टूट होती है तो कांग्रेस में भी तोड़-फोड़ होगी. अभी भाजपा 2019 की तरफ देख रही है तो नीतीश की नजर उससे आगे 2020 (बिहार विधानसभा चुनाव) पर भी होगी. कुल मिलाकर मामला दिलचस्प है, कुछ-कुछ अंकगणित और ज्यामिति के मिले-जुले समीकरण जैसा.

मंजीत ठाकुर

Tuesday, July 25, 2017

टाइम मशीनः अनुरक्ति


शिव सीरीजः अनुरक्ति

गौरी के लिए रात-दिन बराबर हो गए. न नींद, न भूख-प्यास. आंखों में आंसू भरे रहते थे और हृदय में शिवजी। कभी कन्द-मूल-फल का भोजन होता, कभी जल और कभी तो कई-कई दिनों का उपवास. प्रेम में पड़ी गौरी के बचपने ने उनको उमा बना दिया तो भोजन के लिए पत्तों का भी त्याग करके वह ‘अपर्णा’ बन गईं.

नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु/नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु।।
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि/सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि।।


यह कमसिन उम्र और ऐसी घोर तपस्या. एक पैर पर खड़ी गौरी ने देखा एक साधु सामने खड़े थे, ये किसके प्यार में पड़ गई हो तुम बेटी! न रहने का ढंग, न खाने का शऊर, खुद क्या खाएगा तुम्हें क्या खिलाएगा? भांग-धतूरा?

एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन/नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन।।
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन/कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन।

न रूप, न गुण...सिर के सारे बाल सफेद...देह में राख मली हुई..हुंह अघोरी कहीं का...गौरी की आंखें क्रोध से लाल हो गईं. लेकिन साधु से कुछ न बोलते हुए वह कहीं और तपस्या करने जाने लगीं. लेकिन यह क्या, वही साधु सामने रास्ता रोककर खड़ा था. गौरी को गुस्सा आ गयाः क्यों जी, बड़े ढीठ हो। इतनी बातें कहीं, फिर भी समझ नहीं आता? किसने भेजा है तुम्हें, मुझे बहकाने के लिए?

साधु ने मुस्कुराते हुए बांहे फैला दीं। गौरी का गुस्सा बांध तोड़ने के लिए बेताब हो गयाः अरे दुष्ट साधु, तुम बातों से नहीं मानोगे? जानते नहीं मन ही मन मैं शिव को पति मान चुकी हूं और मेरे सामने ऐसी ओछी हरकत कर रहे हो? इससे पहले कि मैं तुम्हें शाप देकर भस्म कर दूं, निकलो यहां से। साधु मुस्कुरा उठे थे। लेकिन साधु को तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआः साधु बने शिव ने खुद को देखा...और फिर असली रूप में आए. प्यार से पुकारा था उन्होंनेः देवि!

गौरी ने सिर उठाकर देखा तो सामने शिव...उनकी पूरी दुनिया. उनके जीवन का लक्ष्य़...वह ख़ुद. शिव कौन? खुद गौरी ही तो!

गौरी और शिव एक हो गए. प्रेम की बेल हरी हो गई.

Friday, July 21, 2017

दरभंगा में हवाई अड्डा अभी हवाई किला है

आज दरभंगा से संभावित हवाई सेवा पर लिखूंगा जिसे हाल ही में "उड़ान" योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है, हालांकि अभी सिर्फ सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं और मीलों लंबा सफर तय करना है. भारत सरकार की उड़ान योजना क्षेत्रीय कनेक्टीविटी के लिए है.

बहुत सारे अन्य एयरपोर्ट की तरह ही दरभंगा एयरपोर्ट भी रक्षा मंत्रालय के अतर्गत आता है जिसके मंत्री अभी अरुण जेटली हैं. जेटली का नीतीश कुमार से मधुर संबंध है और दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद से कटु. लेकिन दरभंगा से सन् 2014 में JD-U के लोकसभा प्रत्याशी रहे Sanjay Jha, अरुण जेटली के नजदीकी माने जाते हैं. बिहार सरकार के सूत्र बताते हैं कि ये भी एक वजह थी कि दरभंगा एयरपोर्ट पर रक्षा मंत्रालय ने तत्काल NOC दे दिया.

