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Friday, April 3, 2020

कहानीः दोमुंह वाली चिरैया

कहानीः दोमुंह वाली चिरैया
#एकदा #टाइममशीन
कथाकारः मंजीत ठाकुर
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"एक ठो चिरैया रही, कुछ खास किसिम की रही. उसका पेट तो एक्कै ठो था लेकिन उसका मुंह था दो. समझ लो कि दोमुंही रही ऊ चिरैया... उस चिरैया का नाम था भारुंड..." रात को सोते समय दादी ने दो पोतों को किस्सा सुनाना शुरू किया.
छोटा वाला पोता गोरा लकदक था, बड़ा वाला थोड़ा सांवला और दुबला-पतला, दादी की नजर में जरा अनाकर्षक-सा. सो दादी ही नहीं, उन बच्चों का बाप भी दोनों में थोड़़ा फर्क कर ही जाता था.
"फिर क्या हुआ दादी..." गोरेवाले ने लाड़ से पूछा.
दादी ने आगे सुनाया, "फिर? चिरैया के दोनों आपस में झगड़ते रहते. लेकिन एक दिन पहले वाले सिर को एक ठो बहुत स्वादिष्ट फल मिला...दूसरेवाले सिर ने उससे फल मांगा और कहा जरा यह मुझे भी तो दो, देखें कैसा हा इसका जायका! लेकिन पहले वाला सिर अकड़़ में आ गया, उसने दूसरे वाले को नहीं दिया और अकेला ही सारा खा गया. दूसरा वाला मुंह पहले वाला का मुंह देखता रह गया. और एक दिन दूसरेवाले मुंह को मिला एक बहुत ही जहरीला फल..."
"फिर क्या हुआ दादी...".सांवले पोते ने पूछा.
दादी कुछ कहती इससे पहले पापा जी आए और चॉकलेट का पैकेट दादी की गोद में बैठे गोरेवाले बेटे को थमा दिया, हिदायत भी दीः "भाई को भी देना."
गोरेवाले ने भाई वाली बात गोल कर दी और चॉकलेट का रैपर फाड़ लिया और दादी से कहानी आगे बढ़ाने को कहा, "दादी उस जहरीले फल का क्या किया चिड़िया के दूसरे मुंह ने? बताओ न फिर क्या हुआ?"
"फिर क्या हुआ के बच्चे, आधा चॉकलेट मुझे देता है या नहीं?" सांवला बच्चा क्रोध से चिल्लाया.
"नहीं दूंगा, नहीं दूंगा, नहीं दूंगा." गोरा अकड़ गया.
"देख लेना फिर..." सांवला बच्चा बिस्तर से उठकर बारामदे में चला गया. दादी ने किस्सा पूरा किया "...और फिर गुस्से में आए भारुंड चिरैया के दूसरे मुंह ने ज़हरीला फल खा लिया."


***

Tuesday, April 18, 2017

उसने कहा था

हिन्दी साहित्य की सबसे पहली कहानियों में से एक, 'उसने कहा था' प्रेम, शौर्य और बलिदान की अद्भुत प्रेम-कथा है। प्रथम विश्व युद्ध के समय में लिखी गयी यह प्रेम कथा कई मायनों में अप्रतिम है। प्रथम-दृष्टि-प्रेम तथा साहचर्यजन्य प्रेम दोनों का ही इस प्रेमोदय में सहकार है। बालापन की यह प्रीति इतना अगाध विश्वास लिए है कि 25 वर्षो के अंतराल के पश्चात भी प्रेमिका को यह विश्वास है कि यदि वह अपने उस प्रेमी से, जिसने बचपन में कई बार अपने प्राणों को संकट में डाल कर उसकी जान बचायी है, यदि आंचल पसार कर कुछ मांगेगी तो वह मिलेगा अवश्य। और दूसरी ओर प्रेमी का “उसने कहा था” की पत रखने के लिए प्राण न्योछावर कर वचन निभाना उसके अद्भुत बलिदान और प्रेम पर सर्वस्व अर्पित करने की एक बेमिसाल कहानी है।
उसने कहा था

---चंद्रधर शर्मा गुलेरी



बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़िवालों की जवान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगाएँ।

जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरे को चींघकर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर 'बचो खालसाजी।' 'हटो भाई जी।' 'ठहरना भाई जी।' 'आने दो लाला जी।' 'हटो बाछा।' -- कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं।

क्या मजाल है कि 'जी' और 'साहब' बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई।

यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- 'हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमा वालिए; हट जा पुतां प्यारिए; बच जा लम्बी वालिए।' समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है? बच जा।

ऐसे बम्बूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दूकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुँथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
"तेरे घर कहाँ है?"
"मगरे में; और तेरे?"
" माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?"
"अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।"
"मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरुबाज़ार में हैं।"

इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकराकार पूछा, "तेरी कुड़माई हो गई?"
इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर 'धत्' कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्ज़ीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरी कुड़माई हो गई?' और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली, "हाँ हो गई।"
"कब?"
"कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।"

लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(दो)

"राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे हडि्डयाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बर्फ़ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। ज़मीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है।

इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।"

"लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिए। परसों 'रिलीफ' आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में -- मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।"

"चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जर्मनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े -- संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अंधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चार मील तक एक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो..."

"नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?" सूबेदार हज़ारसिंह ने मुसकराकर कहा, "लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाये नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ़ बढ़ गए तो क्या होगा?"

"सूबेदार जी, सच है," लहनसिंह बोला, "पर करें क्या? हडि्डयों-हडि्डयों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाई में दोनों तरफ़ से चम्बे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।"

"उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंकों। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाज़े का पहरा बदल ले।" यह कहते हुए सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला, "मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!" इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।

लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में देकर कहा, "अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।"
"हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस धुमा ज़मीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।"

"लाड़ी होरा को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम..."
"चुप कर। यहाँ वालों को शरम नहीं।"
"देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तम्बाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है, और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिये लड़ेगा नहीं।"
"अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?"
"अच्छा है।"

"जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुज़र करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और 'निमोनिया' से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।"

"मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सीर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।"
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ाकर कहा, "क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे?"

दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मडिए;
कर लेणा नादेड़ा सौदा अड़िए --
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
क बणाया वे मज़ेदार गोरिये,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।

कौन जानता था कि दाढ़ियावाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खन्दक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताज़े हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

(तीन)

दोपहर रात गई है। अन्धेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कम्बल बिछा कर और लहनासिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।

"क्यों बोधा भाई, क्या है?"
"पानी पिला दो।"
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा, "कहो कैसे हो?" पानी पी कर बोधा बोला, "कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।"
"अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!"
"और तुम?"
"मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।"
"ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए..."
"हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुनकर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।" यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
"सच कहते हो?"
"और नहीं झूठ?" यों कह कर नहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।

आधा घण्टा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज़ आई, "सूबेदार हज़ारासिंह।"
"कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!" कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

"देखो, इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें पचास से ज़ियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खन्दक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।"
"जो हुक्म।"

चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कम्बल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज़्ज़त हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा, "लो तुम भी पियो।"

आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला, "लाओ साहब।" हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पटि्टयों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?"
शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
"क्यों साहब, हमलोग हिन्दुस्तान कब जाएँगे?"
"लड़ाई ख़त्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं?"
"नहीं साहब, शिकार के वे मज़े यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -

हाँ- हाँ -- वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफ़सर के साथ शिकार खेलने में मज़ा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे। हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?"
"हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?"
"पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ" कह कर लहनासिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

अंधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
"कौन? वजीरसिंह?"
"हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने दी होती?"

(चार)

"होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।"
"क्या?"
"लपटन साहब या तो मारे गए हैं या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सोहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?"
"तो अब!"
"अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरा, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
सूबेदार से कहो एकदम लौट आयें। खन्दक की बात झूठ है। चले जाओ, खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।"
"हुकुम तो यह है कि यहीं-"

"ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ।"
"पर यहाँ तो तुम आठ है।"
"आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।"

लौट कर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने...

बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दुक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! मीन गौट्ट' कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।

साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला, "क्यों लपटन साहब? मिजाज़ कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नील गायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं।
और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिन 'डेम' के पाँच लफ्ज़ भी नहीं बोला करते थे।"
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।

लहनासिंह कहता गया, "चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महिने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज़ बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिन्दुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बन्द कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो..."

साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।
बोधा चिल्लाया, "क्या है?"

लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि 'एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया' और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ़ पटि्टयाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पटि्टयों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया।

इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोड़े से मिनिटों में वे...

अचानक आवाज़ आई 'वाह गुरु जी की फतह? वाह गुरु जी का खालसा!!' और धड़ाधड़ बन्दूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हज़ारसिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।

एक किलकारी और... 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!!' और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खन्दक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में 'दन्तवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और काग़ज़ात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।

इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाडियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दार-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जायेगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा, "तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनी जी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।"
"और तुम?"
"मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।"
"अच्छा, पर..."
"बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होरां को चिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।"

गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा, "तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?"
"अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।"
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। "वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।"

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ़ होते हैं। समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्ज़ीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब 'धत्' कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा, "हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू'' सुनते ही लहनासिंह को दु:ख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?

"वजीरासिंह, पानी पिला दे।"
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं ७७ रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हज़ारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधसिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।

जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला, "लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।" लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाज़े पर जा कर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
मुझे पहचाना?"
"नहीं।"
''तेरी कुड़माई हो गई -धत् -कल हो गई- देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -''
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
''वजीरा, पानी पिला।'' 'उसने कहा था।'

स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, "मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घंघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।'' सूबेदारनी रोने लगी। ''अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा-कर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।''

रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
''वजीरासिंह, पानी पिला'' ... 'उसने कहा था।'
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घण्टे तक लहना चुप रहा, फिर बोला, "कौन! कीरतसिंह?"
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, "हाँ।"
"भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।" वजीरा ने वैसे ही किया।
"हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।" 

वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।

कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारों में पढ़ा... फ्रान्स और बेलजियम... ६८ वीं सूची... मैदान में घावों से मरा... नं ७७ सिख राइफल्स जमादार लहनसिंह।


Tuesday, April 30, 2013

इतिहास का भूगोल, भूगोल का इतिहासः सुशील झा

 
सुशील झा, पत्रकार

सुशील झा, पेशे से तो पत्रकार हैं, लेकिन उनके अंदर एक रचयिता भी है। सामाजिक विषयों खासकर, समाज के वंचित तबके को लेकर उनकी कविताएं जोरदार तरीक़े से अपनी बात कहती है, गद्य भी कविता की शैली में लिखते हैं, यूं तो वर्चुअल स्पेस में लगातार लिखते हैं, लेकिन लेखन की उनकी शैली दिल को बाग-बाग कर देती है। इतिहास और भूगोल के मेटाफर के इस्तेमाल करते हुए,फेसबुक पर स्टेटस के तौर पर लिखा गया उनका ये अद्भुत लेखन पेशे-नज़र है---- 



1. हर लड़की का इतिहास होता है और हर लड़के का भूगोल...वैसे, हर लड़की को लडके के इतिहास में और हर लड़के को लड़की के भूगोल में रुचि होती है...इन भूगोल-इतिहास की चट्टानों पर प्रेम की दूब उग जाती है...इधर उधर छितर बितर।

2. इतिहास और भूगोल की लड़ाई जहां खत्म होती है वहां दर्शन पैदा होता है....बाल-दर्शन।

3.मैं इतिहास में पीछे था...वो भूगोल में आगे थी...दूब ने दोनों को पीछे छोड़ दिया...और हम फ्रायड की बांहों में झूल गए.

