Wednesday, October 30, 2013

आवारेपन का रोज़नामचाः किष्किन्धा कांड!!

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान किसी जगह टिककर रहने का मौका नहीं मिला। बीजापुर, गुलबर्गा वगैरह में सूखे और किसानों की आत्महत्या की ख़बरें कर चुका था, मन और तन दोनों क्लांत हो चुके थे।

हॉसपेट थोड़ा दक्षिण है गुलबर्गा से। बेल्लारी ज़िले में। अरे वही बेल्लारी ज़िला, अवैध खनन और रेड्डी बंधुओं के लिए आप उत्तर भारत में जानते होंगे। हॉसपेट में हमें राहुल गांधी और जगदीश शेट्टर की रैलियां कवर करनी थी। मेरा लालच कुछ और था। मैं विजयनगर साम्राज्य के खंडहर देखना चाहता था।

हंपी, यानी वह जगह जहां विजयनगर साम्राज्य के अवशेष है, हॉसपेट से महज सोलह किलोमीटर दूर है। राहुल की रैली के बाद शेट्टार की रैली थी, और जगदीश शेट्टार की रैली सुबह-सुबह निपट गई थी। अपने ऑफिस के काम से फारिग होने के बाद हम विजयनगर के भग्नावशेष देखने चल दिए थे।

चाय की दुकानपर किसी दोस्ताना से स्थानीय शख्स ने बताया, कि अगर असल में विजयनगर की झलक देखना चाहते हो तो सीधे हंपी पर धावा मत बोल दो। दोपहर की तेज़ धूप में चाय का आस्वाद लेते हुए हम स्थानीय ज्ञान भी लेते रहे, चाय का भी। क्योंकि चाय का तो क्या है, टी इज़ कूल इन समर....एंड वॉर्म इऩ विंटर।

हंपी जाने के रास्ते में किसी पहाड़ी पर भग्नावशेष फोटोः मंजीत

तो कर्नाटक में होसपेट में उस दिन तकरीबन 46 डिग्री सेल्सियस तापमान था। खाल झुलसी जाती थी, चाय ने पसीने की बूंदों का आमंत्रित कर खाल को सुरक्षा कवच दिया।

उन मित्र ने यह भी बताया कि आप इधर आए हैं तो रीछों की एक सेंचुरी भी देखते जाएँ। लेकिन तपते दोपहर में जब हम दोर्जे में स्थित उस सेंचुरी गए तो वन संरक्षकों ने बताया कि अव्वल तो गेट से अंदर जाने को नहीं मिलेगा। जाने भी दिया तो कुछ दिखेगा नहीं, क्योंकि रीछ दोपहर को आराम करते हैं। इसलिए इधर सुबह को आने का।

 हम सुबह की योजना बनाकर खाली हाथ, खाली आंख लौट चले।
सड़क किनारे बोर्ड दिखा तो रूक गए थे हम

बहरहाल, जब उस अपरिचित मित्र के बताए अनुसार हम पचीस किलोमीटर के दायरे में घूमने निकले, तो सड़क के किनारे कई ऐसी खंडहर देखने को मिले, जो हमने किताबों में देखे थे। विजयनगर मार्का अवशेष।

हर जगह गाड़ी रोकी जाती, हम उतर कर फोटो उतारते। फिर गाड़ी आगे बढ़ती।

अचानक एक जगह मेरी नजर गई, तेज़ धूप में सड़क के किनारे बोर्ड लगा था--माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। मंदिरो में मेरी दिलचस्पी तभी होती है जब वहां भीड़ हो। हमारे कैमरामैन बनवारी लाल का नज़रिया अलग है, बुजुर्ग हो चले हैं। पुण्य कमाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

