Tuesday, July 23, 2013

कर्नाटक के विकास की अंतर्गाथा



गरमी झेलता हुआ, गुलबर्गा में अपनी बालकनी से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है। 

दिल्ली से बंगलोर को चले थे, तो मन में कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक के मायने बंगलोर था। 

लेकिन बंगलोर ही पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलोर का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास की गाथा भी। 

कर्नाटक के विकास को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है। 

अप्रैल में गुलबर्गा के पास सूखी नदी, फोटोः मंजीत ठाकुर

कपास की फसल पिछले दो साल से खराब हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के लोगों को पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।

लोग छोटे ठेलों पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है पानी ढोकर, तो कोई सात किलोमीटर, एक बंधु ने तो मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।

पूरा उत्तरी कर्नाटक, खासकर हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही हैं। 

नलों के किनारे लगे प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है लेकिन पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद डेढ़ घंटे के लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।
 
जाबार्गी में नलों के पास दुहपरिया से ही मटकों की लग जाती है कतार, फोटोः मंजीत ठाकुर


दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है। हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब पाताल जा छुपा है। 

बिजली आती नहीं तो मोटर कैसे चले। ऐसे में दोपहर से ही, मटके नलों के किनारे जमा होने शुरू हो जाते हैं। उस दुपहरिया में जब छांव को भी छांव की जरूरत थी।

चुनाव का वक्त था, जब हम वहां थे। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था, लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं था। 

जाहिर है कर्नाटक की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं भारी झोल है। 

हम पसीनायित हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के पानी का, न पीने के पानी का।

 

Sunday, July 21, 2013

कुछ तस्वीरें--रोहन सिंह

फोटॉग्रफी की कला अपने आप में पूरी पत्रकारिता है। हमारे साथी रोहन सिंह हाल ही में कच्छ के रन गए थे, वहां डॉक्युमेंट्री शूट के दौरान कुछ तस्वीरें भी उतार लाए हैं। आपसे साझा कर रहा हूं।
United We Stand...हम एक हैं! फोटोः रोहन सिंह

bells and their Music..रुनझुन! फोटोः रोहन सिंह

One For All, All For One! एकोहम्  फोटोः रोहन सिंह

Monday, July 15, 2013

सुनो मृगांका:38: जलते हैं जिसके लिए, मेरी आंखो के दिए

पटना से झारखंड में अभिजीत का गृहनगर बहुत दूर नहीं।

ट्रेन की बजाय, भरत किस्कू ने ज़ोर दिया कि सड़क मार्ग से यात्रा की जाए। मृगांका अभिजीत के गांव गई थी तो सड़क के दोनों तरफ देखने का खयाल तक नहीं आया था दिल में।

अब तो भरत उसे दिखाता हुआ ले जाएगा। पटना से उसकी एसयूवी निकली भी न थी कि प्रशांत का फोन आ गया, भाभी, मैंने छुट्टी बढ़वा ली है। अभिजीत के पास अंकल जी भी हैं और चाची भी। उसके भैया-भाभी भी आ ही चुके हैं। क्यों न मैं चलूं आपके साथ। मैं भी देख लूंगा झारखंड।

मृगांका को भला क्या उज्र हो सकता था। उसके बैग में कुछ कपड़े थे, और दो छोटे वीडियो कैमरे, बैटरी, चार्जर, मेमरी कार्ड वगैरह। डायरी तो खैर थी ही...।

एनएच पर जब प्रशांत मिला तो उसके साथ थी एक हसीं सी लड़की भी। सांवला रंग, सुतवां नाक, नाक में सानिया मिर्जा-कट नथ, लहरदार बाल, भूरी-सी आंखो में चमक...उस वक्त तो इतना भर देख पाई मृगांका।
तय रहा कि पहले सड़क के किनारे नामचीन ब्रांड के रेस्तरां में पहले कॉफी पी जाए, आगे की बात बाद में तय करेंगे।

भाभी, ये हैं अनन्या। हमारे मेडिकल कॉलेज की बैचमेट. ये यहीं पटना में प्रैक्टिस करती हैं। फेसबुक पर बातें होती रहती थी, लेकिन यहां मुलाकात भी हो गई।

