Wednesday, May 1, 2024

लापता लेडीज अच्छे विषय पर बनी अच्छी फिल्म, पर निर्देशकीय कपट साफ दिखता है

मंजीत ठाकुर
लापता लेडीज का एक दृश्य. साभारः गूगल



लापता लेडीज को जिसतरह हिंदी जगत के उदार बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला है, वह दो वजहों से है- पहला, कुछ झोल के बावजूद कहानी सार्थक विषय पर बनी है. दूसरा, फिल्म की निर्देशक किरण राव हैं. 

एक बात कहूं? मुझे ये समझ में नहीं आया, फिल्म के पहले सीन में परदे पर 'निर्मल प्रदेश' लिखकर क्यों आता है? मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश लिखने में क्या परेशानी थी? क्योंकि छत्तीसगढ़ का जिक्र तो बार-बार आया है!

चूंकि, किरण राव पाए की निर्देशक हैं, इसलिए उन्होंने ऐसा अनजाने में किया होगा ऐसा लगता नहीं है.

एक और अहम बात, क्या फूल और पुष्पा (नाम की ओर ध्यान दीजिए, दोनों के नाम पर्यायवाची हैं, पटकथा में इतनी महीन बात का ध्यान रखा गया है) का नाम 'शबनम' और 'शगुफ्ता' हो सकता था! क्या फिल्म का एक किरदार 'घूंघट' के खिलाफ और दूसरा 'हिजाब' के खिलाफ लड़ सकता था!

नहीं लड़ सकता था.

नहीं लड़ सकता था क्योंकि ऐसा करते ही किरण राव कट्टर उदारवादी ब्रिगेड की लाडली नहीं रह पातीं.

लापता लेडीज को सोशल मीडिया पर स्वयंभू आलोचकों की काफी तारीफ मिल ररही है. तारीफ के लिए पोस्टों की भरमार के बीच--हालांकि, मैंने इस फिल्म को पिछले दो दिनों में दो बार देखा, और मुझे बहुत पसंद आई. लेकिन, विषय और संदेश और फिल्म को बरतने को लेकर लेकिन मैं देश की 140 करोड़ जनता का ध्यान फिल्म की एक गलती की तरफ दिलाना चाहता हूं. 

आरक्षी अधीक्षक एसपी को कहते हैं, इंस्पेक्टर को नहीं


गांव के दारोगा के नाम के आगे लिखा है, 'श्री श्याम मनोहर, पुलिस अधीक्षक.' देहात के थाने में पुलिस अधीक्षक क्या कर रहा है? आप करोड़ों की लागत से फिल्म बना रहे हैं, आप हिंदी प्रदेश के हृदय स्थल से एक मार्मिक विषय उठा रहे हैं और आपको हिंदी शब्दावली में पुलिस अधीक्षक नहीं पता? एसपी समझते हैं? ऊंचे दरजे की निर्देशक और आला किस्म के पटकथा लेखक लोग भाषा के मामले में मार खा जाए. जा के जमाना. हिंदी की यही गति?

किरण राव के प्रशंसकों को बुरा लगेगा. बेशक फिल्म पर्दा प्रथा पर है. सशक्त और मजबूत है. कैमरा वर्क बढ़िया है. लेकिन... लेकिन मेरे दोस्तों और सखियो, कहानी में झोल ये है कि फूल कुमारी की देवरानी ने बारात में जाकर फूलकुमारी को देखा था. कैसे? 

कहानी जिस इलाके में बुनी गई है वहां बारात में औरते नहीं जाती हैं, क्योंकि समाज दकियानूसी है (और यही बात तो निर्देशक बता रही हैं, है न?) तो फिर फूलकुमारी की देवरानी ने उसका स्केच कैसे बना दिया? शब्दभेदी बाण की तर्ज पर शब्दभेदी स्केच? कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि शादी से पहले देख आई होगी. इसका सीधा अर्थ है आपको सिनेमा का व्याकरण नहीं पता. सिनेमा में दर्शक को दिखाना पड़ता है, कोई किरदार ईमानदार है तो बताना नहीं, दिखाना होता है. एक्ट के जरिए.

साथ ही, प्रदीप (जो कि ब्राह्मण है), यानी जया का हसबैंड, उसकी मां भी बारात गई थी. इतने दकियानूसी समाज में मां बारात जाने लगी? कब से?  इसको कहते हैं कहानी में झोल. आप पहले से निष्कर्ष निकाल कर बैठेंगे तो ऐसे ही जबरिया मोड़ लाने होंगे कहानी में. 

बहरहाल, जिन दिनों फिल्म बन रही थी, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकारें थीं और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की. उदार निर्देशक ने इसी वजह से छत्तीसगढ़ का तो नाम लिया लेकिन इन दोनों राज्यों का नहीं.

बहरहाल, फिल्मों के किरदार अधिकतर उच्चवर्गीय सवर्ण हैं, इसलिए इस कंप्लीट फिल्म के तौर पर यह फिल्म मुझे मुत्तास्सिर नहीं कर पाई है. हां, निर्देशकीय कपट के बावजूद बेशक देश के बहुसंख्यक हिंदू समाज में मौजूद पर्दाप्रथा पर यह एक नश्तर चुभोती है और उस लिहाज से उल्लेखनीय है.

आपको मेरी दृष्टि संकीर्ण लगेगी. हो सकता है कुछ लोग मुझे कुछ घोषित भी कर दें. पर जब आप कहानी को छीलते हैं तो ऐसे छीलन उतरती है. 

किसी एक ने मुझसे कहा भीः फिल्म मनोरंजन के लिए देखते हो या इन सब बातों पर गौर करने? दूसरे ने टिप्पणी कीः बड़े संदेश के पीछे छोटी बातों पर ध्यान मत दो.

हम देते हैं ध्यान. क्योंकि हमें एफटीआइआइ में यही सिखाया गया हैः हाउ टू रीड अ फिल्म.