Tuesday, April 25, 2023

वेब सीरीज जुबिली का मीन-मेख

इससे पहले कि आप मेरी तरफ से जुबिली की मीन-मेख पढें, पहली बात, जुबिली देखी जा सकती है. सीरीज अच्छी है. लेकिन...

यह लेकिन शब्द जो है, वह आगे कई मीन-मेखों, छिद्रान्वेषणों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. तो जिनको जुबिली बहुत पसंद आई हो, वे लोग आगे न पढ़ें. जिनको परपीड़ा से सुख मिलता है, पढ़ते रहें. जुबिली भले ही फिल्मों की कहानी से जुड़ी है, पर यह धीमी है, और यह आपको उदासियों से भर देगा.

दूसरी बात, (पहली बात मैंने पहली लाईन में ही कह दी है) कि किसी भी सीरीज को सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सकता है, या देखा जाना चाहिए कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी है. बेशक, मोटवाणी पाए के निर्देशक हैं. काम सलीके से करते हैं. लेकिन...

लेकिन, जुबिली में कई लूप होल्स निर्देशक महोदय ने छोड़े हैं. फिल्मों पर आधारित सीरीज को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाना हो, और कई चीज को तो इतनी बार दोहराया गया है कि ऊबाऊ होने लगती है चीजें.



मसलन, मदन कुमार के स्क्रीन टेस्ट को इतनी बार दोहराया गया है कि फॉरवर्ड करके देखना पड़ा. पहले एपिसोड में एक ऊबाऊ मुजरा भी है. पूरी सीरीज में संवाद भारी भरकम हैं कई बार संगीत कर्णप्रिय नहीं, बोदा भी लगता है. लेकिन...

लेकिन, जब तक आप जुबिली देखते हैं आप इसके किरदारों के साथ रहते हैं. हर किरदार को देखकर मन में एक सवाल तो उठता है, अरे ये किस के जैसा गढ़ा गया है या असल जिंदगी में यह है कौन? देविका रानी? अशोक कुमार? हिमाशु राय? देव आनंद या राज कपूर? नरगिस या सुरैया?

इस सीरीज में आपको कुछ बेहतरीन अदाकारी देखने को मिलेगी. इसलिए इसको एक ही रात में बिंज वॉच करके बदमजा न करें. बढ़िया से चबा-चबाकर खाएं. लेकिन...

लेकिन, आपने मोटवाणी की लुटेरा देखी है तो आपको जुबिली वैसी ही लगेगी. वैसे ही धीमे-धीमे एक आदमी के कत्ल की कहानी खुलती है और मदन कुमार उर्फ अपारशक्ति खुराना की दुविधा नजर आती है. अपारशक्ति खुराना ने बढ़िया अभिनय किया है. बढ़िया इसलिए क्योंकि वह अब तक इस तरह के गंभीर किरदार में नजर नहीं आए थे. लेकिन..

अपार शक्ति खुराना पहले कुछ एपिसोड में तो गंभीर और एकरस किरदार में ठीक लगते हैं पर बाद में बोरिंग लगने लगते हैं. उनकी किरदार पर लेखक को थोड़ा और काम करना चाहिए था. बिनोद दास के किरदार को बनाकर लेखक और निर्देशक ने उसको अनाथ छोड़ दिया. प्रसेनजीत अपने किरदार के हर फ्रेम में शानदार लगे हैं. लेकिन...

काश कोई अदिति राव हैदरी को समझा पाता कि आदमी (इस केस में अभिनेत्री) के मुखमंडल पर दुई ठो भाव ही नहीं रहते. एक होंठ आपस में चिपके हुए और दूसरा चवन्नी भर होंठ खुले हुए. लकड़ी जैसा फेस (फेस सुंदर है, भाव के अर्थ में कह रहे हैं) बनाकर कैसे एक्टिंग की है इनने? कास्टिंग किसने की है मुकेश छाबड़ा ने? लेकिन...

अदिति राव हैदरी के बर्फ की सिल्ली जैसी अदाकारी के सामने वामिकी गब्बी ने क्या जोरदार अभिनय किया है. अब आप गेस करते रह जाएंगे कि यह नरगिस है या सुरैया! उसी तरह जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत कभी देव आनंद तो कभी राज कपूर बनने की कोशिश करते हैं. पर चालढाल से वह देव साहब जैसे ही दिखते हैं. लेकिन..
लेकिन आज आप लिखकर रख लीजिए, यह बंदा आगे बड़ा नाम करेगा. इसमें संभावनाएं बहुत हैं. इसमें स्टार बनने की क्षमता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बंदे ने अपने हर जज्बात दिखाए हैं. खुशी, उदासियां, आंसू, नाच, खिलखिलाहट. सिद्धांत अभी करियर के शुरुआती दौर में ही हैं. इस लिहाज से उनका काम उम्दा है. लेकिन...

