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Sunday, April 12, 2020

लॉकडाउन डायरीः अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान

लॉकडाउन के अकेलेपन ने हमसे बहुत कुछ छीना है तो बहुत कुछ दिया है. धरती की आबो-हवा भी थोड़ी साफ हुई है, पर इस बात का अलग तरह से विश्लेषण करने की भी जरूरत है. पीएम ही एकमात्र प्रदूषक नहीं है. इस साफ आबोहवा में हमें आत्मविरीक्षण करने की जरूरत है कि 15 अप्रैल के बाद क्या होगा और सबसे जरूरी, कोरोना के बाद की दुनिया हम कैसी चाहते हैं. 

लॉकडाउन का, आसमान जाने, कौन-सा दिन है. दो-ढाई हफ्ते बीत गए हैं. तारीखों के बीच की रेखा धुंधली होकर मिट गई है. शुक्र हो, शनीचर हो या इतवार... क्या फर्क पड़ना है! यहां तक कि इतने बड़े महानगर में माचिस की डिबिया जैसे फ्लैट में, जहां बमुश्किल ही सूरज की किरनें आती हैं, दिन और रात का फर्क भी खत्म हो गया है.

हम सब वक्त के उस विमान में बैठे हैं जो लगता है कि स्थिर है, पर आसमान में बड़ी तेजी से भाग रहा है. कइयों के लिए वक्त नहीं कट रहा, वे एक मिनट में पंखे के डैने कितनी बार घूमता है इसका ठट्ठा कर रहे हैं. पर, वक्त के साथ उनके ठट्ठे धीमे पड़ते जा रहे हैं.

हम सबके बीच अकेलेपन का स्वर अब सीलने लगा है, भींगने लगा है. जैसे जाड़ों की सुबह चाय की कप की परिधि पर जम जाता है. हम उदास भारी सांसें लिए बच्चों के साथ खेलने की कोशिश करते हैं. अपने कंप्यूटर पर हम बार-बार काम निबटाने बैठते हैं. काम खिंचता जाता है. नेट की स्पीड कम होती जा रही है. लोगों ने नेट पर फिल्में और वेबसीरीज देखनी शुरू कर दी है. समय की स्पीड की नेट की स्पीड की तरह हो गई है. बीच-बीच में समय की भी बफरिंग होने लगती है.


दिल्ली का आसमान, लॉकडाउन के दौरान, फोटोः मंजीत ठाकुर

बॉस का आदेश है, हमें अच्छी खबरें खोजनी चाहिए. कहां से मिलेंगी अच्छी खबर? दुनिया भर में मौत का आंकड़ा एक लाख के करीबन पहुंचने वाला है. एक लाख! हृदय कांप उठता है. एक लाख अर्थियां! एक लाख कब्रें! एक लाख परिवारों की पीड़ा. क्या आसमान का हृदय नहीं फट पड़ेगा?

मैं देखता हूं निकोटिन के दाग से पीली पड़ी मेरी उंगलियों से पीलापन मद्धम पड़ता जा रहा है. लग रहा है मेरी पहचान मिट रही हो. आखरी कश लिए तीन हफ्ते निकल गए हैं.

तीन हफ्तों में मैं जान गया हूं कि मेरी बिल्डिंग में मेरी फ्लैट के ऐन सामने दो लड़के रहते हैं, दोनों दिन भर सोते हैं और रात को उनके कमरे की रोशनी जलती रहती है. मुझे हाल ही में पता चला है कि एक पड़ोसी है जिसके घर में दो बच्चे हैं. उनमें एक रोज सिंथेसाइजर बजाता है. मुझे पता नहीं था. सुबह नौ बजे रोज कैलाश खेर की टेर ली हुई आवाज़ में सफाई के महत्व वाला गाना बजाती कूड़े की गाड़ी आती है. मैं पहले उसकी आवाज नहीं सुन पाता था.

मेरी बिटिया को ठीक साढ़े नौ बजे रात को सोने की आदत है और मुझे यह भी पता चला है कि उसको सोते वक्त लोरी सुनने की आदत है.

अच्छी खबरों की तलाश में आखिरकार एक अच्छी खबर मिलती है. कोरोना के इस दौर में भी सुकून की एक खबरः धरती मरम्मत के दौर से गुजर रही है. चीन का एसईजेड, जिसको दुनिया का सबसे प्रदूषित इलाका माना जाता था, वहां की हवा में नासा बदलाव देखता है. नासा कहता है वहां की हवा साफ हो रही है. नासा की खबर कहती है वेनिस के नहरों का पानी फिर से पन्ने की तरह हरा हो गया है जिसमें डॉल्फिनें उछल रही हैं. गांव के चौधरी की निगाह हर जगह है. बस चौधरी अपना गांव न बचा पाया. कल तक सुना था करीब 15 हजार अमेरिकी मौत के मुंह में समा गए. मैंने सुना है, अमेरिका अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर बहुत सतर्क रहता है. क्या सब निबट जाए तो अमेरिका, चीन से बदला लेगा? हम तीसरे विश्वयुद्ध की प्रतीक्षा करें?

वेनिस की नहरें तो साफ हो गईं और अपने हिंदुस्तान में क्या होगा? गंगा-यमुना साफ होगी? मुंबई के जुहू बीच पर भी दिखेगी डॉल्फिन? पर नीला आसमान तो सबको दिख रहा है. दिल्ली में लोग सुपर मून, पिंक मून की तस्वीरें सोशल मीडिया पर उछाल रहे हैं. कुछ कह रहे हैं उन्हें परिंदो की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. लोग खिड़कियों के पास बैठे परिंदे देख रहे हैं.

मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली स्काईमेट जैसी एजेंसी कह रही है, गुरुग्राम से लेकर नोएडा तक पार्टिक्युलेट मैटर (पीएम) की मौजूदगी हवा में कम हुई है. यह कमी लॉकडाउन से पहले के दौर के मुकाबले 60 फीसद तक है.

जाहिर है, यह लॉकडाउन का असर है. तो फिर 15 अप्रैल के बाद क्या होगा? हालांकि प्रदूषण का स्तर नीचे गया है पर यह तो सिर्फ पीएम के स्तर में कमी है. वैज्ञानिक स्तर पर देखें, तो कारें प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है. कम से कम दिल्ली में तो ऐसा ही है. पर किसी भी सियासी मसले के हल के लिए सिर्फ पीएम (प्रधानमंत्री) और किसी भी प्रदूषणीय मसले के लिए पीएम (पार्टिक्युनलेट मैटर) के भरोसे रहना अनुचित होगा. हमको सल्फर ऑक्साइड आधारित और नाइट्रोजन ऑक्साइट आधारित प्रदूषकों पर भी नजर रखनी चाहिए.

अभी तो प्रदूषण के मसले पर हमारी आपकी स्थिति वैसी ही है, जैसे कबीर कह गए हैं

अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान

ऊंचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान.

लोग लोहे की चोरी करते हैं और सूई का दान करते हैं. तब ऊंचे चढ़कर देखते हैं कि विमान कितनी दूर है. अल्पदान करके हम सोच भी कैसे सकते हैं कि हमें बैकुंठ की ओर ले जाने वाला विमान कब आएगा?

हमने प्रदूषण को लेकर कुछ नहीं किया. न हिंदुस्तान ने, न चीन ने, न इटली ने...न चौधरी अमेरिका ने. हमने साफ पानी, माटी और साफ हवा के मसले को कार्बन ट्रेडिंग जैसे जटिल खातों में डालकर चेहरे पर दुकानदारी मुस्कुराहट चिपका ली है. कोप औप पृथ्वी सम्मेलनों में हम धरती का नहीं, अपना भला करते हैं.

याद रखिए, यह कयामत का वक्त गुजर जाएगा. बिल्कुल गुजरेगा. फिर खेतों में परालियां जलाई जाएंगी और तब हवा में मौजूद गैसों की सांद्रता ट्रैफिक के पीक आवर से समय से कैसे अलग होती हैं उसका विश्लेषण अभी कर लें तो बेहतर.

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Monday, March 23, 2020

कोराना ही नहीं, पहले भी तबाह किया है इंसानों को महामारियों ने

कोरोना यानी कोविड-19 से सारी दुनिया भयभीत है. इंसानी नस्ल की सबसे बड़ी दुश्मनों में संक्रामक बीमारियां रही हैं. भले ही, हम अभी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाए हैं कि कोविड-19 असल में, जैसा कि आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी दबे-छिपे जारी है, चीन या अमेरिका की किसी प्रयोगशाला में विकसित वायरस है या कुदरती आपदा, पर अब यह इंसानों को वैसे ही संक्रमित करके काल के गाल में समाने पर मजबूर कर रही है जैसे कभी काली मौत ने किया था.

पुराने जमाने में भी शोरगुल भरे बड़े व्यापारिक शहर रोगाणुओं का घर हुआ करते थे. ऐसे में एथेंस हो या कुस्तुनतुनिया (कॉन्सटेंटिनोपल) लोग इस अहसास के साथ ही जीते थे कि वे बीमार पड़कर अगरे हफ्ते मर सकते हैं. या उनको यह डर तो हमेशा बना रहता होगा कि कोई महामारी फैलेगी और उनका पूरा परिवार झटके में खत्म हो जाएगा. 


 काली मौत से फैला मृत्यु का साम्राज्य फोटो सौजन्यः जेनेटिक लिटरेसी प्रोजेक्ट

ऐसी महामारियों में सबसे मशहूर है काली मौत या ब्लैक डेथ. इसकी शुरुआत पूर्वी या मध्य एशिया में किसी जगह पर 1330 के दशक में हुई थी. तब, चूहों के शरीर पर रहने वाले पिस्सुओं में मौजूद यर्सीनिया पेस्टिस नाम के जीवाणु ने पिस्सुओं के काटे हुए लोगों को संक्रमित करना शुरू कर दिया था. मध्य या पूर्वी एशिया से यह जीवाणु रेशम मार्ग से होता हुआ 1343 में यूरोप के क्रीमिया पहुंच गया था.

एशिया से चूहों और पिस्सुओं के जरिए यह महामारी पूरे एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में फैल गई थी. बीस साल से कम समय में यह अटलांटिक महासागर के तटों तक पहुंच गई. हालांकि, एशिया में यह प्लेग या काली मौत का दूसरा मामला था, पर यूरोप में यह पहली बार पहुंचा था और वहां इसने भयानक तबाही मचा दी.

इस काली मौत से 7.5 करोड़ से लेकर 20 करोड़ के बीच लोग मारे गए थे जो यूरेशिया की कुल आबादी का 25 फीसद से अधिक था. इंग्लैंड में हर दस में से चार लोग मारे गए थे और आबादी महामारी से पहले की 37 लाख से घटकर 22 लाख रह गई थी. युवाल नोरा हरारी की किताब होमो डेयस में इस मौत का आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, "फ्लोरेंस शहर में एक लाख की आबादी में से 50 हजार लोग मारे गए."

एस्टिन अक्लोन की किताब ए पेस्ट इन द लैंडः न्यू वर्ल्ड एपिडेमिक्स इन अ ग्लोबल पर्सपैक्टिव में लिखा है, "यूरोप के कई देशों में 60 फीसद तक आबादी साफ हो गई थी." विश्व जनगणना का अनुमान लगाने वाली हिस्टोरिकल एस्टीमेट्स ऑफ वल्र्ड पॉप्युलेशन के मुताबिक, "चौदहवीं सदी में प्लेग की वजह से दुनिया की आबादी में काफी कमी आई थी. यह 47.5 करोड़ से घटकर 35 से 37.5 करोड़ के बीच रह गई थी. आबादी के लिहाज से अपने महामारी पूर्व की स्थिति में आने में यूरोप को 200 साल लग गए. फ्लोरेंस जैसे शहर तो 19वीं सदी में आकर उस पुरानी स्थिति में लौट पाए."

लेकिन काली मौत न तो अकेली ऐसी घटना थी और न ही वह इतिहास की सबसे ख़राब महामारी थी, सबसे ज़्यादा विनाशकारी महामारियों ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और प्रशांत महासागर के टापुओं पर यूरोपीय लोगों के हमलों के बाद तांडव मचाया.

हरारी अपनी किताब में लिखते हैं, "5 मार्च, 1520 को जहाज़ों का एक छोटा बेड़ा क्यूबा के द्वीप से मैक्सिको के लिए रवाना हुआ. इनमें घोड़ों के साथ 900 स्पेनी सैनिक, तोपें और कुछ अफ्रीकी गुलाम भी थे. इनमें से एक गुलाम फ्रासिस्को दि एगिया अपनी देह पर कहीं अधिक घातक माल लादे था....चेचक का विषाणु."

फांसिस्को के मैक्सिको में उतने के बाद इस विषाणु ने उसके शरीर में तेजी से बढ़ना शुरू किया और उसके शरीर पर भयावह फुंसियां फूट पड़ी. बुखार में तपते फ्रांसिस्को को मैक्सिको में केम्पोआलान के एक अमेरिकी परिवार के घर पर रखा गया. नतीजतन, दस दिन में पूरा केम्पोआलान कब्रगाह में बदल गया.

उस समय वहां की माया सभ्यता के लोग वहां के तीन दुष्ट देवताओं की कारस्तानी मानते रहे. पुरोहितों से वैद्यों से परामर्श किया गया, प्रार्थना, शीतल स्नान, शरीर पर तारकोल चुपड़ने से लेकर तमाम उपाय अपनाए गए, पर फायदा नहीं हुआ. हजारों की संख्या में लाशें सड़कों पर सड़ती रहीं. शवों को दफनाने की हिम्मत किसी में नहीं थी. ऐसे में अधिकारियों ने आदेश दिया कि मकानों को शवों पर गिरा दिया जाए.

सन 1520 के सितंबर में महामारी मैक्सिको की घाटी में पहुंच गई और अक्तूबर में अज्टैक राजधानी तेनोचतित्लान में घुस गई जो ढाई लाख की आबादा वाला भव्य शहर था. दो महीनों के भीतर वहां के सम्राट समेत 35 फीसद आबादी खत्म हो गई. जहाजी बेड़े के मैक्सिको पहुंचने के छह महीने के भीतर सवा दो करोड़ आबादी वाले मैक्सिको में डेढ़ करोड़ से भी कम लोग जिंदा बचे. वजह था, चेचक. अगले कई दशकों तक चेचक का प्रकोप जारी रहा और उसके साथ फ्लू, खसरा और दूसरी संक्रामक महामारियों की वजह से 1580 तक मैक्सिको की आबादी महज 20 लाख रह गई.

इस घटना के दो सौ साल बाद, 19 जनवरी, 1778 को ब्रिटिश खोजी जेम्स कुक हवाई द्वीप पहुंचा. वहां की आबादी उस वक्त 5 लाख थी. उस समय तक वे लोग यूरोप और अमेरिका के संपर्क में नहीं आए थे. कुक के बेड़े की वजह से हवाई द्वीप पर फ्लू, टीबी, और सिफलिस जैसे रोग फैले. बाद में आए यूरोपियनों ने मोतीझरा और चेचक भी जोड़ दिए. और 1853 तक हवाई द्वीप की आबादी सिर्फ 70 हजार ही रह गई.