4. धड़कते-धड़कते दिल दीवार हुआ जाता है...लिखते लिखते लिखना लाचार हुआ जाता है...। हम तो पड़े थे उसके भूगोल में, और वो अब इतिहास हुआ जाता है।

5. भूगोल में बैठ कर इतिहास लिखना कैसा होता होगा...और इतिहास में बैठ कर भूगोल के बारे में सोचना

6. एक दिन इतिहास ने भूगोल को गोल कर दिया...भूगोल के गोल होते ही दोनों गार्डन के इडेन में पहुंच गए......
भूगोल के गोल होने से दूब सूख गई और फिर गोल गणित का जन्म हुआ जिससे फिर आगे चलकर लॉजिक, फिजिक्स और मेटाफिजिक्स की शुरुआत हुई।

7. बड़े शहर में हर बात छोटी होती है और छोटे शहर में हर बात बड़ी......वैसे बड़े शहर में हर बात भूगोल पर अटकती है....छोटे शहर में हर बात इतिहास पर।

8. भूगोल बदलता है तो इतिहास बनता है और नया भूगोल पुराना इतिहास ज़रूर पूछता है लेकिन इतिहास को सिर्फ भूगोल में रुचि होती है. इतिहास भूगोल का इतिहास कभी नहीं पूछता। 

9. इतिहास की नियति है भूगोल के पीछे भागना..उसे पकड़ना और फिर उसे इतिहास में बदल देना

10. एक दिन इतिहास ने भूगोल के सामने अपने इतिहास के पन्ने पलटने शुरु किए. भूगोल ने ये देखकर अंगड़ाई ली और अपना जुगराफिया बदला. जुगराफिया बदलते ही इतिहास का मुंह खुला का खुला रह गया और फिर दोनों मिलकर दूब उगाने लगे..

11. ...और फिर एक दिन भूगोल ने कहा इतिहास से कि मुझे तुम्हारा इतिहास पढ़ना है. इतिहास के पास इसका कोई जवाब नहीं था. उसे अपने पुराने भूगोल की याद सताने लगी और वह सामने के भूगोल को ताकते हुए सोचने लगा काश कि दूब उगने लगे फिर से...

12 .नया भूगोल मिलते ही इतिहास अपना पुराना इतिहास भूलना चाहता है लेकिन भूगोल को हमेशा इतिहास के पुराने इतिहास में रुचि होती है

13. इतिहास हमेशा भूगोल भूगोल खेलना चाहता है और भूगोल हमेशा इतिहास इतिहास . इस खेल में नुकसान हमेशा दूब का होता है.

14. भूगोल इतिहास की रगड़ में सबकुछ खत्म हो चुका था. बरसों बीत गए थे. झुर्रियों पड़े हाथों में हाथ थे. इतिहास भूगोल के इतिहास में गुम था और भूगोल इतिहास के भूगोल के इश्क में उलझा हुआ-सा था.






Wednesday, March 14, 2012

दास्तान-ए-नसरुद्दीन

दास्तान-ए-नसरुद्दीन!

आप पूछ बैठेंगे, कौन नसरुद्दीन, मैं तो उसे जानता तक नहीं।

तो आइए, खोजा नसरुद्दीन से आपकी मुलाकात करवा दें।

खोजा नसरुरद्दीन


खोजा नसरुद्दीन (बुखारा से यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही शायद यह नाम ख्वाजा नसरुद्दीन से खोजा नसरुद्दीन हो गया हो) बुखारा शरीफ का बाशिंदा था। उसेक खयालात, जो दहकती आग की मानिंद पाक थे, न मालूम क्यों बुखारा के पुराने अमीर को खतरनाक लगते थे। वह उसे आवारा, बागी, फूट व फसाद फैलानेवाला. न जाने क्या-क्या समझते थे। उनके चंगुल से बचकर खोजा नसरुद्दीन बुखारा से भाग निकला। लेकिन अमीर ने उसे बाग-बागीचों को तहस-नहस करवा दिया और उसके रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया।

दस साल तक बगदाद, तेहरान, बख्शी सराय और दूसरे शहरों में भटकने के बाद यही खोजा नसरुद्दीन अपने पाक वतन बुखारा लौटता है। उसके साथ है तो सिर्फ उसका गधा-उसका सच्चा और वफादार साथी, जो अपने मालिक के मिजाज और तौर-तरीको से वाकिफ है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा चालाक और शरारती गधा है।

खोजा नसरुद्दीन के बुखारा में कदम रखते ही अजोबोगरीब वाकयात शुरु हो जाते हैं।

अजीबोगरीब वाकयात की धुंध में से खोजा नसरुद्दीन की अजीम शख्सियत साफ उभरती है। नए अमीर ने जैसे ही बुखारा में आने की खबर सुनी वह चौंककर तख्त पर सीधे बैठ गए, मानो किसी ने उसके कांटा चुभा दिया हो।

बुखारा पहुंचते ही वह वहां के गरीब बाशिंदों-भिश्तियों, कुम्हारों, तांबागरो, लुहारों, वगैरा- का सच्चा दोस्त और मददगार बन जाता है। उसके नाम से बुखारा का वजीर बख्तियार खौफ खाता है क्यों कि खोजा नसरुद्दीन ने मजहब के नाम पर लूट बंद करा दी है। उसके नाम से सूदखोर जाफर को सांप सूंघ जाता है।

हां, इस सिलसिले में एक नाम आता है-गुलजान। यह हसीन दोशीजा खोजा नसरुद्दीन की होने वाली दुलहिन थी जिसे अमीर ने अपने हरम में कैद कर रखा है। बेशक, अमीर-उमरा, रईस, मुल्ला, सूदखोर-गरीबों को ठगनेवाले और लूटने वाले -सभी खोजा नसरुद्दीन से नफरत करते थे। इसकी वजह भी थी। खोजा नसरुद्दीन आदमी ही दूसरी किस्म का था।

आज के बाद किस्तों में मैं खोजा नसरुद्दीन की कहानी यानी दास्तान-ए-नसरुद्दीन पेश करुंगा। लेकिन इसके लिए आपको बार-बार गुस्ताख पर आना होगा।

दास्तान में उर्दू अल्फाज तो होंगे लेकिन उसके नीचे नुक्ते नहीं लगे रहेंगे।

एक शहर बुखारा का ज़िक्र बार-बार आएगा। पुराने जमाने का यह शानदार शहर आजकल उजबेकिस्तान नाम के देश में है।

दास्तान-ए-नसरुद्दीन मूल किताब लिखी है रुसी लेखक लियोनिद सोलोवयेव ने।

दास्तान ए नसरुद्दीनः "...यह कहानी हमने अबू-उमर-अहमद-इब्न-मुहम्मद से सुनी, जिन्होंने इसे मुहम्मद-इब्न-अली-इब्न-रिफा से सुना, जिन्होंने इसे अली-इब्न-अब्दुल-अजीज से सुना, जिन्होंने अबू-उबैद-अल-कासिम-इब्नसलाम का हवाला दिया, जिन्होंने इसे अपने बुजुर्ग उस्तादों के मुंह से सुना और आखिरी उस्ताद ने सुबूत में उमर-इब्न-अल-खत्ताब व उनके बेटे अब्दुल्ला--अल्लाह उन पर करम करे--का जिक्र किया..."

इब्नहज्म---"बत्तख का हार"

Sunday, January 29, 2012

कहानीः बोंसाई भाग दो

मास्टर साहब के दावे उसे आज भी याद हैं...क्योंकि वो सच ही निकले थे। बनवारी लाल दसवीं की परीक्षा तीसरे दर्जे-जिसे अँग्रेजी में थर्ड डिवीजन और उसके बड़े भाई फर्स्ट डिवीजन विद टू बॉडीगार्ड कहते थे-में ही पास हुए। यह इंटर यानी 12वीं में और फिर आगे भी जारी रहा।

बनवारी ग्रेजुएशन में डिजॉनर होने से बाल बाल बचा। कई साल तक वह घर में पड़ा रहा, ये करुं या नो करुं के पेशो-पेश में। कभी मन व्यापार का होता, लेकिन पूंजी नहीं थी...फिर मन होता बच्चों को ट्यूशन पढाने का। लेकिन उसका अकादमिक करिअर इतना शानदार था कि कोई भी इंसान अपने बच्चों को उससे पढ़वाकर उनका भविष्य अंधकारमय बनाने का जोखिम नहीं ले सकता था।


उसके तमाम दोस्त वक्त गुजारने के लिए क्रिकेट खेलते थे। लेकिन बनवारी को क्रिकेट खेलनी ही नहीं आती..उसे बल्ले पकड़ने तक का शऊर न था। फील्डिंग में भी कुछ ऐसे थे कि थर्ड मैन-जिसे मुहल्ले के क्रिकेट खिलाड़ी बेहद घटिया जगह मानते,क्योंकि मैदान के उस हिस्से में एक गंदा नाला बहता था जहां मुहल्लेभर के बच्चे हगते थे-पर ही लगाए जाते।


वहां भी गेंद किस्मत की ही तरह बनवारी को दगा दे जाती। उसके पैर के नीचे से निकल जाती। बनवारी गेंद के पीछे दौड़ता तो बाकी के खिलाडी खेल छोड़ उसका दौड़ना देखने लगते। बनवारी दौड़ता तो उसके पैरों की दोनों एडियां अपेक्षाकृत पास-पास गिरतीं। यह हंसने के लिए बेहतर मसाला था।

