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Saturday, October 15, 2022

आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत मनमाना प्रतीत होता है

मंजीत ठाकुर

बीसवीं सदी की शुरुआत तक इतिहासकार मानते थे कि भारत में पहले असभ्य पाषाणयुगीन लोग रहते थे और करीब 1500 ईसापूर्व में जब आल्प्स की पहाडियों के पास से ‘आर्य’ घोड़ों पर चढ़कर और लोहे के हथियारों के साथ आए तब जाकर यहां पर एक नए युग की शुरुआत हुई. औपनिवेशिक इतिहासकार इस आक्रमण का ही परिणाम भारतीय सभ्यता का विकास मानते हैं. इन इतिहासकारों के मुताबिक, आर्य आक्रमण सिद्धांत ही एकमात्र सिद्धांत है.

लेकिन, इन इतिहासकारों का मुताबिक, 1500 ईसापूर्व में आर्य इधर आए थे (200 बरस के स्टैंडर्ड डेविएशन के साथ भी) तो भी यह तारीख तय करना एकदम से मनमाना था. असल में, इस तारीख के पीछे ‘उनके पास’ कोई पुरातात्विक या लिखित साक्ष्य नहीं था.

इस सिद्धांत के पीछे दो कारक काम कर रहे थे. पहला, बाद के सालों में मध्य एशिया की तरफ से हुआ लगातार आक्रमण. दूसरा, यूरोपीय और (उत्तर) भारतीय भाषाओं के बीच भाषायी समानता. (कुछ लोग इसके पीछे साजिश भी बताते हैं कि बाद के आक्रमणकारियों को डायल्यूट किया जा सके यह कह कर कि, हम बाद के आक्रमणकारी हैं और तुम पहले के)

हमारी गरदन उस वक्त अंग्रेजों के बूटों के नीचे थे इसलिए इतिहासकारों के लिए यह कहना भी मुफीद रहा होगा कि अंग्रेज भी बाद के दौर के आर्य हैं और हम लोगों को ‘सभ्य’ बनाने आए हैं. (हालांकि, यूरोप के इतिहास को ध्यान से पढ़िएगा तो पता चलेगा कि ये लोग, खुद कितने असभ्य लुटेरे थे)

लेकिन हडप्पा-मुएन-जो-दड़ो जैसे शहरों के पता लगने और हडप्पा सभ्यता के शहरों की खुदाई के बाद इस सिद्धांत पर सवालिया निशान लग गए. उसी समय यह पता चल गया कि भारत की सभ्यता के लिए 1500 साल ईसापूर्व पहले का वक्त तो एकदम हाल की घटना है.

आप भी थोड़ा हिसाब लगाइए. अगर आर्य 1500 ईसापूर्व आए थे और उस वक्त वे लोग घोड़ों पर सवार पशुपालक भर थे तो दूसरा प्रस्थान बिंदु आप बुद्ध के जन्म का लीजिए. बुद्ध ईसा से 563 साल पहले हुए. यानी बीच की अवधि बची 900 सालों की.

इन नौ सौ सालों में भारत में आर्य आए, घोड़ो से उतरकर खेती करनी शुरू की. गांव बनाए. उनको शहरों में तब्दील किया. ऋग्वेद से लेकर यजुर्वेद तक की रचना की. सोलह महाजनपद बसाए. हिंदू धर्म फला-फूला और उसमें साथ के साथ इतनी बुराइयां आ गईं कि उसको ठीक करने के लिए बुद्ध और महावीर को नया धर्म बनाना पड़ा! इतनी सारी घटनाएं महज 900 साल में!

लेकिन, साहब वैचारिक रूप से कलर्ड इतिहासकार इतनी आसानी से हार नहीं मानते. उन्होंने तर्क दिया कि हडप्पा की सभ्यता द्रविड़ों की थी (जिनको आप आज का तमिल कहते हैं) और द्रविड़ों ने यह शहर बसाया और ‘आक्रमणकारी आर्यो’ ने उन शहरों को नष्ट कर दिया. इसलिए आर्यों के देवता इंद्र को ‘पुरंदर’ यानी ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा जाता है.

लेकिन, इस थ्योरी में भी झोल है.

असल में इतने बड़े पैमाने पर हुए आक्रमणों का कोई पुरातात्विक साक्ष्य अभी तक नहीं मिला है. दूसरी तरफ, राखीगढ़ी में ईसा से 4500 साल पुराना एक शव मिला है, इससे ‘रंगे’ इतिहासकारों में अलगै सनसनी-खलबली है.