आज से सौ साल पहले 1918 में उत्तरी फ्रांस में जनवरी के महीने में खंदकों से एक खास तरह की बीमारी फैली जो सैनिकों में फैल रही थी और जिसका नाम स्पेनिश फ्लू रखा गया. पहले विश्वयुद्ध के दौरान वह मोर्चा एक नेटवर्क से जुड़ा था. ब्रिटेन अमेरिका भारत और ऑस्ट्रेलिया से लगातार आदमियों और रसद की आपूर्ति वहां की जा रही थी. पश्चिमी एशिया से तेल, अर्जेंटीना से अनाज और बीफ, मलाया से रबर, और कांगो से तांबा भेजा जा रहा था. बदले में उन सबको स्पेनिश फ्लू मिला. कुछ ही महीनों में आधा अरब लोग यानी दुनिया की उस समय की आबादी का करीबन 35 फीसद हिस्सा इस बिषाणु की चपेट में आ गए.

हरारी लिखते हैं, “भारत में तो स्पेनिश फ्लू से 5 प्रतिशत आबादी यानी डेढ़ करोड़ लोग मारे गए. ताहित द्वीप पर 14 फीसद लोग, सामोआ में 20 फीसद लोग मरे. कांगो की खदानों में हर पांच में से एक मजदूर मर गया. कुल मिलाकर एक साल के भीतर करीबन 10 करोड़ लोग मारे गए."

वैसे ध्यान रखने वाली बात है कि पहले विश्वयुद्ध के दौरान 1914 से 1918 के बीच 4 करोड़ लोग अलग से मरे.

पिछले कुछ सालों में भी हमने नए किस्म की महामारियां देखी हैं. 2002-03 में सार्स, 2005 में फ्लू, 2009-10 में स्वाइन फ्लू और 2014 में इबोला.

लेकिन सार्स की वजह से पूरी दुनिया में 1000 से कम लोग मरे. पश्चिम अफ्रीका में शुरू हुआ इबोला शुरुआत में नियंत्रण से बाहर जाता लगा था और कुल 11000 लोग मारे गए.

वैसे एक महामारी ऐड्स भी रही, जिसकी वजह से 1980 के दशक से लेकर आजतक 3 करोड़ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. पर इन सबको हमने काबू कर लिया है.

आज कोरोना एक बड़े खतरे के रूप में पूरी मानवता के सामने आ उपस्थित हुआ है. अभी इसके इलाज के लिए दवाएं नहीं है, वैज्ञानिक लगे हुए हैं. अभी इससे बचने के लिए कुछ बुनियादी स्वच्छता के उपाय ही एकमात्र तरीके हैं. सामाजिक दूरी और आइसोलेशन ही उपाय है.

उम्मीद है, कोरोना को हम रोक लेंगे.

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Thursday, February 27, 2020

हवा को बांधने वाले उत्साही लड़के की कहानी द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड

द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड मलावी के एक ऐसे गांव को बचाने वाले लड़के की कहानी है जहां भुखमरी है और भयानक सूखा है. उम्दा अभिनय, शानदार पटकथा और बेहतरीन सिनेमैटोग्राफी इस फिल्म में दर्शक को अंत तक बांधे रखती है. यह फिल्म एक राजनीतिक टिप्पणी भी है

कुछ फिल्मों को सिर्फ इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि उनमें एक ऐसा संदेश होता है, जो मुश्किल वक्त में भी इंसान को जिंदा रहने की वजहें देती हैं. लेकिन अगर किसी फिल्म में एक मजबूत और प्रेरणास्पद कथाक्रम के साथ ही, शानदार सिनेमैटोग्राफी और बेजोड़ संपादन और उम्दा अभिनय भी हो तो बात ही क्या!

किसी को पता नहीं था कि लेखक-निर्देशक चिवेटेल ज्योफोर अपने पहले ही शाहकार में ऐसा कमाल कर गुजरेंगे. ऐसी कहानी, जिसमें राजनीतिक टिप्पणी है, पर वह लाउड नहीं है, ऐसी कहानी जिसमें त्रासदी है, भूख है, पर वह इंसान को बेचारा साबित नहीं करती. बल्कि तमाम बाधाओं के बीच प्रतिभा के विस्फोट और संसाधन जुटाने की चतुराई के साथ एक पिता और पुत्र के पीड़ाओं के बीच एकदूसरे के साथ खड़े होने की कथा कहती है.

फिल्म में कमाल की किस्सागोई है जिसमें संवेदनशीलता और सहानुभूति दोनों भावनाएं गजब तरीके से पिरोई गई हैं. कहानी में प्रवाह है.

फिल्म द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड का वीडियो ग्रैब


असल में, ज्योफोर ने मलावी नाम के देश के एक इंजीनियर विलियम कंक्वाम्बा की असली कहानी को रूपहले परदे के लिए ढाला है और इस कहानी में परत दर परत आप गरीबी, सूखा, गृहयुद्ध और भुखमरी को उघड़ता देखते हैं. मलावी में कथित तौर पर लोकतंत्र आने के बाद राजनैतिक नेतृत्व का रवैया भी उधेड़ा गया है.

फिल्म की शुरुआत एक ऐसे लॉन्ग शॉट से होती है जहां हरी फसल के फोरग्राउंड में मलावी के आदिवासी कबीलों के पारंपरिक वेषभूषा में आते दिखते हैं. इनकी मेहमानवाजी कबीले के सरदार के जिम्मे है. अगले शॉट में मक्के की पकी फसल है जिसकी कटाई के दौरान ही नायक विलियम के दादाजी की मौत हो जाती है. गरीबी से जूझ रहे गांव में हर तरफ सूखा और गरीबी है और निर्देशक आहिस्ते से अपनी बात को शॉट्स के बेहतर संयोजन से बता जाते हैं. विलियम अपने गांव में रेडियो के लिए छोटे विंड टरबाइन के जरिए बिजली का इंतजाम करते हैं. यहां निर्देशक ज्योफोर थोड़ी रचनात्मक छूट लेते हैं, पर ज्योफोर की रचनात्मकता इस सृजनात्मक छूट का औचित्य साबित भी करती है, जो कहानी को दृश्यात्मक बनाने के लिहाज से जरूरी भी थी कि सूखे ग्रस्त गांव में कुआं सूखा नहीं था और उसका पानी खेतों तक पहुंचाने के लिए बड़े पवनचक्की की जरूरत होती है.



हालांकि बड़ी पवनचक्की बनाने के वास्ते विलियम को अपने पिता की एकमात्र पूंजी साइकिल की जरूरत है. और यहीं नायक के साथ पिता के रिश्तों में तनाव आता है. पिता इस नए प्रयोग के लिए न जाने क्यों अपनी साइकिल देने से मना करता है और यह जाने क्यों पुत्र के साथ उसकी प्रतिस्पर्धी भावना है.

इस फिल्म में निर्देशक-लेखक ज्योफोर ने खुद ट्राइवेल (विलियम के पिता) का किरदार निभाया है. यह ऐसा चरित्र है जो एक किसान और पिता के तौर पर दहशत के साए में जीता है. उनके अभिनय में गजब की गहराई है. उनकी आंखों में उनका किरदार दिखता है. उनके पुत्र विलियम के किरदार में मैक्सवेल सिंबा हैं और वह इस फिल्म की जान हैं.

फ्रेम दर फ्रेम आप बगैर किसी संवाद से जबरिया सुझाए बिना जानते जाते हैं कि विलियम का यह गांव गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा है. यहां भी जमीन के मालिकान जमीनों के सौदे करने की कोशिश करते हैं. सियासी लोग हमेशा की तरह सनकी, हिंसक और भ्रष्ट दिखाए गए हैं जो एक हद तक सही भी है.

इन सबके बीच विलियम के भीतर तकनीक को लेकर कुदरती रुझान है और स्कूली शिक्षा को सरकार की मदद के अभाव में स्कूल दर स्कूल बंद होते हैं और वहां विलियम स्कूल की लाइब्रेरी की मदद लेता है. वहीं एक किताब से उसे लगता है कि बिजली की मदद से वह गांव को बचा ले जाएगा.

सिंबा अपने अभिनय में परिपक्वता से उभरे हैं और वह बतौर अभिनेता कहीं भी ज्योफोर से उन्नीस नहीं बैठते. फिल्म में हर फ्रेम की लाइटिंग चटख है और आपको बांधे रखती है. सिनेमैटोग्राफर डिक पोप ने रंगों का खास खयाल रखा है.

यह फिल्म हाल ही में नेटफ्लिक्स पर भारतीय दर्शकों के लिए उपलब्ध है. और पूरी फिल्म की कहानी में उतार-चढ़ाव के बीच, हालांकि आपको लगता है कि विलियम आखिर में कामयाब होंगे ही, पर साइकिल के पहिए की मदद से बनी पवनचक्की जब हवा के साथ तेज घूमती है तो आपकी दिल की धड़कनें बढ़ती हैं और कुछेक सेकेंड के सिनेमैटिक साइलेंस के बाद जब कुएं पर लगा और विलियम के बनाए मोटर की पाइप से पानी आने लगता है तो फिल्म के किरदारों के साथ आपका मन में रोमांच में कूदने लग जाने का करने लगेगा.

इस फिल्म की यही कामयाबी है.

हिंसा, भूख, त्रासदियों के दौर में अ बॉय हू हार्नेस्ड द विंड सपने देखने और उन्हें साकार करने की गाथा है.

फिल्मः द बॉय हू हार्नेस्ड द विंड

निर्देशकः चिवेटल ज्योफोर

कहानीः विलियम कम्कवम्बा

पटकथाः चिवेटल ज्योफोर

अभिनेताः मैक्सवेल सिंबा, चिवेटल ज्योफोर

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Wednesday, February 19, 2020

वनवास के बाद बाबूलाल मरांडी की घर वापसी से पांचों उंगली घी में

झारखंड में भाजपा को बाबूलाल मरांडी की और मरांडी को भाजपा की जरूरत थी. दोनों एकदूसरे के पूरक बनेंगे तो प्रदेश भाजपा को एक साफ-सुथरी छवि का आदिवासी नेता मिलेगा और मरांडी को अपने लिए मजबूत संगठन. 2009 से 2019 के लोकसभा तक, एक के बाद एक चार चुनाव हार चुके बाबूलाल मरांडी के लिए भाजपा में शामिल होना उनके सियासी करियर के लिहाज से संजीवनी की तरह है.


आखिरकार झारखंड (Jharkhand) के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी का 14 साल का वनवास खत्म हो ही गया. मरांडी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में 'घर वापसी' हो गई. बाबूलाल खुद तो भाजपा में आए ही, अपने साथ-साथ वह पूरी पार्टी भी लेकर आए और उन्होंने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) का भाजपा में विलय भी कर दिया. केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने बाबूलाल मरांडी को माला पहनाकर पार्टी में शामिल करवाया. अब उम्मीद यह है कि बाबूलाल मरांडी को प्रदेश भाजपा में बड़ा पद दिया जा सकता है.

बाबूलाल मरांडी को भाजपा की जरूरत समझ में आती है पर सवाल यह है कि आखिर भाजपा को मरांडी की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? असल में, इन सवालों के उत्तर मार्च में संभावित राज्यसभा चुनावों में भी मिल सकते हैं. झाविमो के भाजपा में विलय से झारखंड की 2 सीटों में से भाजपा के लिए एक सीट जीतने की राह आसान हो गई है. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आने से यह संभावनाएं बनी हैं. 2014 में निर्विरोध जीते राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रेमचंद गुप्ता और निर्दलीय परिमल नथवाणी भले ही इस बार झारखंड से राज्यसभा में न जाएं, पर इस बार भी यह चुनाव निर्विरोध ही होने की उम्मीद है. जहां भाजपा की एक सीट तय मानी जाने लगी है. वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की एक सीट पहले से पक्की है.

झामुमो सूत्र संकेत दे रहे हैं कि पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन को सीबीआई अदालत से राहत दिलाने वाले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और पूर्व सांसद संजीव कुमार को झामुमो फिर से राज्यसभा भेज सकता है.

असल में, प्रदेश भाजपा में इसे लेकर थोड़ी पेशोपेश की स्थिति है. नेतृत्व अभी यह तय नहीं कर पा रहा है कि दांव स्थानीय नेताओं पर लगाया जाए या किसी बाहरी को टिकट दिया जाए.

9 अप्रैल को राज्यसभा में झारखंड से दो सीटें खाली हो रही हैं. चुनाव में जीत के लिए एक उम्मीदवार को कम से कम 28 विधायकों के समर्थन की जरूरत होगी. झामुमो के पास 30 विधायक हैं. बाबूलाल मरांडी के भाजपा में शामिल होने के बाद इस पार्टी की सदस्य संख्या 26 हो जाएगी. आजसू के दो विधायकों को मिला लें तो भाजपा समर्थक विधायकों की संख्या 28 हो जाती है. वैसे भाजपा का दावा है कि दो निर्दलीय विधायक भी उनके संपर्क में हैं. इन्हें मिला लें तो भाजपा 30 तक पहुंच जाती है. इस प्रकार झामुमो-भाजपा अपने-अपने उम्मीदवारों को राज्यसभा भेज सकते हैं.

अब बात, बाबूलाल मरांडी के भाजपा में आऩे की. असल में, मरांडी को अपने सियासी करियर का अस्तितिव बचाए रखने के लिए आज न कल यह कदम तो उठाना ही था.

झारखंड जब बिहार से अलग हुआ था तो पहले मुख्यमंत्री बने थे बाबूलाल मरांडी. तब भाजपा के वे झारखंड के कद्दावर नेता माने जाते थे. पर 28 महीनों तक मुख्यमंत्री रहने के बाद गुटबाजी की वजह से उन्हें कुरसी छोड़नी पड़ी थी और उनकी जगह अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाया गया था. तब से यह टीस उनके मन में पैठी हुई थी. 2006 में उन्होंने गुटबाजी का आरोप लगाकर पार्टी छोड़ दी और तभी से उनके सियासी करियर पर ग्रहण लगना शुरू हो गया. लगातार दस साल तक, यानी 2009 के बाद 2019 तक बाबूलाल मरांडी कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे. उनकी किस्मत ने उनका साथ एक दशक बाद 2019 के विधानसभा चुनावों में दिया, जब वह धनवार से जीते.

2009 से 2019 लोकसभा चुनाव तक, मरांडी लगातार चार चुनाव हार चुके थे. 2009 में वे कोडरमा से सांसद चुने गये थे. कोडरमा से 2004 और 2006 के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे दुमका चले गये जहां शिबू सोरेन ने उन्हें हरा दिया था.

2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने धनवार और गिरिडीह से परचा दाखिल किया था पर दोनों ही जगह से उनको पराजय का मुंह देखना पड़ा था. 2014 के बाद उनकी पार्टी के छह विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए थे. इससे उनकी पार्टी और छवि दोनों को गहरा धक्का लगा था. लगातार चुनाव हारने से भी मरांडी की छवि कमजोर नेता के तौर पर बनती जा रही थी और यह साफ दिखने लगा था कि अब बाबूलाल मरांडी वह नेता नहीं रहे जो झारखंड स्थापना के वक्त थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा से फिर से किस्मत आजमाई पर भाजपा की अन्नपूर्णा देवी ने उन्हें करारी शिकस्त दी थी. और इस बार यानी 2019 के झारखंड विधानसभा चुनाव में भी उनके लिए मुकाबला कोई बहुत आसान नहीं रहा, पर आखिरकार वह जीत गए.