हमारी गाड़ी चढाई पर चल दी। एक बोर्ड और लगा था, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का था। बोर्ड में लिखा था कि मान्यता के अनुसार, रामायण में वर्णित किष्किन्धा यही था....
सामने रहा सुग्रीव के छिपने का ठौर ऋष्यमूक फोटोः मंजीत
मंदिर अभी कुछ दूर था। रास्ते में एक प्रवेश द्वार टाइप का बन रहा था। वहां एक बुजुर्गवार भी मिले जो एएसआई की तरफ से उस मंदिर का प्रवेश द्वार बनवा रहे थे।


मैंने उनसे पूछा कि यह कौन सी जगह है तो उनने बताया कि यह इलाका है किष्किन्धा का। और आप जिस जगह पर खड़े हैं वह है माल्यवान या प्रस्रवण गिरि। किष्किन्धा के राजा बालि को मार कर राम ने इसी पर्वत पर वर्षाकाल के चार महीने बिताए थे। मैंने पूछा, तब तो ऋष्यमूक भी होगा?

बुजुर्गवार ने तर्जनी सामने कर दी। सामने पत्थरों के आधिक्य वाला पर्वत था, जिसकी ऊंचाई तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन वह वही पर्वत था जिसका वर्णन वाल्मीकी रामायण और रघुवंश में है।
माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गोपुर फोटो- मंजीत ठाकुर


'तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1।

एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।

यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान बी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



जारी।

Wednesday, October 23, 2013

किताबः द अलकेमी ऑफ़ डिज़ायर

किसी ने मुझे एक किताब उपहार में दिया था...द अलकेमी ऑफ डिज़ायर। लेखकः तरूण तेजपाल। पहली ही पंक्ति पढ़ी, दो जनों को बीच से जोड़ने वाला गोंद प्यार नहीं है, सेक्स है। ( लव इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बीटविन टू पीपल। सेक्स इज़। )

किताब की पहली पंक्ति की इस स्थापना से हैरत हुई। पढ़ता चला गया। कुछ ऐसा हुआ कि अंग्रेजी की किताब को लगातार पढ़ नहीं पाया। व्यस्तताओं का दौर था। लेकिन पूरा पढ़ा, तो आखिरी पंक्ति, पहली पंक्ति की एंटी-थीसिस लगी।

दो लोगों को बीच से जोड़ने वाला गोंद प्यार है, सेक्स नहीं। (सेक्स इज़ नॉट द ग्रेटेस्ट ग्लू बिटविन टू पीपल, लव इज़।)

पूरी किताब इन्ही दो स्थापनाओं के बीच की कहानी है।

मैं शैली की इस किताब का नायक लेखक खुद ही लगते हैं, क्योंकि किताब के आखिरी पन्नों तक आते-आते नायक पोनी टेल वाला और दाढ़ी वाला हो जाता है। किताब प्रेम, कर्म, अर्थ, काम, सत्य के खंडों में बंटा है।

प्रेम से शुरूआत होती है, नायक और नायिका के हर पल के शारीरिक प्रेम से...इक दफा यौनसंबंध बनाने मे नाकाम नायक के साथ संबंध टूटने की शुरूआत होती है।

नायक लेखक ही है और उसकी नायिका फिज़ प्रेरणा। हर पल उसे लिखने की प्रेरणा देती हुई। इसी में बाद में आकर कैथरीन का प्रकरण भी जुड़ता है। शाही खानदान की गोरी अमेरिकन बहू अपने नौकर के साथ अराजक यौन संबंधों में लिप्त होती है। उस संबंध का अंत भी होता है।

इतिहास के एक टुकड़े को नायक जीता है और आखिरकार विभिन्न यौन आसनों, यौनांगो के विवरणों के बाद लेखक आखिरी पन्नों में स्थापित करता है कि सेक्स नहीं, प्रेम ही लोगों को जोड़ता है।