अब हडप्पा शहरों में कोई अचानक तो ध्वंस दिखता नहीं है. हर इतिहासकार आपको कहेगा (एकदम ही ब्लैंक चेक पर न बिका हो तो) कि हड़प्पा के शहरों का विघटन शनैः शनैः हुआ है. शनैः शनैः नहीं समझते? जा मरदे, अंग्रेजी वाला शब्द लिख देंगे तो लोटपोट होते रहोगे. आसान हिंदी में शनैः शनैः का अर्थ है धीरे-धीरे, उर्दू में आहिस्ते-आहिस्ते और अंग्रेजी में आप यूं समझेः Harappan cities suffered a slow decline. अब तो बूझ गए होगे. ठीक?

अब राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनते ही आपको राजनैतिक बिसात की याद आ रही होगी और आपको पता चल गया होगा कि वह संताल जनजाति की हैं. मौजूदा राष्ट्रपति दलित हैं.

मने, अगल-बगल नजर दौड़ाइए तो आपको जाति, जनजाति, भाषा और न जाने किस-किस किसिम की विभिन्नता नजर आएगी.

अच्छा, आपको इसके अलावा यहूदी, पारसी, तुर्क और अहोम भी दिखेंगे.

इसके अलावा आप इस बात से शायद ही इनकार कर पाएं कि हजारों सालों से देश के अंदर आंतरिक विस्थापन और पलायन होता रहा है. आज राजस्थानी मारवाड़ी सिलीगुड़ी और अरुणाचल तक में कपड़े से लेकर खिचड़ीफरोश की दुकान लिए बैठा है. सरदार जी का ढाबा कन्याकुमारी में भी है और गोहाटी में भी.

उधर अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ ऐसी जनजातियां हैं जिनका मुख्यधारा के भारत के साथ मेल-जोल ज्यादा नहीं है. लेकिन हमारे हिंदुस्तान की इस बड़ी और मिली-जुली आबादी को लेकर आनुवांशिक अध्ययनों ने कमाल के नतीजों की तरफ इशारा किया है.

पहली बात, भारत में कोई भी नस्ल शुद्ध नहीं है. चाहे वह दरभंगा महाराज के खरोड़े भौर हों या महाराजा हरिसिंह कर्ण सिंह का खानदान. नस्ल के मामले में नेहरू-गांधी परिवार तो अलग ही मिसाल है.


इस फोटो का इस लेख से ताल्लुक नहीं है.  

फिर भी, हर खानदान में आनुवांशिक मिलावट है आप यह मानकर चलिए.

कुछ न हो तो अपने अगल-बगल चाचा-ताऊ-मामा-मौसा (और सबके स्त्रीलिंग रूपों) को नाप-तौल कर ही देख लीजिए. सबके रंग अलग. चाचा गहरे, पर आपके पिताजी गेहुआं, नानाजी एकदम झक्क अंग्रेज जैसे गोरे तो मौसी थोड़ी सांवली. होगा, चेक करिए.

लेकिन, 2006 में एक अध्ययन किया गया था जिसका नतीजा यह निकला है कि भले ही हम लोग अलग साइज और शेप में हो पर भारतीयों के मोटे जीन पूल में पिछले 10,000 (दस हजार) साल से कोई बड़ा जीन इंजेक्शन नहीं हुआ है.

इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर इंडो-यूरोपियनों (पढ़ें आर्यों) का कोई बड़ा आगमन हुआ भी होगा तो यह कम से कम 10 हजार साल पहले हुआ होगा. और उस वक्त तक न तो घोड़े पालतू बनाए गए थे और न ही लोहे के हथियार बनाने की कला विकसित हुई थी.

इसी तरह, यही अध्ययन यह भी बताता है कि द्रविड़ भाषी लोग लंबे समय से दक्षिण भारत में रहते आए हैं और उनका ‘कथित’ द्रविड़ जीनेटिक पूल का भी उधर-इच उद्भव ऐंड विकास हुआ होगा.

लेकिन बाद में जो अध्ययन हुए इससे तो इतिहासकारों का खाना गरगट हो गया. (खाना गरगट होना , मैथिली कहावत है मने कौर गले से न उतरना. बिना पानी पिए नहीं उतरेगा)

खैर. हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज में डेविड रीख ने एक शोध किया जो नेचर पत्रिका में 2009 में छपा था. उसमें लिखा गया है कि, भारतीय आबादी के अधिकांश हिस्से की पुरखों के दो समूहों (एंसेस्ट्रल ग्रुप) के मिश्रण के रूप में व्याख्या की जा सकती है.

पहला है एएसआइ (Ancestral South Indians) और दूसरा है एएनआइ (Ancestral North Indians).