(यों दो साल पहले जब सोशल मीडिया पर दरभंगा एयरपोर्ट के लिए अभियान चल रहा था तो उस समय कीर्ति आजाद कुछ सांसदों संग PM से मिलने भी गए थे लेकिन बाद में वे BJP में खुद ही अलग-थलग पड़ते गए).
फिलहाल जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं उसमें दरभंगा से पटना, गया और रायपुर पर सहमति बनी है. चूंकि इस बार नॉन-मेट्रो सिटी से ही कनेक्टिविटी की योजना थी, तो उसमें पटना, गया, रायपुर, बनारस और रांची आ सकते थे. अभी शुरू के तीन पर सहमति बनी है. रायपुर का नाम जुड़वाने में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की व्यक्तिगत रुचि थी, उन्होंने बैठक में कहा कि 'रायपुर और छत्तीसगढ़ में मिथिला समाज के लाखों लोग रहते हैं, कनेक्टिविटी से उनका भला होगा'. रही बात रांची और बनारस की तो अभी मंत्रालय की योजना में वो नहीं था, आगे उस पर विचार किया जा सकता है.

जब दो साल पहले हमारे ढेर सारे मित्र सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से दरभंगा से हवाई सेवा शुरू करवाने के लिए अभियान-रत थे तो उस समय मैंने JD-U नेता संजय झा से इस मामले में पैरवी करने के लिए आग्रह किया था. वे सहमत तो थे लेकिन व्यवहारिकता और नौकरशाही की अड़चन को लेकर सशंकित थे. उन्होंने कहा था कि बेहतर हो कि राजधानी जैसी कुछ सुपरफास्ट ट्रेन या ऐसी ही कनेक्टिविटी का कुछ इंतजाम किया जाए.

लेकिन भारत सरकार जब "उड़ान" योजना लेकर सामने आई तो दरभंगा के लिए संभावना अचानक प्रकट हो गई. सोशल मीडिया में हमारे अभियान से उस समय सरकार के कान पर तो जूं नहीं रेंगी लेकिन समाज में कुछ हलचल जरूर मची. लोग तो पहले सोचते तक नहीं थे, उन्हें लगता था कि यह अभिजात्य माध्यम है, जिसका विकास से कोई लेनादेना नहीं. हाल यह था कि उस इलाके में एक जमाने में विकास-पुरुष के तौर पर सम्मानित एक प्रख्यात कांग्रेसी नेता के सुपुत्र विधायकजी ने तो यहां तक कहा कि दरभंगा वाले बस में ही बैठने की सलाहियत सीख लें,यही बहुत है!

दरभंगा एयरपोर्ट का रनवे बिहार में सबसे बड़ा है, पटना से भी बड़ा. महाराज दरभंगा का बनवाया हुआ है. छोटा-मंझोला विमान अभी भी उतर सकता है, अगर 2000 फीट रनवे और लंबा हो जाए तो भविष्य के लिए भी, बड़े विमानों के लिए भी पक्की व्यवस्था हो जाएगी. दरअसल, किसी शहर से विमानन सुविधा वन-टाइम डील होता है. हुआ तो हुआ, नहीं तो बीस-तीस साल नहीं होता. मनीष तिवारी जब केंद्र में मंत्री बने तो दिल्ली-लुधियाना शुरू हुआ, सुना कि उनके हटने के बाद बंद हो गया. इलाहाबाद में एक जमाने में था, फिर बंद हुआ और फिर जाकर मुरलीमनोहर जोशी के समय शुरू हुआ. यानी जिसकी लाठी, उसकी भैंस. वो तो भला हो उड़ान का जो दरभंगा जैसे शहर इसमें शामिल हुए.