किताब की भाषा शैली सहज है, प्रवाहमान है। लेकिन कई जगह विवरण काफी बोझिल हो जाते हैं। और कई घटनाक्रम तो ऐसे हैं जिनका होना-न होना किताब के कथ्य पर कोई फर्क नहीं डालता। मसलन, एक लघु चित्र देने के लिए लेखक  का अमेरिका जाना।

सबसे बेहतर है, नायक और फिज़ का आपसी रिश्ता। किताब में एक जगह नायिक लेखक के लिए रोज़मर्रा के कामकाज की तालिका बनाती है, 

"सुनो तुम बहुत अच्छा लिखते हो, फिज़ ने लाल रंग की चमचमाती टाइपराइटर, बढिया कागज का रिम, पेंसिले जमाते हुए कहा। दैनंदिनी लिख कर टंग गई। हफ्ते में लेखन के पांच दिन, कोई फिल्म नहीं, काफ्का, जायस और फाकनर की रचनाएं नहीं पढ़नी हैं। सेक्स के बारे में नहीं लिखना है, क्यों कि इसका सही चित्रण मुश्किल है, हां गंदगी फैलाना आसान होता है। जो लिख रहे हो, उसकी चर्चा न करो...दुनिया में अपठनीय कूड़े की भरमार है, उसमें बढोत्तरी न करो। फिज़ की इस कठोर नियमावली के नीचे मैंने नोट लिख रखा था, लिखन जिंदगी नहीं, लेकिन फिज़ जिंदगी है। फिज़ ने पढ़ा, तो उसने 'नहीं' लफ्ज को काट दिया। दूसरे वाक्य में फिज़ जोड़ दिया। वाक्य बना, लिखना जिंदगी है, फिज़, फिज़ है।" --पुस्तक अंश।

नायक नायिका जब हिमालय की घाटी के गेथिया नामक जगह पर रहने के लिए आते हैं, तब उसे घर की पुरानी मालकिन की डायरियों से भरी पेटी मिलती है। तब खुलता है एक दूसरी दुनिया का, दूसरे वक्त का दरवाजा। अलकेमी ऑफ डिजायर एक दर्जन से ज्यादा भाषाओं में अनूदित हो चुका है। 

यह किताब सेक्स के बारे में बात करने से बचने की हमारी हिपोक्रेसी पर गहरे चोट करती है। यह एक ऐन्द्रिक किस्म का उपन्यास है। 

इस किताब का हिन्दी अनुवाद राजकमल ने छापा है, शिखर की ढलान नाम से. राजकमल से शिकायत इस बात की है कि अनुवादक का नाम महीन अक्षरों में कहीं छिपाकर छापा है, परिचय वगैरह भी नहीं है। दोयम, देवेन्द्र  कुमार ने अनुवाद तो तकरीबन ठीक किया है। लेकिन, यौनांगों के नाम जहां अंग्रेजी में धडल्ले से लिखे हैं, वहां उन्होंने डॉट्स छोड़ दिए हैं। 

हिंदी वालों को इस हिपोक्रेसी से बचना चाहिए। 

कुल मिलाकर अलकेमी ऑफ डिजायर को पढ़ना बनता है। आप चाहें, अंग्रेजी में पढ़ें या हिंदी में, बहुत ज्यादा फर्क नहीं है..लेकिन मूल अंग्रेजी की किताब अलग जायका देती है। अनुवाद तो अनुवाद है। 




Sunday, October 13, 2013

रामलीलाः चीर कर रख दूंगा लकड़ी की तरह

मंच  सजा था, बिजली की लड़ियों ने चकाचौंध मचा रखी थी। महागुन मेट्रो मॉल की विशाल इमारत की छत पर मैकडॉनल्ड का लाल रंग का निशान चमक रहा था। इस मॉल की आधुनिकता की चमक के ऐन पीछे मैदान में था मंच. बल्बों की नीली-पीली रौशनी के बीच भगवा रंग के कपड़ो में एक किशोर-सा अभिनेता लक्ष्मण बना हुआ था।