आखिरकार, बनवारी को क्रिकेट से घृणा हो गई। धीरे-धीरे उसे बहुत सी चीजों से घृणा हो गई, जो दिन ब दिन गहराती ही गई। सबके सामने खुलकर बोलने से,क्योंकि बनवारी ऐसे मौकों पर बोलने से अटकने लगता था। क्रिकेट से, रसायन विज्ञान से, अलजेबरा और ज्योमेट्री से, लडकियों से (क्योंकि लड़कियो ने उसे कभी गौर से देखना तक गवारा न किया)  और अंग्रेजी से..।

और आज उस बॉस ने उसी घृणास्पद अंग्रेजी में बनवारी को डांटा था।

बनवारी को याद आया, बॉस की टेबल पर एक पेड़ रखा था। आम का, गमले में...बोंसाई। आम के पेड़ को बोंसाई बनाकर रख देना बनवारी को कुछ अच्छा नहीं लगा। उसे लगा कि आम का वह बौना पेड़ वही है...न फल देने वाला न असली आकार का। बस नाम का ही पेड़।

...जारी

Tuesday, January 17, 2012

मेरी पहली कहानीः बोंसाई

वह बेहद खिसियाआ हुआ सा बैठा था। जिंदगी ने उसे कुछ नहीं दिया था। स्साली ये भी कोई जिंदगी है। आज बॉस ने हड़का दिया था उसे...। कुछ इस तरह कि भरी मीटिंग में बेहद अपमान-सा महसूस हुआ। 


यो उसे कभी अपमान महसूस होता नहीं, किसी भी तरह से ...कभी भी। स्कूल में भी कभी मास्साब ने कान उमेठा ( जो कि प्रायः उमेठा जाता था) तो भी उसे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। 


वह चाहता है कि दुनिया में से कुछ चीजें हमेशा के लिए डिलीट हो जाएं। कुछ चीजों का अनडू भी करना चाहता है, लेकिन जनाब यह कोई कंप्यूटर का सॉफ्टवेयर तो है नहीं...जिंदगी है जिंदगी। 


जिंदगी भी स्साली अजीब शै है।


जियो तो गलीज, मरने की सोचो तो और भी गलीज। गोली से मरो तो तस्वीरों में पैंट उतरी हुई दिखती है, रेल से कट मरो तो ...ओह..उसे कुछ बेहद दर्दनाक सी तस्वीरों की याद हो आई। 


वह इतना भी बहादुर या कायर नहीं कि मर सके। घरवालों ने भी कभी उसे लायक नहीं समझा। जिंदगी को जीना या झेलना जो भी मुनासिब शब्द हो...आज ही कहीं पढा़ उसने, जिंदगी अजीब शै है। सच लिखा है।


अगर जिंदगी से कुछ डिलीट करना मुमकिन हो, तो वह पहले अपना नाम ही डिलीट करेगा। यह भी कोई नाम है..भला..? बनवारी लाल...मां-बाप
ने जरा भी नहीं सोचा कि तमाम आधुनिक नामों के बीच ये बनवारी लाल कैसे जिएगा...हुंह। नाम बदलने की कोशिशें..लेकिन नाकाम। 


तो सबसे पहले अपना नाम बदलूंगा। दफ्तर के सामने पार्क की बेंच पर बैठे हुए उसने सोचा। ...और इस कद का क्या करुं...5 फुट 2 इंच। दसवीं के बाद उसके दोस्त तकरीबन 6 फुटे हो गए...एक दो जो कम थे वो भी भारतीय मानकों पर खरे उतरे..और वो, जिसने हमेशा अमिताभ जितना लंबा होने की हसरत पाली थी. वह पांच फुट दो इंट पर अटक कर रह गया।


पार्क की करीने से कुतरी गई घास को अंगूठे से उखाड़ते हुए बनवारी लाल ने सोचा, इस बॉस को तो मैं गोली मार दूंगा। बिलकुल करीब से। मन में समस्या थी कि इसे पकडूं कहां। दफ्तर के सामने नीली वर्दी में 4 स्टार वाले गार्ड होते हैं। पकड़ा गया तो वहीं कूटकर कीमा कर देंगे। ...और समस्या तो रिवॉल्वर पाने की भी है।...वो कहां से मिलेंगे।

मारने से याद आया, बॉडीगार्ड में किस तरह सलमान खान आदित्य पंचोली को उछाल-उछाल कर मारता है, ठीक वैसे ही टांग दूंगा खूंटी पर बॉस को। बनवारी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। लेकिन जैसे ही उसे अपना शरीर याद आया, मुस्कुराहट काफूर हो गई। 


पसलियां तक दिखती हैं उसकी। नितम्बों पर मांस नहीं, इसलिए जींस नहीं पहनता। पुराने कपड़े। जिनकी रंगत तक उतर गई है। कूरिअर पहुंचाते-पहुंचाते चप्पलें घिस गईं है। दिल्ली जैसे शहर में क्या करना 8 हजार का। संगम विहार में रहता हूं, किसी तरह खा-पका कर बाकी के पैसे घर भेजने पड़ते हैं। 


बनवारी ने अपना चेहरा याद किया, उसे अपने बाप का चेहरा भी दिखा उसमें। आईने के सामने खड़ा हो तो खुद को गुस्सा आता है। आईना देखो तो हमेशा फिजिक्स के मास्टर साहब पुनू पंडित की याद आती है। अमरीश पुरी जैसी भारी आवाज वाले पुनू पंडित गणित भी पढ़ाते थे।


अंकगणित तो बनवारी ठीक-ठाक कर लेता था, लेकिन पिछली बेंट पर बैठने वाले के लिए बीजगणित और ज्यामिति दोनों ही दुश्मन सरीखे थे। संस्कृत में शब्दरुप धातु रुप उसे कष्ट देते और इतिहास में राजाओं के खानदानों के नाम याद रखना भारी था। पुनू पंडित ने भरी क्लास में कह दिया था, अगर बनवारी मैट्रिक में सैकिंड डिवीजन भी पास कर गया तो वह टीचरी छोड़ देगे।


...जारी

Saturday, September 17, 2011

क़िस्सा कहानी-दाल बिरयानी उर्फ धर्मात्मा सेठ जी

एक थे सेठ जी। जैसा कि आमतौर पर कहानियों में होता है, सेठ जी बड़े दयालु थे और प्रायः पुण्य इत्यादि करने के वास्ते हरिद्वार वगैरह जाते रहते थे। एक बार वह गंगासागर की यात्रा पर गए। कहते हैं, सब धाम बार-बार, गंगासागर एक बार। 
ये भी मान्यता है कि गंगासागर जैसी पवित्र जगह में अपनी एक बुरी आदत छोड़कर ही आना चाहिए। इस बाबत सेठ जी अपने दोस्त से बातें कर ही रहे थे, और उसे बता रहे थे कि इस बार वह अपने बात-बात में गुस्सा हो जाने की आदत को गंगासागर में ही छोड़ आए हैँ।

सेठ जी का दोस्त बड़ा खुश हुआ, हमेशा की तरह सेठानी भी मन ही मन नाच उठी कि अब तो सेठ जी उसे हर बात पर नहीं डांटेंगे। जैसा कि आमतौर पर होता है, सेठ जी लोगों का एक नौकर होता है और आमतौर पर उसका नाम रामू ही होता है। इन सेठ जी के भी नौकर का नाम भी रामू ही था।

तो, उसी मुंहलगे रामू से सेठ जी ने पीने के लिए पानी मंगवाया। रामू ने सेठ जी के लिए पानी का गिलास रखते हुए सेठजी और उनके दोस्त के बीच में टांग अडाई और पूछा, "सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ?" सेठ जी जवाब दिया- गुस्सा छोड़ आया हूं। रामू पानी रखकर चला गया।
फिर छोड़ी देर बाद जब वह ग्लास उठाने आया तो उसने फिर पूछा, "सेठ जी, आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ?" सेठजी ने मुस्कुराते हुए कहा, "गुस्सा छोड़ कर आया हूं।"

कुछ देर और बीता रामू फिर सवाल लेकर आ गया- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? सेठ जी थोड़े झल्लाए तो सही लेकिन उन्होंने अपने-आपको जब्त करते हुए कहा कि मैं गंगासागर में गुस्सा छोड़कर आया हूं।

फिर रात के खाने का वक्त आया। रामू फिर खुद को रोक न पाया, पूछ ही बैठा- सेठ जी आप गंगासागर में क्या छोड़कर आए ? अब तो सेठ जी का पारा गरम हो गया। जूता उठा कर दौड़े और नौकर को पटक दिया। लातों से उसे दचकते हुए उन्होंने कहा, हरामखोर। तब से कहे जा रहा हूं कि गुस्सा छोड़कर आया हूं तो सुनता नहीं? हर जूते के साथ सेठ जी कहते सुन बे रमुए, गुस्सा छोड़ कर आया हूं, गुस्सा। गुस्सा। गुस्सा।

इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है? 
पता नहीं आपको क्या शिक्षा मिली, मुझे तो ये मिली कि नंबर 1- किसी सेठ के यहां नौकरी मत करो।
२- नौकरी करनी ही पड़ जाए तो सेठ के दोस्तों के साथ बातचीत के दौरान मत उलझो, वह नौबत भी आ जाए तो सवाल मत पूछो और नियम पालन करो कि सेठ एज़ आलवेज़ राइट
३- कभी किसी सेठ की बात का भरोसा मत करो, चाहे वह गंगासागर से ही क्यों न आया हो।

Sunday, March 6, 2011

....मुहबब्त एगो चीज है-चौथी किस्त

"दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे,
डर है कहीं तक़दीर तमाशा न बना दे।"

हम नंबरों को अपने फोन में सुरक्षित कर लेते हैं...आदमी नंबरों में तब्दील हो गए...कहानियां टेक्स्ट मेसेजेज में। किसी का टेलिफोन नंबर पूछे तो पहले की तरह आप फटाक-देनी से बता नहीं पाएँगे। पहले नंबर आदमी पर हावी नहीं थे..पहले कितना अच्छा था

सुबह तक दारु का नशा बिलकुल उतर चुका था...दारु पीकर आदमी दार्शनिक हो जाता है। मेरी डायरी में दारुबाजी के बाद ऐसे ही दर्शन और तमाम किस्म के ब्रह्मज्ञान चस्पां हो जाते हैं।

बेग़म अख़्तर तकदीर के तमाशा न बनने और दीवाना बनना मंजूर करने के बाद डीवीडी में तब्दील होकर रह गईं थीं। एक बार फिर मैं और मेरी तन्हाई...।

एक बार फिर फोन देखा, पहुंचेली का मिस्ड कॉल..और एक मेसेज था। सुबह सात बजकर तैंतीस मिनट का कॉल..और मेसेज था--जाग जाओ तो कॉल बैक करो..।

बातचीत बेहद संक्षिप्त थी...पहुंचेली ने बुलाया था एक मॉल में। मैं मॉल में उसे खोजता रहा..हर सुंदर आंखों वाली लड़की मुझे पहुंचेली ही लगी। फोन आया--'कहां हो.?'
.मैंने कहा- 'बस आपको ही खोज रहा हूं..'
'सीसीडी आ जाओ..तुम्हारे इंतजार में पांच कप कॉफी गटक चुकी हूं..'.मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गई। जीवन में पहली बार कोई लड़की, मेरे सपनों को शहज़ादी मेरा इंतजार कर रही थी ....सीसीडी में एक कुरसी को धन्य बनाती हुई पहुंचेली बैठेली थी..और हमेशा की तरह ऑरेंज सूट में सजेली थी..