मृगांका ने नजरों से तौला। नः, बात इतनी ही नहीं है।

दी, मैं सोच रही थी कि कुछ दिन चलूं आपके साथ, बहुत सुना है मैंने। थोड़ा वक्त भी गुजर जाएगा मेरा।--अनन्या ने अपनी कोमल आवाज़ मे कहा।

अनन्या, हम पिकनिक पर नहीं जा रहे।

जी पता है, आप अपनी रिपोर्टिंग करते रहिएगा दी, मैं जरा गांवों में कुछ बच्चों का इलाज कर दिया करूंगी...अनन्या अनुनय कर रही थी।

मृगांका ने देखा, प्रशांत की नजरों में कुछ था। उसे लगा कि इन दोनों को एक दूसरे का साथ चाहिए, तो यही सही।

निर्णायक स्वर में उसने कहा, चलो।

अब भरत किस्कू ड्राइव कर रहा था, अनन्या प्रशांत पिछली सीट पर बैठे और अगली सीट पर बैठी मृगांका खोई नजरों से सामने काली सड़क को देखती रही, एकटक।

बगल के लेने से किस्कू ओवरटेक कर दे रहा था, बारिश शुरू हो गई थी, लेकिन बारिश में भींगते पेड़ भी पीछे छूटते जा रहे थे।

बारिश बहुत गहरे ज़ख्म़ देती है।

अभिजीत, बिना तुम्हारे कितनी बेरहम लग रही है ये बारिश। मन का कोई कोना सूखा नहीं लग रहा।अनन्या और प्रशांत दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश बैठे रहे।

किस्कू गाड़ी तेज़ चला रहा था, लेकिन बारिश का व्यवधान था। वाइपर सपा-सप चल रहा थे। बारिश की मोटी बूंदें पायल जैसा संगीत बजा रही थीँ। बस वही आवाज़, इंजन की घरघराहट, पहिए के जोर से छपाक से उड़ता सड़कों पर जमा पानी...

किस्कू ने इस असहज-सी होती शांति को तोड़ने के लिए स्टीरियो चला दिया, तलत महमूद एकदम उदास होती आवाज़ में गा रहे थे, जलते हैं जिसके लिए, मेरी आंखों के दिए...

आवाज़ की उदासी मृगांका को तर करती गई। आंखों में उदासी के मंजर...कितना बेचारा लग रहा है वह अभिजीत...जिसकी बढ़ी हुई शेव वाली झलक पाने को वो बेताब रहा करती थी। जिसकी बदतमीज निगाहों को वह निहारा करती थी हरदम...जिसके आत्मविश्वास और उसूलों ने मृगांका के मन में उसके लिए प्रेम के साथ-साथ इज़्ज़त भी पैदा की थी।

अनन्या ने तोड़ा इस सन्नाटे को। हमलोग झारखंड में किधर चल रहे हैं।

अभिजीत सर के घर।

लेकिन, वहां तो कोई होगा नहीं, फिर..

फिर क्या, आप चलिए तो सही.भाभी जी, अभिजीत सर ने पता नहीं पैसा कितना कमाया, या नहीं कमाया। लेकिन इस इलाके के लोग मानते बहुत हैं अभिजीत सर को। वो इस इलाके में तब से आते रहे हैं जब उनकी किताब छपी भी नहीं थी। तब से, जब से आपसे जुड़े भी नहीं थे वो।

लाल मिट्टी के इस इलाके, साल-सागवान के इन जंगलों, पलाश के फूलों, ग्रेनाइट के इन काले पत्थरों...केंदू पत्तों, बेर, बेल, शरीफे के फलों, कितना प्रेम करते थे वो।

थे नहीं भरत, हैं। अभिजीत अभी भी प्रेम करता है इनसे।

हां, भाभी, वही। उसके सधे हुए हाथ स्टीयरिंग वील पर घूम रहे थे। उनकी गाड़ी बरही वाले रास्ते पर एनएच 2 पर आ गई थी। उधर से ही गिरिडीह...और पीरटांड प्रखंड। नक्सलियों का इलाका...

