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Sunday, November 27, 2016

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां

टिकाऊ विकास से बचेंगी भावी पीढ़ियां, यह समझना ज़रूरी कि हम सारे संसाधन खुद ही खर्च कर देंगे या कुछ बचाकर भी रखेंगे। 
मंजीत ठाकुर



इस वक्त जब पूरी दुनिया में पर्यावरण को लेकर खास चिंताएं हैं, और हाल ही में दुनिया भर ने दिल्ली में फैले दमघोंटू धुएं का कहर देखा, एक दफा फिर से आबो-हवा की देखभाल और उसकी चिंताएं और उससे जुड़े कारोबार पर गौर करना बेहद महत्वपूर्ण लगने लगा है।

सबसे बड़ी बात कि हम लोग अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संसाधन छोड़कर जाने वाले हैं? क्या हम उनको प्रदूषित पानी, बंजर ज़मीन और सांस न लेने लायक हवा की सौगात विरासत के रूप में देने वाले हैं? शायद इसीलिए जानकार टिकाऊ विकास या सतत विकास की बात करते हैं ताकि हम प्रकृति से जितना लें, उसे उतना ही वापस करें। आखिर, एक दिन जब धरती की कोख में समाया सारा कोयला, पेट्रोल और प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना खत्म हो जाएगा, तब ऊर्जा की हमारी ज़रूरतें कहां से पूरी होंगी? हम लोग क्लीन एनर्जी यानी स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों में क्या हासिल कर पाएं हैं और वह तकनीकें आम जनता की जेब की ज़द में हैं भी या नहीं।

असल में, ऐसा नहीं है कि सरकारें कोशिश नहीं करती। दिक्कत हमारे विभिन्न मंत्रालयों (और विभागों, केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के बीच नीतियों में समन्वय की कमी की है।

पिछले कई दशकों से आर्थिक विशेषज्ञ अर्थनीति-जिसे विचित्र रूप से एकआयामी दृष्टिकोण के बावजूद, विज्ञान कहा जाता है-की भाषाओं में गुड और बैड मनी की परिभाषाएं देते रहे हैं। ऐसे उद्योग, जो संसाधनों का दोहन करते हैं और आबो-हवा को प्रदूषित, लेकिन फायदे में चल रहे हैं, पैसा कमा रहे हैं, उन उद्योगों को लाभकारी उद्योग कहा जाता है, जबकि ऐसे काम जिसमें पर्यावरण और आम इंसान की सेहत का खयाल भी रखते हैं लेकिन कारोबार के नजरिए से जो पैसे नहीं बनाते, वह बैड इकॉनमी के तहत आते हैं। आह! इस नज़रिए से देहातों में अच्छी सड़कें बनाना, जाहिर है, अच्छा है और वनों को संरक्षित करना बुरी आर्थिकी है।

यानी व्यवस्था पिछले तीस बरसों में आर्थिक चश्में से ही हर काम को देखती आई है।

संविधान के तहत, भारत का हर नागरिक प्राकृतिक संसाधनों से मिलने वाले लाभों, खासकर पारिस्थितिकी-वन-ज़मीन और मिट्टी से जुड़ी चीज़ों के सामाजिक फायदों और सेवाओं में बराबर का हक़दार है।

संविधान प्रदत्त इस न्याय व्यवस्था की बुनियादी बात ही यह है कि कोई आर्थिक क्रियाकलाप कम-से-कम ऐसी ही हो जिससे कोई नुकसान न पहुंचे, और सामान्य तौर पर इस तरह से संपन्न की जानी चाहिए कि इससे किसी को नुकसान न पहुंचे, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठे। ऐसी व्यवस्था यह तय करने के लिए बनाई गई थी कि समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर पड़े वंचित तबके को इसका अधिक फायदा मिले।

विकास की किसी भी गतिविधि की योजना ऐसी बननी चाहिए कि जल-जंगल-जमीन जैसे कुदरती संसाधन संरक्षित किए जा सकें और उनका इस्तेमाल इस तरह हो कि वह टिकाऊ विकास के खांचे में फिट बैठ सकें और उनको भावी पीढ़ियों के लिए बचाया जाए। इस योजना में यह भी तय किया जाना चाहिए कि इन गतिविधियों में काम करने वाले या उसके आसपास रहने वाले लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ न हो।