दरभंगा एयरपोर्ट मौजूदा हाल में भी उड़ान योजना के लिए फिट था लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दरभंगा एयरपोर्ट के रनवे विस्तार के लिए जमीन अधिग्रहण हेतु सहमत हो गए हैं, ताकि भविष्य में बड़े विमान भी उतर सकें. उसके लिए पचास एकड़ जमीन चाहिए और उन्होंने कैबिनेट सचिवालय के प्रमुख सचिव ब्रजेश मेहरोत्रा को इस बाबत निर्देश दे दए है.

लेकिन इस हवाईअड्डे में कई पेंच हैं और इसमें इतनी दौड़-धूप या कहें कि ब्यूरोक्रेटिक लाइजनिंग की जरूरत है जिसके लिए ऊर्जावान नेतृत्व चाहिए. ये बात जगजाहिर है कि दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद की हवाईअड्डे में कितनी दिलचस्पी है और अगर होगी भी तो अरुण जेटली उनकी कितनी सुनेंगे! दरभंगा डिवीजन के अन्य दो सांसद हुकुमदेव नारायण यादव और बीरेंद्र चौधरी या तो हवाईसेवा के प्रति उदासीन हैं या इसका महत्व नहीं समझते. हां, एक बार बीरेंद्र चौधरी ने संसद में इसे उठाया था. लेकिन उस
समय 'उड़ान' जैसी कोई योजना नहीं थी. इस बार योजना तो अनुकूल है लेकिन पेंच नौकरशाही का है और वो पहाड़ जैसा है. देखिए जिस सहमति पत्र पर दस्तखत हुए हैं, उसमें किन-किन चीजों की आवश्यकता बताई गई है:
1. एयर हेड-क्वार्टर से एनओसी लेना(यानी फिर से डिफेंस मिनिस्ट्री के बाबू और वायुसेना अधिकारियों की तेल-मालिश करना)
2. AAI को एयर हेडक्वार्टर से एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करना होगा(बाबुओं को इसके लिए फिर से मनाना)
3. सिविल इन्क्लेव के लिए AAI ने जमीन अधिग्रहण करने का आग्रह किया है (झंझट का काम है. हालांकि जमीन पचास एकड़ ही चाहिए लेकिन ये "आजकल" मजाक नहीं है. बिहार सरकार के सबसे बड़े बाबू से लेकर जिलाअधिकारी, पुलिस कप्तान, मुआवजा, वित्त विभाग इत्यादि शामिल हैं)
4 रनवे एज लाइटिंग
5 एप्रन और टैक्सी वे का निर्माम
7 NA AIDS(ILS, VOR) का इंस्टालेशन- यानी रेडियो नेविगेशन सिस्टम, इस्ट्रूमेंट लैंडिंग सिस्टम इत्यादि.
और ये जितने काम हैं, उसमें करीब 2000 करोड़ रुपये का खर्च है, क्योंकि 'उड़ान' स्कीम के तहत* बिहार सरकार को इसके सकल खर्च या छूट का 80 फीसदी वहन करना है! अब असली पेंच समझिए कि एक गरीब राज्य का खजाना जिसका बजट सन् 2016-17 के लिए महज 1.44 लाख करोड़ था वह सिर्फ दरभंगा हवाईअड्डे के लिए उसमें से दो हजार करोड़ निकाल दे तो पटना के बाबू लोग कितना नखरा करेंगे! (* उड़ान योजना में VGF यानी वायवेलिटी गैप फंड के तहत घाटे की भरपाई और सुविधाओं के निर्माण में केंद्र और राज्य का हिस्सा 20 औ 80 फीसदी का है.)

विद्वानों को मालूम है कि महज सहमति पत्र से कुछ नहीं होता, सहमति पत्र तो ऐसे-ऐसे हैं जो तीस-तीस साल से धूल फांक रहे हैं-उन पर काम आगे हुआ ही नहीं-फाइल आगे बढ़ी ही नहीं. असली बात है कि क्रियान्वयन होना और एक पिछड़े इलाके में इतने बड़े प्रोजेक्ट को जमीन पर उतार देना. 