शोध के मुताबिक, एएसआइ पुराना ग्रुप है और इसका कोई रिलेशन किसी यूरोपीय. पूर्वी एशियाई या इस उपमहाद्वीप के बाहर के किसी समूह से नहीं है.

लेकिन, एएनआइ यानी एनसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन समूह की उत्तर भारत में अधिक हिस्सेदारी है और कश्मीरी पंडितों और सिंधियों में तो इनकी जीन पूल में 70 फीसद से अधिक की हिस्सेदारी है.

अब, आपके मन में लप्प से ख्याल आया होगा वही पुराने आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर इस आंकड़े को रख देने का. है न, है न? हे हे.

ऐसा करने का नय. रुको. रुक जाओ. अगले पोस्ट तक रुक जाओ.

Friday, September 23, 2022

हम इंसानों में क्या मानवेतर जीन मौजूद है!

आज से कोई 70,000 साल पहले की बात है. हिमयुग अफ्रीका में ही काट चुकने के बाद एक और मानव जत्था (होमोसेपियंस) हहास बांधकर निकला. इस बार उन्होंने निएंडरथल्स और दूसरी मानव प्रजातियों को खदेड़ दिया. उन्होंने निएंडरथल्स को न सिर्फ अरब प्रायद्वीपीय इलाके (अंग्रेजी मानसिकता वाले इसको 'मध्य-पूर्व' पढ़ें, स्वतंत्र विचारक 'अरब प्रायद्वीप' ही पढें) से निकाल दिया, बल्कि यह निएंडरथल्स के विनाश की शुरुआत थी.

विचारणीय प्रश्न यह भी है कि करीब 45,000 साल पहले यही लोग पता नहीं कैसे, ऑस्ट्रेलिया जा पहुंचे. इस महाद्वीप में उस वक्त तक, इंसान नहीं पहुंचे थे. इन्हीं लोगों ने स्टाडेल में नर-सिंह (यानी सिर सिंह का का, शरीर इंसान का) को तराशा. (अपने नरसिंह अवतार को भी याद करते हुए हाथ जोड़ लो माराज.)

इसका मतलब यही है कि हमारे पुरखे आज के इंसानों जितने ही अक्लमंद रहे होंगे.

बहरहाल, बात को थोड़ा पीछे लिए चलते हैं. आज से कोई 65,000-70,000 साल पहले अफ्रीका से कुछ सौ लोगों का समूह निकला और अफ्रीका को पार करके अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी हिस्से में पहुंचा. विद्वान मित्रों के लिए संदर्भ दे रहा हूं (निकोल माका-मेयर व अन्य, बीएमसी जेनेटिक्स, 2001 में प्रकाशित, मेजर जीनोमिक माइटोकोंड्रियल लिनियेजेज डेलिनेट अर्ली ह्यूमन एक्सपेंशन)

तो जाति और रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानने वाले दुनिया भर के मूर्खो, हम-आप सभी इसी कुछ सैकड़ों मनुष्यों की संतान हैं. चाहे छुटकी मूंछों वाला हिटलर हो या लंबी मूंछों वाला स्टालिन, क्लीन शेव्ड चर्चिल हो या बेतरतीब दाढ़ी-मूंछों वाला चे-गुएरा. सदाशयी मार्टिन लूथर किंग और सम्मोहक मुस्कुराहट वाले गांधी, सब एक ही छोटे समुदाय की संतानें हैं.

इसका एक अन्य अर्थ हैः इन गैर-अफ्रीकी समुदायों में बहुत कम आनुवांशिक (जीनेटिक) अंतर होना चाहिए. क्या इसकी कोई चाबी इस बात में है कि वैश्विक महामारियों को लेकर हम सभी कथित नस्लों के लोग एक ही तरह से कैसे प्रभावित होते हैं?

बेशक, आधुनिक इंसानों के भौगोलिक विस्तार पर पर्यावरण और जलवायु की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

अपनी धरती का क्या है, इसका मिजाज भी हॉर्मोनल ही है. कभी ठंडा कभी गरम. आप स्त्री हैं तो अपने पति/ बॉयफ्रेंड को याद करे और पुरुष हैं तो तुनुकमिजाज पत्नी/ प्रेमिका को. सैकड़ों मौके मिल जाएंगे जब आपको उनके तापमान से तारतम्य बिठाना पड़ा होगा.

खैर. शुरुआती इंसानों ने जब अफ्रीका से बाहर कदम रखा होगा, तब धरती आज के मुकाबले काफी ठंडी रही होगी. धरती का बहुत सारा पानी बर्फ की चादरों में कैद रहा होगा. इसका मतलब यह भी हुआ समुद्रों का जलस्तर काफी नीचे रहा होगा. एक वैज्ञानिक अनुमान है कि तब समुद्री जलस्तर आज से कोई 100 मीटर नीचे था. (इस संदर्भ में एलिस रॉबर्ट की द इन्क्रेडिबल ह्यूमन जर्नी पढ़ना अच्छा रहेगा. ब्लूम्सबरी ने छापी है.)