पहुंचेली का आंखों का सुरुर हमेशा की तरह अपने शबाब पर था..।
 'सुनो..'उसने कटाक्षपूरित नयनों के बाण चलाए...'जी '---मैंने अपना सारा ध्यान उसकी बातों की तरफ लगा दिया। --'तुमने कल कहा था...कि तुम्हे एक सीढी लगानी है मेरे कंधों पर.." मैंने कहा।
'मैंने कल तुमसे बात की थी..?" -- वो हैरत में पड़ गई। हैरत में ही उसने कॉफी के कुछ सिप लिए। विस्फारित हो गई आंखों से उसने आगे कहा कि दरअसल वह यही बात करने मुझे सीसीडी तक खींच लाई है..और उसे बहुत हैरत हो रही है कि मैंने उसके कहने से पहले ही सारी बातें कह दी हैं।

वैसे...मुझे मॉडलिंग करनी है..मुझे पता चला है कि तुम्हारी पहचान कुछ डिजाइनर्स के साथ है। रैम्प पर मेरी पूछ बहुत कम होती जा रही है...कामयाबी के लिए जो सीढियां चढ़नी होती हैं उन्हें कंधों पर रखना होता है जानू...माइ बेस्ट फ्रेंड। ...और मैंने सोचा सिर्फ तुम मेरी मदद कर सकते हो।

मैं ही क्यों तुम्हारे तो सिर्फ फेसबुक पर ही 5 हजार से ज्यादा दोस्त हैं, न जाने कितने ऑरकुट पर होंगे..कितने हाईफाइव पर न जाने कितने कहां कहां होंगे...कंधों के लिए मुझे ही क्यों चुन  रही हो तुम?....


Thursday, February 24, 2011

अथ 'पहुंचेली' कथा उर्फ....मुहब्बत एगो चीज है-तीसरा हिस्सा

...अचानक आंखें खुली तो सूरज बाहर कहीं बहुत ऊपर उठ आया है इसका अहसास हो रहा था। रात का नशा सिर पर ऐसे चढा हुआ था मानो किसी ने चक्की रख दी हो ...।

रात को जो भी हुआ था, अक्षर-अक्षर याद है।

देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ,
हर वक्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ।।

साफ-सुथरा होकर चाय बनाने में लगा हूं..। इवनिंग शिफ्ट है। वापसी रात ग्यारह बजे के बाद ही होगी, यानी संध्यावंदन के लिए इंतजाम दफ्तर में ही करना होगा, अगर किसी खास कवरेज में न उलझना पड़े।

तभी देखता हूं मोबाईल फोन की घंटी बज रही है। कोई अनजान सा नंबर है..एक ऐसा नंबर जिस पर आज से पहले कभी बात नही हुई।

"हलो"...
उधर से एक मीठी सी आवाज...मैं चौंकता हूं। आवाज पहचानी तो कत्तई नहीं है। इधर फोन पर बात कर रहा हूं..चाय उबलकर गिरने को तैयार है..दरवाजे पर घंटी बजती है।
मैं पूछता हूं--"कौन..?"(कूड़े वाला है।)
उत्तर मिलता है- "पहुंचेली।" पहुंचेली कहने के बाद एक खनकती हुई हंसी ...जनाब आवाज इतनी मीठी..खनक ऐसी की चांदी के सिक्कों में भी न हो।

वॉयस ओवर के लिए परफैक्ट..लोन बांटने के लिए परफैक्ट..एक ही कॉल पर लोग लोन लेने और फिर लौटाने को तैयार हो जाएँ।

"अरे पहुंचेली जी नाम क्या है आपका..?"
"कहा तो पहुंचेली..."फिर हंसी।
"अरे वास्तविकता तो बताइए..!"
"वास्तविकता पहुंचेली है –आप पता लगाएँगे तो कोई मेरा नाम तारा झावेरी बताएगा कोई महामाया सेनगुप्ता...." फिर एक खनकदार हंसी।

मुझे ऐसे में बहुत गुस्सा आता है, या तो हंस लो या बातें कर लो।

"सुनो...तुम मुझे कितना चाहते हो?"---- वह फोन से निकल कर सीधे सामने आ खड़ी हुई। काजल से पुती बड़ी-बड़ी गहरी आंखों में मैं कूद गया। मुझे तैरना नहीं आता..आंखों में तो बिलकुल नहीं। तैरना न सही..भींग गया बुरी तरह। "सुनो ना...
.....
"तुम मुझे कितना पसंद करते हो।"
"बहुत.."
"बहुत कितना.."
"बहुत ज्यादा.."
"तो सुनो...मेरा एक काम करोगे..?"
"क्या..."
"मुझे ऊपर चढ़ना है..तुम्हारे कंधे पर सीढी रखनी है। प्लीज अपने कंधे पर सीढी लगा लो, जब मैं ऊपर से वापस लौटूंगी तो तुम्हारे छिले कंधों के लिए मरहम लेती आऊंगी...पक्का। प्रॉमिस..."

इतना कह कर वह फिर फोन में घुस कर एक नंबर बन गई...मुझसे कोई जवाब देते नहीं बन रहा था। आखिर महामाया सेनगुप्ता उर्फ तारा झावेरी उर्फ पहुंचेली चाहती क्या है...

"तुम्हारे पास सोचने का बहुत वक्त है..शाम में फिर फोन करुंगी...बाय ..".फिर खनकती हंसी।

मैं नंबर सेव करने में लग गया। हम नंबरों को नाम देकर पता नहीं क्यों निंश्चित हो जाते हैं।

Wednesday, February 9, 2011

अथ 'पहुंचेली' कथा-दूसरी किस्त

....हाथ की सिगरेट राख हो गई। 'पहुंचेली' पता नहीं किधर निकल ली। मैंने धीरे से बाहर झांका। मन का अंधेरा खिड़की बाहर दिखने लगा था। मच्छरों की वजह से शाम संगीतमय लगने लगी थी।

लाई हयात आये कज़ा ले चली चले...अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले...पड़ोस के घर में बेग़म अख्तर की आवाज़ दिल के ग़म को गहराई देने लगे। मैं उस आदमी को कोसने लग गया, एक तो 'पहुंचेली' के अचानक ग़ायब हो जाना, उस पर से बेग़म अख़्तर...।

सामने एक पैग बनाकर मैने रख ली। ग़म का सारे  इंतज़ाम मुकम्मल हो गए।

न जाने क्यों मन फिर 'पहुंचेली' की ओर खिंच गया। मेरी फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट का जवाब देने से पहले ही 'पहुंचेली' पेज में तब्दील हो गई। उसके दोस्त पांच हजार से ज्यादा हो गए। अब मैं उसका फॉलोअर हो सकता था, दोस्त और प्रेमी नहीं...तमाम किस्म के भावुकता भरे मेसेज भेजने के बाद भी 'पहुंचेली' पहुंच से बाहर ही रही।

इस कन्या के बारे में कई मित्रों ने कहा भी कि बहुत पहुंचेली लड़की  है...लेने के देने पड़ जाएंगे। लेकिन दिल का क्या है मानता ही नहीं। एक दोस्त ने फेसबुक पर ही स्टेटस अपडेट किया था, चाहना न चाहना किसके बस की बात है, दिल का आ जाना किसी पे किस्मतों की बात है...

मैं फटीचर प्रेमी की तरह फिर से 'पहुंचेली' के प्रोफाइल की गलियों में भटक रहा हूं। उसके कई सारे फोटो डाउनलोड कर लिए...टाइट क्लोज अप  और एक्स्ट्रीम क्लोज अप को और भी टाइट बनाने के वास्ते सिर्फ आंखों वाले हिस्से क्रॉप कर लिए...मैं दीवाना हूं, मैं पागल हूं..तमाम किस्म की बॉलिवुडीय भावुकता मेरे सर पर भन्ना रही है। दारु का नशा काम कर रहा है।

मैंने आंखें उठाई। पहुंचेली फिर सामने थी। पलंग पर अधलेटी।

"कहां चली गई थी तुम.."?
ऑरेंज सूट में सज रही पहुंचेली, होठों पर सज रही लिपस्टिक में जानमारु लग रही थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी चुप्पी भी जानमारु है।

वह मुस्कुरा रही है, वह अंगडाईयां ले रही है, वह कटाक्षपूरित आंखों से देख रही है...पर बोल नहीं रही है।  उसका लेटेस्ट मॉडल का फोन, एक नहीं दो-दो, लगातार उसके इनबॉक्स में मेसेज भर रहे हैं। फोन हर तीसरे सेंकेड वाइव्रेट कर जाता है....साइलेंट पर हैं दोनों, फोन भी, फोन की मालकिन भी, पर हमेशा कार्यशील...किसी ना किसी का फोन या मेसेज आ रहा है।

"पहुंचेली तुम इतनी मशहूर क्यों हो, मुझे जलन हो रही है। तुम्हारा वक्त मेरे लिए क्यों नहीं है...??"
"क्या बात कर रहे हो..तुम्ही मेरे मंदिर हो, तुम्ही देवता हो..." पहुंचेली गा रही है या गुनगुना रही है..मुझे पता नहीं चलता। मैं तंन्द्रा में हूं...उसने सिर्फ कोई गीत गाया है या उसका जवाब है।