मंच पर मौजूद सारे अभिनेता, जिनमें एक विदूषक, कई वानर लड़ाके और कई राक्षस थे। हनुमान भी। सारे अभिनेता मंच पर हमेशा चलते रहते, तीन कदम  दाहिनी तरफ, फिर वापस मुड़कर, तीन कदम बाईं तरफ।

बीच बीच में कोई पंडितजीनुमा आदमी कोई निर्देश दे आता मंच पर जाकर। फिर मंच पर आवाज आती, उद्घोषक की, जिसे अपनी आवाज़ सुनाने में ज्यादा दिलचस्पी थी।

काले कपड़ो में सजे मेघनाद की आवाज़ में ज़ोर था, भगवा कपड़े में सजे लखन लाल की आवाज़ नरम थी। लेकिन तेवर वही...दोनों के बीच संवाद में शेरो-शायरी थी। एक ललकारता...दूसरा उसका जवाब देता।

लखन लाल चीखे, अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह
भीड़ ने जोरदार ताली बजाई।  एकदिन पहले हुई बारिश की वजह से मैदान गीला था...लेकिन मैदान में खासी भीड़ थी।

सोच रहा था कि क्या दिल्ली में भी लोग इतने खाली हैं, या फिर कुछ तो ऐसा है इन आधुनिक शहरियों को अपनी ओर खींच रहा है। रामलीला के बगल में, एक जगह ऑरकेस्ट्रा का आय़ोजन है। लडकी बांगला गाने गा रही है, और लगभर सुर के बाहर गा रही है।

वह भीड़ से पूछती है, केनो, हिंदी ना बांगला...भीड़ के अनुरोध पर वह हिंदी में गाती है। लौंडिया पटाएंगे, फेविकोल से...मेरे मित्र सुशांत को पूजा के पवित्र पंडाल में यह शायद अच्छा नहीं लगा होगा। मैं तर्क देता हूं कि यह मास कल्चर है। मास को पसंद कीजिए, हर जगह तहज़ीब की पैकेजिंग नहीं चलेगी।

यह सही है। यही सही है। आम आदमी, जिसके लिए राम लीला के पात्रों ने हिंदुस्तानी बोलना शुरू  कर दिया। संवादों के बीच में ही, मानस की चौपाईयां आती है, जो माहौल में भक्ति का रंग भरने के सिवा कुछ और नहीं करतीं।

अगल बगल गुब्बारे, हवा मिठाई, गोलगप्पे...प्लास्टिक के खिलौने...चाट, भेलपूरी। मुझे मधुपुर की याद आई।

दृश्य़ दोः हमारे घर के पास ही एक दुर्गतिनाशिनी पूजा समिति है। दुर्गा की मूर्त्ति के सामने बच्चों के नाच का एक कार्यक्रम है। यह समिति पहले उड़िया समुदाय के लोगों के हाथ में थी, अब उस समिति में बिहारी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, यूपी के सभी समुदायों के लोग है।

सभी घरों के बच्चे नाच रहे हैं, महिलाएं हैं...मेयर साहब आते हैं..। जय गणेशा गाने पर नाचने वाला लड़का बहुत अच्छा नाच रहा है। मैं पहचानता हूं उसे, वह बिजली मिस्त्री है। रोज पेचकस कमर में खोंसे शिवशक्ति इलेक्ट्रिकल्स पर बैठा रहता है। मुसलमान है।

अब किसी को फर्क नहीं पड़ा कि  नाचने वाला लड़का किस धर्म का है। किसी को फर्क नहीं पड़ा कि दुर्गा जी ने जिस महिषासुर को मारा है मूर्ति में...उसकी जाति और उसके समुदाय को लेकर बौद्धिक तबका बहस में उलझा है। जनता को फर्क नही पड़ता कि दुर्गा ने किसको मारा है।