तब तटीय इलाकों का भूगोल और जलवायु भी आज से एकदम अलहदा ही था.

यानी, हमारे जो कुछ सौ पुरखे अफ्रीका से बाहर निकले थे और दक्षिणी अरब प्रायद्वीप पहुंचे थे उन्हें अपेक्षया उथले लाल सागर को पार करना पड़ा होगा. और अरब के तटीय इलाके भी अधिक नम और सुखद रहे होंगे.

ऐसा प्रतीत होता है कि उसके बाद आधुनिक मानवों ने फारस की खाड़ी पार की होगी. आज फारस की खाड़ी की औसत गहराई करीबन 36 मीटर है. इस संदर्भ में जे काम्फ और एम. सदरीनासाब ने ‘द सर्कुलेशन ऑफ द पर्शियन गल्फ’ नाम का बेहतरीन अध्ययन किया है.

अब, एक अध्ययन कहता है कि बर्फ की चादरों में सिमटे पानी की वजह से अगर समुद्री जलस्तर 100 मीटर नीचे था, तो इसका मतलब यह हुआ कि फारस की खाड़ी शानदार हरा-भरा मैदान रहा होगा. समझिए, ईडन का गार्डन जैसा कुछ. यहीं रुक गए होंगे शुरुआती आगंतुक. इधर ही काफी आबादी बढ़ी होगी, रुक गए होंगे. यहां से मध्य एशिया और यूरोप की तरफ बढ़ना थोड़ा मुश्किल रहा होगा. हिमयुग चल रहा था न.

लेकिन मकरान तट के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में उनका प्रवेश मुश्किल नहीं था. इधर यह बात याद रखने की है कि भारत की तट रेखा भी तब ऐसी नहीं थी, जैसी आज है. कई जगहों पर तो यह आज के तट से सौ-सवा सौ किमी आगे रहा होगा.

यूरोप में तब निएंडरथल्स थे शायद. क्या फारस वाले लोग उधर बढ़ें होंगे तो उनके साथ युद्ध हुआ होगा या संभोग? जो भी हो, हालांकि वैज्ञानिक कहते हैं कि निएंडरथल्स के कुछ जीन अभी भी मौजूद हैं. यानी कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिनमें मानवेतर जीन या गुण होंगे. यह राजनैतिक रूप से बवंडर खड़ा कर सकता है. इसलिए इस बात पर अभी यहीं मिट्टी डालिए. आगे बढ़िए.

लेकिन जितने का जिक्र बुरा नहीं उतना कर देते हैं.

जीव वैज्ञानिक बताते है कि इंसानों से संघर्ष के बाद निएंडरथल पच्छिम की ओर बढ़ते गए और जिब्राल्टर तक पहुंच गए, जहां उनका अंतिम समूह किसी गुफा में खत्म हो गया. हालांकि, निएंडरथल्स के खत्म होने के बारे में स्पष्टता नहीं है. यह भी अनुमान है कि शायद वे लोग सुमात्रा में टोबा ज्वालामुखी के फटने से मारे गए. उस ज्वालामुखीय विस्फोट का असर दक्षिण भारत तक हुआ था क्योंकि खुदाई में उसके राख दक्षिण भारत में भी मिले हैं.

बहरहाल, इंसानों का प्रसार दक्षिण-पूर्व एशियाई इलाके और वहां से ऑस्ट्रेलिया तक हुआ और यही वहां के एबोरिजिनिल्स के पुरखे बने. हालांकि आनुवांशिक अध्ययनों ने यह साबित किया है कि ऑस्ट्रेलियाई एबोरिजिनल्स का दक्षिण-पश्चिम एशियाई स्थानीय आदिवासियों के साथ आनुवंशिक कड़ियां मिलती हैं. पर आज के आधुनिक भारतीयों के साथ अभी तक कोई लिंक करने वाला जीन नहीं मिला है.

हो सकता है कि यह प्रवासी ग्रुप वह रहा हो जिसने भारत को छोड़कर मध्य एशिया वाला रास्ता पकड़ लिया हो. एनीवे.