टिकाऊ विकास विज्ञान अभी बहुत नया है, यह सोच और अवधारणा नई है फिर भी यह इतनी साफगोई से कई बातें बताता है जिनमें समाज में बराबरी की अवधारणा भी है। यह सरल उपाय सुझाता है। यह किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति, सभी लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और औसत आयु जैसे मानकों की गणना करके समस्या के उपाय बताता है, जिसे जानकार गिनी कोएफिशिन्ट कहते हैं।

ऐसी चीजें जिनके दोबारा बनने में बहुत अधिक वक्त लगता है, मसलन जंगल, ज़मीन और मिट्टी जैसे कुदरती संसाधनों का अत्यधिक दोहन आने वाली पीढ़ियों के लिए कई विकल्प खत्म कर सकता है। इन पीढ़ियों को यह कुदरती संसाधन उन्हीं रूपों में चाहिए होंगे, जैसे कि हमें मिले थे। धरती पर आबादी के बढ़ते बोझ के बाद तो यह ऐसे भी ज़रूरी होगा।

हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियों के साइंसदां हमारे इन कुदरती संसाधनों के खत्म होने का कोई तोड़ निकाल लें, लेकिन बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इन संसाधनों को बहुत जरूरत होगी। जैसे कि जल चक्र के लिए जंगल चाहिए और पानी के साथ ही मिट्टी की ज़रूरत हमारे अनाजों के लिए हमेशा रहेगी। क्यों न हम अपनी भावी पीढ़ियों की ऊर्जा को किसी ज्यादा बेहतर काम के लिए बचाने पर जोर दें, और जल-जंगल-जमीन को खुद बचाने का बंदोबस्त करें, वह भी पुख्ता बंदोबस्त।


Monday, December 28, 2015

ग्लोबल वॉर्मिंग कहीं कारोबारी साजिश तो नहीं?

पैरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में लंबी बहस के बाद आख़िरकार सारे देश एक समझौते तक पहुंचे लेकिन इस समझौते से मैं बहुत मुतमईन नहीं हूं। कई सवाल अपनी जगह पर बने हुए हैं। जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते के मामले में भाषा भी बहस और मतभेदों की वजह रही। पिछले हफ्ते मैंने इशारा भी किया था, कि ‘किया जाएगा’ और ‘किया जाना चाहिए’ जैसे लफ़्जों का इस्तेमाल समझौते की दिशा और दशा को बदल देगा। यह भी सच है कि समझौता करीब-करीब नाकामी के दरवाज़े तक पहुंचा दिया गया था।

दोनों ही शब्द विकासशील देशों के प्रति विकसित देशों के नज़रिए के फर्क के मायनों की परिभाषा तय देने के लिए काफी हैं।

पूरी दुनिया की तरह भारत ने भी समझौते का स्वागत किया। लेकिन अब सारी बहस समझौते के मायने और 'किया जाएगा' और 'किया जाना चाहिए' के विरोधाभास के ईर्द-गिर्द सिमटी गई है और उसी के आधार पर आगे के बरसों में होती रहेगी।

शुरू में समझौते की धारा 4 के तहत 'अमीर देश ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए अर्थव्यवस्था में व्यापक लक्ष्य निर्धारित करेंगे', ऐसा लिखा गया था। लेकिन अमेरिकी दवाब के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया। यह बदलाव काफी अहम है क्योंकि 'किया जाएगा'के साथ क़ानूनी दायित्व जुड़े हैं लेकिन 'किया जाना चाहिए' के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।

उत्सर्जन में कटौती का मुद्दा अब अमीर देशों की प्रतिबध्ता की जगह अमीर देशों की इच्छा पर निर्भर करेगा। आप चाहे इस समझौते के लिए कितना भी जश्न मना लें और यह मान कर चलें कि विकासशील देशों को साफ-सुथरी ऊर्जा के माध्यम अपनाने के लिए अमीर देश तो बिलियनों डॉलर देंगे ही।