मैं फ्रस्ट्रेट हो रहा हूं। मैं अब सोचने भी हिंग्लिश में रहा हूं...परसों एक वीओ-वीटी लिखते टाइम 'पलायन' वर्ड लिख दिया था। मेरे कॉपी एडिटर ने ऐसे देखा जैसे मैं टीवी इँडस्ट्री का सबसे चूतियाटिक रिपोर्टर हूं। ....स्साला...भैन....बहरहाल, फ्रेस्टेट के लिए क्या वर्ड हैं, हताश..?? शायद ...अगर हां तो मैं हताश हो रहा हूं।

'पहुंचेली' तिरछी आंखों से मेरी तरफ देखती है। कैमरा मेरे ओवर द सोल्डर से ट्रैक होता हुआ 'पहुंचेली' की आंखों पर एक्सट्रीम क्लोज अप तक ज़ूम होता है। लेकिन मैं इन आंखों के भाव नहीं पढ़ पा रहा। आँखों में भाव तो हैं लेकिन कौन से...मेरा गला सूख रहा है।

गला सूखने का यह क्रम एक महीने से जारी है। एक महीने पहले भी ऐसे ही चार पैग के बाद मेरा गला सूखा था, आज भी पैगों की संख्या और गले सूखने की प्रक्रिया एक-सी है।

कोई आवाज़ आई, मैं चौंका। "सुनो..सुनो ना.."पहुंचेली अनुनय भरे आवाज में बोल रही थी। मुझे सहसा भरोसा नहीं हुआ। मुझसे बोल रही थी..मुझसे। मिल गया आज का फेसबुक अपडेट..।

हां जी कहिए...मैं ने कहा। 'पहुंचेली' अचानक इनसैट में चली गई तस्वीर हो गई। उसका नाम केस सेंसिटिव हो गया, क्लिक करते ही कई लिंक खुलते हैं, एक तो उसकी प्रोफाइल ही..पहुंचेली के बारे में बताने वाले। फिलहाल, छोटी सी तस्वीर के सामने हरी बत्ती जल गई।

पहुंचेली ऑन लाइन आ गई थी, और अनुनय कर रही थी---"सुनो ना।"

पहुंचेली मेरी दोस्त नहीं, फिर ऑनलाइन कैसे दिख गई मुझे...मैंने आंखें मलने की कोशिश की...पहुंचेली दो-तीन बार ऑनलाइन ऑफलाईन दिखी, मैंने जवाब दिया --कहिए । एक बार, दो बार, तीन बार...सात बार..दस बार।

बस्स। अब नहीं। मेरे इस मारु प्रेम का अंत हो ना चाहिए, फौरन से पेश्तर..अदालती भाषा में कहें तो विद इमीडिएट इफैक्ट..मेरा लीगल कॉरेस्पॉन्डेंट यही भाषा बकता है।

करीब 20 मिनट बाद फिर पॉप अप विंडो में मेसेज दिखा, तुम्हारा फोन नंबर बताओ...।

या तो मैं नशे में हूं..या मर गया हूं। जिंदा होता तो इतनी खुशी बर्दाश्त कर पाता क्या..।

Sunday, February 6, 2011

अथ 'पहुंचेली' कथा उर्फ़ मुहब्बत एगो चीज है

मैं अपने लैपटॉप के ठीक अपने लैप पर लेकर बैठा हूं। फेसबुक खुला पड़ा है...देख रहा हूं कितने लोगों ने दोस्ती के लिए अनुरोध भेजा है..कितने लोगों ने मेरे स्टेटस पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से कमेंट किया है।....बाहर बारिश होने के बाद का दर्दनाक ठंड अपने सारे हथियार खोले बैठा है। रविवार है, दफ्तर भी नहीं जाना।

....खाना बनाने वाली आएगी नहीं। खुद ही खाना बनाना है। मुंह हाथ धोकर सीधे लैपटॉप और इंटरनेट से जुड़ गया। जल्दी जल्दी में मैगी बना कर सुड़क लिया, बाहर निकल के दूध की थैलियां ले आया था। लीटर भर चाय बनाकर थरमस में भर लिया। चलता रहेगा। कमरे में सिगरेट का धुआं घुमड़ रहा था...

मैं बार-बार फेसबुक मैं एक ही प्रोफाइल खोल रहा हूं...एक ही चेहरा बार-बार आंखों के सामने घूम रहा है...मेरी दोस्त भी नही है वो...दोस्त की दोस्त..लेकिन उसे रिक्वेस्ट भेजने की हिमाकत और हिम्मत नहीं कर पाया हूं..।

उसकी गहरी-गहरी आंखें...काजल ने उसे और भी गहरा बना दिया है...चारों तरफ रेगिस्तान है...रेत के बीच नखलिस्तान-सी।

अचानक बिस्तर पर रखे लैपटॉप  की स्क्रीन से निकल कर सामने आ गई।

कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा? कितना हसीन सपना है...तरह-तरह से खिंची तस्वीरें अब महज तस्वीरें रहीं नहीं।

मेरे सपनों की लड़की सजीव होकर मेरे सामने बिस्तर पर अधलेटी-सी है। ऑप्टिकल फाइबर प्रकाश के साथ-साथ क्या लड़की को भी ला सकता है..कंप्यूटर स्कीरन तक खींचकर..? कुछ-कुछ वैसा ही कि सत्यनारायण की कथाओ में आपने आवाहन किया देवताओं का, इंद्रादि दस दिग्पालों का, नवग्रहों का, और आपके आवाहन पर वह आ भी विराजें।


बिस्तर पर अधलेटी वह कुछ बोल नही रही, मैं भी नहीं बोल रहा। मैं तो अवाक् हूं..और वह? एक निर्वात की-सी स्थिति है। मैं उसकी आंखों से आगे बढ़ ही नहीं पा रहा..।

यार ये आंखों को इतना खूबसूरत भी नहीं होना चाहिए--मैंने सोचा। 'आदमी आंखो जैसी अनप्रोडक्टिव चीजों में फंसा रह जाता है'


वरना जिसने भी कहा था कि नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है, सही ही कहा है। वह पूरे पैकेज में कमाल की थी, सांवली-सी, आंखो में गहरा काजल...लंबे घने बाल...लहरदार..। चौड़ा माथा..और एक उतनी ही चौड़ी मुस्कान। शरीर में जहां मांस होना चाहिए, वहां था...गैर-ज़रुरी जगहों पर बिलकुल ही नहीं। परफेक्ट फीगर...लंबाई 5 फुट 3 इंच..वाह गुरुदेव भारतीय नारियों की आदर्श लंबाई..।

आखिर मैंने कहा, संवादहीनता से क्या मतलब..?



"क्या नाम है तुम्हारा?"
"क्यों रोज़ तो प्रोफाइल चेक करते हो, बिना कमेंट किए भाग जाते हो...नाम नहीं पता..? "
"नाम पर ध्यान ही नहीं गया..."
"ध्यान कहां रहता है तुम्हारा..."
"कहीं भी, नाम तो बताओ..."
"लोग कहते हैं पहुंचेली..."
"पहुंचेली??"
"हां.."
"ये कैसा नाम है..???"
"नाम वही जिससे लोग आपको जानते हैं ..वरना नाम किस काम का..?"
"फिर भी नाम तो होगा कोई, नताशा, अनामिका कमला, विमला. परोमा...रुखसार..कुछ तो होगा.."
"कहा ना पहुंचेली नाम है.."
"कहां से आई हो"
"कुरु-कुरु स्वाहा से"
"वहां कौन हैं तुम्हारा"
"कोई नहीं है और सब हैं"
"कोई कौन नहीं है.."..और सब कौन हैं..?"
"मनोहर हैं, जोशी जी हैं.."

अच्छा..मेरा मन बुझने लगा । ये सपना ही है। ये अतीत से आई है। मेरे लायक नहीं...



जारी....

Friday, October 8, 2010

खुले बालों वाली लड़की- चौथी किस्त

तीसरे अंक से आगे....

अभिजीत ने खुद को बंटा हुआ पाया।

अनामिका का हताश होता जा रहा प्रेमी...अपनी पत्नी का पति...या फिर अपने बेटे का बाप...जिसे कोई गैर-जिम्मेदार कहता है कोई अभागा...।


अभिजीत को सिर भारी लगने लगा। लगा, किसी ने माथे पर चक्की रख दी हो। पेट में पहले से ही दर्द था..डॉक्टर ने क्या कहा वह सिर्फ प्रशांत को पता है। जहां तक अभिजीत को बताई गई थी, वह जान गया था कि अब उसकी जिंदगी में दर्द हमेशा हमसफर बनकर रहेगा।

डॉक्टर ने  यही बात कही थी..दर्द हमेशा रहेगा।


लेकिन नासपीटे डॉक्टर को क्या मालूम कि यही चीज तो अभिजीत के साथ हमेशा रही है। कभी दिल में, कभी पेट में, और कभी दिमाग में..दर्द ।

अभिजीत ने जितना दर्द सहा, उतना ही बांटा भी शायद। यही बात  अनामिका कहती थी। अना को नही मालूम की अभिजीत दर्द के उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां से वापस लौटना नामुमकिन है। कौन बताएगा उसे... ?

अभिजीत को लगा सूरज का सारा भार उसी के सर पर है।

सूरज सिर पर चढ़ता जा रहा था..। उन्ही दोपहरों में लंच साथ खाए जा रहे थे..बातों का सिलसिला लंबा खिंचने लगा था, कॉफी और चाय साथ पी जा रही थीं..और मोबाइल फोन के इनबॉक्स सिर्फ अनामिका के मेसेज से भरे पड़े होते थे।

छोटी-छोटी बातों के संदेश। आज ये खाया, ये पहना ..यहां गई, उससे मिली। बातों का अनंत सिलसिला...रिपोर्ट फाइल करने के बाद भी अनामिका की एक झलक पाने को वह दफ्तर में जमा रहता।

जब भी अभिजीत अनामिका के सामने रहता...वह अचानक अपनी घनेरी जुल्फें खोल लेती। अना की जुल्फों के आगे काहे का सावन..और काहे के आषाढ़ के मेघ।

बाहर बादल फिर बरसने लगे थे।

अबकी बार  दिल्ली में आषाढ क्या, सावन क्या और क्या भादों, जमकर बरसात हुई है।

वह भी बरसात का ही मौसम था...न्यूज़ रुम में अना के खुले बाल... बाहर शची इंद्राणी के।  हरे पेड़ो की पृष्ठभूमि में गिरती बौछारें कभी भी ऐसी भली नहीं लगी थीं उसे। अभिजीत कभी बरसात के इस रोमानी अंदाज को पहचान ही नही पाया था। बचपन में बरसात का मतलब था, गिलास-कटोरी जो भी मिले लेकर दौड़ जाना और उस जगह पर लगा देना, जहां से खपरैल टपकती थी।

घनेरी जुल्फें खुलतीं तो अंधेरा छा जाता। लेकिन उस अंधेरे में अभिजीत की ज़बान बंद हो जाती। वह कई दिनों तक पेशोपेश में पड़ा रहा।

पहले खबरों के  मेसेज, फिर चुटकुले..फिर आपसदारी की बातें..हॉबीज़। मोबाईल हरदम हाथ में. पता नही कब मेसेज आ जाए। फिर बातों का सिलसिला...।

बातों का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। दफ्तर के पीछे लॉन में अभिजीत दिन में कई बार जाकर सिगरेट फूंक आता, और बोगनवेलिया के गाढ़े हरे रंग के पत्तों पर उसका नाम नाखूनों से लिख आता। घनेरी जुल्फों को मादक बना देती थीं, उसकी गहरी आंखें। सांवली-सी सूरत...अभिजीत ठगा-सा रह जाता था।

ठगा-सा एक बार फिर रह गया अभिजीत जब सूरज सिर के ऊपर से निकल कर उसकी छाती  की ओर चढ़ गया और प्रशांत ने धमक कर कहा, 'चलो।'

'किधर....?'