अब, 2014 में मिले सबक को याद रखकर, जब उनके 8 जीते विधायकों में से 6 भाजपा में मिल गए थे, मरांडी ने हर कदम फूंक-फूंककर रखा. उनकी पार्टी के टिकट पर जीते 3 विधायकों में से पहले उन्होंने बंधु तिर्की को पार्टी से बाहर किया और फिर प्रदीप यादव को. तिर्की तो कांग्रेस में शामिल हो गए पर प्रदीप यादव को लेकर खुद कांग्रेस में घमासान मचा हुआ है. प्रदेश कांग्रेस के एक कार्यकारी अध्य़क्ष डॉ. इरफान अंसारी ने इस प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है. वह यादव को पार्टी में नहीं आऩे देने को लेकर कमर कसे हुए हैं.

बहरहाल, अपने दोनों विधायकों से छुट्टी पाने के बाद मरांडी भाजपा में आए हैं, क्योंकि अब विलय के बाद उन पर दल-बदल कानून प्रभावी नहीं रहेगा. और यह भी तय है कि मरांडी को पार्टी कोई प्रतिष्ठित पद देगी. इसकी एक वजह यह भी रही कि खुद अमित शाह बाबूलाल मरांडी को पसंद करते हैं और मरांडी की पृष्ठभूमि भी संघ के प्रचारक की रही है. मरांडी भाजपा में आने को कितने आतुर थे इसकी झलक उनके इस बयान से भी मिलती है कि वह भाजपा दफ्तर में झाड़ू लगाने को भी तैयार हैं.

सीधे-सादे राजनीतिज्ञ के रूप में छवि बनाए मरांडी को भाजपा में वाकई पद भी मिलेगी और प्रतिष्ठा भी, पर उनकी पार्टी में यह असमंजस है कि उनके पार्टी पदाधिकारियों के हिस्से में क्या आएगा?

Friday, February 14, 2020

नदीसूत्रः मुंबई की मीठी नदी का कड़वा वर्तमान और जहरीला भविष्य

मायानगरी मुंबई कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर आरे के जंगल बचाने जाग गई थी. पर शहर के लोगों ने एक मरती हुई नदी पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया. मुंबई ने एक नदी को मौत की नींद सोने पर मजबूर कर दिया है. नाम है मीठी, पर इसका भविष्य और वर्तमान दोनों कड़वा-कसैला है.

मायानगरी मुंबई कुछ महीनों पहले सोशल मीडिया पर आरे के जंगल बचाने जाग गई थी. पर शहर के लोगों ने एक मरती हुई नदी पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया. मुंबई ने एक नदी को मौत की नींद सोने पर मजबूर कर दिया है. नाम है मीठी, पर इसका भविष्य और वर्तमान दोनों कड़वा-कसैला है. खुद महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने माना है कि मीठी नदी में अवशिष्ट पदार्थ की मात्रा तयशुदा मानकों से 16 गुना अधिक है.

करीब 17.8 किमी लंबी मीठी नदी मुंबई के दिल से गुजरती है और माहीम क्रीक में जाकर मिल जाती है और बोर्ड के मुताबिक इसमें प्रदूषण उच्चतम स्तर का है.

झटके खाने वाली बात यह है कि आरे के जंगलों पर आरा चलने की खबर से एक्टिव मोड में आ गए मुंबईकर मीठी नदी की दुर्दशा पर अमूमन चुप हैं. और सरकार ने इस नदी के पुनरोद्धार पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए हैं पर समस्या का निराकरण कहीं दिखता तक नहीं है. इस नदी में अभी फीकल कॉलीफॉर्म, एक बैक्टिरिया जो इंसानों और जानवरों के मल में मौजूद होता है, की उच्चतम मात्रा मौजूद है. 2018 के जनवरी-मार्च महीनों में मीठी नदी में यह बैक्टिरिया 1,600 प्रति 100 मिली था, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक यह तयशुदा मात्रा 100 प्रति 100 मिली ही होनी चाहिए.

हालांकि, 2005 में मुंबई में आई बाढ़ के बाद राज्य सरकार ने मीठी रिवर डिवेलपमेंट ऐंड प्रोटेक्शन अथॉरिटी (एमआरडीपीए) का गठन किया था और इसने ताजा जानकारी मिलने तक (2018 तक), इसके मद में 1,156 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं.

करीबन डेढ़ दशक के पुनरोत्थान कार्य के बाद भी नदी की सांस घुट रही है. असल में, इंडिया टुडे में 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में लिखा गया कि इस रकम का अधिकतर हिस्सा नदी को गहरा और चौड़ा करने में खर्च हो गया. साथ में नदी के साथ की दीवारों की भी मरम्मत की गई. महाराष्ट्र सरकार के ताजा आंकड़े के मुताबिक, मीठी नदी को पुनर्जीवित करने का पूरा मद करीबन 2136.89 करोड़ रुपए है. इनमें से करीबन 1156.75 करोड़ रु. को 12 पुल बनाने. नदी को चौड़ा करने, दीवारें खड़ी करने, अतिक्रमण हटाने, सर्विस रोड बनाने और गाद हटाने में खर्च किया जा चुका है.

पर यह तो अगली बाढ़ से बचाव का रास्ता हुआ. यह तो महानगर का स्वार्थ है. नदी के लिए क्या काम हुआ? इस रिपोर्ट में लिखा गया कि उस वक्त मद में बचे 600 करोड़ को नदी पर मौजूद पांच पुलो, माहीम कॉजवे, तान्सा, तुलसी, धारावी और माहीम रेलवे ब्रिज को चौड़ा करने में खर्च किया जाना है. इससे नदी का संकरा रास्ता चौड़ा हो जाएगा.

पर नदी की सेहत की बात करें तो मीठी नदी में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) सुरक्षित स्तर से पांच गुना अधिक है. बीओडी पानी में जलीय जीवन के जीवित रहने के लिए जरूरी ऑक्सीजन की मात्रा होती है. हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित 2019 की एक रिपोर्ट में आइआइटी बॉम्बे और एनईईआरआइ को उद्धृत करते हुए कहा है कि औद्योगिक अपशिष्ट और ठोस कचरे ने मीठी नदी को एक खुले नाले में बदल दिया है.

वैसे इस नदी को साफ करना कोई खेल नहीं है. इसके दोनों किनारों पर करीब 15 लाख लोग झुग्गियों में रहते हैं.

द हिंदू में प्रकाशित जून, 2019 एक लेख में महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री रामदास कदम को उद्धृत किया गया है जिन्होंने 2015 में कहा था कि मीठी नदी में 93 फीसद अपशिष्ट घरेलू है जबकि बाकी का 7 फीसद ही औद्योगिक कचरा है. पर सचाई यह है कि इस नदी के किनारे करीबन 1500 औद्योगिक इकाईयां है और उनमें से अधिकतर अपना अपशिष्ट सीधे इसी नदी में बहाते हैं.

असल में इस नदी के किनारे की झुग्गियों में कचरा निस्तारण व्यवस्ता ठीक नहीं है. ऐसे में लोगों को सारा अपशिष्ट नदी में ही डालने पर मजबूर होना होता है.

2004 में मीठी नदी के प्रदूषण पर महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में एक रिपोर्ट दाखिल की गई जिसमें कहा गया कि यह नदी अपने उद्गम पर ही प्रदूषित हो जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक, "नदी घनी आबादी से होकर बहती है और इस आबादी का सीवेज इस नदी को मुंबई के सबसे बड़े नाले में बदल देता है."


मीठी नदी, मुंबई 
सरकार ने उस वक्त इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और जब 26 जुलाई, 2005 को शहर को एक ही दिन में 944 मिमी की बरसात झेलनी पड़ी और जिसमें करीबन 1000 लोग मारे गए तो लोगों की आंख खुली. इस सैलाब के पीछे बरसात के साथ साथ नदी का बदला भी था. एक फैक्ट फाइंडिंग कमिटी ने पाया कि मीठी की कम चौड़ाई ही इस सैलाब की बड़ी वजहों में से क थी. बाढ़ के बाद सरकार ने प्रस्ताव पास किया और जैसा कि ऊपर मैंने बताया, एमआरडीपीए की गठन किया गया. इस अथॉरिटी की भूमिका विकास योजनाएं बनाना और इसके किनारे रह रहे लोगों का पुनर्वास वगैरह था.

पर डेढ़ दशक के बाद और हजार करोड़ रुपए बहाने के बाद आज भी मीठी नदी की हालत जस की तस ही है. वैसे महाराष्ट्र में पिछली फड़णवीस सरकार ने मीठी को बचाने के लिए एक रिवर एंदेम बनाया था. पर, नदी को बचाने के लिए घाट, सड़क-पुल-दीवार बनाना झुंझला देने वाली बात है.

हमारी नदियों को आरती और चुनर चढ़ाए जाने की ज़रूरत नहीं है. उनमें सीवर का मल नहीं, साफ पानी बहे, तब उनकी जान बचेगी. मीठी नदी मर गई तो मुंबई के लिए सबक कड़वा होगा.

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Friday, February 7, 2020

नदीसूत्रः स्वर्ग ले जानी वाली नदी वैतरणी आखिर है किधर

हिंदुओं के लिए स्वर्ग के द्वार खोलने वाली वैतरणी नदी ओडिशा में भी है और महाराष्ट्र में भी. रावी, व्यास और सतलज हांगकांग में भी हैं और कर्नाटक की अधिकांश नदियों के नाम वैदिक संस्कृत में हैं. जाहिर है, नदियों के नाम इतिहास के सूत्र छोड़ते हैं. भाषा विज्ञानियों को इस दिशा में काम करना चाहिए.

नदियों के नामों को लेकर पिछली एक पोस्ट पर बहुत दिलचस्प जानकारियां मुझे मिली थीं और आपके साथ साझा भी किया था. इसको आगे बढ़ाने का मन है. 

हिंदुओं के लिए गरुण पुराण बेहद महत्वपूर्ण है. मुमुक्षुओं के लिए इसकी महत्ता काफी अधिक है और आखिरी सांसें गिन रहे लोगों को यह पुराण पढ़कर सुनाया जाता है. गुरुड़ पुराण के मुताबिक, मरने के बाद वैतरणी नाम की नदी पार करनी होती है. बहरहाल, ओडिशा में एक नदी है जिसका नाम वैतरणी है. इसके बेसिन को ब्राह्मणी-वैतरणी बेसिन कहा जाता है. लेकिन इसके साथ ही महाराष्ट्र में भी एक वैतरणी नदी है, जो नासिक के पास पश्चिमी घाट से निकलती है और अरब सागर में गिरती है. अब इसमें से किस नदी को पार करने पर स्वर्ग मिलेगा यह स्पष्ट नहीं है.

वैतरणी से थोड़ी ही दूरी पर मशहूर गोदावरी का भी उद्गम स्थल है, और नासिक के पास से निकलकर यह प्रायद्वीपीय भारत की सबसे लंबी नदी बन जाती है. इसको दक्षिण की गंगा भी कहते ही हैं. लेकिन, एक अदद गोदावरी नेपाल में भी है. वैसे, बुंदेलखंड के चित्रकूट में एक गुप्त गोदावरी भी निकलती है और जो एक पहाड़ी गुफा के भीतर से पतली धारा के रूप में बहती है. गोदावरी की सहायक नदी है इंद्रावती, जो छत्तीसगढ़ में बहती है पर एक इंद्रावती नेपाल में भी मौजूद है.

उत्तर प्रदेश की प्रदूषित नदियों में शर्मनाक रूप से टॉप पर रहने वाली गोमती नदी की बात करें तो एक गोमती त्रिपुरा में भी है जो वहां से आगे बांग्लादेश में घुस जाती है. इसी नदी पर त्रिपुरा में का सबसे बड़ा और बदनाम बांध बना हुआ है. गंगा का नाम तो नदी शब्द का करीबन पर्यायवाची ही बन गया है. आदिगंगा से लेकर गोरीगंगा और काली गंगा से लेकर वनगंगा और बाल गंगा तक नाम की नदियां अस्तित्व में हैं.

पंजाब की रावी का एक नाम इरावती भी है. लेकिन, एक और इरावती है. पर यह इरावती नमाइ और माली नदियों के मिलने से बनती है और म्यांमार में बहती है. यह हिमालयी हिमनदों से शुरू होती है. पंजाब वाली रावी पाकिस्तान होती हुई सिंधु में मिल जाती है और म्यांमार वाली इरावदी अंडमान सागर में.

परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि कावेरी नाम की भी दो नदियां हैं. एक तो वह मशहूर कावेरी नदी, जिसके पानी के लिए तमिलनाडु और कर्नाटक में रार मचा रहता है. जबकि दूसरी कावेरी पश्चिम की तरफ बहने वाली नदी नर्मदा की सहायक नदी है और दांडेकर के मुताबिक, ओंकारेश्वर नर्मदा और कावेरी के संगम पर ही बसा है.

दांडेकर अपने लेख में चर्चा करती हैं कि हांगकांग में सतलज, झेलम और व्यास नदियां मौजूद हैं. संभवतया, यह 1860 के आसपास हुआ जब हांगकांग में तैनात पंजाब के सिख सैनिकों ने वहां की नदियों के नाम अपने पसंद के रख दिए. हांगकांग की सबसे बड़ी ताजे पानी की नम भूमि लॉन्ग वैली को दोआब नाम दिया गया और यह वहां की सतलज और व्यास के बीच की भूमि है. शायद, इन छोटे मैदानों को देखकर सिख फौजियों को अपने वतन की याद आती होगी.

दांडेकर अपने लेख में धीमान दासगुप्ता को उद्धृत करती हैं जो कहते है कि लोग अपने साथ कुछ नाम भी लिए चलते हैं. मसलन, "प्राचीन वैदिक लोग अपने साथ नाम लेकर चले थे. असली सरस्वती और सरयू नदियां (जिनका जिक्र रामायण में है, अफगानिस्तान और ईरान में थीं. असली यमुना फारस की मुख्य देवी थीं." जाहिर है, इतिहास के इस नए नजरिए के साथ भी देखना चाहिए.

नदियों के नामों में वैदिक संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट रूप से कर्नाटक में दिखता है जहां शाल्मला, नेत्रावती, कुमारधारा, पयस्विनी, शौपर्णिका, स्वर्णा, अर्कावती, अग्नाशिनी, कबिनी, वेदवती, कुमुदावती, शर्वती, वृषभावती, गात्रप्रभा, मालप्रभा जैसी नदियों के नाम मौजूद हैं.

गुजरात की नदियों साबरमती और रुक्मावती का नाम याद करिए. कितने सुंदर और शास्त्रीय नाम हैं! लेकिन एक नदी वहां ऐसी भी है जिसका नाम है भूखी. एक अन्य नदी है उतावली. राजस्थान अलवर जिले में एक नदी का नाम जहाजवाली भी है.

कुछ नदियों के नाम भी वक्त के साथ बदले हैं जैसे, गोदावरी आंध्र प्रदेश में गोदारी कही जाने लगती है और पद्मा बांग्लादेश में पोद्दा. चर्मावती चंबल हो जाती है और वेत्रावती, बेतवा.

