Thursday, December 27, 2012

ले बलैया...इ साल भी गया!

ससुरा इहौ साल बीत गया।  हम मान कर चल रहे हैं कि बीत गया। सब निगोड़े रोते रहे। वही महंगाई, वहीं मुद्रास्फीति, वही 32 लाख रूपये का गुसलखाना...सॉरी मूत्रालय...वही मैंगो पीपल, जो 32 रुपये में शहर में रह लें, 26 रूपये में गांव में बसर कर लें।

समस्या कहां है?

समस्या तब आती है जब देवी महात्म्य का पाठ करने वाले देश में फोटो को फेवीकोल से चिपकाय लिया जाता है। जब सप्तशती का पाठ करने वाले देश में छह लोग एक छात्रा के साथ रेप करते हैं।

समस्या अब भी नहीं है। आम आदमी अब एक क्लीवलिंग न होकर (संस्कृत वाला क्लीव लिंग जिसे अंग्रेजी में न्यूट्रल जेंडर कहते हैं) एक पार्टी बन गई है। ये नहीं पता कि इस संगठन में कितने मैंगो पीपल हैं।

यह साल हमेशा याद रहेगा। इस साल के बारे में एक ज्योतिषी ने मुझसे कहा कि तुम विश्वप्रसिद्ध हो जाओगे। हम नहीं भए। हां, उस ज्योतिषी को हमने बहुत ठोंका।

इस साल भी हम उसी तरह गरीब रहे, जितने 2010 में थे। इस साल भी हम पर कर्ज उतना ही रहा, जितना पिछले साल के आखिर में था। इस साल भी हमारे सपनों की मेढ़ उतनी ही कच्ची रही, जितनी पिछले बरस रही थी।

इस साल सपने देखने की आदत छुड़ा दी, तो सपनों के बीज भी रोप दिए।

यह साल भी ऐसा ही रहा। उसी तरह बेसिरपैर की फिल्में, उसी तरह रोज रोज की नौकरी, उसी तरह मॉनसून कमजोर होना, उसी तरह मंदी, उसी तरह ओबामा, उसी तरह ईरान, इराक़, मिस्र (सुना था मिस्र में तहरीर चौक पर कुछ हुआ...अब हंसी आती है उस पर। हमारे यहां एक बात कही जाती है, फॉर ऐनी रिवॉल्यूशन यू नीड टू हैव अ रिवॉल्यूशनरी आईडियोलजी एंड अ रिवॉल्यूशनरी पार्टी, किसी भी क्रांति के लिए एक क्रांतिकारी पार्टी और क्रांतिकारी विचारधारा की जरूरत होती है)

ये दोनों रामलीला मैदान के कारपोरेट आंदोलन और दिल्ली गैंप रेप में नदारद रहे।

सरकार से बलात्कारियों को तुरंत फांसी पर लटकाने की बेसिर-पैर की मांगे की गईँ। पहली मांग सुषमा स्वराज ने की, जो खुद वकील रह चुकी हैं। उन्हें भी पता होगा कि धारा 376-जी में अधिकतम सज़ा उम्र क़ैद हो सकती है।

खैर...। अगले मंगलवार को, जब नए साल का आग़ाज़ होगा तो यक़ीन मानिए कुछ नहीं बदलेगा। चौराहे पर वही कड़े दिखने वाले घूसखोर पुलिस अधिकारी मिलेंगे, अस्पताल में वही चिड़चिड़े से डॉक्टर मिलेंगे, दफ्तर में वही राजनीति पर उतारू मुंह पर मीठा बोलने वाले सुगरकोटेड लोग मिलेंगे, वही बॉस मिलेगा, जिसको हमेशा आपकी क्षमता पर संदेह होगा....सब्जी भाजी वाले उसी तरह हर रोज आलू प्याज दाम बढ़ाकर बेचते नजर आएंगे।

संसद में अगले साल भी सांसदो का वेतन वृद्धि वाला विधेयक सर्वसम्मति से पारित होगा। अगले साल भी मुलायम पिछड़ो और मुसलमानों को गोलबंद करते दिखेंगे, मायावती दलित कार्ड खेलेंगी, अगले साल मोदी अपने किले की नींव मजबूत करते दिखेंगे, ताकि उसी किले के बुर्ज से 15 अगस्त 2014 को राष्ट््र को संबोधित कर सकें।

नक्सल समस्या जस की तस बनी रहेगी, पाक से हम क्रिकेट खेल लें, दोस्ती दुश्मनी की सरहद बनी रहेगी, हमारे पीएम भी ओबामा की फोटो देखकर ही मुस्कुराएंगे, वरना साल भर उनकी मुस्कुराहट भी ईद का चांद बनी रहेगी....