जुबिली के बारे कई समीक्षकों ने भांग खाकर तगड़ी राइटिंग बताई है. भक्क. आपको लूप होल बताता हूं. जमशेद खान का मेकअप मैन, उसके कत्ल के बाद उससे जुड़े सामान इकट्ठे करता है. कहां और कैसे? लेखक उसको सीधे मुंबई ले आता है. कैसे? चलिए बंदा न्याय के लिए बंबई आता है, पर उसके बाद उसको फोन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए दिखाया जाता है वह भी रूसी जासूसों के साथ. कैसे?

यह सही है कि लेखकों को कुछ भी लिखने की छूट होती है. लेकिन...

जुबिली का कालखंड 1947 से 1953 का है और उसमें सिनेमास्कोप की बात होती है. लगभग ठीक ही है क्योंकि भारत में सिनेमास्कोप की पहली फिल्म कागज के फूल थी जो 1959 में रिलीज हुई थी. लेकिन...

आप को ध्यान देना चाहिए कि दुनिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म द रोब थी, जो 1953 में रिलीज हुई थी. शायद अमेरिकी में इस तकनीक के आने से पहले ही भारत में यह तकनीक मोटवाणी जी ले आए हैं.

राम कपूर ने कमीने किस्म के फाइनेंसर के रोल में बहुत प्रभावित किया. वह एक तरह से फिल्मी दुनिया के आलोक नाथ होते जा रहे थे. यह वैराइटी बढ़िया लगी. उनके किरदार को लेखक ने गहराई नहीं दी.

सेट-फेट, सिनेमैटोग्राफी तो बढ़िया है लेकिन आपको एक राज की बात बताऊं. इस्मत चुगताई का एक उपन्यास है, अजीब आदमी. मोटे तौर पर देवानंद और गुरुदत्त के जीवन से किरदार उठाए हैं उसमें इस्मत आपा ने. बेहतरीन उपन्यास है. जुबिली में जय खन्ना का किरदार उपन्यास के धर्मदेव से मिलता है और फाइनेंसर वालिया का किरदार उपन्यास के निर्माता किरदार वर्मा से.

कसम से, पढ़कर देखिएगा उपन्यास.

हो सकता है कि आने वाले सीजन में वर्मा जी ओह सॉरी, वालिया साहब का किरदार किसी हीरोईन के धोखे का शिकार होकर दिवालिया हो जाए, उपन्यास में ऐसा इच हुआ था. साहित्य का ऐसा प्रेरणा के रूप में ऐसा इस्तेमाल भी करते हैं फिल्म वाले. लेकिन...

मदन कुमार को पूरी सीरीज में 967 बार बहनचोद कहा गया है. ऐसा क्यों? एकाध बार तो ठीक है, वेबसीरीज को सर्टिफिकेट ही गालियों से मिलता है इसलिए मान लेते हैं. पर हर किसी के मुंह से मदन कुमार को गाली दिलवाई है मोटवाणी ने.

यह बात कुछ जमी नहीं. इसलिए जुबिली देखिए जरूर लेकिन....

Tuesday, April 4, 2023

पुस्तक समीक्षाः अभिषेक श्रीवास्तव की किताब कच्छ कथा बताती है कच्छ संस्कृति के बेशकीमती ब्योरे और सांप्रदायिक सौहार्द के अनसुने किस्से

बहुत सारे लोग कच्छ घूमने नहीं जा सकते. लेकिन अगर शब्दों के सफर पर कच्छ को देखना हो, तो अभिषेक श्रीवास्तव की एथ्नोग्राफिक यात्रा आख्यान ‘कच्छ कथा’ इसके लिए बिल्कुल मुफीद किताब है. कच्छ की धरती ने पिछली दो सदियों में कम से कम दो भीषण और भयावह भूकंपों का सामना किया है. और यह किताब उन भूकंपों के कच्छ की तहजीब पर पड़े प्रभावों को परत दर परत उधेड़ती है.

एक तरह से कहें तो आपने अगर 'कच्छ कथा' पढ़ी तो लेखक आपको एक ऐसी धरती के सफर पर लिए चलते हैं, जहां आप कभी गए नहीं और अगर गए हों तो केवल आवरण देखकर आए गए हों.

अभिषेक घुमंतू स्वभाव के पत्रकार हैं और पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त के दौर में उन्होंने कई बार कच्छ की यात्रा की है और इस तजुर्बे के साथ वह कच्छ की सीवन उधेड़कर रख देते हैं. इस किताब में बारीक ब्योरे हैं, लोगों के बारे में विवरण है और ऐसी अनसुनी कहानियां हैं, जो मुख्यधारा में आता ही नहीं.

कच्छ का भूगोल सामने से कुछ नजर आता है लेकिन किताब जब ब्योरे देते हुए आग बढ़ती है तो आप उसमें खोकर एक नई दुनिया के सफर पर निकल पड़ते हैं. मानो अभिषेक आगे चल रहे हों और आप पीछे-पीछे.

पर अभिषेक ने सिर्फ कच्छ को देखा नहीं है. उनकी दृष्टि एकसाथ ही पैनोरेमिक और टेलीलेंसीय दोनो है. कच्छ कथा में कच्छ लॉन्ग शॉट में भी है और एक्स्ट्रीम क्लोज-अप में भी.