दांडेकर लिखती हैं, कुछ नदियों के नाम में इलाकाई और भाषायी असर भी आता है. मसलन, तमिल और मलयालम में आर और पुझा (यानी नदी) कई नदियों के नाम में जुड़ा हुआ है. गौर कीजिए, चालाकुडी पूझा, पेरियार, पेंडियार वगैरह. इसी तरह भूटान, सिक्कम और तवांग इलाके में छू का मतलब नदी ही होता है. अब वहां की नदियों हैं, न्यामजांगछू या राथोंग छू. तो अब इसके आगे नदी शब्द मत लगाइए. क्योंकि पहले ही छू कहकर नदी कह चुके हैं. असम में भी नदियों के नाम के आगे कुछ खास शब्द लगाए जाते हैं, और वो हैं दि. दिहांग, दिबांग, दिखोऊ, दिक्रोंग आदि. बोडो में दि शब्द का मतलब होता है पानी और याद रखिए ब्रह्मपुत्र घाटी में सबसे पहले बसने का दावा भी बोडी ही करते हैं.

जाहिर है, नदियों के नाम इतिहास के सूत्र छोड़ते हैं. भाषा विज्ञानियों को इस दिशा में काम करना चाहिए.

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Monday, October 14, 2019

नदीसूत्रः हर नदी का नाम हमारे विस्मृत इतिहास का स्मृति चिन्ह है

नदियों के नाम के साथ जुड़े किस्से बहुत दिलचस्प हैं. हर नाम के पीछे एक कहानी है और एक ही नाम की नदियां देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद हैं.


पिछले कई नदीसूत्र नदियों की जिंदगी पर उठते सवालों पर आधारित थे. आदिगंगा, रामगंगा, खुद गंगा, गोमती... इन सभी नदियों में प्रदूषण और नदियों से सारा पानी खींच लेने की हमारी प्रवृत्ति ने देश भऱ की नदियों के अस्तित्व पर गंभीर प्रश्न खड़े कर दिए हैं. फिर एक सवाल कौन बनेगा करोड़पति में दिखा कि दक्षिण की गंगा किस नदी को कहते हैं? जाहिर है इसका उत्तर हममें से कई लोगों को मालूम होगा. पर इस सवाल के बरअक्स कई और सवाल खड़े होते हैं कि अगर गोदावरी दक्षिण की गंगा है तो पूर्व या पश्चिम की गंगाएं भी होनी चाहिए? या फिर कितनी नदियां हैं जिनके नाम गंगा से मिलते जुलते हैं?

मैंने इस बारे में कुछ प्रामाणिक लेखन करने वाले विशषज्ञों और जानकारों का लिखा पढ़ा. तब मुझे लगा कि नदीसूत्र में हम प्रदूषण की बात तो करेंगे ही, पर कुछ ऐसी दिलचस्प बातें भी आपको बताना चाहिए कि नदियों की संस्कृति, उसके किनारे पली-बढ़ी सभ्यता और हमारी विरासत और इतिहास की हल्की-सी झलक आपको मिल सके.

जम्मू-कश्मीर में बहने वाली नदी झेलम. फोटोः इंडिया टुडे

अब इन्हीं सामग्रियों से मुझे पता चला कि देश की कई नदियां ऐसी हैं, या कम से कम उनके नाम ऐसे हैं कि एकाधिक सूबे में उनकी मौजूदगी है. मसलन, परिणीता दांडेकर लिखती हैं कि हम सभी धौलीगंगा नाम की एक ही नदी का अस्तित्व जानते हैं. पर सचाई यह है कि उत्तराखंड में ही दो धौलीगंगाएं हैं. पहली, जो महाकाली बेसिन में बहती है और दूसरी जो ऊपरी गंगा बेसिन में. दांडेकर लिखती हैं कि धौलीगंगा ही क्यों, काली, कोसी और रामगंगा की भी डुप्लिकेट नदियों के अस्तित्व हैं.

अगर हम नदियों के नामकरण के इतिहास में जाएं तो आपको लुप्त और विस्मृत सभ्यताओं, इस इलाके के इतिहास और भूगोल के बारे में भी नई और अलहदा जानकारियां मिलेंगी. पर इन नदियों के बारे में खोजबीन करना उतना आसान भी नहीं है. इस पोस्ट में शायद मैं एकाध नदियों के नामों के बारे में कुछ जानकारियां साझा कर पाऊं.

छठी कक्षा के इतिहास की किताब में ही हमें यह पढ़ा दिया जाता है कि दुनिया की महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. अपने हिंदुस्तान, या भारत या इंडिया का नामकरण भी तो नदी के नाम पर ही हुआ है. इंडस को ही लें, यह पुराने ईरानी शब्द हिंदू से निकला है. क्योंकि आर्य लोग वहां बहने वाली नदी को सिंधु (यानी सागर) कहते थे. यह शब्द संस्कृत का है और स का उच्चारण न कर पाने वाले शकद्वीप (ईरान) के लोगों ने इस नदी के परली तरफ रहने वालों को हिंदू कहना शुरू कर दिया.

ऋग्वेद के नदीस्तुति सूक्त में सिंधु नदी का लिंग निर्धारण तो नहीं है, लेकिन बाकी की नदियां स्त्रीलिंग ही हैं. दांडेकर लिखती हैं, पश्तो भाषा में सिंधु, अबासिन या पितृ नदी है जिसे लद्दाखी भाषा में सेंगे छू या शेर नदी भी कहते हैं. गजब यह कि तिब्बत में भी इस नदी को सेंगे जांग्बो ही कहते हैं इसका मतलब भी शेर नदी ही होता है और दोनों ही शब्द पुलिंग हैं.

नदियों का लिंग निर्धारण का भी अजीब चमत्कार है. भारत की अधिकांश नदियां (आदिवासी नामों वाली नदियां भी) अधिकतर स्त्रीलिंग ही हैं. साथ ही, भारतीय संस्कृति में कुछ नदियों को पुलिंग भी माना गया है. इसकी बड़ी मिसाल तो ब्रह्मपुत्र ही है. दांडेकर, धीमान दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं कि ब्रह्मपुत्र की मूल धारा यारलांग जांग्बो भी पुलिंग है. इसी तरह इसकी प्रमुख सहायक नदी लोहित भी है. पश्चिम बंगाल में बहने वाली अधिकतर नदियां, मयूराक्षी को छोड़ दें तो, पुरुष नाम वाली ही हैं. मसलन, दामोदर, रूपनारायण, बराकर, बराकेश्वर, अजय, पगला, जयपांडा, गदाधारी, भैरव और नवपात्र.

सवाल है कि इन नदियों के नाम अधिकतर पुरुषों के नाम पर ही क्यों रखे गए?

दांडेकर, दासगुप्ता के हवाले से लिखती हैं, कि इन नदियों का स्वरूप अमूमन विध्वंसात्मक ही रहा है. इसलिए उनको पुलिंग नाम दिए गए होंगे.

चलिए थोड़ा उत्तर की तरफ, सतलज की मिसाल लेते हैं. इसका वैदिक नाम शतद्रु है. शत मतलब सौ, द्रु मतलब रास्ते. यानी सैकड़ों रास्तों से बहने वाली नदी. एक सेमिनार में कभी साहित्यकार काका साहेब कालेलकर इन इन नदियों को मुक्त वेणी या युक्त वेणी (बालों की चोटी से संदर्भ) कहा. बालों की चर्चा चली है तो महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में बहने वाली नदी हिरण्यकेशी का नाम याद आता है. हिरण्य मतलब सोना होता है. समझिए कि सूरज की किरणों में इस नदी का पानी कैसी सुनहरी आभा से दमकता होगा.

आदिवासी परंपराओं में भी अमूमन नदियों के नाम पुलिंग ही मिलते हैं. सिक्किम में शादियों में रंगीत (पुरुष) नदी और रागेन्यू (स्त्री, प्रचलित नाम तीस्ता) नदियों के प्रेम के गीत गाए जाते हैं. कहानी है कि ये दो प्रेमी नदियां माउंट खानचेंगद्जोंगा का आशीर्वाद लेने पहाड़ों से नीचे उतरी थीं. रंगीत को रास्ता दिखाने के लिए एक चिड़िया आगे-आगे उड़ रही थी और जबकि रांगन्यू को रास्ता दिखा रहा था एक सांप. रांगन्यू ने सांप का आड़ा-तिरछा सर्पीला रास्ता पकड़ा और मैदानों में पहले पहुंचकर रंगीत (तीस्ता) की राह देखने लगी.

भूतिया चिड़िया ने रंगीत को रास्ता भटका दिया जो ऊपर-नीचे रास्ते में भटक गया. उसे आऩे में देर हो गई. सिक्किमी लोककथा के मुताबिक, पुरुष होने के नाते रंगीत ने रांगन्यू को पहले पहुंचकर इंतजार करते देखा तो उसे बहुत बुरा लगा. इसके बाद, रांगन्यू ने रंगीत को बहुत मनाया-दुलराया कि देर से आऩा उसकी गलती नहीं थी. तब जाकर रंगीत माना.

ऐसी ही एक कहानी चंद्र और भागा की भी है, जो मिलकर चंद्रभागा नदी बनाते हैं. यही चंद्रभागा एक तरफ चिनाब भी कही जाती है. पर यह कहानी हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पिति घाटी की है. लोककथा के मुताबिक, चांद की बेटी चंद्रा, जिसका उद्गम चंद्रा ताल से है, भागा नामक नद से प्रेम करती थी. भागा भगवान सूर्य का बेटा था. वह सूरज ताल से निकलता है. इन दोनों ने फैसला किया कि वे बारालाछाला दर्रे तक जाएंगे और विपरीत दिशाओं से होकर वापस आएंगे फिर टंडी में मिलकर विवाह कर लेंगे. चंद्रा बल खाती हुई टंडी तक पहुंच गई जब भागा का रास्ता उतना आसान नहीं था. भागा को नहीं पाकर चंद्रा चिंतित हो गई और वह उसे खोजने के लिए वापस फिर केलांग तक चली गई. चंद्रा ने देखा, भागा एक गहरी खाई के बीच से अपनी राह बनाने की कोशिशों में जुटा था. आखिरकार वे टंडी में मिले और उससे आगे नदी का नाम चंद्रभागा पड़ गया.

दिलचस्प यह है कि पश्चिम बंगाल में भी वीरभूम जिले में एक चंद्रभागा बहती है. दांडेकर लिखती हैं कि एक अन्य चंद्रभागा गुजरात में अहमदाबाद के पास है. पुरी के पास कोणार्क मंदिर के पास से बहने वाली नदी का नाम भी चंद्रभागा है. विट्ठल मंदिर के पास पंढरपुर में बहने वाली नदी तो चंद्रभागा है ही. वैसे एक चंद्रभागा बिहार में भी है, जिसे चानन नदी कहा जाता है.

नदियों के नाम के किस्से बहुत दिलचस्प हैं और कोशिश रहेगी कि अगली दफा नदीसूत्र में कुछ और दिलचस्प किस्से सुना पाऊं.

Monday, October 7, 2019

नदीसूत्रः साबरमती नदी के पानी में पल रहा है सुपरबग

नदियों में प्रदूषण के खतरों के कई आयाम बन रहे हैं. एक अध्ययन बता रहा है कि प्रदूषण की वजह से गुजरात की साबरमती नदी में ई कोली बैक्टिरिया में एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. यह एक संभावित जैविक बम साबित हो सकता है


भारतीय मनीषा में एक पौराणिक कथा है कि एक बार भगवान शिव देवी गंगा को लेकर गुजरात लेकर आए थे, और इससे ही साबरमती नदी का जन्म हुआ. कुछ सदी पहले इसका नाम भोगवा था. भोगवा का नाम बदला तो इसके साथ नए नाम भी जुड़े.


गुजरात की वाणिज्यिक और राजनीतिक राजधानियां; अहमदाबाद और गांधीनगर साबरमती नदी के तट पर ही बसाए गए थे. एक कथा यह भी है कि गुजरात सल्तनत के सुल्तान अहमद शाह ने एक बार साबरमती के तट पर आराम फरमाते वक्त एक खरगोश को एक कुत्ते का पीछा करते हुए देखा. उस खरगोश के साहस से प्रेरित होकर ही 1411 में शाह ने अहमदाबाद की स्थापना की थी. बाद में, पिछली सदी में साबरमती नदी गांधीवादियों और देशवासियों का पवित्र तीर्थ बना क्योंकि महात्मा गांधी ने इसी नदी के तट पर साबरमती आश्रम की स्थापना की थी.

लेकिन पिछले कुछ दशकों में यह परिदृश्य भी बदल गया है.

साबरमती नदी का अपशिष्ट साफ करने के लिए बना एसटीपी. फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया




साबरमती अब दूसरे वजहों से खबरों में आती है. पहली खबर तो यही कि साबरमती का पेटा सूख गया है और अब इस नदी में इसका नहीं, नर्मदा का पानी बहता है. दूसरी खबर, गुजरात सरकार ने इसके किनारे रिवरफ्रंट बनाया है. और अब इस नदी के किनारे अंतरराष्ट्रीय पतंग महोत्सव से लेकर न जाने कितने आयोजन होते हैं. शी जिनपिंग को भी प्रधानमंत्री ने यहीं झूला झुलाया था. 2017 में विधानसभा चुनाव के वक्त यहीं रिवरफ्रंट पर मोदी जी सी-प्लेन से उतरे थे.

बहरहाल, अगर आप कभी अहमदाबाद गए हों तो खूबसूरत दिखने वाले रिवरफ्रंट पर गए जरूर होंगे. क्या पता आपने नदी के पानी पर गौर किया या नहीं. विशेषज्ञ कहते हैं कि साबरमती में बहने वाला पानी अत्यधिक प्रदूषित है. इस बारे में एनजीओ पर्यावरण सुरक्षा समिति और गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) ने एक संयुक्त अध्ययन किया है अपने अध्ययन में साबरमती में गिरने वाले उद्योगों से गिरने वाले अपशिष्ट और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) से गिरने वाले पानी से जुड़े तथ्य खंगाले. 

इस साल की शुरुआत में आई डिजास्ट्रस कंडीशन ऑफ साबरमती रिवर नाम की इस रिपोर्ट में कई खतरनाक संदेश छिपे हैं. रिपोर्ट कहती है कि अहमदाबाद के वासणा बैराज के आगे बने सीवेज ट्रीटमेंट प्लांथट जिसकी क्षमता 160 मिलियन लीटर रोजाना (एमएलडी) उसमें से गिरने वाले पानी में बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 139 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सी जन डिमांड (सीओडी) 337 मिग्रा प्रति लीटर है और टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 732 मिग्रा प्रति लीटर है. 

वैसे राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का मानक पानी बीओडी की मात्रा अधिकतम 10 मिग्रा प्रति लीटर तक की है. वैसे नदी के पानी में सल्फेीट की मात्रा 108 मिग्रा प्रति लीटर और क्लोरराइड की मात्रा 186 मिग्रा प्रति लीटर बताई गई है. 