'हम पहाड़ों की तरफ चल रहे हैं...शायद अल्मोड़ा, या नैनीताल ...कहीं भी।'

'काहे भाई..।'

'हरिद्वार नजदीक पड़ेगा साले।' प्रशांत ने चिढ़कर कहा।

'हां हरिद्वार नजदीक पडेगा, लेकिन बरसात का मौसम है, मर गया तो लकडियां भी गीली मिलेंगी। धुआं-धुआं कर जलूंगा।'

वैसे ही स्साले कौन सा उपकार कर रहे हो जीकर..प्रशांत ने फिर से कहा। ...'तुम्हारे तलाकनामे के पूरे काग़ज़ात आ गए हैं। टेबल पर रख दिए हैं। ....चूतिए.... पैदा हुए थे तो क्या कपार पर कुत्ते से मुतवा कर आए थे..' यह चिढ नही थी, बरसों पुराना दोस्ती का प्यार था।

Friday, September 24, 2010

खुले बालों वाली लड़की- तीसरी किस्त

दूसरे अंक से आगे...

आमतौर पर बदतमीज माने जाने वाले अभिजीत से इस तरह लजाने की उम्मीद कोई भी नही करता था। 
...
वह सावधानी से उधर उधर ताक रहा था, कि कोई उसे अनामिका से बातें करते ना देख ले। ...आखिर बदतमीजों का भी अपना ईमान होता है, एक छवि होती है। अपनी छवि से बाहर आए नही कि बस लोग ताड़ लेंगे और आपसे डरना बंद कर देंगे।

लेकिन अभिजीत किसी से नही डरता था...मौत से भी नही।  लेकिन यह कहने की बातें थीं...अब जब मौत दरवाजे पर खड़ी-सी है, उसे डर-सा लगने लगा है।

कई सारे बचे हुए काम याद आने लगे हैं...।

इस दुविधा का कोई इलाज है..। अभिजीत दफ्तर से छुट्टी पर चल रहा है। अपने लाइलाज रोग के बारे में न तो बात करना चाहता है और न ही जिंदगी से ऐसा कोई खास लगाव है..। लेकिन पिछले दस बारह दिनों से उसके सामने अपने बेटे का चेहरा घूम जाता है। अपने तमाम करिअर मे, और कॉलेज के दिनों में- जब से प्रशांत उसे जानता है- अभिजीत हमेशा हंसने-हंसाने छींटाकशी करने, मजाक उड़ाने की विचारधारा का प्रतिबद्ध सिपाही रहा है...लेकिन पिछले कुछ दिन अभिजीत को बदल रहे हैं।

सिंतबर महीने के आखिरी दिनों में- जब भादों की तेज धूप होनी चाहिए थी, दिल्ली में काले बादल छाए हैं। हुमक-हुमक कर बारिश हो रही है।

 अय़ोध्या में मंदिर, यमुना में कथित बाढ और ऐसी ही तमाम खबरों के बीच  कोई शाकालनुमा बाबा टीवी पर नमूदार हो जाते हैं..। अभिजीत संजीदगी की सीमाओं को पार कर जा रहा है।

80 हजार करोड़ से ज्यादा को घोटाला, खेल आयोजन समिति के मुखिया पर गबन का आरोप है, गबन का शक है। अतीत में हमारे नेताओं ने आजादी पाने के लिए जो लड़ाई लड़ी, उसमें क्या ऐसे ही गबन के सपने थे..?

जस्ट फॉरगेट द पास्ट...।

आज के लोग परंपरा और मूल्यों से ऊपर उठ चुके हैं..उनके लिए कामयाबी हर हाल में हासिल की जाने वाली चीज है। लेकिन अनामिका ऐसी नहीं थी। जीवन मूल्यों में गहरी आस्था उसंकी गहरी आँखों में साफ दिखता था।

यह आस्था उसके सवालों में झलकने भी लगी थी। सीनियर पोजीशन पर पहुंच चुके अभिजीत के लिए अपने ही ऑरगेनाइजेशन में जूनियर के साथ चाय पीते देखा जाना शर्मिंदगी भरा था..। लेकिन अभिजीत को कोई इस पर टोक नही पाता था।

अनामिका और अभिजीत लंच साथ-साथ ही लेने लगे थे। उन्ही साथ के शुरुआती पलों में कभी अनामिका ने पूछा था, 'तुम पत्रकार बने ही क्यों...?'

जीवन की तमाम दुश्वारियों को झेलकर इस पोजीशिन तक पहुंचे..अभिजीत के लिए यह कहना बिलकुल आसान नही था कि दुनिया की तमाम नौकरियों के लिए किसी न किसी वोकेशनल कोर्स की जरुरत होती है, जिसमें पैसे लगते हैं, और पैसे उसे देगा कौन...

जिस दिन दिल्ली के लिए उसने ट्रेन पकड़ी थी, उसके बड़े भाई ने साफ कह दिया था। उस साफगोई में थोड़ी मुलायमियत भी थी, थोड़ी मासूमियत भी, थोड़ी चालाकी भी और थोडी बेचारगी भी। भाईसाहब ने टुकड़े-टुकड़ों में जो कहा था, उसका लब्बोलुआब यह था कि चूंकि उनका खुद का भी परिवार है और उनकी आमदनी बहुत कम है, ऐसे में दिल्ली जाने पर वह घर से किसी किस्म की मदद-खासकर आर्थिक मदद- की उम्मीद न रखे।

यूं भी बाबूजी की खेती अब कोई फायदे का सौदा रही नही। बाबूजी के हाथ-पैर चलते नहीं। खेत बटाई पर हैं..तो उधर की आमदनी से उदर चल जाए वही बहुत है। ऐसे में अच्छा यही है कि अभिजीत अपना सही इंतजाम कर
ले..........

अभिजीत ने सामने बालकनी में रखी कुरसी पर जमते हुए अखबार फैला दिए। तमाम तरह की आशंकाओं से भरा अखबार...किसी भी भाषा में पढो सबसे पहले आशंकाओं की खबरें।

कोई अच्छी खबरें क्यों नही छापता फ्रंट पेज पर..फ्लायर बना कर..एकदम आठ कॉलम में..??

कोई तो अच्छी खबर हो...कि अनामिका ने तमाम शिकवे-शिकायतें  नजरअंदाज करते हुए उसे माफ कर दिया है...कि अनामिका ने काली-घनेरी जुल्फों से उसके सिर को ढंक दिया है..कि उसकी तलाक लेने पर उतारु पत्नी घर लौटने को राजी है..कि उसकी चिर-शिकायती मुद्रा प्रसन्न है..या उसका बेटा उसकी गोद में है किलक रहा है।

अभिजीत ने खुद को बंटा हुआ पाया।

अनामिका का हताश होता जा रहा प्रेमी...अपनी पत्नी का पति...या फिर अपने बेटे का बाप...जिसे कोई गैर-जिम्मेदार कहता है कोई अभागा...।


जारी

Tuesday, September 21, 2010

खुले बालों वाली लड़की- दूसरी किस्त

पहले अंक से आगे...

कजरारे आंखो ने कहा, अनामिका मैं ही हूं।

उस वक्त अभिजीत के पास कहने के लिए कुछ खास था भी नही, ना दिमाग में, ना ही ज़बान पर। मन ही मन नाम दोहराता वह सीढियों की ओर निकल गया। लोहे की काली सीढियों पर जंग लग गया था। सीढियों पर बैठकर सिगरेट सुलगाने और काले बैकग्राउंड में सफेद धुआं छोड़ने का मजा ही कुछ और है।

जब से सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान की मनाही हुई है, यह काम अभिजीत को बार-बार करने का मन करता है।

अभिजीत को बचपन से ही हर ऐसे काम से रोका जाता रहा। बड़े भाई खानदान के पहले एमए पास थे। उन्हें पता था कि किसतरह की पढाई करने से दुनिया में चीजे मिलती हैं। बचपन से ही डॉक्टर बनने के ख्वाहिशमंद लड़के को गणित की ओर धकेला गया...अभिजीत को चित्रकारी का शौक था..बड़े भाई को लगता था कि पेंटिंग-वेंटिंग वक्त और करिअर दोनों की बरबादी है....।

अभिजीत की बरबादी वही से शुरु हुई थी...और आज मेट्रो, बसों और उनसे भी ज्यादा कारों की रेलमपेल से भरे शहर में एक मेसेज ने औपचारिक रुप से उसकी बरबादी का ऐलान कर दिया। हालांकि, यह सब कुछ बहुत दिनों से चल रहा था।

... जस्ट फॉरगेट  द पास्ट...

स्साला, जितना भी निकलना चाहो अतीत पीछा ही नही छोड़ता। उसे प्यास लग आई थी। ऐसी प्यास ...जिसे न दारु बुझा पाई..पानी-वानी से तो खैर ऐसी प्यासों का रिश्ता ही नही होता।

अभिजीत लड़खड़ाते कदमों से किचन तक गया..फ्रिज से बोतल निकाल कर गटक गया। उसे लगा कि एक बार बाथरुम भी हो ही आना चाहिए। उसने पेट में जलन को नजरअंदाज करते हुए भी सोचा, "स्साला, अल्कोहल चीज ही ऐसी है।"

यूरिनल में धार गिर रही था..और वह सोच रहा था....."अल्कोहल...वेसोप्रेसिन..एटीडाययूरेटिक....हाहाहा...नशे में हंसना कितना नशीला होता है...अतीत भी नशा ही है, शराबनोशी की तरह अतीत भी पीछा नही छोडता।

एक मेसेज से तमाम रिश्ते..तमाम वायदे...साथ गुजारे लम्हे..नही भुला सकते। मेसेजेज डिलीट किए जा सकते हैं...यादों को डिलीट करने का सॉफ्टवेयर है क्या किसी इंटेल-फिंटेल के पास..?."