दंतेवाड़ा, सांरडा में फिर कुछ पुलिस कर्मी शहीद होंगे, फिर उन्हें कुछ सम्मान दिया जाएगा। यानी अगले दिसंबर की इन्हीं आखिरी तारीखों में यही-यही सब लिखना होगा, जो हम इस साल लिख चुके हैं। हां, कुछ आंकड़ों में फेरबदल हो सकता है, कुछ तारीखों में बदलाव होगा।

लेकिन हम बदलेगे नहीं, क्या आपको लगता है कि गैंप रेप से जुड़े मसलों पर फांसी दे देने से भी बाकी के छुपे अपराधियों की मानसिकता बदल जाएगी? जनाब, हम लोग बदलने वाली क़ौम नहीं हैं।

 हम कष्ट सहते रहेंगे, बिना हैंड पंप के रह लेगें, हमारे गांव में भले ही चलने को सड़क न हो...लेकिन हम वोट तो अपनी ही जाति में देंगे।

साल 2012 और 2013 में कुछ खास अंतर नहीं होगा, सिवाय अंकों के...और हां, मैं सुनो मृगांका के कुछ और सिसकते पन्ने इस बेव की वर्चुअल दुनिया में डाल चुका होऊंगा।



Wednesday, December 12, 2012

...और क़यामत नहीं आई


क़यामत भी नेताओ और माशूकाओं की तरह धोखेबाज़ है। आते, आते नहीं आती है। वायदा करती है और नहीं आती है। कई साल से टीवी वाले चीख रहे थे, 12 दिसम्बर 2012 को क़यामत आएगी। हम भी बड़ी शिद्दत से क़यामत का इंतज़ार कर रहे थे। हम बहुत नजदीक से देखना चाहते थे कि क़यामत आखिर होती कैसी है। सुना था क़यामत के रोज़ क़ब्र से मुरदे उठ खड़े होंगे और सबके पाप-पुण्य का हिसाब-किताब होना है।

हम डरे हुए थे, बड़ा एंडवेंचरस से विचार आ रहे थे। काहे कि हम पापियों की श्रेणी में गिने जाते हैं।

फिर मन में बड़े गहन विचार उत्पन्न हुए आखिर क़यामत है क्या..। लोगों ने समझाया कि इस के बाद धरती पर सारे लोग खत्म हो जाएंगे। धरती लोगों के रहने लायक नहीं रह जाएगी। एक सवाल अपने आप सेः धरती अभी लोगों के रहने लायक है क्या?

कुछ लोग अपनी महबूबा को क़यामत सरीखा मानते हैं, कुछ अपनी पत्नी को कहते तो शरीक-ए-हयात हैं लेकिन मानते क़यामत ही हैं। पहले पत्नियों वाली बात। बीवी को क़यामत ने मानने वालों के लिए, श्रीमतीजी का जन्मदिन, उनके भाई का जन्मदिन, अपनी शादी की सालगिरह की तारीख़ भूलकर देखिए (यद्यपि हमारा विचार है कि यह तारीख़ भूलने योग्य ही हुआ करती है।) आपके लिए वही तारीख़ क़यामत सरीखी हो जाएगी। उस दिन कायदे से क़यामत बरपा होगा आप पर।

आपकी महबूबा ने फोन पर आपसे कहा, फलां दिन मिलते हैं। किस जगह, किस वक़्त, ये बाद में बताने का वायदा। फिर आप तैयार होना शुरु करते हैं...सिगडी़ पर दिल सेंकते हुए, तेरा रास्ता देख रहा हूं, गुनगुनाते हुए...आपकी क़यामत सरीखी महबूबा, जिनकी आंखों, भौंहों, पलकों, अलकों (बाल की लटों) बालों, गालों, गाल पर के तिल, होठों, मुस्कुराहट, गरदन, ठोड़ी, कलाइयों, कलाई के ऊपर के एक और तिल, कमर सबको एक-एककर क़यामत बता चुके हैं।

सोमवार को आपने उनके चलने को क़यामत कहा था। मंगलवार को उनकी मुस्कुराहट से क़यामत आई थी। गुरुवार को उऩकी आवाज़ क़यामत सरीखी थी। शुक्रवार को वो क़यामत का पूरा पैकेज लग रही थी। मतलब सर से पैर तक क़यामत ही क़यामत। बहरहाल, आपने तय किया था कि इसी क़यामत से मिलकर क़यामत की घटना को सत्य ही घटित करना...लेकिन असली क़यामत की बारी तो अब आती है।

आप टापते रह जाते हैं। आपके जिगर पर छुरी चल जाती है। लड़को का जिगर प्रायः छुरियों के नीचे ही पड़ा रहता है। आपकी उनने कुछ किया या न किया, आपकी तरफ देखा, नहीं देखा, आपसे समय पूछा, हंसी, नहीं हंसी, आज उनने जीन्स पहनी है, आज उनने सलवार सूट पहना है, आज उन्होंने आपकी तरफ देखा, आज उनने आपकी तरफ देखकर थूका नहीं...आपको वह क़यामत लगेगी। आपके दिल पर छुरियां चल जाएगी।