लेकिन, रुकिए. जल्दबाजी में कोई राय मत बनाइए. एंथ्रोपॉलॉजिलक सर्वे ऑफ इंडिया ने 2009 में एक अध्ययन प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया है कि नेटिव ऑस्ट्रेलियाई लोगों और भारत के कुछ जनजातीयों के बीच जीनेटिक लिंक मौजूद हैं. यह लिंक बहुत हल्का है. 26 जनजातीय समूहों के 966 लोगों में से सिर्फ 7 में यह हल्का लिंक दिखा. और इसके लिए विद्वान कहते हैं कि भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई ग्रुप कोई 60,000 साल पहले अलग हो गया था.

बेशक, फारस की खाड़ी के इलाके में एक भरी-पूरी आबादी रह भी गई होगी, जो वहां से अंतर-हिमयुग अवधि (इंटरग्लेशियल अवधि) में यूरोप और मध्य एशिया की ओर निकली.

ऊपर जितनी भी बातें लिखी गई हैं वह दसियों हजार साल की अवधि में घटी घटनाएं हैं. और जिस छोटे समूह के विस्तार की बात कही गई है वह भी 50-100 से अधिक लोगों का समूह नहीं रहा होगा. ये लोग भी कोई झुंड बांध लगातार यायावरों की तरह नहीं चले होंगे. रुककर, ठहरकर इधर-उधर इनकी गति रही होगी. भारतीय उपमहाद्वीप में जिसतरह झुंड आए होंगे, वैसे ही कुछ लोग निकले भी होंगे.

उनके बीच हुए युद्धों, भोजन की कमी, सूखे, अकाल, बाढ़, महामारियों ने यह तय किया होगा कि कौन सा ग्रुप जिंदा बचेगा.

यूनेस्को ने अपने भारत में भी एक ऐसी साइट को विश्व विरासत में शामिल किया है, भीमबेटका. करीब 30,000 साल पुराने वक्त में लोग यहां रहे होंगे ऐसा अनुमान है. भारत में शुतुरमुर्ग के अंडों के खोल से बनी मालाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि इधर वह पक्षी पहले बहुतायत में पाया जाता होगा. ये भी हो सकता है कि इस फैशन की वजह से ही बेचारा परिंदा इधर से लुप्त हो गया. फैशन में जाने कितनी चीजें लुप्त हुई हैं इस देश से. कितनी बेशकीमती परंपराएं भी.

बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री में माइकल वुड्स कहते हैं, “भीमबेटका की आकृतियों में चूड़ी और त्रिशूल वाली नृत्यरत देवी को देखकर किसी को भी नटराज की याद आ सकती है.”

आखिरी हिमयुग, करीबन 24,000 साल पहले शुरू हुआ था. करीब 20 हजार साल पहले यह उरूज पर था और उसके बाद गरमाहट बढ़नी शुरू हुई. आज से 14,000 वर्ष पहले से यह बर्फ की चादरें पिघलनी शुरू हुईं. समुद्र के तल में तेजी से वृद्धि होने लगी. और आज से कोई 8000 साल पहले, गल्फ ओएसिस (फारस की खाड़ी का हरा-भरा इलाका) पानी में डूब गया.

अब सुमेरियाई सभ्यता में या बाइबिल में इसी को तो ग्रेट फ्लड नहीं कहा गया? भारत में मनु इसी जलप्रलय से तो नहीं बचाते हैं मानव सभ्यता को? सोचिएगा.

फारस की खाड़ी के विस्थापित लोग बढ़ते सागर और मरुस्थलीकरण से प्रभावित होकर किधर गए होंगे? लेकिन साक्ष्य बताते हैं कि इस समय तक लोग नौकायन से परिचित हो गए थे. यह नवपाषाण युग का उत्तरवर्ती काल था और लोग कृषि, पशुपालन आदि के जानकार हो चुके थे.

यहां के कुछ समूह यूरोप, कुछ मध्य एशिया की तरफ निकले होंगे. उधर, दक्षिण-पूर्व एशियाई समूह खुद को चीन में स्थापित कर चुका होगा.

वैसे जलप्रलय की भारतीय कथा में मनु को भगवान विष्णु ने पहले ही चेतावनी दे दी थी. उनने भी बड़ी-सी नाव बनाई और उसको बीजों और जानवरों से भर लिया, उनकी नाव को भगवान विष्णु मछली के रूप में (मत्स्यावतार) में टोकर सूखी धरती की तरफ ले गए.

अब यही कहानी पूरी मानव सभ्यता में है. संतालों के यहां भी यही कहानी है. नाम बदल दीजिए अवतारों या दिव्य पुरुषों के. बाइबिल में भी यही है. बहरहाल, भूगर्भशास्त्रियों का अनुमान है कि भारतीय तटरेखा उस समय मौजूद तटों से काफी आगे की तरफ होगी और श्रीलंका भी भारतीय मुख्य भूमि से जुड़ा था और एकदम से जुड़ा न हो, गलबहियां वाली पोजीशन में जरूर था. यहां से आप रामसेतु का संदर्भ पकड़ सकते हैं.