इसी तरह वासणा बैराज के आगे नदी में इंडस्ट्री के गिरने वाले पानी की जांच गई तो सामने आया कि इसमें बायो केमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की मात्रा 536 मिग्रा प्रति लीटर है. केमिकल ऑक्सीकजन डिमांड (सीओडी) की मात्रा 1301 मिग्रा प्रति लीटर, टोटल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 3135 मिग्रा प्रति लीटर पाई गई है. सल्फेतट की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है, वहीं क्लोसराइड की मात्रा 933 मिग्रा प्रति लीटर है.

खास बात है कि इंडस्ट्रीफ का केमिकल युक्तम कितना पानी रोजाना साबरमती में गिर रहा है इसका कोई लेखा जोखा नहीं है.

हालांकि, साबरमती में अपशिष्ट जल के ट्रीटमेंट के लिए एसटीपी बनाए गए हैं पर इससे एक अलग ही समस्या खड़ी हो रही है. एक अध्ययन यह भी बता रहा है कि इन एसटीपी में ट्रीटमेंट के दौरान बीमारी पैदा करने वाले सूक्ष्मजीव एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं. जाहिर है, इससे एक बड़ी समस्या खड़ी होने वाली है. 

पर्यावरण पर लिखने वाली वेबसाइट डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में आइआइटी गांधीनगर में अर्थ साइंसेज के प्रोफेसर मनीष कुमार कहते हैं कि हमने पाया है कि प्रदूषण की वजह से सीवेज और जलाशयों में ई कोली बैक्टिरिया में मल्टी-ड्रग एंटी-माइक्रोबियल रेजिस्टेंस यानी प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो गई है. जो इसे संभवतया सुपरबग में बदल देगी. ई कोली के सुपरबग में बदलने का क्या असर होगा? हालांकि ई कोली की अधिकतर नस्लें बीमारियों के लिए उत्तरदायी नहीं है लेकिन उनमें से कई डायरिया, न्यूमोनिया, मूत्राशय में संक्रमण, कोलेसाइटिस और नवजातों में मनिनजाइटिस पैदा कर सकते हैं.

विशेषज्ञों का मानना है कि यह काम सीवेज ट्रीटमेंट में क्लोरीनेशन और अल्ट्रा-वायलेट रेडिएशन के दौरान बैक्टिरिया के जीन में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) से हुआ होगा. 

समस्या यह है कि अगर बैक्टिरिया से यह जीन ट्रांसफर किसी अलहदा और एकदम नई प्रजाति को जन्म न दे दे. यह खतरनाक होगा. 

बहरहाल, साबरमती नदी की कोख में पल रहे इन संबावित जैविक बमों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है. भगवान शिव और गंगा की देन यह नदी अब नर्मदा से पानी उधार लेकर बह रही है. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि साबरमती में पानी नहर के जरिए भरा जा रहा है. रिवरफ्रंट जहां खत्म होता है वहां वासणा बैराज है, जिसके सभी फाटक बंद करके पानी को रोका गया है. ऐसे में रिवरफ्रंट के आगे नदी में पानी नहीं है और न उसके बाद नदी में पानी है. वासणा बैराज के बाद नदी में जो भी बह रहा है वो इंडस्ट्री और नाले का कचरा है. नदी में गिर रहा कचरा बेहद खतरनाक है और इस पानी का उपयोग करने वाले लोगों के लिए यह नुकसान ही करेगा.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अहमदाबाद के बाद अगले 120 किमी तक नदी में सिर्फ औद्योगिक अपशिष्ट सड़े हुए पानी की शक्ल में बहता है और यही जाकर अरब सागर में प्रवाहित होता है. 

पर नर्मदा के खाते में भी कितना पानी बचा है जो वह इस तदर्थवाद के जरिए साबरमती को जिंदा रख पाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी.

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Monday, August 19, 2019

नदीसूत्रः जहरीली हिंडन अब नदी नहीं एक त्रासदी है

एनजीटी की कमिटी की रिपोर्ट साफ तौर पर हिंडन को एक डेड रिवर यानी मृत नदी बताती है क्योंकि नदी के जल में घुले हुए ऑक्सीजन की मात्रा तकरीबन शून्य तक पहुंच गई है.

दिल्ली में रहने वाले लोग हिंडन नदी से जरूर परिचित होंगे. इसका एक नाम हरनदी भी है और यह सहारनपुर के पास से निकलकर मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत और गाजियाबाद होती हुई यमुना में जाकर मिल जाती है. खासकर जिन लोगों ने दिल्ली के पूरब की ओर होते विस्तार की तरफ अपना बसेरा बसाया होगा, वे लोग तो जरूर इस नदी के आसपास से गुजरते होंगे.

गाजियाबाद-दिल्ली में रहने वालों और हिंडन तट के आसपास के लोगों के लिए पिछले महीने खबर कुछ अच्छी नहीं है. यह हो सकता है कि नदियों की सेहत को लेकर आने वाली खबरों पर हमारा ध्यान नहीं जाता और हमने अपनी चिंताओं में से नदियों की सेहत को बाहर कर दिया है, पर यह चिंता और चिंतन का विषय होना चाहिए.

राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) की एक कमिटी ने पिछले महीने रिपोर्ट दी है कि हिंडन नदी के आसपास रहने वाले लोगों में से करीब 40 फीसदी लोग जलजनित बीमारियों के शिकार हो सकते हैं. इसकी वजह है कि इस इलाके में शहरीकरण काफी तेज गति से बढ़ा है और इसके साथ ही औद्योगिक प्रतिष्ठानों का अपशिष्ट बिना ट्रीटमेंट के ही हिंडन में बहाया जाता है.

इस बात के दस्तावेजी प्रमाण हैं कि पिछले डेढ़ दशक में प्रदूषित हिंडन के कारण सैकड़ों लोगों को कैंसर हुआ है. एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मेरठ के पास जयभीम नगर झुग्गियों में रहने वाले लोगों में से करीब 124 लोग काल के गाल में समाहित हो चुके हैं. इन गरीबों का कसूर यह है कि वे मिनरल वाटर नहीं पीते. जमीन से निकलने वाला पानी इतना जहरीला हो चुका है कि बचना मुमकिन नहीं.

हिमालय की तराई में सहारनपुर से अपनी 260 किलोमीटर की यात्रा में हिंडन इतनी जहरीली हो गई है कि अब यह एक नदी नहीं, बल्कि त्रासदी हो गयी है. हिंडन में किस उद्योग का अवशिष्ट नहीं जाता? नदी के गर्भ में चीनी मिल, पेपर मिल, स्टील के कारखाने, डेयरी उद्योग की गंदगी, बूचड़खानों का कचरा और बाकी के औद्योगिक अपशिष्ट, सब कुछ आकर समाहित हो जाते हैं.

सेंटर फॉर साईंस ऐंड एन्वायरमेन्ट और जनहित फाउण्डेशन ने 'हिंडन रिवरः गैस्पिगं फॉर ब्रीद' नाम से उन छह जिलों का एक अध्ययन किया था, जहां से हिंडन गुजरती है. इस अध्ययन के मुताबिक, न तो नदी सुरक्षित रही है और न ही नदी के किनारे रहनेवाले लोग. भूजल इस खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो गया है और नदी के पानी में भारी धातुओं और घातक रसायनों की मिलावट इतनी ज्यादा है कि पानी बहुत नीचे तक प्रदूषित हो गया है. इस प्रदूषण ने हिंडन की जैव विविधता पर बुरा असर डाला है.

हिडंन और उसकी सहायक नदी काली में धात्विक और जहरीले रसायनों का मिश्रण स्वीकृत मात्रा से 112 से 179 गुना अधिक है. इसीतरह क्रोमियम का स्तर स्वीकृत मात्रा से 46 से 123 गुना अधिक पाया गया है.

सिर्फ गाजियाबाद में ही हिंडन नदी में आठ बड़े नाले गिरते हैं. ज्वाला, अर्थला, कैला भट्टां, इंदिरापुरम, करहेडा, डासना, प्रताप विहार और हिंडन विहार ये सभी नाले आकर हिंडन में ही प्रवाहित होते हैं. और इन सबके जरिए बिना ट्रीट किया अपशिष्ट ही नदी में जाता है.

इस किसी भी सीवेज में कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट या ईटीपी नहीं है. एनजीटी की कमिटी की रिपोर्ट भी कहता है कि पूरा गाजियाबाद शहर ही हिंडन को प्रदूषित कर रहा है.

एनजीटी की कमिटी की रिपोर्ट साफ तौर पर हिंडन को एक डेड रिवर यानी मृत नदी बताती है क्योंकि नदी के जल में घुले हुए ऑक्सीजन की मात्रा तकरीबन शून्य तक पहुंच गई है. इस टीम ने गाजियाबाद के 23 उद्योगों और सरकारी अस्पतालों का दौरा किया था और पाया कि होंडा को छोड़कर शायद ही कोई उद्योग पर्यावरणीय मानको का पालन करता है. जिन उद्योगों ने अपने परिसर में एसटीपी या ईटीपी भी लगा रखे हैं वे भी अपना अपशिष्ट सीधे-सीधे हिंडन में प्रवाहित कर रहे हैं.

इस कमिटी ने गाजियाबाद, बागपत, ग्रेटर नोएडा, मुजफ्फरनगर, मेरठ, सहारनपुर और शामली में 168 स्थानों पर भूमिगत जल के भी नमूने लिए थे और उनमें से 93 नमूनों में पेयजल के बीआइएस मानकों से अधिक का एक या अधिक किस्म का प्रदूषण था. कमिटी ने फ्लोराइड, सल्फेट, ऑइल और ग्रीज जैसे प्रदूषकों की जांच की थी.

यह तय है कि मौत के मुंह में जाती हिंडन का असर हम सब पर पड़ेगा. खासकर इसके तट पर बसे इलाकों में खेती से लेकर पीने के पानी तक पर. थोड़ी देर के लिए शायद हिंडन में उड़लने से पहले घातक अपशिष्टों के उपचार में लागत अधिक लगती हो, लेकिन इसके दुष्परिणामों के बाद आने वाला खर्चा अधिक होगा. कई गुना अधिक. खेती से लेकर लाज तक, आप बस जोड़ते रह जाएंगे.

बरसात में उग्र नदी से ही मत डरिए, हमारी वजह से मरती हुई नदी भी बेहद नुक्सानदेह होगी.

Thursday, August 1, 2019

नदीसूत्रः बढ़ता कोलकाता लील गया आदि गंगा

कोलकाता में कालीघाट के पास एक नाला बहता है. यह नाला नहीं, स्थानीय लोगों के मुताबिक असली गंगा है. आदि गंगा नाम की इस नदी को शहर ने बिसरा दिया, पर परंपराओं में यह अब भी मौजूद


पिछले साल जब मैं कोलकाता में था तो मेरे मित्रों की जिद थी कि उन्हें कालीघाट में देवी के दर्शन करने हैं और कालीघाट में दर्शन के बाद अपनी सहज जिज्ञासा में हम नीचे उतर आए थे, जहां एक गंधाता हुआ नाला बह रहा था. लेकिन उस नाले को पार करने के लिए नावें मौजूद थीं और उस वक्त भी नाववाले ने हम चार लोगों से आठ आने (पचास पैसे) की दर से सिर्फ दो रूपए लिए थे. मल्लाह ने बताया था कि यह नाला नहीं, आदि गंगा है. उसने बताया कि नाकतल्ला से गरिया जाते समय रास्ते में अलीपुर ब्रिज के नीचे जिस नाले से भयानक बदबू आती है वह भी आदि गंगा ही है. जिसको स्थानीय लोग टॉली कैनाल कहते हैं.

असल में दो सौ साल पहले तक आदि गंगा हुगली की एक सहायक धारा थी. हालांकि इसका इतिहास थोड़ा और पुराना है. लेकिन अठारहवीं सदी में जब यह अपना स्वरूप खो रही थी तब 1772 से 1777 के बीच विलियम टॉली ने इसका पुनरोद्धार करवाकर इसको नहर और परिवहन की धारा के रूप में इस्तेमाल करवाना शुरू कर दिया था.

बहरहाल, गंगा की यह धारा कोलकाता में बढ़ती आबादी, बढ़ते लालच और बढ़ते शहरीकरण के स्वाभाविक नतीजों का शिकार हुई और अब यह घरों के सीवेज ढोती हुई नाले में बदल गई है. अंग्रेजों के जमाने में इस नहर को बाकायदे दुरुस्त रखा जाता था क्योंकि उस समय नदियों की परिवहन में खासी भूमिका होती थी, लेकिन आजादी के बाद इसको भी बाकी विरासतों की तरह बिसरा दिया गया. न तो इसमें पानी के बहाव की देखरेख की गई, न ही खत्म होते पानी के बहाव को बचाए रखने की कोई जरूरत महसूस की गई.

ज्वार के समय हुगली का पानी इसमें काफी मात्रा में आता था और अपने साथ काफी गाद भी लेकर आता था. नतीजतन, यह नदी गाद से भरती गई. इस नदी की तली ऊंची होती गई.

शहर बड़ा हुआ तो कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के नाले बेरोकटोक इसमें गिरते रहे. निगम के पास ज्वार और भाटे के वक्त इस नाले में आऩे वाले पानी को नियंत्रित करने के लिए कोई तंत्र नहीं था.

कभी 75 किलोमीटर लंबी रही यह आदि गंगा आज की तारीख में कई जगहों से लुप्त हो चुकी है. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इसको पुनर्जीवित करने की भी कोशिशें हुईं और 1990 के बाद इसको फिर से जिलाने की गतिविधियों में करीब 200 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं.

आदि गंगा को लेकर हुआ एक एक शोध बताता है कि बंडेल के नजदीक, त्रिबेनी (त्रिवेणी) में गंगा तीन हिस्सों में बंट जाती है. एक धारा सरस्वती, दक्षिण-पश्चिम दिशा में सप्तग्राम की तरफ बहती है. दूसरी धारा जिसका नाम जमुना है, दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती है और तीसरी धारा हुगली बीच में बहती हुई आगे चलकर कोलकाता में प्रवेश करके आदि गंगा में मिलकर कालीघाट, बरुईपुर और मागरा होती हुई समुद्र में जा मिलती थी. कई प्राचीन लेख और नक्शों पर भरोसा करें तो आदि गंगा ही मुख्य धारा थी और उसकी वजह से कोलकाता ब्रिटिश काल में बड़ा बंदरगाह बन पाया था.

लेकिन लगभग 1750 में संकरैल के नजदीक हावड़ा में सरस्वती नदी के निचले हिस्से को हुगली नदी से जोड़ने के लिए आदि गंगा की धारा को काट दिया गया. और इसी कारण से ज्यादातर पानी का प्रवाह पश्चिमोत्तर हो गया और हुगली, गंगा की मुख्य धारा बन गई, जो आज भी है.

बहरहाल, 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर ने लिखा है कि इस (आदिगंगा) पुरानी नदी को ही हिंदू असली गंगा मानते हैं. जो इस नदी के किनारे बने पोखरों में अपने लोगों के मुर्दे जलाते हैं. जाहिर है, चिताएं जलाने को लेकर हंटर उस परंपरा की ओर इशारा कर रहे थे जिसके तहत गंगा के किनारे जलाए जाने से मोक्ष मिलने की मान्यता है.