बहरहाल, ये तो बहुत निजी क़िस्म की क़यामतें हैं। जहां प्रेमिकाएं अपने प्रेमी से फायरब्रिगेड मंगवाने की इल्तिजा करती हों, जहां प्रेमी को प्रेमिका का प्यार हुक्काबार लगे, या तस्वीर को फेविकोल से चिपका लिया जाए वहां बाकी की क़यामतों पर क्या नज़र जाएगी।

पिछले दिनों राज्यसभा में रिटेल में एफडीआई पर बहस के दौरान क़यामत आती-सी लगी। आई नहीं, ये बात और है। विपक्ष सरकार पर टूट पड़ा, रिटेल में एफडीआई आ गया तो हुजूरेआलिया क़यामत आ जाएगी। सरकार की तरफ से मंत्रियों ने कहा, अगर एफडीआई नहीं आय़ा तो क़यामत होगी।

दीपेन्द्र हुडा ने सुषमा को कहा आंटी जी हम हरियाणा में 24 इंच का आलू उगाएंगे, यह भी कम क़यामत न था। इन सबपर भारी था मनमोहन सिंह करीब डेढ़ सेकेन्ड तक मुस्कुराते रह गए थे। सामने अमेरिका का कोई राष्ट्रपति नहीं था, फिर भी मुस्कुरा रहे थे। प्रधानमंत्री की मुस्कुराहट आधा या पौन सेकेन्ड और जारी रहती तो अल्लाहक़सम क़यामत उसी रोज़ आ जाती...।

क़यामत भी नेताओ और माशूकाओँ की तरह धोखेबाज़ है। आते, आते नहीं आती है। वायदा करती है और नहीं आती है। हमको लगा अब न्याय होगा। लेकिन क़यामती न्याय की झलक नहीं दिखती। क़यामती पत्रकारिता करने वाले, स्वर्ग की सीढी खोजकर दुनिया को सीधे स्वर्ग स्थानांतरित करने वाले महान् पत्रकारों की जमात किसी और सीढ़ी की तलाश कर रही है।

खैर...लोग कहते हैं क़यामत नहीं आई। लेकिन, महंगाई के दौर में, रसोई गैस से लेकर पानी तक पहुंच से दूर पहुंचने के दौर में, और उस दौर में जब क़यामत वायदा करे और न आए...हम बाकायदा ज़िंदा है यह क्या कम क़यामत है?

Monday, December 3, 2012

भोपाल गैस त्रासदीः दो कविताएँ

ह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोए सांसें गिन रही थीं।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
 

चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहां बना लो।
 

अगर कुछ न समझ में न आए तो,
एक गैसयंत्र और यहां बना लो।
 

मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जाएंगें।



कवि का नामः पता नहीं कर पाए,
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 2 दिसम्बर, 1987]
 

लती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
 

जगो और बता दो,
इतिहास को।
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
 

रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो,
उस नापाक इरादों को।
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।



[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 28 दिसम्बर, 1987]


दोनों कविताएं सौमित्र भाई के सौजन्य से हासिल हुई हैं। भोपाल त्रासदी की बरसी पर मासूमों और निर्दोष जानों को समर्पित....

सुनो ! मृगांका :27: साक़ी शराब ला, कि तबियत उदास है...

अभिजीत की बांहो का घेरा कसता जा रहा था...मृगांका नींद के आगोश में डूबती चली गई। डूबती चली गई। इतनी गहरी और आश्वस्तिदायक नींद थी कि लगा मृगांका इतनी अच्छी नींद में पिछले दो साल से सोई ही न थी।

सुबह नींद से जगी तो कपैटड़े संभलाते हुए मृगांका ने देखा, अपनी देर तक सोने की आदत के विपरीत अभिजीत उठकर बिस्तर से बाहर था।

वह बाहर आई...देखा लॉन में बैठकर अभिजीत की मां और मम्मी चाय की घूटें ले रहे हैं।

मम्मा अभि कहां है, मां जी, उठ गया वो?

अभिजीत और उसकी मम्मी की आंखों में सवाल उभर आए...

बेटा, सपना देखा था कोई?