वैसे, खंभात की खाड़ी में (कॉम्बे, गुजरात) 7500 साल पहले बसी बड़ी बस्तियों के दो सुबूत 2001 में ही पुरातत्वविद पेश कर चुके हैं. हालांकि, इस पर अभी और अधिक अध्ययन जरूरी है.

कई इतिहासकार यह भी कहते हैं कि फारस की खाड़ी के लोगों ने ही खेती का ज्ञान दूसरों को बांटा. वैसे, यह बात पूरी तरह सच नहीं लगती. कोई 7000 साल पहले के साक्ष्य बताते हैं कि मेहरगढ़, बलूचिस्तान (जो सन 47’ तक भारत था) गेहूं और जौ की व्यवस्थित खेती करते थे. चूंकि ये पश्चिम एशियाई नस्लें हैं इसलिए इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि भारतीय लोगों ने खेती गाजा पट्टी वालों से सीखी.

वैसे, बैंगन, गन्ना और तिल की खेती तो भारत में शुरू हुई यह सबको पता है. होगा ही. पर बाद में ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं कि खेती भारतीयों ने पहले से, स्वतंत्र रूप से विकसित की थी. और धान अपन खूब उपजाते थे.

गुजरात के तट पर उस समय भी बड़े शहर थे. इसका मतलब उन्हें खेती आती होगी. क्या खेती का विकास उस वक्त के टिहरी बने शहरों के लोगों ने विकसित की थी या विस्थापित लोग उसको देश के अलग हिस्सों में लेकर गए?

जो भी हो, इतना तय है कि नवपाषाण युग में भी भारत में ठीक-ठाक जनसंख्या रहती थी. शहर भी थे और खेती भी. पर उस वक्त भारत राष्ट्र था या नहीं? बेशक नहीं था. पर उस समय के लिहाज से अपन दूसरे भूखंडों से अलग नहीं थे.

इस कड़ी में इस बार इतना ही, आगे फिर लिखेंगे.

Saturday, September 17, 2022

इंसान का विकासः दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं

आज से कोई बीस लाख साल पहले मनुष्य बेहद आदिम रूप में था. (यह कौन-सी रॉकेट साइंस वाली बात है भला!) लेकिन जैसा कि युवाल नोआ हरारी लिखते हैं, प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मामूली प्राणी थे, जिनके अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं या किसी मछली से ज्यादा प्रभाव नहीं था.

बहरहाल, इंसानों का विकास शुरू हुआ. विज्ञान के जानकार लोग जानते हैं कि जीव विज्ञान में जीवों को प्रजातियों (नस्लों) में बांटा जाता है. प्रजातियों को आप आसान भाषा में यह मान लें कि वह आपस में मिलन करके ऐसे बच्चे पैदा कर सकते हैं जो खुद भी वीर्यवान होती है.

मिसाल के तौर पर, घोड़े और गधे दो प्रजातियां हैं. (हर लाइन में सियासत खोजना ठीक नहीं. मैं घोड़ों और गधों की ही बात कर रहा हूं) सामान्य तौर पर दो विभिन्न नस्लों के जीव आपस में यौन दिलचस्पी नहीं रखते. (ध्यान दीजिएगा, मैंने सामान्य तौर पर कहा है. मुझे पता है आपने बहुत तरह के वीडियोज देख रखे हैं. पर वह अपवाद हैं या आपको अभद्र मनोरंजन के लिए जानबूझकर बनाए गए होते हैं)

बेशक, घोड़ों और गधों को उकसाया जाए तो वह आपस में मिलन करेंगे पर उनसे उत्पन्न संतान खच्चर कहाएगी और वह आगे वीर्यवान नहीं होगी.

इसके उलट, कुत्ते, देशी हो या विदेशी, डॉबरमैन हो या जर्मन शेफर्ड आपस में मिलन कर सकते हैं और प्रजनन सक्षम पिल्ले पैदा कर सकते हैं. मैंने दोनों की कुत्तों की नस्लें विदेशी बताईं हैं क्योंकि ‘इंडिया दैट इज भारत’ में विदेशी कुत्तों की काफी प्रतिष्ठा है. न सिर्फ चमड़ी के रंग और भौंकने की विशिष्ट शैली की वजह से, बल्कि उनके विचार भी कई लोगों को भारतीय विचारों से श्रेष्ठ मालूम होते हैं. इसके विपरीत, भारतीय कुत्तों की विदेशों में क्या प्रतिष्ठा है इस पर अलग से शोध की जरूरत नहीं है. सबको मालूम है.