यह पोस्ट सिर्फ दरभंगा एयरपोर्ट पर केंद्रित है, पूर्णिया, सहरसा, रक्सौल और किशनगंज का अलग संदर्भ है. लंबा हो जाएगा. आज के समय में एयरपोर्ट का क्या महत्व है, इस पर पोस्ट लिखना जरूरी नहीं. आप ये समझिए कि किसी पूंजीपति या सरकारी बाबू को अगर 20-25 करोड़ का भी प्रोजेक्ट लेकर उत्तर बिहार जाना हो तो वो ट्रेन से नहीं जाएगा. मैं खुद ही साधारण सी नौकरी में हूं, ट्रेन में 25-30 घंटे की सफर से बचता हूं.

मैंने ब्लॉग के जमाने में लिखा था कि ईस्ट-वेस्ट NH कॉरीडोर को मधुबनी-दरभंगा से होकर बनवाने में झंझारपुर और सहरसा के सांसद देवेंद्र प्र. यादव और दिनेश यादव का बड़ा रोल था, उन्होंने उसके लिए जमकर वाजपेयी सरकार में लॉबी की थी. नतीजतन वो मिथिला की लाइफलाइन साबित हुई.

ऐसे में दरभंगा से अगर वाकई 'उड़ान' होता है, तो बधाई के पात्र नीतीश कुमार होंगे, मोदी सरकार होगी और संजय झा होंगे जो इसमें व्यक्तिगत रुचि ले रहे हैं. दरभंगा और उत्तर बिहार के उस इलाके के लोगों को चाहिए कि वो दबाव और समर्थन बनाए रखे. वहां के मौजूदा सांसद-गण भी कुछ जोर लगाएं तो यह जल्दी फलीभूत हो जाएगा. सिर्फ हवाईअड्डा ही क्यों, रेलवे और अन्य योजनाएं भी फलीभूत हो जाएंगी.

--अपने फेसबुक वॉल पर लिखा सुशांत झा का लेख.

Wednesday, July 19, 2017

टाइम मशीनः शिवः खंड चारः भस्मांकुर

 भस्मांकुर 


बारात शहर के ठीक बीचों-बीच बाज़ार से गुज़र रही थी. बारात में, भूत-प्रेत- राक्षस- किन्नर-चुड़ैलें- किच्चिनें...बैताल, ब्रह्मराक्षस हैं...कोई दांत किटकिटाता...कोई शंख बजाता...कोई दुंदुभी पीटता...

गौरा तोर अंगना/ बड़ अजगुत देखल तोर अंगना
एक दिस बाघ-सिंह करे हुलना/ दोसर बरद छह सेहो बऊना...
गौरा तोर अंगना



उधर, महल में बड़ी गहमा-गहमी थी। बारात दरवज्जे पर आ गई है. गौरी की सखियां बेहद हैरत में थीः दूल्हा! मत मूछो दिदिया। पूरी देह में राख, माला की जगह नाग, बाल तो जाने कब से नहीं धोए...रथ की जगह बैल पर सवार हैं दूल्हे शिव.

सखियां ठठाकर हंस पड़ीं. लेकिन गौरी की आंखों में खुशियां दमक रही थीं. शिव को जो नहीं जानता, वह उनके रूप पर जाएगा, जो जानता है वह मन को पढ़ेगा. मेरे शंकर! मेरे भोलेः गौरी का मन हो रहा था वह भी झरोखे में जाकर नंदी बैल पर सवार भोलेनाथ को देखे,
सखियां गा उठी थीं,
शिव छथि लागल दुआरी, गे बहिना,
शिव छथि लागल दुआरी
इंद्र चंद्र दिग्पाल वरूण सब,
चढ़ि-चढ़ि निज असवारी गे बहिना
शिव छथि लागल दुआरी...

पिता पर्वतराज ने शिव से उनका वंश पूछा था. शिव कहीं शून्य में ताकते चुपचाप बैठे रहे. फुसफुसाहटें तेज़ हो गईं. सन्नाटा खिंच गया।

गौरी की मां मैना ने नारद को टहोका दियाः अब कुछ बोलते क्यों नहीं? बताइए न पहुना के खानदान के बारे में?