उधर, गांव में  क़िस्सा खत्म नहीं हुआ था, लेकिन बैठक खत्म होने को आई। गांव से जुड़ी कुछ समस्याओं को लेकर अभिजीत गांव का दौरा करना चाह रहा था। लेकिन अगले दिन न तो मुखिया जी खाली थे न ही महंत जी। महंत जी ने कहा, आपके साथ उगना चला जाएगा. इस पूरे इलाके का चप्पा-चप्पा इसको पता है।

अगले दिन अलसभोर में ही उगना ने अभिजीत को जगा दिया।

दोनों साथ निकल पड़े थे। पैदल ही।

चलते-चलते  बहुत देर हो गई। उगना भी चुप था और अभिजीत भी। अभिजीत कच्चे रास्ते की मैदे सी बारीक धूल को देखता चल रहा था। कुछ ही देर में उसे भूख लग आई।

अपने रिपोर्टिंग के दिनो में उसने भूख पर काबू पाने के नायाब तरीके खोज निकाले थे। लेकिन, मृगांका..वो ऊंचे दरज़े के खानदान की थी। उसे हाइज़ीन और सेहत से जुड़ी साफ-सफाई का बहुत ध्यान रहता था।

याद आया उसे दो दिनो केलिए मृगांका बाहर गयी थी। बात तब की है जब अखबार छोड़कर उसने एक बड़े से खबरिया चैनल में नौकरी कर ली थी।

इस नई नौकरी के लिए अभिजीत ने बहुत जोर दिया था। गोकि मृगांका अखबार में नौकरी करते हुए अभिजीत से रोज ब रोज़ मिलने का वो मौका छोड़ना नहीं चाहती थी। अभिजीत की इच्छा थी कि मृगांका उसे एंकरिंग करती दिखाई दे।

मृगांका को अभिजीत की बात माननी ही पड़ी थी। लेकिन, दो दिनों के लिए बाहर गई मृगांका के लिए मुसीबत खड़ी हो गई। मृगांका बाहर न तो खा सकती थी न ही कुछ निवाला उसके हलक के नीचे गया।

दो दिनों तक सांस अटकी रही थी अभिजीत की भी...। कितनी बार कहा था मृगांका को, बैग में ड्राइ फ्रूट्स रखा करो, चॉकलेट रखा करो। लेकिन वो भी अपनी जगह जिद्दी ही थी।

अल्लसुबह घर से निकली मृगांका उस दिन देर रात गेस्टहाउस पहुंची थी, दिन भर की भूखी। अभिजीत ने सोचा था कि जब तक मृग खुद खाकर उसके बता नहीं देगी कि उसने खा लिया है, तब तक वह भी नही खाएगा...लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था।

क्यों न हो पाया था. ये बड़ी हंसी वाली बात है। उस दिन असल में खाया तो सच में अभिजीत ने कुछ तो सही में नही, लेकिन पीने से खुद को रोक नहीं पाया था। पीने के साथ कुछ चबेना तो चाहिए ही था.....इसलिए जब तक मृगांका नहीं खाएगा वाला प्रण अधूरा रह गया था। सिगरेट की छल्लों वाले धुएं में उसे मृगांका का चेहरा दिखता रहा था रात भर।

उगना आगे आगे चल रहा था। उसके पैर पतले-पतले थे। चलते समय ऐड़ियां पैरों की बनिस्बत आसपास गिरती थीं...बिलकुल दुबला...। सिर के बाल भूरे, कुपोषण का शिकार।

पढ़ना जानते हो उगना...अभिजीत ने बातचीत का सूत्र पकडा.
नहीं।
पढ़ते क्यों नहीं..
पढने जाएंगे तो छोटी बहन का पेट कैसे भरेगा।

अभिजीत निरुत्तर रह गया। अच्चा तुमको वो उगना वाली कहानी याद है?

हां, सुनोगे क्या
सुनाओ

एक दिन महाकवि विद्यापति कहीं जा रहे थे, रास्ते में उनको प्यास लगी, यहां तक की कहानी तो आप जानते ही हैं। अभिजीत ने हामी भरी।

तो कवि विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से पानी लेकर आओ। आसपास कहीं कोई कुआं नहीं, न को ई तालाब....चारों तरफ सूखा...

अभिजीत ने देखा, चारों तरफ सूखे खेत थे। धान की कटाई के बाद पौधों की ठूंठें थीं...। खेत की जमीन में दरारें पड़ी थीं।

उगना पानी पिलाओंगे।

हां मालिक।

उगना पानी लेने चला गया।

थोड़ी देर बाद लौटा तो लोटे में पानी था। अभिजीत ने पानी पिया, आठ सौ साल पहले महाकवि विद्यापति ने भी पानी पिया था। अभिजीत ने देखा, पानी एक दम साफ निर्मल और स्वच्छ था..उसे याद आया गंगोत्री गया था वो, अपनी बुलेट पर। पीछे थी मृगांका...तो गोमुख के पास गंगा का पानी भी इतना ही निर्मल था।

पानी कहां से लाए हो उगना। अभिजीत ने पूछा, इक्कीसवीं सदी में, विद्यापति ने पूछा था ग्यारहवीं सदी में।


...जारी