1770 के दशक में आदि गंगा शहर से दूर जाने लगी थी, तब विलियम टॉली ने 15 किमी गरिया से समुक्पोता तक की धारा के बहाव को देखकर हैरान थे और उन्होने आदि गंगा को सुन्दरवन की ओर प्रवाहित होने वाली विद्याधरी नदी से जोड़ दिया. और आज इसी वजह से यह धारा टोलीनाला नाम से जाना जाता है.

पहले जो नदी सुन्दवन के किनारे बोराल, राजपुर, हरीनवी और बरूईपुर के माध्यम से प्रवाहित होती थी, उसका प्रवाह तेजी से अवरुद्ध हो रहा था. हालांकि यह 1940 के दशक तक नावों के जरिए माल ढुलाई का काफी बड़ा साधन था.

1970 के आसपास भी, सुंदरवन से शहद इकट्ठा करने वाले लोग नदी पारकर अपनी नावों को दक्षिण कोलकाला के व्यस्त उपनगर टॅालीगंज की ओर जाने वाले पुल के नीचे खड़ा करते थे.

बहरहाल, आज की तारीख में आदि गंगा लोगों के लालच की शिकार हो गई है. इसमें आपको प्लास्टिक की थैलियां, कूड़ा, कचरा, हेस्टिंग (हुगली के संगम) से गरिया (टूली के नाले) 15 किमी तक 7,851 अवैध निर्माण, 40,000 घर, 90 मंदिर, 69 गोदाम और 12 पशु शेड जैसे अतिक्रमण दिखेंगे (यह आंकड़ा 1998 का है, और हाइकोर्ट में पश्चिम बंगाल सरकार ने माना था). आपको अगर इसमें नहीं दिखेगा तो पानी.

फिलहाल, गरिया के आगे जाते ही नदी गायब हो जाती है. नरेन्द्रपुर और राजपुर-सोनापुर से लगभग तीन किमी आगे आदि गंगा दिखाई नहीं देती. और उसकी पाट की जगह पक्के मकान, सामुदायिक भवन और सड़कें नमूदार होती हैं. उसके पास कुछ बड़े तालाब दिखाई देते हैं जिनके करेर गंगा, घोसर गंगा जैसे नाम हैं. जाहिर है, ये भी आदि गंगा के पानी से बनने वाले तालाब थे और उनके नामों से यह साबित भी होता है.

इन दिनों आप देश में बाढ़ की खबरें देख रहे होंगे कि देश का पूर्वी इलाका कैसे इससे हलकान है. लेकिन आदि गंगा की मौत मिसाल है कि कैसे फैलते शहर ने नदी निगल ली है. कभी फुरसत हो तो सोचिएगा.

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Tuesday, July 16, 2019

नदीसूत्र दो: बढ़ती आबादी का बोझ उठा रही नदियां समंदर तक नहीं पहुंच पाएंगी

कुछेक साल पहले मैं गंगोत्री गया था. मेरी इच्छा गोमुख तक जाने की थी, सो थोड़ी फूलती सांस के साथ जब मैं वहां पहुंचा और मैंने चारों तरफ पलटकर देखा तो बस कालिदास याद आएः

आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..

—कालिदास, मेघदूत

(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)
कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया थाः ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.

आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और शिव, ब्रह्मा का कमंडल, भागीरथ की तपस्या, वर्षा और बाढ़, आशा, निराशा, हताशा...और भारतवर्ष की असली परिभाषा.

और जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.

दुनिया की आबादी 7 अरब कब का पार कर गई. क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं? अब बढ़ती आबादी पर कोई बात नहीं करता. राजनीति में बढ़ती आबादी पर रोक लगाना कोई मुद्दा नहीं है. इसमें धर्म का कोण भी आ जाता है.

लेकिन, हम चाहें लाख इस मुद्दे पर बात करने से कतराते रहें और अपनी जनसंख्या को अपने संसाधन बताते रहें, लेकिन कुछ अध्ययनों पर गौर करें तो नदियों और जल के संदर्भ में आने वाले संकट के संकेत दिखेंगे. हाल ही में, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (कंपॉजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स, सीडब्ल्यूएमआइ) विकसित किया है ताकि देश में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सके. चेतावनी स्पष्ट है, साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी होने वाली है.

इस परिदृश्य में, हर राज्य की जनसंख्या वृद्धि को देखा जाए, जिसका पूर्वानुमान भारतीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग 2001-2026 ने 2006 में किया था. अब इसका पूर्वानुमान अब 2080 तक के लिए किया गया है. इसके मुताबिक, गंगा बेसिन में आबादी साल 2040 तक करीबन डेढ़ गुनी हो जाएगी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इस बेसिन की आबादी 45.5 करोड़ थी जो 2040 में बढ़कर 70.6 करोड़ हो जाएगी. बढ़ती आबादी के साथ शहरीकरण भी बढ़ेगा. शहरी आबादी में करीब 70 फीसदी वृद्धि होगी. शहरी आबादी मौजूदा 14.4 करोड़ से बढ़कर 24.3 करोड़ तक हो जाएगी. ग्रामीण आबादी में 35 फीसदी की बढोतरी होगी. यह मौजूदा (2011) के 34.1 करोड़ से पढ़कर 46.3 करोड़ हो जाएगी.



जाहिर है इस बढ़ी आबादी को खाने के लिए अनाज चाहिए होगा, नहाने और धोने के लिए पानी चाहिए होगा. अनाज उगाने के लिए पानी भी मौजूदा संसाधनों से ही खींचा जाएगा. असल में, पानी की मांग आबादी में बढोतरी के साथ उपभोक्ता मांग और विश्व बाजार के विकास से भी होता है.

वॉटर रिसोर्स ग्रुप का पूर्वानुमान कहता है कि साल 2030 तक सिंचाई के लिए पानी की जरूरत सालाना 2.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी. यानी 2040 तक की गणना की जाए, तो पानी की मांग आज की तुलना में 80 फीसदी बढ़ जाएगी. इसी शोध पत्र में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादनों की जरूरतों के लिए पानी की मांग चौगुनी हो जाएगी.


विषय ऐसा है कि हमें और आपको चिंता करने की जरूरत है. दुनिया भर की मीठे पानी का महज 4 फीसदी हिस्सा हमारे पास है. आबादी को बोझ उससे कई गुना ज्यादा. जैसा कि गांधी जी कहते थे, प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक बहुत है, पर हमारी लालच पूरी करने लायक नहीं.

हमें दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. एक तरफ नदियों को बचाना होगा, दूसरी तरफ आबादी पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी होगी. वरना, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो न हो, गृहयुद्ध जरूर हो जाएगा.

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Wednesday, January 9, 2019

रिकॉर्ड के पायदानों पर चढ़ते ऋषभ पंत को तय करना है लंबा रास्ता

ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर बढ़िया प्रदर्शन से ऋषभ पंत ने अपनी टेस्ट रैंकिंग में गजब का सुधार किया है. वह महेंद्र सिंह धोनी से भी आगे निकल गए. साझेदारियो के रिकॉर्ड भी बनाए, पर उनकी बल्लेबाजी में अब भी जल्दबाजी दिखती है. गलत शॉट चयन भी एक बड़ी बाधा.

अब कोई उनकी तुलना ऑस्ट्रेलियाई खब्बू विकेट-कीपर एडम गिलक्रिस्ट से करने लगा है तो कोई उन्हें भविष्य का महेंद्र सिंह धोनी बता रहा है. अब पंत की बल्लेबाजी की चमक के चौंध के आगे अपेक्षाकृत ढीली विकेट कीपिंग की बात दब गई है. उनकी तुलना एडम गिलक्रिस्ट से इसलिए भी की जा रही है क्योंकि दोनों के बल्लेबाजी का मिजाज भी तकरीबन एक जैसा है, दोनों आक्रामक और जोरदार शॉट खेलते हैं और दोनों ही खब्बू भी हैं.

फिलहाल, पंत ने आइसीसी टेस्ट रैकिंग में 673 अंक हासिल करके भारतीय विकेटकीपर बल्लेबाजों में सबसे अधिक रैंकिंग अंक हासिल करने का रेकॉर्ड अपने नाम कर लिया है. उनसे पहले खुद धोनी ही इस कुरसी पर काबिज थे जिन्हें 662 अंक मिले थे.

ऑस्ट्रेलिया को उसके घर में घुसकर पराजित करने का इतिहास रचने वाली भारतीय टीम के खिलाड़ियों को उनके प्रदर्शन का फायदा आइसीसी टेस्ट रैंकिंग में भी मिला है. और पंत आइसीसी टेस्ट रैंकिंग में अब 17वें पायदान पर पहुंच चुके हैं. दौरे की शुरुआत से पहले पंत टेस्ट रैंकिंग में 59वें पायदान पर थे. मैच दर मैच उनकी रैंकिंग में फायदा हुआ और उन्होंने 17वें पायदान पर पहुंचकर फारुख इंजीनियर की बराबरी कर ली. पंत से पहले इंजीनियर ने जनवरी, 1973 में 17वीं रैंकिंग हासिल की थी.

हालांकि धोनी शानदार फीनिशर थे पर उनका असली जलवा एकदिवसीय मैचों में दिखता था. धोनी कभी भी टेस्ट रैकिंग में 17वें पायदान तक नहीं पहुंच पाए थे. करियर के शिखर दिनों में धोनी को सर्वोच्च 19वीं रैकिंग ही हासिल हो पाई थी. वैसे ऑस्ट्रेलिया दौरे से पहले पंत ने महज 5 टेस्ट मैच ही खेले थे. लेकिन पाताल लोक में 4 मैच खेलने के बाद ऐसा लगता है पंत लंबे समय तक जलवाफरोश रहेंगे. ऑस्ट्रेलिया दौरे में पंत ने कुल 350 रन बनाए, एक पारी में 159 बनाकर नाबाद रहे और 20 कैच भी लपके. ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट शतक जड़ने वाले पंत पहले भारतीय विकेट-कीपर हैं. इससे पहले फारुख इंजीनियर ने 1967 में एडिलेट में अपने सर्वोच्च 89 रन ठोंके थे. इससे पहले 2018 में पंत ने एक और ऐसा ही कारनामा किया था. वह पिछले साल इंगलैंड की धरती पर शतक उड़ाने वाले पहले भारतीय विकेट कीपर भी बने थे.

वैसे किसी भारतीय विकेट-कीपर से सर्वोच्च स्कोर से पंत अभी भी थोड़े पीछे हैं और इस कुरसी पर अभी भी धोनी काबिज हैं. विकेट-कीपर के तौर पर सबसे लंबी पारी धोनी की ही है. उनका सर्वोच्च स्कोर 224 था जबकि दूसरे पायदान पर बुद्धि कुंदरन हैं जिन्होंने 192 का स्कोर खड़ा किया था. ऑस्ट्रेलिया की धरती पर किसी भी मेहमान विकेट-कीपर का भी सर्वोच्च स्कोर एबी डिविलियर्स का है जिन्होंने 2012-13 में वाका में 169 रन बनाए थे. जाहिर है, पंत अब दूसरे नंबर पर हैं.

वैसे ऑस्ट्रेलिया में सातवें नंबर पर बल्लेबाजी करने मेहमानों में भी पंत दूसरे नंबर पर आ गए हैं. इससे पहले के.एस. रंजीतसिंहजी ने एससीजी के मैदान पर 1897 में 175 रन बना डाले थे. पंत और रवींद्र जाडेजा ने सातवें विकेट के लिए 204 रन की साझेदारी की जो ऑस्ट्रेलिया में किसी भी विकेट के लिए बनी साझेदारी में सबसे लंबी है. इससे पहले 1983-84 में एमसीजी में ग्रेग मैथ्यू और ग्राहम यालोप ने पाकिस्तान के खिलाफ 185 रन का साझेदारी की थी. भारत के लिहाज से विदेशी धरती पर यह सातवे विकेट के लिए दूसरी सबसे बड़ी साझेदारी है.

वैसे पंत 21 साल की उम्र में दो टेस्ट सेंचुरी बनाने वाले, वो भी दोनों के दोनों एशिया से बाहर, पहले विकेटकीपर है. इन उपलब्धियों के बरअक्स, पंत के शॉट चयन में अभी भी थोड़ी जल्दबाजी का भाव दिखता है. टेस्ट मैच में, हालांकि स्कोर बोर्ड अब उन्हें ज्यादा स्थिर बता रहा है, लेकिन अब भी उत्तरदायित्व से भरी पारियां उनका इंतजार कर रही हैं.

आक्रामकता उनकी बल्लेबाजी का मिजाज है. पर हर विकेट पर यह कामयाब ही होगा, ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. वैसे भी जल्दबाजी और आक्रामकता में फर्क होता है, ठीक वही जो गैर-जिम्मेदारी और मंजिलें तय करने के दृढ़ संकल्प में होता है.

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Thursday, November 15, 2018

राजनीतिक पार्टियों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती सरकार?

अभी हाल ही में एक मीम आया था, जिसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों से चंदा मांगते दिखते थे और बाद में वेलकम-2 का एक सीन और परेश रावल का एक संदे्श आता है. यह मीम अरविंद केजरीवाल की हंसी उड़ाने के लिए था. और कामयाब रहा था. 

पर आपको और हमें, सोचना चाहिए कि आखिर राजनीतिक दलों को चंदा कौन देता है, उनका खर्च कैसे चलता है? आपने कभी किसी पार्टी को चंदा दिया है? कितना दिया है? चुनावों पर उम्मीदवार और सियासी दल कितना खर्च करते है? जितना करते हैं उतना आपको बताते है और क्या वह चुनाव आयोग की तय सीमा के भीतर ही होता है? और अगर आपके पसंदीदा दल के प्रत्याशी तय स्तर से अधिक खर्च करते हैं (जो करते ही हैं) तो क्या वह भ्रष्टाचार में आएगा? प्रत्याशी जितनी रकम खर्च करते हैं वह चुनाव बाद उन्हें वापस कैसे मिलता है? और आपके मुहल्ले को नेता, जो दिन भर किसी नेता के आगे-पीछे घूमता रहता है उसके घर का खर्च कौन चलाता है?

अभी चार महीनों के बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में चुनाव प्रक्रिया चल रही है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले चुनावी वादा किया था, न खाऊंगा न खाने दूंगा. ऐसा नहीं कि सरकार ने शुचिता के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने की कोशिश नहीं की, पर प्रयास नाकाफी रहे. सरकार के हालिया प्रयासों के बावजूद भारत में चुनावी चंदा अब भी अपारदर्शी और काले धन से जुड़ी कवायद बना हुआ है. इसकी वजह से चुनाव सुधारों की प्रक्रिया बेअसर दिखती है.

अभी आने वाले लोकसभा चुनाव में अनुमान लगाया जा रहा है कि 50 से 60 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे. यह खर्च 2014 में कोई 35,000 करोड़ रु. था. जबकि हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में 9.5 से 10 हजार करोड़ रु. खर्च हुआ. 2013 में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनाव में इसकी ठीक आधी रकम खर्च हुई थी. 

जरा ध्यान दीजिए कि राजनैतिक पार्टियां चंदा कैसे जुटाती हैं. आमतौर पर माना जाता है कि स्वैच्छिक दान, क्राउड फंडिंग (आपने कभी दिया? मैंने तो नहीं दिया) कूपन बेचना, पार्टी का साहित्य बेचना (उफ) सदस्यता अभियान (कितनी रकम लगती है पता कीजिए) और कॉर्पोरेट चंदे से पार्टियां पैसे जुटाती हैं. 