नारद ने कहाः ‘पर्वतराज, भगवान महादेव स्वयंभू हैं. इन्होंने खुद की रचना की है. इनका एक ही वंश है – ध्वनि. प्रकृति में अस्तित्व में आने वाली पहली चीजः ध्वनि... यह ध्वनि है- ओम्...

नारद ने कहा ओम्...और उसके साथ ही पूरी प्रकृति से आवाज़ आई
ओम...हवा ने, नदियो ने, पेड़ों ने, समंदर ने, पत्थरों ने, चिड़ियो ने, तितलियो ने...सबने एक साथ दोहरायाः ओम्...

पर्वतराज समझ गए. वक्त जयमाला का आ पहुंचाः लेकिन गौरी
एक पल के लिए रुकी थी. जयमाला से ठीक पहले गौरी ने शिव के
सामने अपनी हथेली खोल दी थी. उनकी हथेली में थोड़ी राख थी।
कामदेव की देह की राख.

शिव मुस्कुराए और उन्होंने वह राख चुटकियों मे उठाकर विवाह मंडप के नीचे डाल दियाः सबने देखा, वहां एक अंकुर निकल आया था.

फिर शिव ने सबको कहाः कामदेव बिना शरीर जगत के हर जीव में मौजूद रहेंगे...प्रेम के रूप में. गौरी ने शिव को और शिव ने गौरी को जयमाला पहनाई तो गणों ने जयघोष कियाः हर-हर महादेव!

Saturday, July 8, 2017

टाइम मशीन चारः अमर्ष

सती के अथाह प्रेम में डूबे शिव उनकी बेजान देह लिए हिमालय की घाटियों-दर्रों में भटकते रहे. न खाने की सुध, न ध्यान-योग की. सृष्टि में हलचल मच गई, सूर्य-चंद्र-वायु-वर्षा सबका चक्र गड़बड़ हो गया.
तारकासुर ने हमलाकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था. प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी. तारकासुर की अंत केवल शिव की संतान ही कर सकती थी, सो ब्रह्मा चाहते थे कि अब किसी भी तरह शिव का विवाह हो जाए. बिष्णु ने अपने चक्र से सती की देह का अंत तो कर दिया, लेकिन महादेव का बैराग बना रहा.
चतुर इंद्र ने प्रेम के देवता कामदेव को बुलाया था.
कामदेव जानते थे शिव को. उनकी साधना के स्तर को और उनके प्रचंड क्रोध को भी. इंद्र का आदेश था तो कामदेव ने डरते-डरते हां कर दी थी।

कामदेव कैलाश पहुंचे तो वहां का बर्फ़ीला वातावरण देखकर निराश हो गए. इस निर्जन में साधना-तपस्या तो की जा सकती है, प्रेम के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं. कामदेव ने कैलाश के इस बर्फीले मौसम को वसन्त में बदल दिया. हल्की-हल्की बयार बहने लगी, पत्थरों की जगह फूल खिल गए, भौंरो की गुनगुनाहट गूंजने लगी, हवा में खुशबू तैरने लगी और पूरे माहौल में फगुनाहट चढ़ आया. नदियों का कल-कल बहता पानी, फूलों की क्यारियां...प्रेम के लिए ज़रूरी हर चीज पैदा कर दी थी कामदेव ने।
लेकिन कामदेव भूल गए थे शिव को कौन बांध सका है आजतक...जिसकी मरजी से हवाएं चलती हों, सूरज निकलता हो, चांद-सितारे जगमगाते हों, धरती घूमती हो, समंदर में लहरें उछाहें मारती हो, उसको कामदेव बांधने चले थे!
कामदेव ने अपने प्रेम की प्रत्यंचा पर पुष्पबाण चढ़ाकर शिव की तरफ मोड़ा ही था कि अचानक मौसम बदल गया. नदियों का पानी खौलने लगा, धरती में दरारें पड़ गई और उनसे लावा बहने लगा. भयानक भू-स्खलन हुआ. जोर के बवंडर में शिव की तीसरी आंख खुल गई थी।
पलभर में कामदेव की देह में आग लग गई और वह भस्म होकर राख बन गए.