*

जमुई के पहले से ही मिट्टी का रंग बदलने लगा था। धूसर मिट्टी पहले हल्की पीली और फिर गहरी लाल हो गई। समतल मैदान में पहले छोटे टीले दिखे, और अब पहाड़ियां दिखने लगीं थी। इलाका पठारी था, मैदानी हरियाली की जगह थी तो हरियाली ही, लेकिन झाडि़यां ज्यादा थीं।

मिट्टी में कड़ापन आ गया था।

...अभिजीत भैया, इस इलाके का बारंबार दौरा करते थे। कुछ नहीं, बस कंधे पर टंगा एक झोला, एक डायरी, पेन। चाय के शौकीन। भूखे रहे तो, मूढ़ी (मुरमुरे) और चाय पर भी कोई दिक्कत नहीं...।

भरत किस्कू चालू था। सड़क संकरी हो गई। चौड़ी सड़क अब दसफुटिया प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना वाली सड़क में तब्दील हो गई थी।

..यहां की जनजाति संताल है। बाहरी लोगों ने उनका बहुत शोषण किया है। उनको दीकू कहते हैं ये। मैं भी संताल ही हूं...सरहुल , सोहराय मनाते हैं हम। साल की पूजा करते हैं, महुए की भी। प्रकृति पूजक हैं। लेकिन अंग्रेजों के वक्त जो शोषण शुरू हुआ, हमें जंगलों से भगाने का सिलसिला शुरू हुआ वो आज तक जारी है...भरत तैश में आ गया था।

सड़क और पतली हो गई। डामर वाली सड़क अब सीमेंट वाली सड़क में तब्दील हो गई थी। जिसपर गांव वालों ने हर पचास मीटर पर बंपर बना रखे थे। गाड़ी चलती कम हिचकोले ज्यादा खाने लगी थी।

हम पर और हमारे लोगों पर क्या बीती, हम क्या बताएं आपको ...बताएंगे कभी बाद में, लेकिन अभिजीत भैया ने बागी हो चुके सैकड़ों लोगों को एकतरह से नई जिंदगी भी दी और ऩया तरीका भी बताया जीने का...सिर्फ लड़ना-भिड़ना ही नहीं, जीना भी।

तो क्या अभिजीत नक्सल बन गया था? मृगांका पूछ बैठी।

गाड़ी ने हिचकोला खाया, सड़क एक तरफ मुड़ रही थी, गाड़ी दूसरी तरफ मुडकर कच्चे रास्ते पर आ गई थी। लाल मिट्टी का कीचड़ पहिए पर लग रहा था, कुछ गए हुए लोगों के निशां बने थे।

मृगांका को लगा, शायद उनमें एक निशान अभिजीत का भी हो।


...-जारी 




Thursday, July 4, 2013

लालू-नीतीश-पासवान पुराण भाग-दो

कुमार आलोक लेख को किस्सागोई के अंदाज़ में कहना जानते हैं। लालू की शैली और उनकी राजनीति पर न जाने कितना कुछ लिखा गया है, लेकिन कुछ किस्से ऐसे हैं, जो सुने नहीं गए, या कम सुने गए। यह लालू पर उनके अपने तजुर्बे का कुछ हिस्सा है।--गुस्ताख




लालूजी के बारे में ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं। वे खुद में एक बडे आइकन हैं। 90 में सत्तासीन हुए लालू के बारे में छह-सात साल तक कोइ सोच भी नहीं सकता था कि बिहार की गद्दी से कोई इस आदमी को जुदा कर सकता है।

लालू के भदेसपन से चिढ़ते थे  बौद्धिक

शुरूआती दौर में जहां राजनीतिक हलके में उन्हें मसखरा कहा गया, वहीं बौद्धिक तबके ने ताश का तिरपनवां पत्ता करार दिया। लेकिन लालू की लोकप्रियता बढती ही गई।

आखिर, इस व्यक्ति में खास क्या है। सबसे खास था कि लालू ने अपने वोट बैंक की नब्ज थाम ली थी। एक वाकया है, सन् 2000 के आसपास गरीब रैली हुई थी। लालू इसके प्रचार-प्रसार के सिलसिले में बिहार में जगह जगह सभाओं के माध्यम से जनता को भारी संख्या में पटना आने की दावत दे रहे थे।