अभिजीत ने दवाओं के  ढेर की तरफ देखा। वह हंसा। रात को तो दवा लेना भूल ही गया था। अना..होती तो भड़क जाती, होती क्या ...है ही...शादी की तैयारियों में व्यस्त होगी। शादी के नाम से ढेर सारी कड़वाहट उसकी ज़बान पर उतर आई..लगा किसी ने खाली पेट में ही नीट पिला दिया हो।

अना शादी क्यों न करे। अभि के जेह्न में सवाल उठा। लेकिन उसका दिमाग किसी भी सवाल का जवाब देने की स्थिति में था नही। उसका दिमाग शुरु से किसी के सामने खड़े होने की स्थिति मे नही था।

बड़े भाई और भाभी के सामने उसकी रुह कांपती थी। उसकी मां को अचारों के मर्तबान, लाल मिर्ची, दालों और चनों को धूप में रखने, शाम को वापस छत से उतार लाने, और व्रत उपवास अंजाम देने के सिवा दुनिया से कोई और मतलब नही था।

मेट्रिक और फिर बारहवी में वह कुछ ठीक-ठाक नंबरों से पास हो गया था। भाई साहब ने डिमांड रखी, आईआईटी की परीक्षा में बैठो। लेकिन परीक्षा में शामिल होना एक बात होती है, उसमें कामयाब होना दूसरी। अभिजीत को न कामयाबी मिलनी थी और ना ही मिली।

एआई ट्रिपल ई में फिसड्डी रैंक के बावजूद दोयम दर्जे के कॉलेज में इंजीनियरिंग में दाखिला मिल ही गया। यह दाखिला भी उसके लिए कोई यातना से कम न था..लेकिन घर के माहौल से, घुटन से मुक्ति थी। एक उजास-सा आ गया कॉलेज के हॉस्टल मेंआने से।

पूरब में उजास छा रहा था। अभि की नींद खुल गई। सिर दर्द से भारी हो  रहा था। प्रशांत आज तो नही आएगा। आज वह अकेला हो जाएगा फिर..से...

और अकेले में खाना बहुत बड़ी मुश्किल होती है। डॉक्टर की तमाम हिदायतों के बावजूद वह हर तरह का खाना खा लेता है क्योकि ढाबों के मेन्यू में सादा खाना बमुश्किल ही शामिल होता है।

तो अकेले में खाना बहुत मुश्किल होता था...

उसी कजरारे आंखों वाली लड़की ने उसके लिए टिफिन का बंदोबस्त किया। क्यों किया..ये तो उस वक्त बताना बजाहिर बहुत मुश्किल की बात थी।

मॉनसूनी बारिश के ऐसे ही दिन थे। वायरसों के हमले से सभी बीमार हो रहे थे। अभि भी।.......और इस बात की चुगली फेसबुक के अपडेट ने सबको कर दी थी।

अगले ही दिन कैंटीन की तरफ बढ़ते कदमों को मोबाईल की घंटी ने रोका, कोमल थी,  पूछा, "खाना खा लिया अभि?"

" नही"

"सुनो तुम्हारा खाना लेकर अनामिका आई है, उससे अपना टिफिन ले लो "

ऐसी दयादृष्टियों का आदी अभिजीत हॉस्टल के दिनों से ही था। लेकिन यहां उसे बहुत झिझक महसूस हो रहीथी। कमान की तरह खिंचे भौंहो वाली और झील जैसी गहरी आंखो वाली से वह बात की शुरुआत कैसे करे...कोई देखेगा तो सोचेगा क्या?

आमतौर पर बदतमीज माने जाने वाले अभिजीत से इस तरह लजाने की उम्मीद कोई भी नही करता था।

Monday, September 20, 2010

खुले बालों वाली लड़की- पहली किस्त


( बहुत दिनों तक नॉन फिक्शन लिखने के बाद एक दिन मेरे दिल में ख्याल आया कि फिक्शन लिखा जाए। मुझे इस मामले में हमेशा अपनी क्षमता पर संदेह रहा है। ऐसे में अपनी पहली कथा एक प्रेम-कथा के रुप में लिख  रहा हूं। मुझे इसकी गुणवत्ता और साहित्यकता पर भी संदेह हैं..लेकिन बस अपनी कहानी रचने की क्षमता का जांचने के लिए लिख रहा हूं। हां, ये  भी बता दूं लगे हाथ की इस कहानी में वर्णित सभी पात्र काल्पनिक हैं। घटनाएं सत्य हैं लेकिन उनका किसी भी जीवित और मृत व्यक्ति से सीधा संबंध नही है-गुस्ताख मंजीत)
खुले बालों वाली लड़की
  
भादों की रात...बाहर बादलों का साम्राज्य था। काले दिन भी गुजरे थे रातें भी काली ही थीं...बीच-बीच में झींगुरों का कोरस सुनाई दे रहा था। इन आवाजो से बेखबर अभिजीत अभी-अभी सोया था। सोया क्या था..नीद की झोंके आए थे।
इन झोंके से ऐन पहले प्रशांत के साथ अभिजीत ने एंटीक्विटी की एक बोतल खाली की थी। यह भूलते हुए कि डॉक्टर ने उसे दारु न पीने की उम्दा सलाह दी है। इस चेतावनी के साथ कि अगर उसे चार-पांच साल और जीना है तो सिगरेट और शराब से परहेज करना ही होगा।.
लेकिन पांच पैग के बाद प्रशांत पलंग के नीचे ही घुलट गया। उसे सुबह की शिफ्ट में दफ्तर जाना था। अभिजीत को बचपन से ही जल्दी नींद नही आती। आखिरी पैग के बाद भी उसके ज्ञानचक्षु खुले ही थे। कि बस वाइव्रेशन मोड में किनारे पड़ा मोबाइल घुरघुराया...अनामिका का संक्षिप्त मेसेज था...अभि, फॉरगेट द पास्ट...।
गोल्ड फ्लेक के धुएं के बीच अभिजीत ने दिमाग पर बहुत जोर डाला कि यह शब्द उसने कही और भी पढ़ा था। उसे से याद नही आया था। फिर एंटीक्विटी के चार लार्ज पेगों ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया था। नींद को झोंके आने लगे थे..अना....
अनामिका...। अनामिका...।
अनामिका उसकी जिदगी का सबसे मुलायम लम्हा थी। 
 सबसे मुलायम इसलिए गोकि अभिजीत की जिंदगी में मुलायम लम्हे कम ही आए थे। बेहद गरीबी में काटे दिन, पैसे-पैसे को मोहताज। कॉलेज के दिनों में ट्यूशन पढाकर अपनी पढाई पूरी करने वाले अभिजीत के लिए दिन मुलायम हो भी नही सकते थे।
पिता किसानी करते थे, और उन्ही दिनों ईश्वर के  पास चले गए, जब ऐसे घरो में फाकाकशी की नौबत आ जाने की पूरी आशंका होती है।
...जस्ट फॉरगेट द पास्ट..
अतीत को भूलना इतना आसान भी नही होता। अनामिका की आंखे इतनी मदभरी होंगी, उसने कभी सोचा भी नही थी। अभिजीत की एक दोस्त, कोमल ने बातो-बातों में कभी जिक्र किया था कि अनामिका नाम की उसकी एक दोस्त ने हाल ही में जॉइन किया है। अभिजीत के ही अखबार में, डेस्क पर।
न्यूज़ रुम में एक कोने में क्वॉर्क एक्सप्रैस पर पेज बनाने में मशगूल डेस्क के पत्रकारों के हुजूम में उसने अपनी रिपोर्ट का जिक्र किया, और ऐसे ही पूछ बैठा, ये अनामिका कौन है...?
अतीत के परते ऐसे ही खुलती जाती हैं प्याज की तरह। हर तह में आपको रुलाती हुई।
मेसेज भेजने से क्या होता है, जस्ट फॉरगेट द पास्ट?
झींगुरों की आवाज तेज हो गई थी और बाहर बारिश भी।

इस बार साली दिल्ली को बहा देंगे ये भैनचो..बादल। साली कॉमनवेल्थ खेलो का कचरा कर के ही मानेंगे। सितंबर के आखिरी दिन आ गए हैं..प्रशांत बुड़बुड़ा रहा था। उसकी देशभक्ति से भी ज्यादा ऑफिस पहुंचने में देरी से वह हलकान हो रहा था।

पिक-अप की कैब अभी तक आई नही थी।
 ...जैसे ही अभिजीत ने पूछा था ये अनामिका कौन है...एक बड़ी-बड़ी कजरारी आंखों ने उसका पीछा किया था। इस उत्तर के साथ,...देख लो मै ही हूं अनामिका।
जारी


Sunday, September 12, 2010

एक टोकरी भर मिट्टी- माधव राव सप्रे

मध्य बारत में पत्रकारिता के जनक पं माधवराव सप्रे का जन्म दमोह में जून 1871 में हुआ था। सन 1900 में समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिग प्रेस नही था, तब उन्होने विलासपुर के छोटे से गांव पेड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र नाम का मासिक पत्र प्रकाशित किया था। इसी से मध्य भारतआ में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत होती है। उनकी कहानी एक टोकरी मिट्टी, को हिंदी की पहली कहानियों में से एक माना जाता है। पाठको के लिए पेश है एक टोकरी मिट्टी---गुस्ताख। 

एक टोकरी भर मिट्टी

माधवराव सप्रे

किसी श्रीमान जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोपड़ी तक बढ़ाने की इच्छा हुई। विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोपड़ी हटा ले। पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी।

उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धकाल में एकमात्र आधार थी। जब कभी उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दुःख के फूट-फूट कर रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान पड़ोसी की इच्छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी।

उस झोपड़ी में उसका मन ऐसा लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान के सब प्रयत्न निष्फल हुए। तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्होंने अदालत से झोपड़ी पर अपना कब्जा कर लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बेचारी अनाथ तो थी ही, पास पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान उस झोपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि इतने में वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, “महाराज, अब तो यह झोपड़ी तुम्हारी ही हो गई है। मैँ उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक बिनती है।” जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, “जब से यह झोपड़ी छूटी है तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल, वहीं रोटी खाउँगी। अब मैंने यह सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाउँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊँ।” श्रीमान ने आज्ञा दे दी।
विधवा झोपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आन्तरिक दुःख को किसी तरह सम्हालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठा कर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान से प्रार्थना करने लगी, “महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइये जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।” जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए, पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके भी मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्यों ही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्थान पर टोकरी रखी थी वहाँ से वह एक हाथ-भर ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, “नहीं यह टोकरी हमसे न उठाई जावेगी।”

यह सुनकर विधवा ने कहा, “महाराज नाराज न हों! आप से तो एक टोकरी भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी है। उसका भार आप जन्म भर कर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए!”