खैर, जीव विज्ञान का मेरा नॉलेज यही कहता है कि हमलोग जीवों और पादपों को दो नामों से जानते हैं. जैसे कि पहला नाम उसका जीनस होगा (यानी साझा पूर्वज का नाम) और दूसरा नाम उसकी नस्ल या स्पीशीज का होगा.

इस लिहाज से मैंगीफेरी इंडिका की मिसाल लें. यह आम का वानस्पतिक नाम है. आम मैंगो पीपल के राष्ट्र (मुझे नहीं पता कि जब आम का विकास हुआ था तब आम आदमी पार्टी का विचार तय हुआ था या नहीं या फिर इंडिया दैट इज भारत, एक राष्ट्र के तौर पर किस हालत में था) में इंडिका इसलिए क्योंकि आम भारत का है. वरना बौद्धिकों की राय में हर अच्छी चीज योरप से हिंदुस्तान को आई है. इनक्लूडिंग खैनी. (ये बात तो सच है वैसे)

तो साहब इसी तरह अपन भी विकसित हुए, होमो सेपियंस. होमो मने मनुष्य और सेपियंस मने बुद्धिमान.

इसका मतलब यह हुआ कि हमारे अलावा भी कई तरह के मनुष्य धरती पर थे. लेकिन, जैसे मिथिला में यह मान्यता है कि खरोड़े-भौर मूल के श्रोत्रिय ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं (क्योंकि मिथिला का राजकुल इसी मूल का था.

उसी तरह, वैज्ञानिकों ने खुद ही यह तय कर लिया है होमो सेपियंस ही सबसे बुद्धिमान थे. अब जो प्रजाति नष्ट हो गई, उससे अपन ये तो पूछ नहीं सकते हैं कि अंकिल, मैं बऊआ बोल रहा हूं, आपका आइक्यू टेस्ट करना है.

इधर, अपना इंडिया दैट इज भारत, जो कि तब यूरोपीय परिभाषाओं के मुताबिक कत्तई राष्ट्र नहीं था, यूरेशिया से जाकर मिल गया तो इसका बाकी की दुनिया के पारितंत्र के साथ सम्मिलन हुआ. कई लोग यह मानते हैं कि आज के भारतीय और अफ्रीकी स्तनधारियों (मसलन, हाथी, शेर, गैंडा) में समानता इसलिए है क्योंकि अपना इंडिया कभी अफ्रीका से जुड़ा था. मेरा एक उदारवादी दोस्त कहता है यूरोप से राष्ट्र की परिभाषा भी तभी आई थी. (ओह नहीं, शायद उस वक्त नहीं)

लेकिन, इसमें शक है. क्योंकि भारत तो डायनासोरों (असली वाले, सियासी नहीं) के युग में ही अफ्रीका महादेश से अलग हो गया था. इसलिए भारत में स्तनधारियों का प्रवेश यूरेशिया से जुड़ने के कारण ही हुआ था इसमें शक नहीं.

मिसाल के लिए, साइबेरिया में एक मैमथ (बड़ा वाला हाथी) का जीवाश्म मिला है. उसकी सूंढ़ में घास के तिनके भी हैं. इसका मतलब हुआ कि साइबेरिया में हरियाली थी कभी. और साइबेरिया में कोयले के निक्षेप भी बहुत हैं. इसका अर्थ हुआ कि वहां घने और ऊंचे पेड़ों वाले जंगल भी थे. वैसे कोयले के निक्षेप तो करगिल में भी हैं. अरे अपने कश्मीर में.

खैर, वैज्ञानिक मानते हैं कि इंडिया वाले हाथी (बसपा वाला नहीं) अफ्रीकी हाथी के मुकाबले इस साइबेरियाई हाथी से ज्यादा निकट है. (मेरा एक दोस्त कल रात को प्रेस क्लब में सैटरडे नाइट मना रहा था और उसने कहा कि भारत ने इसी वजह से यूक्रेन संकट के दौरान रूस से निकटता दिखाई है. खून का रिश्ता यू नो)

जैक्लीन फर्नांडीज (इस फोटो का इस लेख से कोई लेना-देना नहीं है, यह मात्र विजुअल रिलीफ है)


आनुवंशिकी के विद्वानों ने लिखा है कि साठ लाख साल पहले अफ्रीकी हाथियों के साथ हमारे हाथियों में बोलचाल बंद हो गई, परिवार दूर हो गया तो जीनेटिक सीक्वेंस टूट गया था.