Friday, July 7, 2017

ये जो देस है मेराः बूंद चली पाताल

बुंदेलखंड हमेशा से कम बारिश वाला इलाका रहा है, लेकिन 2002 से लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया है. यह जमीनी रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है. साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे.

मैंने देश के विभिन्न इलाकों में माइनर विस्थापनों पर और अल्पविकसितइलाकों की स्थिति पर बहुत लंबे समय तक नजर रखने के बाद एक किताब लिखी हैः ये जो देस है मेरा। इस किताब का पहला अध्याय, 'बूंद चली पाताल' बुंदेलखंड की समस्या पर आधारित है.

किस तरह पानी ने बुंदेलखंड को बेपानी बना दिया है, उसकी रपट में मैंने केस स्टडीज और आंकड़ो का सहारा लिया है. कुछ परंपरा की बातें भी हैं, हल्के फुल्के इतिहास की भी.  इसमें, जरूरी आंकड़े भी हैं, ताकि सनद रहे और वक्त पड़ने पर काम आए. कोशिश की है, ज़रूर कुछ न कुछ छूट गया होगा, लेकिन उसे मानवीय भूल माना जाए.

इस किताब के छपने में रेणु अगाल जी के साथ, रेयाज़ुल हक़ का भारी योगदान है. जिन्होंने तकरीबन डांट-डांटकर मुझसे लिखवाया. अन्यथा मैं पर्याप्त या पर्याप्त से भी अधिक आलसी हूं.

पुस्तक अंशः

बुंदेलखंड का नाम हमेशा सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियों की याद दिलाता रहा है, बुंदेले-हरबोलों के मुंह सुनी गई कहानियों वाला बुंदेलखंड। जिसके नाम से आल्हा-ऊदल याद आते रहे, जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धंसी अढाई हाथ...। महोबे का पान, और चंबल का पानीः बुंदेलखंड के बारे में अच्छा-अच्छा सा बहुत कुछ सुना था।
बुंदेलखंड की जिस माटी के गुण कवि गाते नहीं थकते थे, लगता है वह माटी ही थक चली है। सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है। कुछ तो सूखे ने, कुछ सूखे की वजह से कर्ज़ ने, और बाकी बैंकों-साहूकारों के छल-कपट-प्रपंच ने बुंदेलखंड को किसानों की नई क़ब्रगाह बना दिया है।

बुंदेलखंड की धरती का सच, अब न तो आल्हा-ऊदल जैसे वीर हैं, न कीरत सागर, मदन सागर जैसे पारंपरिक तालाबों वाली उसकी पहचान। अब शायद किसानों की आत्महत्या और व्यापक पलायन ही इसकी पहचान बन गया है। बुंदेलखंड की अंदरूनी तस्वीर भयानक और अंदर तक हिला देने वाली है। बुंदेलखंड के किसानों में आत्महत्या की एक प्रवृत्ति हावी होने लगी है। बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर ज़िलों में न जाने कितने गांव हैं, जहां ज़्यादातर घरों में दरवाज़ों पर ताले लटक रहे हैं। हर गांव में ऐसे घर हैं, जिनमें अकेले बुज़ुर्ग बचे हैं और जो भूख से रिरियाते फिर रहे हैं। गांव के कई घरों में सिर्फ़ महिलाएं बची हैं। सात ज़िलों के चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा लोग इलाक़े से पलायन कर गए हैं। इतनी बड़ी आबादी दिल्ली में रिक्शा चलाती है, इटावा में ईंट-भट्ठों पर काम करती है, सूरत में मज़दूरी करती है।
खाली घरों और घरवालों को अपने प्रियजनों की वापसी की इंतज़ार है और धरती को पानी का।