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्य भूल गये थे, पर विधवा के उपरोक्त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गईं। कृतकर्म का पश्चाताप कर उन्होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोपड़ी वापस दे दी।

Thursday, September 9, 2010

रानी केतकी की कहानी

यह संभवतः हिंदी के इतिहास की पहली कहानी है। पाठको के लिए पेश कर रहा हूं। हालांकि किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती औरमाधव प्रसाद सप्रे की टोकरी भर मिट्टी को भी आलोचक पहली कहानी मानते हैं। लेकिन हम इस कड़ी में सबसे पहले रानी केतकी की कहानी पेश कर रहे हैं। --- गुस्ताख़


रानी केतकी की कहानी

सैयद इंशाअल्ला खां

सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँ सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।।

मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता।

मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पडी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं तीसों घडी। डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती।

हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकलता? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता। इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकडी भूल जाए। टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं। करतब जो कुछ है, कर दिखाता हूं मैं॥ उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूं। कर दिखाता हूं मैं॥ अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ।

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कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सीमसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था।

एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड छाडकर घोडा फेंका। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने। इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एकजोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड सी पड गई। उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई।

कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा - इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे। यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओसका बचाव करके पडा रहूंगा। बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं। कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हां पता चला आया। क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं। पर यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा।

यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था।

जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे।

मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वहीं दिन था; सो तुमसे मुठभेड हो गई।

बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर किसी पर इनका ध्यान न चढा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं। मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो। उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। यों ही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड। जोड तोड टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए। इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ। अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे।

कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी। पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुंचे।


कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय। एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं।


इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पडी है। राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅ हक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है। सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लाग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, तां बे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं। और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे-भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है। बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागाऔर मुंछदर भागा। एक आंख की झपक में वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लडाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो। जैसा गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस यहां की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - महाराज, यह आपने बडा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आप न पहुंचते तो क्या रहा था। सबने मर मिटने की ठान ली थी।
महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर जी हों तो दे डालें। रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आंख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना। एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे। मदनबान ने कहा-क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे। मदनबान बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोडा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोडें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें; उस दिन समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी। रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी। रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो। महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती। मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी।

फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड झंखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगडी और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये, बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचने वाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे-अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते घूम मचाते कूदते रहा करें। ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके 90 लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी। उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था-इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको ढूँढता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूं। अब मेरे मुंह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर विपत्ति गाढी पडी जो तुमसे हो सके, करो। राजा इंदर चिट्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा-जैसा आपका बेटा वैसा मेरा बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने चढूँगा। गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद से कहा-हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।



राजा इंदर ने कहा-जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा। गुरू ने कहा-अच्छा। हिरन हिरनी का खेल बिगडना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड ना एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोडों हिरन राग के ध्यान में चौकडी भूल आस पास सर झुकाए खडे थे। इसी में राजा इंदर ने कहा-इन सब हिरनों पर पढ के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का दो। क्या जाने वह पानी कैसा था। छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे। राजा इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खडे हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड न-खटोलो पर बैठकर बडी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए। राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सो राज को कह दिया-जेवर भोरे के मुंह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों से जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहें; अपनी गुडियाँ सँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड हमारे देश में हों, उतने ही पहाड सोने रूपे के आमने सामने खडे हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँ धनवार से सब झाड पहाड लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक अधर में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड भडक्का धूम धडक्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय। और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढे सब लाड ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड में इधर और उधर कबैल की टट्टियाँ बन जायँ और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और पहाडी तली का चढाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों।
इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली-लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें। रानी केतकी ने कहा-न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या पडी जो इस घडी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खडी हों। बदनबान उसकी इस रूखाई को उड नझाई की बातों में डालकर बोली- बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के दोनों में- यों तो देखो वाछडे जी वा छडे जी वा छडे। हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कडे॥ छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये। वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खडे॥ तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है। ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अडे। है कहावत जी को भावै और यों मुडिया हिले। झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बडे।। साँस ठंडी भरके रानी केतकी बोली कि सच। सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेडे में पडे॥ वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदे पन से ऊंघना उस घडी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूडा और भीना भीनापन और अँखडियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सँूघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुहलाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले ऊठी : मदनबान बोली-मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड गया था। इसी दु:ख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा-काटा अडा तो अडा, छाला पडा तो पडा, पर निगोडी तू क्यों मेरी पनछाला हुई। सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना लिखने पढने से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रूँ धावट हँसी की लगावट और दंतडियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और त्योरी का चढा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप में करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता। सराहना कुँवर जी के जोबन का कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखडे का गदराया हुआ जोबन जैसे बडे तड के धुंधले के हरे भरे पहाडों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पडता था। अपनी परछाँई देखकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी। दूल्हा का सिंहासन पर बैठना दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड न खटोले राजा इंदर के अखाडे के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाडों के आड तले आ बैठियाँ। सर्वाग संगीत भँड ताल रहस हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान झिंझोटी, कन्हाडा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगडा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप पकडे हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुंह जो कह सके। जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।

पर कुंवर जी का रूप क्या कहूं। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घडी-घडी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना। होते-होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - कुछ दाल में काला है। वह कुंवर बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पांव नहीं धरना। घरवालियां जो किसी डौल से बहलातियां हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी ठंडी सांसें भरता है। और बहुत किसी ने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ आंसू पडा रोता है। यह सुनते ही कुंवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड आए। गले लगाया, मुंह चूम पांच पर बेटे के गिर पडे हाथ जोडे और कहा - जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखडा है जो पडे-पडे कहराते हो? राज-पाट जिसको चाहो दे डालो। कहो तो क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो नहीं हो सकता? मुंह से बोलो जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हों, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कुंए में गिर पडो, तो हम दोनों अभी गिर पडते हैं। कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं। कुंवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूं। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुंह परकिसी ढब से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पडा था और आपसे कुछ न कहना था। यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुंवर ने यह लिख भेजा - अब जो मेरा जी होंठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड के हाथ जोड के मुंह फाड के घिघिया के यह लिखता हूं- चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह कौन जिसको दुख नहीं॥ उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियां उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोडा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयां ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता-पत्त्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहां का यह सौहिला है। कुछ रंडियां झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अंगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अंगूठी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुंचती है। अब आप पढ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए। महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - हम दोनों ने इस अंगूठी और लिखौट को अपनी आंखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत। जो रानी केतकी के मां बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जाएंगे। और जो कुछ नांह - नूंह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा। ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी। सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का।


उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊंचे पर चढ गए। जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुंह जो यहबात हमारे मुंह पर लावे! ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह से निकलती। यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता। और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ आया। जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राजपाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें। जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो। अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख सके। यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी। रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरु जी को गालियां दी। गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा। रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना। दोहरा (अपनी बोली की धुन में) रानी को बहुत सी बेकली थी। कब सूझती कुछ बुरी भली थी॥ चुपके-चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थी॥ कहती थी कभी अरी मदनबान। हैं आठ पर मुझे वही ध्यान॥ यां प्यास किसे किसे भला भूख। देखूं वही फिर हरे हरे रुख॥ टपके का डर है अब यह कहिए। चाहत का घर है अब यह कहिए॥ अमराइयों में उनका वह उतरना। और रात का सांय सांय करना॥ और चुपके से उठके मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना॥ उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनी॥ आंखों में मेरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही है॥ क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं। मां बाप से कब तक डरूं मैं॥ अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बन के हिरन हुए उदयभान॥ चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तू भी पसीज सोच में डूब॥ मैं अपनी गई हूं चौकडी भूल। मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल॥ फूलों को उठाके यहां से ले जा। सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजा॥ बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का ला के रख दे गट्ठा॥ हरियाली उसी की देख लूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं॥ इन आंखों में है फडक हिरन की। पलकें हुई जैसे घासवन की॥ जब देखिए डबडबा रही हैं। ओसें आंसू की छा रही हैं॥ यह बात जो जी में गड गई है। एक ओस-सी मुझ पे पड गई है। इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचौबल के बहाने अपनी मां रानी कामलता से। एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है? रानी कामलता बोल उठी - आंख मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूं। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो मुझको कोई पकड न सके। महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घडी कैसी है, कैसी नहीं। रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचौवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी। मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं। इसी पर मुझसे रूठी है। बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं।

राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें। और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने वालों को छातियों के किवाड खुल जायें। और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता है।

जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो। ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो। एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया। कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी। चौचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे। कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये। तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड लिए। धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए। अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पड तियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उन पर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे।


आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया।

अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले। घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले॥ चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन। रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥ ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोडा हुआ। चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें॥ वह उड नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खडे रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी। और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है। जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजै; कंचन हो जायेगा। और जोगी जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें। 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो। और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। बिना बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानी केतकी के छेडने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी। दोहरा घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी। कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडी॥ जी लगाकर केवडे से केतकी का जी खिला। सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडी॥ क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी। थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडी॥

मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा। मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडी॥ जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी। बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी॥


बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई। दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में। पड गई कूक सी पहाडों में। दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे। हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे॥ अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया। पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया॥

पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले। उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए। महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा। महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे।

रात दिन चला जावे। इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं।

आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी-यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो।

चौतुक्का पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने। सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।। बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥ जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही ढुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं।

सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई।