दोस्तों को शिकायत रही कि बहुत दिनों से दिखाई नहीं दे रह... क्या करूं.. पेट की खातिर दर-दर भटकना हमारी नियति है। है कि नहीं.. वैसे नियति से कोई शिकायत भी नही। हमारी मजबूरी का हम बहुत संजीदगी से लुत्फ़ ले रहे हैं।
एक कवरेज के सिलसिले में गुजरात जाना पड़ गया। तरनेतर। ये अहमदाबाद से तरकीबन ,सवा दो सौ किलोमीटर दूर है। राजकोट की तरफ। जाने की बात हवा में उछली तो एक साथ ही खुशी भी हुई और बेचैनी भी। कहां जा रहा हूं मैं... गांधी के गुजरात या मोदी के ? बहरहाल, अहमादाबाद में हमारे दूरदर्शन के ड्राइवर ने मेऱा बहुत स्वागत किया। अच्छा लगा कि यहां मेज़बानी की शानदार परंपरा है। अहमदाबाद स्टेशन से दफ़्तर की ओर जाते वक्त शैलेश ने वे दुकानें दिखाईं, जिन्हें मोदीत्व के रखवालों ने मटियामेट कर दिया था। उसकी आवाज़ में पता नहीं क्यों.. एक अजीब-सी हैरान करने वाली खनक थी। मोदी का गुजरात गांधी के गुजरात पर हावी था।
उसी दिन यानी तेरह सितंबर को हम .. यानी कैमरा टीम तरनेतर के लिए निकल पड़े। रास्ता शानदार था। शानदार इसलिए क्योंकि सड़क समतल थी। गड्ढे नहीं थे। हमें हमेशा लगता है कि भारत के देहातों में सड़कें बेहद खराब हैं। लगना बेहद स्वाभाविक है। दरभंगा से उधर जयनगर की तरफ जाने वाले मेरे बिहारी मित्र मुझसे इत्तफाक रखेंगे कि कैसे ५५ किलोमीटर की दूरी को छह सात घंटे में पूरा किया जाता है।
अस्तु, गणेश चतुर्थी के दिन से तरनेतर का यह मेला शुरु होता है। गुजरात के हर रंग को यहां देख सकते हैं आप। टीम के साथ यहां आने वाला हमारा ड्राइवर बदल गया था। मेरे गले का ताबीज उसे पेरशान करता रहा। मेरे लाख समझाने पर भी कि यह ताबीज मेरी मां का पहनाया है इसका इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं , उसे कत्तई यकीन नहीं हुआ? .....
जारी...
एक कवरेज के सिलसिले में गुजरात जाना पड़ गया। तरनेतर। ये अहमदाबाद से तरकीबन ,सवा दो सौ किलोमीटर दूर है। राजकोट की तरफ। जाने की बात हवा में उछली तो एक साथ ही खुशी भी हुई और बेचैनी भी। कहां जा रहा हूं मैं... गांधी के गुजरात या मोदी के ? बहरहाल, अहमादाबाद में हमारे दूरदर्शन के ड्राइवर ने मेऱा बहुत स्वागत किया। अच्छा लगा कि यहां मेज़बानी की शानदार परंपरा है। अहमदाबाद स्टेशन से दफ़्तर की ओर जाते वक्त शैलेश ने वे दुकानें दिखाईं, जिन्हें मोदीत्व के रखवालों ने मटियामेट कर दिया था। उसकी आवाज़ में पता नहीं क्यों.. एक अजीब-सी हैरान करने वाली खनक थी। मोदी का गुजरात गांधी के गुजरात पर हावी था।
उसी दिन यानी तेरह सितंबर को हम .. यानी कैमरा टीम तरनेतर के लिए निकल पड़े। रास्ता शानदार था। शानदार इसलिए क्योंकि सड़क समतल थी। गड्ढे नहीं थे। हमें हमेशा लगता है कि भारत के देहातों में सड़कें बेहद खराब हैं। लगना बेहद स्वाभाविक है। दरभंगा से उधर जयनगर की तरफ जाने वाले मेरे बिहारी मित्र मुझसे इत्तफाक रखेंगे कि कैसे ५५ किलोमीटर की दूरी को छह सात घंटे में पूरा किया जाता है।
अस्तु, गणेश चतुर्थी के दिन से तरनेतर का यह मेला शुरु होता है। गुजरात के हर रंग को यहां देख सकते हैं आप। टीम के साथ यहां आने वाला हमारा ड्राइवर बदल गया था। मेरे गले का ताबीज उसे पेरशान करता रहा। मेरे लाख समझाने पर भी कि यह ताबीज मेरी मां का पहनाया है इसका इस्लाम से कोई ताल्लुक नहीं , उसे कत्तई यकीन नहीं हुआ? .....
जारी...