 

असल में, कई मंदिरों, दरगाहों, नमक के खेतों, मिथकों और मान्यताओं के जरिए लेखक ने इस किताब में न सिर्फ कच्छे के भूगोल को उकेरा है बल्कि उन्होंने उसका ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी किया है.

संभवतया उनकी यह वैचारिक टेक है कि विकास को लेकर एक आम बहस में वह कच्छी अस्मिता या तहजीब या विरासत की चिंता को बारंबार सामने लाते हैं.

कच्छ कथा धोलावीरा के पुरातात्विक उत्खनन की पड़ताल करते हैं तो साथ ही लखपत के बारे में दिलचस्प ब्योरे देते हैं. नाथपंथी गुरु धोरमनाथ के बारे में अनजाने किस्से बटोरते हैं और फिर नमक के मजदूरों तक की बात करते हैं.

हिंदी किताबों के बारे में बात करते समय हमेशा भाषा के बारे में टिप्पणी की जाती है. ऐसे में, कच्छ कथा की भाषा प्रवाहमय है. ऐसा लगता नहीं कि लेखक लिख रहा है, ऐसा लगता है कि वह आपसे आमने-सामने बात कर रहा है. यह किताब की बहुत बड़ी शक्ति है.

दूसरी बात, किताब बात की बात में भारतीय संस्कृति की असली ताकत यानी इसकी समावेश संस्कृति की सीख देती चलती है. मसलन, किताब की शुरुआत में ही कच्छ के अंजार में हिंदू राजा पता नहीं किस सनक में अपनी प्रजा में सबको मुस्लिम धर्मान्तरित करने पर तुला था. लेकिन उसके खिलाफ फतेह मुहम्मद और मेघजी सेठ उठ खड़े हुए. राजा को कैद कर लिया गया और फिर कच्छ में बारभाया यानी बारह भाइयों के राज की स्थापना हुई. यह अपने किस्म का अलग ही लोकतंत्र था. इन बारह लोगों में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग थे.

कच्छ कथा में लेखक वहां के इस्मायली पंथ का ब्योरा भी देते हैं, जिसमें सतपंथी और निजारी हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. अभिषेक लिखते हैं, “यह व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन की विवशताओं और श्रद्धा से उपजा परिवर्तन था. जहां इस्माइली बनने के बाद व्यावहारिक जीवन में कुछ खास नहीं अपनाना होता था. बस हिजाब और साड़ी का फर्क है, बाकी सतपंथियों की दरगाहें आज भी एक ही हैं. यह एक ऐसा धार्मिक समन्वयवाद है जहां आपको ओम भी मिलेगा, स्वास्तिक भी मिलेगा, हिंदू नाम और पहचान भी मिलेगी लेकिन प्रार्थनाओं में फारसी और अरबी की दुआएं भी मिलेंगी.”

कच्छ कथा में कई ऐसे पीरों का जिक्र है जिनकी कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है, और जिसके मवेशियों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फरियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीर हो जाते है.

अभिषेक ऐसे बहुत सारे पीरों की जिक्र करते हैं लेकिन कम से कम दो पीरों की किस्से ऐसे हैं जिनका उल्लेख वह विस्तार से करते हैं. इनमें से एक हैं हाजी पीर और दूसरे हैं रामदेव पीर. रामदेव पीर की कहानी में पीड़ित स्त्री मुस्लिम है जबकि हाजी पीर के किस्से में महिला हिंदू है, जिसके गाय चुरा लिए गए हैं. हाजी पीर ने हिंदू स्त्री के मवेशी बचाते हुए शहादत दी और रामदेव पीर ने मुस्लिम स्त्री की गायें बचाते हुए जान दी और इसलिए स्थानीय समुदाय में पीरों का दर्जा पाए और पूजित हुए.

एक अन्य उल्लेखनीय मिसाल, एक महादेव मंदिर की दो बहनों का पुजारिन होना है. खासबात यह कि इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा मुस्लिमों के हाथ में है. वह गांव तुर्कों का ध्रब है. लखपत का गुरुद्वारा हिंदू परिवार चलाता था, और वहां के दरगाहों और मंदिरों के संरक्षण का काम वहां के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं.

कुल मिलाकर कच्छ कथा अपने खास वैचारिक झुकाव के बावजूद एक अवश्य पढ़ी जाने वाली किताब है जो न सिर्फ कच्छ की समस्या से, बल्कि कच्छ की एकदम अलहदा विरासत से भी आपको रू ब रू कराती है. पन्ने दर पन्ने यह किताब आपको कच्छ के सफर पर लिए चलती है.

हालांकि, आधी किताब के बाद अभिषेक एकरस भी होते हैं. खासकर तब, जब वह राजनैतिक समीकरणों और बाध्यताओं का जिक्र करते हैं लेकिन ऐसी किताबें आज के दौर में बेहद जरूरी हैं जो देश के बाकी हिस्से के लोगों को अपनी समृद्ध विरासत के बारे में बता सके.


किताबः कच्छ कथा

लेखकः अभिषेक श्रीवास्तव

प्रकाशनः राजकमल प्रकाशन

मूल्यः 299 पेपरबैक