जीने की जानलेवा शर्तः कर्ज़

गढ़ा गांव में ही सुराजी का घर भी है। उनके घर में दो मौतें हुई हैं। राज्य सरकार के अधिकारी उनके घर की आत्महत्याओं को भी ‘गृह-कलह’ से हुई मौतें बताते हैं। सुराजी के घर में नितांत अकेलापन पसरा रहता है। बीवी बहुत पहले भगवान को प्यारी हो गई। सुराजी की एकमात्र पोती का ब्याह हो गया तो सुराजी ने चैन की सांस ली थी। 2010 में एक दिन जब पोती अपने पति के साथ घर आई तो हालात सूखे की वजह से बदतर हो चुके थे।
बताते हुए सुराजी की आंखें डबडबा जाती हैं, ‘पिछले ही साल, पोती और उसके पति पहली बार अपने घर आए, घर में सेर भर भी गल्ला (अनाज) नहीं था।’ इसी अपमान से भरे सुराजी के बेटे ने पास के नीम के पेड़ से फांसी लगा ली। सुराजी तर्जनी से सामने नीम का पेड़ दिखाते हैं। पिता की आत्महत्या के अपराधबोध में पोती ने भी जान दे दी। सुराजी के दुख में सारा गढ़ा गांव साथ है। लेकिन गांव के हर किसी के साथ परिस्थितियां कमोबेश ऐसी ही हैं।
नीम का वह पेड़ गांव भर के लिए अपशगुन का प्रतीक बन गया है, और यह अब भी हरा है, उस पर सुराजी की आहों का कोई असर नहीं हुआ है।

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बुंदेलखंड में आत्महत्या करने वाले किसानों की गिनती उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों से काफी ज़्यादा है। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 56 और 2016 में 163 किसानों ने आत्महत्या की और उनकी मौत की वजहें भी कुछ अलग ही रहीं। लेकिन, इलाके में काम कर रहे किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार के पास एक ऐसी डायरी है जिसमें तस्वीरों के साथ किसानों के नाम-पते दर्ज़ हैं जिन्होंने कर्ज़ के मर्ज़ से छुटकारा पाने का रास्ता मौत को ही समझा। शिवनारायण ने काले रंग की इस डायरी को ‘मौत की डायरी’ नाम दिया है और यह राज्य सरकार के आंकड़ों को मृतक किसानों के नाम-पते के साथ झुठलाती है। इस डायरी के मुताबिक, पिछले 20 महीनों में उप्र के तहत बुंदेलखंड के सात ज़िलों में करीब साढ़े आठ सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली है।

पिछले दो साल भी खेती की हालत कुछ ठीक नहीं रही है और उत्तर प्रदेश सरकार भी अपनी रिपोर्ट में 2015-16 में खरीफ की फसल में 70 फीसदी का नुकसान मान रही है। अकेले बांदा में 95,184 हेक्टेयर रकबे में दलहन और तिल की खेती चौपट हुई है। यहां छोटे सीमांत किसानों ने 68,241 हेक्टयेर में तिल, ज्वार, बाजरा, अरहर और धान बोया था, जिसकी लागत भी वसूल नहीं हो सकी।
बुंदेलखंड के सभी तेरह ज़िलों में साल 2010-2015 के बीच कुल मिलाकर करीब 3000 किसानों ने आत्महत्या की है। यह आत्महत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा है जो राष्ट्रीय मीडिया में कभी-कभार और उस इलाके में अमूमन सुर्ख़ियां पाता रहता है। इसमें आत्महत्या की कोशिशों के मामले शामिल नहीं हैं, क्योंकि आत्महत्याओं की गिनती करते वक़्त उन्हें नहीं गिना जाता। इसके बावजूद अगर नज़र रखी जाए, तो बुंदेलखंड में हर तीसरे दिन किसी न किसी ज़िले से किसी न किसी किसान की आत्महत्या की ख़बर आ ही जाती है।

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Tuesday, July 4, 2017

टाइम मशीन 3ः शिवः बैराग

अपने घर विशाल यज्ञ की सफलता से सम्मोहित दक्ष प्रजापति ने समारोह में दामाद शिव को न्योता नहीं दिया था. अभिमान से बेटी सती को सुनाया था दक्ष नेः "अघोरी शिव देवताओं में उठने-बैठने लायक नहीं. देवताओं से लकदक कपड़े, सुगंधित तेल-फुलेल और कीमती गहने...कुछ भी तो नहीं पाखंडी शिव के पास." सती की बहनें ओट से खिलखिला पड़ी थीं।

सती का चेहरा गुस्से और अपमान से लाल पड़ता चला गया। उसके खुद के पिता ने त्यागी, सहनशील, सबसे प्रेम करने वाले शिव को पाखंडी कहा! सती गुस्से में भर उठीः मान-अपमान से परे शिव विषपायी हैं तो वह तांडव भी करते हैं!