निर्वाचन आयोग के नियमों के मुताबिक, पार्टियां 2000 रु. से अधिक कैश नहीं ले सकतीं. इससे ज्यादा चंदे का ब्योरा रखना जरूरी है. ज्यादातर पार्टियां 2000 रु. से ऊपर की रकम को 2000 रु. में बांटकर नियम का मखौल उड़ाती हैं क्योंकि 2000 रु. तक के दानदाता का नाम बताना जरूरी नहीं होता. एक जरूरी बात है कि स्थानीय और ठेकेदार नकद और अन्य सुविधाएं सीधे प्रत्याशी को देते हैं न कि पार्टी को.

कंपनियां चुनावी बॉन्ड या चुनाव ट्रस्ट की मार्फत सीधे चंदा दे सकती हैं, दानदाता के लिए यह बताना जरूरी नहीं है चंदा कि पार्टी को दिया, पार्टियों के लिए भी किससे चंदा लिया यह जाहिर करना जरूरी नहीं है.

तो अब यह भी जान लीजिए कि सियासी दल पैसे को खर्च कहां करती हैं. दल, पार्टी और इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में, चुनावी रैली, खाना, परिवहन, और ठहरने में, कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने में, प्रिंट, डिजिटल और टीवी में विज्ञापन देने में खर्च करते हैं. चुनाव के दौरान प्रत्याशी नकद, सोना, शराब और अन्य चीजें भी बांटते हैं. मसलन फोन, टीवी. फ्रिज वगैरह. नया तरीका लोगों के मोबाइल रिचार्ज कराना और बिल भरना भी है. अब आप बताएं कि यह किसी एजेंसी की पकड़ में नहीं आएगा.

मोदी सरकार के उपाय

नरेंद्र मोदी सार्वजनिक जीवन में शुचिता का समर्थन करते रहे हों, पर उनकी सरकार के उपायो से भी यह शुचिता आई नहीं है. मसलन, सरकार ने पार्टियों द्वारा बेनामी नकद चंदे की सीमा पहले के 20,000 रु. से घटाकर 2,000 रु कर दी लेकिन नकद बेनामी चंदा लेने के लिए पार्टियों के लिए एक सीमा तय किए बगैर यह उपाय किसी काम का नहीं है.

पहले विदेशों से या विदेशी कंपनियों से चंदा लेना अपराध के दायरे में था. कांग्रेस और भाजपा दोनों पर विदेशों से धन लेने के आरोप थे. मोदी सरकार ने 1976 के विदेशी चंदा नियमन कानून में संशोधन कर दिया है जिससे राजनीतिक दलों के विदेशों से मिलने वाले चंदे का जायज बना दिया गया. यानी 1976 के बाद से राजनैतिक पार्टियों के चंदे की जांच नहीं की जा सकती. राजनैतिक दल अब विदेशी कंपनियों से चंदा ले पाएंगे. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे दूसरे देश हमारे चुनावों में दखल देने लायक हो जाएंगे? 

शायद भारतीय चुनाव अभी तक विदेशी असरात से बचा रहा है, लेकिन चुनावों पर कॉर्पोरेट के असर से इनकार नहीं किया जा सकता. पार्टियों को ज्ञात स्रोतों से मिले चंदे में 2012 से 2016 के बीच कॉर्पोरेट चंदा कुल प्राप्त रकम का 89 फीसदी है.

मोदी सरकार ने 2017 में कॉर्पोरेट चंदे में कंपनी के तीन साल के फायदे के 7.5 फीसदी की सीमा को हटा दिया. कंपनी को अपने बही-खाते में इस चंदे का जिक्र करने की अनिवार्यता भी हटा दी गई.  हटाने से पार्टियों के लिए बोगस कंपनियों के जरिए काला धन लेना आसान हो जाएगा. लग तो ऐसा रहा है कि यह प्रावधान फर्जी कंपनियों के जरिए काले धन को खपाने का एक चोर दरवाजा है.

कुल मिलाकर राजनैतिक शुचिता को लेकर भाजपा से लेकर तमाम दलों में कोई दिलचस्पी नहीं है. इसको लेकर भी एक आंकड़ा है, 2016-17 में छह बड़ी राजनैतिक पार्टियों के कुल चुनावी चंदे का बेनामी स्रोतो से आया हिस्सा 46 फीसदी है. समझ में नहीं आता कि अगर सरकार वाक़ई पारदर्शिता लाना चाहती है तो सियासी दलों को आरटीआइ के दायरे में क्यों नहीं लाती?

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Sunday, March 4, 2018

फूटा घट-घट घटहिं समाना

अभिनेत्री श्रीदेवी के अचानक निधन से पूरा देश सदमे में आ गया था. 24 फरवरी की रात अचानक खबर आई कि दुबई में श्रीदेवी का हार्ट अटैक से निधन हो गया. खबर सुनते ही बॉलीवुड के तमाम सितारे सोशल मीडिया पर शोक जताने लगे और उन्हें श्रद्धांजलि देने लगे. लेकिन श्रीदेवी के निधन पर जिस तरह से मीडिया कवरेज हुई उससे अभिनेता ऋषि कपूर थोड़े नाराज भी दिखे.

उन्होंने ट्वीट किया, "अचानक श्रीदेवी 'बॉडी' कैसे बन गईं? सारे टीवी चैनल दिखा रहे हैं कि बॉडी आज रात मुंबई लाई जाएगी. अचानक आपकी पहचान खत्म हो गई और बॉडी बन गई."

थोड़ी देर के लिए मीडिया कवरेज को छोड़ दीजिए, तो ऋषि कपूर की इस नाराजगी का जबाव भारतीय परंपरा और मनीषा में मिलता है. हिंदू जीवन धर्म में जन्मतिथियों के मनाने की परंपरा है और पुण्यतिथि सिर्फ पिता की मनाई जाती है. क्योंकि पिता की मृत्यु की घटना जीवन से जुड़ी है. भारतीय परंपरा कहती हैकि मृत्यु के अनंतर ही पिता का सारा ऋण पुत्र को हस्तांतरित होता है.

कोई सामान्य हिन्दू श्राद्ध की सारी विधियां पूरी करे या न करे, दाह संस्कार के बाद पीपल के पेड़ के नीचे एक घड़ा जरूर बांधता है. उस घड़े में नीचे छोटा-सा छेद कर दिया जाता है. प्रतिदिन उस घड़े में पानी भरा जाता है और यह अपेक्षा की जाती है कि पानी निरंतर पीपल की जड़ में गिरता रहे. उस घड़े के पास प्रतिदिन दीपक जलाया जाता है.

यह जीवन की साधना है.

महाप्रयाण के लिए गया जीवन ही उस घड़े के रूप में सनातन काल की शाखाओं में उतने दिनों तक लटका दिया जाता है जितने दिन प्रतीक रूप में उसे नया जन्म ग्रहण कर लेना है. और तब इस प्रतीक की जरूरत नहीं रह जाती है. इस प्रतीक की सार्थकता खत्म हो जाती है तो इसे भी फोड़ दिया जाता है, 'फूटा घट-घट घटहिं समाना'. एक चेतन व्यक्ति समष्टि में, सृष्टि में वापस चला जाता है.

विज्ञान पढ़ने वाले लोग जानते होंगे, हम सभी मूलतः ऊर्जा से बने हैं. हम एनर्जी का पार्ट हैं. उस एनर्जी या ऊर्जा को जो इस अखंड ब्रह्मांड में व्याप्त है और हर ओर प्रवाहित हो रही है. ऊर्जा के संरक्षण का सिद्धांत कहता है, 'ऊर्जा का न तो नाश हो सकता है न उसका सृजन किया जा सकता है. वह सिर्फ रूपांतरित हो सकता है.'

क्या भौतिकी का यह सामान्य नियम आपको गीता के श्लोकों की याद दिला रहा है? बिलकुल सही, हम सभी ऊर्जा का हिस्सा हैं और उसी में चले जाते हैं. आप चाहें तो इसको 'पंचतत्वों में विलीन हो जाना' भी कह सकते हैं.

क्षिति जल पावक गगन समीरा,

पंच रचित अति अधम शरीरा।

शरीर के भौतिक अवशेषों को गंगा की धारा में या तीर्थ में प्रवाहित करने के पीछे भी जीवन की निरंतरता की खोज की भावना है. भस्मीभूत अवशेष एक अध्याय की समाप्ति के प्रतीक भर हैं, वे पूरी तरह अशुचि हैं. अपवित्र हैं. उन्हें छूने भर से आदमी अपवित्र हो जाता है, क्योंकि आदमी मृत्यु को छूने के लिए नहीं बना है. वह जीवन का प्रतीक है. इसलिए मृत्यु अशौच है, अपवित्र है. आदमी की देह जीवन के पार जीवन की खोज के लिए साधन है. भारतीय परंपरा कहती है ऐसे साधन देवताओं तक को मयस्सर नहीं है.

लेकिन बदलते वक्त में चलन उल्टा हो गया है. भस्मियां पवित्र हो गई हैं. उनको ताम्र कलशों में रखा जाने लगा है. चुपचाप शांति से प्रवाहित करने की बजाय बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते हैं. उनको एक जगह नहीं, जगह-जगह प्रवाहित करने का चलन चल पड़ा है. मृत्यु की पूजा भोंडे तरीके से शुरू हो गई.

दिवंगतों की मूर्तियों की स्थापना की जाने लगी हैं. मंदिर बनने लगे हैं. जो चला गया, उसकी पार्थिव आकृति इतिहास के लिए भले जरूरी हो, पर उसकी पूजा क्यों?

श्रीदेवी के मामले में उनका काम ही अनुकरणीय है. सिनेमा की कला में उनका योगदान ही सराहा जाना चाहिए. शरीर तो रीत गया, फूट गया (घड़े की तरह) तो उसकी पूजा क्यों?

यह श्लोक ऋषि कपूर ने नहीं सुना हो तो सुनना चाहिए,

न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं न पुनर्भवम।

कामये दुःख ऋतांना केवलमार्स्त्तिनाशनम्।।

यानी, न मैं राज्य चाहता हूं न स्वर्ग, न पुनर्जन्म के चक्कर से मुक्ति. मैं केवल दुखितों के पीड़ा हरने का अवसर चाहता हूं.

जो कुछ भी जैसा जीवन चारों तरफ है, उसकी साझेदारी यही हिन्दू सनातन परंपरा का मूल तत्व है. दर्शन है.

ऐसे में श्रीदेवी का कार्य ही उनकी पहचान है. बाकी जो बचा हुआ है, पांच तत्वों वाला, वह घड़ा है रीता हुआ, खाली हुई देह है, बॉडी है. मैं जानता हूं कि संवेदनशील ऋषि कपूर बेहद शोकाकुल हैं पर उऩको श्रीदेवी के पार्थिव शरीर को 'बॉडी' कहने पर नाराज नहीं होना चाहिए.

(यह लेख इंडिया टुडे में प्रकाशित हो चुका है, कृपया कहीं और प्रकाशित न करें)

Thursday, February 22, 2018

ज़बानी पकौड़े के दौर में मिथिला का तरूआ है सदाबहार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोजगार का जिक्र करते हुए पकौड़े का नाम क्या लिया, सड़क से लेकर संसद तक हर तरफ पकौड़ा प्रकरण चर्चे में आ गया. इस बयान के लिए कोई तंज कर रहा है, कोई आलोचना. कोई समर्थन में है तो कोई मुखालफत में. मुखालफत में किसी ने पकौड़े की दुकान लगा ली, किसी ने पकौड़ा छानते हुए हाथ जला लिए.

लेकिन, सोशल मीडिया पर चल रही चटखारेदार चर्चा, तमाम राजनीति और आलोचनाओं को किनारे कर दें तो इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि पकौड़े वास्तव में देश के लगभग हर हिस्से में बहुतों को रोजगार दे रहे हैं और उनके परिवार का पेट भर रहे हैं.

पर आज हम पकौड़े के जिस भाई से आप का परिचय करवा रहे हैं वह असल में पकौड़े जैसा दिखता तो है लेकिन यह है मिथिला का तरूआ. इसको बनाने की विधि भी अलग है और किन सब्जियों से तरूआ बनता है उसका रेंज तो खैर विविधता भरा है ही.

इससे पहले की मैं आपको मिथिला के खान-पान के महत्वपूर्ण हिस्से तरूआ से परिचय करा दूं उससे पहले मैं मिथिला के खान-पान के बारे में एक लोकोक्ति बता दूं. मिथिला में खान-पान की संस्कृति में तीन चीजों का होना बेहद जरूरी हैः मिथिलाक भोजन तीन, कदली, कबकब मीन

यहां कदली यानी केला, कबकब यानी ओल या सूरन, और मीन यानी मछली. लेकिन यह जो ओल है उसे तलकर पकौड़े की तरह भी य़ानी तरूआ बनाकर भी खाया जाता है. शायद अचंभा लगे पर मिथिला के भोजन भंडार का यह तो महज एक नमूना है.

तरूआ को लेकर एक अन्य लोकगीत है,

भिंडी भिनभिनायत भिंडी के तरुआ,

आगु आ ने रे मुँह जरुआ

हमरा बिनु उदास अछि थारी,

करगर तरुआ रसगर तरकारी

पूरा अर्थ न जानिए बस इतना ध्यान रखिए कि इस गीत में भिंडी से लेकर काशीफल तक के तरूए का जिक्र है.

तरूआ तो तकरीबन सभी सब्जियों का बनता है. आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, कुम्हड़ा (काशीफल), परवल, खम्हार, ओल (सूरन), अरिकंचन (अरबी के पत्ते). लेकिन मिथिला में अतिथि के सत्कार में सबसे महत्वपूर्ण तरूआ होता है तिलकोर का. तिलकोर एक किस्म का कुंदरू जैसे फल का पत्ता होता है, जिसके औषधीय गुण भी होते हैं.

मिथिला में तिलकोर की बेल आपको हर घर की बाड़ी में मिल जाएगा. जानकारों का दावा है कि तिलकोर टाईप वन डायबिटीज के लिए प्राकृतिक चिकित्सा का रामबाण है. मैथिल लोग बताते हैं कि तिलकोर के नियमित सेवन से पेनक्रियाज से इंसुलिन का स्राव नियमित हो जाता है.

बहरहाल, मिथिला में तिलकोर ही नहीं बाकी सब्जियों का तरुआ बनाने की विधि तकरीबन एक जैसी है. इसके लिए अमूमन बेसन या चावल के आटे (जिसको मैथिली में पिठार कहा जाता है) का इस्तेमाल किया जाता है. मिसाल के तौर पर आलू के तरुए की बात की जाए तो उसे पतले टुकड़ों में स्लाइस की तरह काटकर रख लिया जाता है. इस तरह जैसे कि चिप्स के लिए काटा जाता है. बेसन फेंटकर उसमें नमक हल्दी मिला दी जाती है. अगर इच्छा हो तो थोड़ी लाल मिर्च का पाउडर भी. नमक आप स्वाद के मुताबिक डाल सकते हैं.