इसलिए अपने वाले हाथी को देखकर अफ्रीकी हाथी गुनगुना रहा थाः

अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लो
प्यार के बोल तो होंठों से निकल जाते हैं
अपने तेवर तो सम्भालो के कोई ये न कहे
दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं

लेकिन, ग्रू. इंडिया आने वाले ज्यादातर ‘जानवर’ पच्छिम से नहीं ढुके इधर. बहुत सारे तो पूरब से भी आए. एक मिसाल तो अपना बाघ ही है. और बघवा तो बहुत हाल में 12000 साल पहले इंडिया आया. हम बंगाल वाले बाघ की बात कर रहे हैं. पता नहीं छिपकर पीठ पीछे शिकार करने वाले बंगाली बाघ को ‘रॉयल’ काहे कहते हैं.

उधर, पूर्वी अफ्रीका से निकलकर चीन और जावा में होमो इरेक्टस लोग सीधे खड़े होकर चलने की प्रैक्टिस कर रहे थे, वहीं पश्चिम एशिया और यूरोप में निएंडरथल मौजूद थे. यूरोप की जलवायु तब भी ठंडी थी और निएंडरथल लोग उसके अनुकूल थे.

इधर, और बहुत सारी प्रजातियों के इंसान विकसित हो रहे थे. जिनके नाम गिना कर ज्ञान बघारने की मेरी मंशा नहीं है. इस बारे में, ज्यादा चर्चा करना चाहें और मैं व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध हूं. (पर आपका खर्चा हो जाएगा)

स्कूली बच्चों को बताया जाता था इस प्रजाति से उस प्रजाति में विकास हुआ. जैसे दसवीं कक्षा में हमने एक भाषण प्रतियोगिता की तैयारी करते हुए कहीं पढ़ा था कि होमो एर्गास्टर विकसित होकर होमो इरेक्टस बने थे. लेकिन यह बात गलत है. यह कोई कार का मॉडल नहीं था कि इंजन की कैपेसिटी में बदलाव लाकर नया मॉडल लॉन्च होता गया. सचाई यही है कि आज से कोई चौदह-पंद्रह हजार साल पहले तक बहुत सारी इंसानी प्रजातियों का अस्तित्व था. अब नहीं है. अब सिर्फ हमलोग हैं, होमो सेपियन्स, हमीं में से कुछ लोग काले, भूरे, पीले, उजले आदि हैं.

इसलिए अगर कोई यूरोपीय नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करे या कोई भारतीय सिर्फ गोरा होने के कारण इतराए तो आप बगैर पूछे कान की जड़ गर्म करें. (अन्य योग्ताओं वाले लोगों के साथ इतराने वालों के साथ हिंसक होना ठीक नहीं)

वैसे, इंसानों का विकास पूर्वी अफ्रीका में हुआ था. और इस बात के साक्ष्य हैं कि उन लोगों ने हरमुमकिन कोशिश की थी कि जाकर स्वीडन या स्विट्जरलैंड जाएं और पाउट लेते हुए सेल्फी पोस्ट करें. इज्राएल के स्खूल और क्वॉफ्जेह गुफाओं में पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हैं कि आधुनिक इंसान लेवांत (आज के इज्राएल, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया और अगल बगल के इलाके को लेवांत कहा जाता है) तक आज से 1,20,000 साल पहले ही पहुंच गए थे.

ध्यान रखिएगा, उस वक्त अपनी धरती आज की तरह इंसानी भकचोन्हरी का शिकार नहीं हुई थी और पर्याप्त नम और इतनी गर्म थी कि वह उत्तर की तरफ निकल सकें. इदर गरम शब्द से भरमाने का नय. हिमयुग के बाद के दौर को अगर गरम लिखा जाएगा तो कुछ वैसा ही फील कीजिए, जैसा दिल्ली में फरवरी के पहले हफ्ते में खिल कर धूप निकलने पर महसूस करते हैं.

लेकिन, यह जलवायविक सुखद मौसम उसी तरह अल्पकालिक साबित हुआ जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों या उप-चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस के उत्साह का होता है. तो नया हिमयुग शुरू हो गया. इसलिए सवा लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका से आए आगंतुक उसी तरह टिक नहीं पाए जैसे किसी कैडर आधारित पार्टी में कोई अनुशासनहीन निर्दलीय विधायक नहीं टिक पाता.

तो अगले 50 हजार साल तक अपने पुरखे अफ्रीका में ही रहे. और फिर आज से कोई 75000 साल पहले पूर्वी अफ्रीका से एक बहुत छोटा समूह फिर हहास बांधकर निकला.

फिर क्या हुआ? सब बतवा एक्के दिन जान लीजिएगा क्या?