मानो यह चेतावनी थी आने वाले विनाश की...और देखते ही देखते सती विशाल यज्ञकुंड के भीतर कूद गई थीं.

सन्नाटा छा गया। ऋषियों का मंत्रजाप रुक गया। मंडप के किनारे बज रही वीणाओं की झनकार थम गई। लोगो की मानो सांस रूक गई। सूरज की रौशनी का तेज खत्म हो गया, हवा भी स्थिर हो गई।

दक्ष को काटो तो खून नहीं। वह शिव के विरोधी तो थे लेकिन उनकी अपनी ही बेटी उनकी दुश्मनी की बलि चढ़ गई थी। सती की मां आंगन में पछाड़े खा-खाकर रोने लगी थीं।

पता नहीं कैसे, अचानक चारों तरफ से काले-काले बादल घिर आए थे। घुप्प अंधेरा छा गया। तेज़ हवाएं चलने लगीं। इस मौसम में बारिश नहीं होती थी कभी दक्ष के राज्य में, लेकिन आसमान से कड़कती बिजली के बीच न जाने कैसे मोटे-मोटे बड़े-बड़े ओले गिरने लगे, और बारिश की तो मत पूछिए। धारासार! इतनी जोरदार बरसात कि एक हाथ दूर कुछ नजर न आता था। सारे देवता और आम लोग मंडप से उठकर ओट की तलाश करने लगे थे।

अंधेरे और बरसात के बीच कुछ भी तभी नजर आता था, जब बादलों में तेज़ बिजली कड़कती थी। महल और मंडप की सारी रौशनियां पहले ही बुझ गई थीं। घुप्प अंधेरे में बस एक रौशनी थी, उस हवन कुंड की, जिसमें सती ने कूदकर जान दे दी थी। पवित्र माहौल अचानक डरावना हो गया था।

हवन कुंड की बुझी हुई आग में से बस लाल रंग के अंगारों की रौशनी थी और उसी रौशनी में सबने देखाः जटाएं खोले, हाथों में त्रिशूल लिए, बाघों की खाल कमर में लपेटे, एक भयानक-सा साया वहां खड़ा है। भयानक सायाः जी नहीं, यह तो गुस्से में भरे शिव खुद आ पहुंचे थे। रुद्राक्ष की मालाएं टूटकर नीचे बिखर गईं थी। जिधर देखो सांप ही सांप नजर आ रहे थे।

सती के अंगरक्षक बनकर आए वीरभद्र के ललकारते ही शिव के गण डमरू बजाते हुए पूरे आंगन में फैल गए। लोग सिहर उठे। डमरू की आवाज उस वक्त हमेशा की तरह आशीर्वाद जैसी नहीं, बल्कि दहशत लाने वाली लग रही थी और लग रहा था शिव डमरू की ताल पर नाच रहे होः तांडव नाच।

हर कोई बस अपनी सांस रोके अगली घटना का इंतजार कर रहा था।

पलक तक नहीं झपका सका था कोई कि दक्ष प्रजापति का कटा हुआ सिर आंगन में लुढ़कता हुआ नज़र आया। हर कोई खामोश था। सब जानते थे गलती दक्ष की थी। सबने उसके बाद इतना ही देखाः शिव ने हवनकुंड में सती की बेजान देह उठाकर कंधे पर रखी और चल दिए। 


इसकी पूरी कहानी को आप यहां य़ू-ट्यूब पर सुन सकते हैं---
शिव-सती की कहानी