लालू मेरे कस्बे में भी आये। शाम हो गई, अंधेरा पसर रहा था। लालू ने ज्यादा भाषण नहीं दिया, भाषण समाप्त करते ही रथ पर सवार अपने सहयोगी से कहा, अरे जरा उ बिदेश से जो कैमरा लाए है दो हमको। वस्तुतः वो कैमरा नही बल्कि जापानी टॉर्च था जिसकी लाइट ब्लिंक करती थी और सायरन की-सी आवाज निकलती थी।

लालू ने अपने श्रोताओं से कहा, देखो भाई, ये कैमरा हम विलायत से लाए है और ये तुम लोगों का फोटू खिंचेगा। जब कल रैली समाप्त होगी तो मैं इसकी रिकॉर्डिंग देखूंगा। तब हमको पता चल जाएगा कि तुम लोगों में से कौन-कौन रैली में नही पहुंचा है। लालू ने उस टार्च को घुमाना शुरु किया।

मेरे साथ भीड़ में एक दूध बेचने वाला इन्सान पटना से अपना दूध बेचकर वापस अपने गांव जा रहा था। लालू जी चूंकि भाषण दे रहे थे तो बेचारा ठहरकर लालू जी का भाषण सुन रहा था।

जैसे ही टार्च की रौशनी उसके मुख पर पड़ी, उसने कहा अरे बाप रे बाप लालू जी फोटुकवा खिंच लिये कल बेटी के यहां जाना था ..अब तो हमें रैली में जाना ही होगा। खैर, पढे लिखे लोग तो लालूजी की इस नौटंकी को समझ रहे थे लेकिन भोली भाली जनता को झांसा देना कहां का न्याय है।

जब लालू सत्ता में थे, तो कहा जाता था कि लालू अगर कुत्ते के गले में भी लालटेन डाल देंगे तो वे सीधा संसद या विधानसभा पहुंच जाएगा। इसी क्रम में उन्होने पत्थर तोडने वाली औरत भगवतिया देवी को संसद में प्रवेश करा दिया।
लालू के मुख्यमंत्री बनते ही एकाएक कई मसखरे-भाट पैदा हो गये । उन्हीं में से एक चारण-भाट थे ब्रहदेव आनंद पासवान। पहले वो मच्छर चालीसा लिख चुके थे। बाबा चूहरमल जयंती पर उन्होने लालू चालीसा पढकर सुनाया।

लालू का ये चालिसा फुटपाथ से लेकर ट्रेन में फेरी लगाने वाले तक बेचने लगे। मशहूर गायक बालेश्वर का भी गीत खूब प्रचलित हुआ ..बोकवा वोलत नइखें ..केतनो खीयाइ हरियरी...। खैर बालेश्वर के गीत में आलोचनात्म तथ्यों की भरमार थी लालू के लिये।

लेकिन किस्मत चमकी मच्छर चालिसा के लेखक की। उन्हें लालू ने राज्यसभा के लिये नामित कर दिया। ब्रहदेव आनंद पासवान को लोग कुदरबेंट भी कहते थे। 18 महिने के बाद इस मसखरेबाज का टर्म ओवर हुआ और लालू ने फिर इन्हें बाबा चूहरमल के पास भेज दिया।

संसद में रिपोर्टिंग के लिये जाता हूं तो मच्छर चालीसाबाज वहां हमेशा मिल जाते है ...शायद पंशन-वेंशन के चक्कर में। वहीं 1991 में पटना लोकसभा सीट से प्रत्याशी थे पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल। लालू के वोट बैंक के लोगों ने कहा कि लालू जी इ तो पंजाबी हैं हमरे जात का नहीं है ..वोट कैसे दें इसको.....तब लालू ने कहा कि अरे गुजरलवा गुर्जर हैं माने दिल्ली के गोवार हैं,.वोट दो मजे में.. लालू के समर्थकों ने बैलेट बॉक्स में इतना वोट डाल दिया कि आज तक उसका परिणाम नही आया।

लालू ने बहुतो को बनाया लेकिन वैसे लोगों को बिसरा दिया जो लालू प्रसाद को देवता मानते थे। उन्हीं में से एक थी रामरती देवी।

शुरुआती दौर में लालू की हर सभा की शुरुआत रामरति के गीतों से होती थी। कबीरपंथी हैं वो। रात को लालू जी का सर दर्द करता था तो रामरती लालू के बाल में तेल लगाती थी और कबीर के भजन सुनाया करती थी। लालू उससे हर साल राखी बंधवाते थे।