देश उत्सवधर्मियों का है, उत्सव मनाते हैं हम।

इसमें विचारधारा को मत घुसेडिए। दुर्गा पूजा को एक प्रतीक भर रहने दीजिए। इसके सामाजिक संदर्भों को देखिए, इसमें और समुदायों को मिलाइए...और सांप्रदायिकता, राम को सांप्रदायिक बना दिया है आपने, अब दुर्गा को भी मत बनाइए।

यह आम लोगों को उत्सव है...उत्सव ही रहे। ऑरकेस्ट्रा बजता रहे, सुर बाहर लगे, कोई दिक्कत नहीं, जय गणेसा पर नाचते रहें लोग...बस।

Thursday, October 3, 2013

बिहारी होने की परिभाषा को बदलिए मीलॉर्ड!



भगवान की कसम खा कर कहता हूँ भाई, हम वो बिहारी नहीं हैं जो लालू बताते रहे हैं आपको। हम वो बिहारी हैं जैसा दिनकर, नागार्जुन, विद्यापति ने आपको बताया होगा।

सच कह रहा हूँ भाई, हम वैसे नहीं ठठाते हैं जैसा लालू ठठाते थे, हम वैसे मुस्कुराते हैं जैसे बुद्ध मुस्कुराते थे। आप तय मानिए भाई, वो लाठी हमारी पहचान कभी नहीं रही जिसे लालू ने चमकाया था। हमारे पास तो वो लाठी थी जिसे थाम कर मोहनदास, 'महात्मा' बन गए।

अब तो मान लीजिये प्लीज़ कि हमारी वीरता 'भूराबाल' साफ़ करने में नहीं थी, हम तो 'महावीर' बनना सीखते रहे थे। माटी की कसम खा कर कह रहा हूँ साहब, हम कभी 'बिहारी टाईप' भाषा नहीं बोलते रहे हैं। हम मैथिली-भोजपुरी-मगही-अंगिका-बज्जिका बोलते हैं सर। 

तय मानिए सर हम चारा नहीं खाते, गाय पालते हैं। सच कह रहा हूँ मालिक, हम लौंडा नाच नहीं कराते, सोहर-समदाउन और बटगबनी गाते हैं भाई। 

हम घर नहीं जलाते भाई, सच कह रहा हूँ, सामा-चकेवा के भाई-बहन के पावन त्योहार में हम चुगले (चुगलखोर) को जलाते हैं। आप मानिए प्लीज़ कि लालू हमारे 'कंस' महज़ इसलिए ही नहीं हैं की वे पशुओं का चारा खा गए। वे हमारे लिए बख्तियार खिलजी इसलिए हैं क्यूंकि उन्होंने हमारी पहचान को जला डाला, हमारी पुस्तकें जला डालीं, हमारी सभ्यता, संस्कृति सबको लालूनुमा बना डाला। 
 
तय मानिए प्रिय भारतवासियों, हम भी उसी देश के निवासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। लालू के 'बथानीटोले' का बिहार दूसरा था जहां खून की नदियाँ बह गयी थी, हमारा तो दिनकर वाला सिमरिया है जहां के गंगा किनारे कोई विद्यापति गाते थे 'बर सुखसार पाओल तुअ तीरे....! 

नयनों में नीर भर कर हम अपने उसी बिहार को उगना की तरह तलाशते हुए द्रवित हो पुकार रहे हैं 'उगना रे मोर कतय गेलाह.' ठीक है अब चारा वापस नहीं आयेगा. हम जैसे लोगों का भविष्य लौट कर नहीं आयेगा. लेकिन प्लीज़ सर, प्लीज़ प्लीज़ हमारी पहचान लौटा दीजिये. 'भौंडे बिहारीपना' की बना दी गयी मेरी पहचान को सदा के लिए बिरसा मुंडा जेल में ही बंद कर दीजिये मेरे भाई. त्राहिमाम.

--पंकज कुमार झा के फेसवुक वॉल से
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