इसी तरह विकासशील और विकसित देशों के अलग-अलग जवाबदेही तय करने की भारत की मांग नहीं मानी गई। तो सीधा मान लेना चाहिए कि इससे भारत जैसे देश की महत्वकांक्षा को नुक़सान पहुंचेगा, जो कोयला आधारित ऊर्जा की बदौलत अपनी अर्थव्यवस्था का तापमान बढाए रखने और उसे रफ़तार देने की कोशिशों में लगे हैं। आखिरकार किसी देश की आर्थिक वृद्धि उसकी ऊर्जा ज़रूरतों के ही मुताबिक तो घटती-बढ़ती है।

यह दुनिया के जलवायु परिवर्तन के मद्देनज़र तो ठीक है लेकिन भारत के विकास के नज़रिए के माकूल नहीं है। क्लाइमेट फंडिंग को लेकर परिभाषा साफ नहीं हो पाई है। विकसित देशों अब विकासशील देशों को पैसे तो देंगे, लेकिन विकसित देश पैसा देने के लिए बाध्य नहीं होंगे।

दूसरी तरफ, आप और पर्यावरण की चिंता में लगातार घुलते रहने वाले लोग मुझ पर लानते भेंजे लेकिन मेरा साफ मानना है कि विकसित देशों ने अपने हिस्से का कार्बन उत्सर्जन तो कर लिया लेकिन अब विकासशील देशों की बारी में वे लोग भांजी मार रहे हैं।

अव्वल तो मुझे ग्लोबल वॉर्मिंग का कॉन्सेप्ट ही विरोधाभासी लगता है। प्रदूषण का मसला अपनी जगह है। यह सही है कि वातावरण में धुआं और ज़हरीली गैसे उत्सर्जित करके हम आबो-हवा को बिगाड़ रहे हैं, लेकिन कुछ वैज्ञानिक (?) और गैर-सरकारी संगठन दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि इससे पृथ्वी के घूर्णन पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और दिन पहले के मुकाबले लंबे हो रहे हैं। मैंने जितना पढ़ा है उससे साफ कह सकता हूं कि यह धारणा भ्रामक है।

तीसरी बात यह कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी पर कोई पहली दफा नहीं हो रहा। धरती के तापमान में हमेशा घट-बढ़त होती रहती है। पृथ्वी के जलवायविक परिवर्तनों का इतिहास बताता है कि पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर अब तक चार बार हिमकाल आ चुके हैं, यानी सारी धरती बर्फ से ढंक गई थी, इनको गुंज, मिंडल, रिस और वुर्म हिमकाल कहते हैं। इसी तरह अपनी विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों में आप सबने पढ़ा होगा कि साइबेरिया में हाथी के पूर्वज मैमथ का जीवाश्म मिला है जिसकी सूंढ़ में घास भी मिला है। इसी तरह आपको कुछ और मिसालें दूं, जैसे कि साइबेरिया औ कश्मीर के करगिल में बिटुमिनस कोयले के भंडार होना। कोयला वहीं बनता है जहां कभी घने जंगल हों।

साइबेरिया और कारगिल में घने जंगल तो तभी रहे होंगे, जब उस इलाके में जलवायु गर्म और नम रही होगी। ऐसी जलवायु वहीं मिलती है जिसके आसपास से तापीय विषुवत रेखा गुजरती है। मेरे कहने का गर्ज है कि तापीय विषुवत रेखा अपनी जगह बदलती है। पृथ्वी में हिमयुग और गर्म युगों का आना-जाना लगा रहता है। तो धरती के तापमान में बदलने को सिर्फ प्रदूषण से मत जोड़िए। हो सकता है कि विकसित देशों की यह कारोबारी नीति हो कि वह अपनी कथित क्लीन टेक्नॉलजी को बेचने के लिए इतने वितंडे कर रहा हो। बस कह रहा हूं, बाकी जो है सो तो हइए है।