चितकोहरा पुल के निचे मुसहरों की बस्ती में झोंपडा बनाकर रहती थी। सन 2000 में रामरति की बेटी की शादी थी, बतौर मुख्यमंत्री राबड़ी देवी गई भी थीं।

कहा जाता है कि राबडी जी ने पूछा रामरती दीदी बाथरुम कहां है। रामरति ने कहा कि दीदी हमलोग खुले में शौच करते है। फिर क्या था, अगले दिन रामरती का झोंपडा कोठे में तब्दील हो गया।

रामरती के एक बेटे को राबडी ने सरकारी नौकरी भी दी । मैने लालू के दल में ऐसा प्रतिबद्ध व्यक्तित्व नहीं देखा ।

जब 2005 में रामरति ने लालू जी से कहा कि सिंधिया विधानसभा सीट से हमरो लडा द साहेब। लेकिन साहेब ने रामरती को टिकट ना देकर एक माफिया को दे दिया। रामरति की श्रद्धा में कोई कमी नहीं आई, साहेब के प्रति श्रद्धा आज भी पहले जैसी ही है।

---जारी
           


Tuesday, July 2, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः बहमनों की धरती पर



इमली का पेड़ झुलस रहा था...गरमी में। दिल्ली में भी गरमी है...झुलसाने वाली तो नहीं...लेकिन उत्तराखंड की बाढ़ के बाद बारिश से सहमे हुए लोगों के बीच उमस की मार है। 

गुलबर्गा की गरमी अजीब है। पत्थर भी चटक जाते हैं। लेकिन फारसी में तो गुल का मतलब है "फूल" और "बर्ग" का मतलब है पत्ता। जाहिर है, जमाना रहा होगा जब गुलबर्गा विलासिता भरे जीवन का केन्द्र रहा ही होगा। 

गुलबर्गा का क़िला, फोटोः मंजीत ठाकुर


हमारे गेस्ट हाउस के नजदीक ही है गुलबर्गा का किला...14वीं सदी का। मजबूत रहा होगा किला। लेकिन कई दशकों तक उपेक्षित रहे इस किल में अब कई घर बस गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बावजूद किले के भीतर अवैध अतिक्रमण है। और किले की हालत का तो कहना ही क्या।

हालांकि कुछ हिस्सों में हालत में सुधार है वो भी सिर्फ एएसआई के कारण। 

बहमनी याद्दाश्त, संध्या में फोटोः मंजीत ठाकुर


वैसे गुलबर्गा की कहानी तो 13वी और 14वीं सदी तक पीछे ले जाती है। दक्कन के इस इलाके में जब बहमनी सल्तनत का प्रभुत्व हुआ। इससे पहले यह इलाका हिंदू राजाओं के अधीन था। इस सूखाग्रस्त इलाके को बहमनी सुल्तानों ने खूबसूरत महलों, किलेबंदियों और सरकारी इमारतों से भर दिया।

आज के गुलबर्गा में भी वही मध्यकालीन किले, अस्तबल, टूट-फूट रहे मकबरे, बड़े दरबार और प्राचीन मंदिर हैं।
 
फोटोः मंजीत ठाकुर

जीवन संध्या फोटोः मंजीत ठाकुर

किले के भीतर का जामा मस्जिद की खासियत इसका विशाल गुंबद है। इसके चारों तरफ छोटे-छोटे गुंबद भी हैं। इसका निर्माण सन 1367 में स्पेनी वास्तुविद् ने किया था जिसमें मेहराबदार प्रवेशद्वार है। बताया जाता है कि ऐसी ही कलाकृति स्पेन में कार्दोवा के मकबरे की भी है। 

किले के अंदर अतिक्रमण, गुलबर्गा फोटोः मंजीत ठाकुर


गुलबर्गा अब किलों, दरबारों और मकबरों को विरासत के रूप में देखता है। मुसलमान आबादी में एक नवाबी ठसक है...लेकिन गांव की आबादी जूझ रही है। रोज़ रोज़ की लड़ाई है, पानी की, खाने की...चर्चा अगले पोस्ट में.

जारी