फिर आलू के फ्लेक को उस बेसन में डुबोकर कड़कते तेल में तल लिया जाता है. आंच धीमी रखने से तरूआ अच्छे से पकता है. ऐसा ही, बैंगन और तिलकोर समेत अन्य सब्जियों के लिए भी किया जाता है.

तो अगली दफा आप जब भी किसी मैथिल दोस्त से मिलें तो उससे तरूआ खाने की फरमाईश जरूर करें. लेकिन याद रखिए, तरूआ तरूआ है, यह पकौड़ा नहीं है.

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Friday, February 16, 2018

जीवन का असली मजा तो गोलगप्पे में है

बाजार गया तो देखा भीड़-भाड़ के बीच भी एक जगह कुछ ज्यादा ही भीड़ थी. गोल घेरा-सा बना था. खासकर महिलाओं की ज्यादा तादाद थी. जिज्ञासावश वहां गया तो पता चला कि वहां गोलगप्पे बिक रहे हैं.

अब गोलगप्पों का तो क्या है, आपको दिल्ली में बंगाली मार्केट से लेकर कनॉट प्लेस और संगम विहार से लेकर रोहिणी तक मिल जाएंगे. लेकिन यह ऐसा शुद्ध स्वदेशी डिश है जो देश के हर हिस्से में मिलता है.

गोलगप्पा उर्दू का शब्द है. जैसा नाम से ही पता चलता है कि गोल पूरी जैसी चीज में आलू के चटकारेदार मसाला बनाकर डाला जाता है और उससे भी चटकारेदार रस उसमें भरकर कागज के पत्तल या पत्तों के दोने में रखिए और रखने के फौरन बाद गप्प से उदरस्थ कर जाइए. आपने देर की नहीं, कि बुलबुला फूटा नहीं. तोड़कर इसको खाना तो तकरीबन उतना ही नामुमकिन है जितना ग्यारह मुल्कों की पुलिस के लिए डॉन को पकड़ना.

तो गोल चीज को गप्प से मुंह रख लेने से ही शब्द बना गोलगप्पा. वैसे अंग्रेजीदां लोगों को बता दें कि अंग्रेजी के शब्दकोश में गोलगप्पे का अर्थ ‘पानी से भरा इंडियन ब्रेड’ या फिर ‘क्रिस्प स्फेयर ईटेन’ लिखा गया है! इसके ही एक और नाम पानीपूरी का शाब्दिक अर्थ है "पानी की रोटी" इसके मूल के बारे में बहुत कम जानकारी है पानी पूरी शब्द को 1955 में और गोलगप्पा शब्द को 1951 में दर्ज किया गया.

जरा बताइए तो, गोलगप्पे में डलता क्या है? एक पूरी होती है, जो या तो आटे से बनती है य़ा फिर सूजी मिलाकर. फिर गोलगप्पे वाला अपने अंगूठे से इसमें बड़ी मुलायमियत से एक छेद करता है, और उसमें एक मसाला डालता है. अलग-अलग इलाकों में गोलगप्पे में भरा जाने वाला मसाला अलग हो सकता है. लेकिन आलू उसमें केंद्रीय भूमिका में होता है.

आलू का मसाला तैयार करते वक्त उबले आलू को इमली के पानी, मिर्च, चाट मसाले, प्याज वगैरह के साथ मिलाया जाता है. इस मसाले को गोलगप्पे के अंदर डालकर उसे फौरन मटके में भरे एक और तरल से भरकर आपको दिया जाता है. इसमें भी इमली का रस और नमक होता है, मिर्च का पाउडर भी. लेकिन इसके अलहदा जायके भी होते हैं. कोई नींबू का पानी, पुदीने का पानी, खजूर का पानी और बूंदी डला सिरके का पानी तो है ही, हाल ही में मेरा साबका हींग के स्वाद वाले पानी से भी पड़ा. पर मेरा पसंदीदा तो झारखंड-बंगाल वाला हल्का खट्टापन लिए इमली की खटाई वाला पानी ही है.

अभी यह लिख रहा हूं तो गोलगप्पे का जायका जबान पर तैर गया है और मुंह में पानी आ गया.

वैसे झारखंड उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में गोलगप्पे को गुप चुप कहते हैं. गोलगप्पे के दीवानों की संख्या पूरे देश में है. सो उन्होंने अपने प्यार के मुताबिक, गोलगप्पे को कई नाम दिए हैं. महाराष्ट्र में इसका नाम पानीपूरी बताशा है तो गुजरात में पानीपूरी. बंगाल और बांग्लादेश में इसको फुचका कहते हैं.

कुछ लोग गोलगप्पे की शुरूआत बनारस से मानते हैं. सन् 1970 में दिल्ली से बच्चों की एक मैगजीन निकलती थी, जिसका नाम रखा गया था ‘गोलगप्पा’. लेकिन कहा-सुना जाने वाला इतिहास कुछ और कहता है. जो लोग दिल्ली आए हैं या यहां रहते हैं उन्हें पुरानी दिल्ली खासकर लाल किले के आसपास के इलाके में जाने का मौका ज़रूर मिला होगा. जिस जगह चांदनी चौक है, वहां आपने एक चौक देखा होगा जिसे फव्वारा कहते हैं. इस अलकतरे की आज की सड़क पर बादशाह शाहजहां के वक्त में नहरें बनवाई गई थीं, जो यमुना का पानी किले और शहर तक लाती थीं. पूरे शाहजहांनाबाद (उस वक्त की दिल्ली) के बाशिंदे उसी नहर से पानी पिया करते थे.

लेकिन, एक वक्त आया जब उस नहर का पानी किसी वजह से गंदा हो गया और शहर के लोग कै-दस्त से परेशान हो गए. फिर शाहजहां के बेटी रोशनआरा ने शाही हकीम को बुलाकर इन बीमार लोगों के लिए कोई नुस्ख़ा तैयार करने को कहा. हकीम साहब ने नुस्खा तैयार कर दिया और लोगों को पिलाया. लोग चंगे हो गए पर कुछ लोगों को इसका जायका बहुत मजेदार लगा. सो उन शौकीन लोगों ने इस नुस्खे को बनाना जारी रखा और उसे आटे की छोटी पूरियों में भरकर पिया जाने लगा. तो इस तरह गोलगप्पे का जन्म हुआ जो कहीं फुचका, कहीं गुपचुप, कहीं पानी बताशा, कही पानी पूरी और कहीं किसी और नाम से जाना जाता है.

राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे पताशी नाम से जाना जाता है. लखनऊ में पांच अलग-अलग टेस्ट के पानी के साथ मिलने वाले पांच स्वाद के बताशे भी काफी फेमस हैं. इसका पानी सूखे आम से बनाया जाता है. गुजरात में चपातियों को फुल्की कहा जाता है, लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में गोल गप्पों को भी फुल्की कहा जाता है. इस नाम से इसे काफी कम लोग जानते हैं. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में गोल गप्पों को टिक्की कहा जाता है.

जो लोग थोड़ी भदेस जबान जानते हैं उनके लिए पड़ाका शब्द जरूर पटाखे से ताल्लुक रखता होगा लेकिन अलीगढ़ में गोलगप्पों को पड़ाका ही कहते हैं. तो गुजरात के कुछ हिस्सों में इसे पकौड़ी भी कहा जाता है. इसमें सेव और प्याज मिलाया जाता है और पानी को पुदीने और हरी मिर्च से तीखा बनाते हैं. कीमत भी इसकी कोई ज्यादा नहीं. जो गोलगप्पा हम अमूमन खाते हैं अभी, वह कोई दस रुपए में चार मिलते है. बचपन में एक रू. के दस गोलगप्पे मिलते थे, इसकी याद तो मुझे भी है.

लेकिन असली मजा तो तब है जब कोई गोलगप्पे वाले से कहे, भैया इसमें मिर्ची थोड़ा और डालना. लोग जब गोलगप्पे जब खा चुके होते हैं तो साथ में घलुए में, भैया सूखी खिला दो कहना कत्तई नहीं भूलते. आखिर मूल से ज्यादा प्यारा सूद जो होता है. तो अगली दफा जब भी गोलगप्पे खाने जाएं तो शाही हकीम और शहजादी रोशनआरा को जरूर याद कीजिएगा और बरसात के मौसम में इससे बचने की कोशिश तो कीजिएगा, लेकिन साथ ही यह भी याद रखिएगा कि यह जो गोलगप्पा है न, यह है असली स्वदेशी डिश.

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Thursday, February 15, 2018

प्रेम केवल फिजिक्स-केमेस्ट्री-बॉयोलॉजी नहीं, हिस्ट्री-पॉलिटिक्स-सोशियो भी है...

बचपन में हीर-रांझा देखी थी, बेतरतीब-भगंदर टाइप दाढ़ी में राजकुमार जंगल झाड़ सूंघते-सर्च करते दिख रहे थे. तब लगा दाढ़ी प्रेम का पोस्टर है. भरोसा न हो तो एक और फिल्म हैः लैला-मजनूं. चॉकलेटी ऋषि कपूर, जिनके बांह चढ़ाए टैक्नीकल स्वेटरों का जमाना दीवाना था, इस फिल्म में ब्लेड क इंतजार करके थक कर बैठ गई दाढ़ी ओढ़े पत्थर झेल रहे थे.

जिस नाकाम प्रेमी ने झाड़ीनुमा दाढ़ी न बढ़ाई, उसके दुख का थर्मामीटर ही डाउन. मानो दाढ़ी दुख के प्रकटीकरण का उपकरण है. संकेत है. प्रेम में नाकाम हुए और दाढ़ी नहीं बढ़ाई? अरे मरदे कैसा प्यार किया था. छी दाढ़ी नहीं बढ़ाई. धिक्कार है दाढ़ी तक नहीं बढ़ाई?

प्रेम में मात खाए लोगों के दुख को साकार करने के भी कुछ प्रॉप (प्रॉपर्टी) होते हैं. बैकग्राउंड से ह्रदय छीलती दर्दनाक ध्वनि अविरल झरझराएः 'ये दुनिया, ये महफिल मेरे काम की नही या फिर, 'कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को. रंजीता के लाख मनुहार के बावजूद, पत्थर हों कि उछलते ही जाएं, रंजीता की दर्द भरी आवाज अगल-बगल छोड़ काल और चौहद्दी से परे ऑडिएंस को भावुक करती जाए, करती ही जाए.

पैमाने पर पैमाने खाली होते जाएं. मयखाने में लुढ़क जाएं. होश न रहे. (जोश तो पहले ही जा चुका है) आप यह न कहें कि आप क्यों ऐसे फलसफे दे रहे हैं कि प्रेम में लोग नाकाम ही होते हैं. अब प्रेम को लेकर मैं क्या कहूं, खुद कबीर कह गए हैं

आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन व्यवहार।

(अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है, किंतु प्रेम का निरंतर समान रूप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है)

तो जो प्रेम करेगा उसका निवेदन माना भी जा सकता है, नामंजूर भी किया जा सकता है. तो अगर आप प्रेम करते हैं, और करना ही चाहिए, दुनिया में नफरत फैल रही है प्रेम कम है, तो आप फौरन से पेश्तर इजहार कर दिया करें.

पर आप इजहार करने में देर करेंगे तो खासी दिक्कत हो सकती है. कुछ भले लोग तो सही वक्त का इंतजार करते रह जाते हैं और जैसा कि एक मशहूर हिंदी फिल्म में नायक का संवाद है, कि मुहल्ले के उनके प्रेम को कोई डॉक्टर-इंजीनियर लेकर उड़ जाता है. अतएव, देर न करें.

चूंकि प्रेम करना कोई दिल्लगी नहीं, सो दिल की बात फौरन बता दें. प्रेम में डायरेक्ट ऐक्शन सबसे बेहतर विकल्प है. आप मान कर चलिए कि यह मिसफायर भी हो सकता है. महिला सशक्तिकरण के दौर में आपने शिष्टता में जरा भी चूक की (मुझे उम्मीद है कि आप खुद को बाहुबली न समझें कि आप लड़की छेड़ देंगे और पिटेंगे नहीं) तो आप खुद नायिका से, उसके भाई और पिता से पिटने के लिए तैयार रहें.

चूंकि बड़े लोग कह गए हैं कि प्रेम गली अति सांकरी होती है. ऐसे में, प्यार की राह में पिट-पिटा जाना, हड्डी तुड़वाना कोई बड़ी बात नहीं है. तो इतने बलिदान के लिए तैयार रहें.

प्रेम की बात हो रही है तो अभी इंटरनेट पर एक सनसनी का जिक्र किए बिना बात अधूरी रहेगी. प्रिया प्रकाश वॉरियर अब जबकि राष्ट्रीय क्रश घोषित हो चुकी हैं, तो आप भी उस वीडियो में दिखाए हीरो की तरह शर्माएंगे इसकी पूरी उम्मीद की जानी चाहिए.

इस दुनिया में प्रेमियों पर जुल्म-ओ-सितम की इंतिहा हुई है. कभी संप्रदाय के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी सिर्फ खानदानी दुश्मनी के नाम पर, मतलब अछूत कन्या से लेकर कयामत से कयामत तक, और कभी खुशी कभी गम से लेकर इश्कज़ादे तक, जमाना मुहब्बत करने वालों के खिलाफ गोलबंद रहा है. पर फिर कबीर याद आते हैं,

कहां भयो तन बिछुरै, दुरि बसये जो बास
नैना ही अंतर परा, प्रान तुमहारे पास।

शरीर बिछुड़ने और दूर में बसने से क्या होगा? केवल दृष्टि का अंतर है. मेरा प्राण और मेरी आत्मा तुम्हारे पास है.

यही वह प्रेम है. जो ढोला को मारू से, सोहिणी को महिवाल से, लैला को मजनूं से, मनु को शतरूपा से, शीरीं को फरहाद से, नल को दमयंती से, बाज बहादुर को रानी रूपमती से, मस्तानी को बाजीराव से और अमिताभ को रेखा से बांधे रखता है.

आखिर,

प्रीत पुरानी ना होत है, जो उत्तम से लाग
सौ बरसा जल मैं रहे, पात्थर ना छोरे आग।

प्रेम कभी भी पुराना नहीं होता. यदि अच्छी तरह प्रेम किया गया हो तो जिस तरह सौ साल तक भी वर्षा में रहने पर भी पत्थर से आग अलग नहीं होता उसी तरह प्रेम बना रहता है.

उम्मीद पर दुनिया कायम है और मुझे उम्मीद है कि देश और दुनिया के हर हिस्से में कायम नफरत हार जाएगी और प्रेम की फसल लहलहा उठेगी. मौका शिवरात्रि का भी है, तो शिव और सती के प्रेम को अपना उत्स बनाइए.

यह ठीक है कि पखवाड़ा ही बाबा वैलेंटाइन के नाम का है. पर महर्षि वात्स्यायन को मत भूलिए. बाबा वैलेंटाइऩ तो सिर्फ प्यार करने वालों को मिलवाते थे पर हमारे यहां तो वैलेंटाईन के भी चच्चा पैदा हुए हैं जो प्यार करने की खासी अंतरंग गतिविधि बता गए हैं. स्टेप बाई स्टेप.

और हां, सबको वात्स्यायन दिवस के पश्चिमी संस्करण की शुभकामनाएं.