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Thursday, December 19, 2019

नदीसूत्रः सोने के कणों वाली नदी स्वर्णरेखा की क्षीण होती जीवनरेखा

स्वर्णरेखा नदी में सोने के कण पाए जाते हैं, पर मिथकों में महाभारत से जुड़ी स्वर्णरेखा की जीवनरेखा क्षीण होती जा रही है. उद्योगों और घरों से निकले अपशिष्ट के साथ खदानों से निकले अयस्कों ने इस नदी के जीवन पर सवालिया निशान लगा दिया है. यह नदी सूखी तो झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कई इलाके जलविहीन हो जाएंगे

हर नदी के पास एक कहानी होती है. स्वर्णरेखा नदी के पास भी है. झारखंड की इस नदी को वैसे ही जीवनदायिनी कहा जाता है जैसे हर इलाके में एक न एक नदी कही जाती है. पर झारखंड की यह नदी, अपने नाम के मुताबिक ही सच में सोना उगलती है.

यह किस्सा स्वर्णरेखा के उद्गम के पास के गांव, नगड़ी के पास रानीचुआं के लोकमानस में गहराई से रचा-बसा है कि अज्ञातवास के समय पांडव यहां आकर रहे थे, इसीलिए गांव का नाम पांडु है. खास बात यह है कि स्वर्णरेखा के उद्गम का नाम रानी चुआं इसलिए पड़ा क्योंकि एकबार जब इस निर्जन इलाके में रानी द्रौपदी को प्यास लगी तो अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थल से पानी निकाला था, जो आज भी मौजूद है. समय के साथ नदी का नाम स्वर्णरेखा पड़ गया.

वैसे भी मिथक सच या झूठ के दायरे से वह थोड़े बाहर होते हैं. यह पता नहीं कि पांडु गांव, पांडवों के अज्ञातवास और अर्जुन के बाण से निर्मित रानी चुआं की कहानी कितनी सच है? लेकिन यह मिथक कतई नहीं है कि स्वर्णरेखा झारखंड की गंगा की तरह है और गंगा की तरह ही इसको देखना अब रोमांचकारी कम और निराशाजनक ज्यादा हो गया है.

पर स्वर्णरेखा नदी से सोना निकलता जरूर है, पर यह कोई नहीं जानता कि इसमें सोना आता कहां से है. स्वर्णरेखा नदी में स्वर्णकणों के मिलने के कारण इस क्षेत्र के स्वर्णकारों के लिये इस नदी की खास अहमियत है. किंवदन्ती है कि इस इलाके पर राज करने वाले नागवंशी राजाओं पर जब मुगल शासकों ने आक्रमण किया तो नागवंशी रानी ने अपने स्वर्णाभूषणों को इस नदी में प्रवाहित कर दिया, जिसके तेज धार से आभूषण स्वर्णकणों में बदल गए और आज भी प्रवाहमान है.

आज भी आप जाएं तो नदी में सूप लिए जगह-जगह खड़ी महिलाएं दिख जाएंगी. इलाके के करीब आधा दर्जन गांवों के परिवार इस नदी से निकलने वाले सोने पर निर्भर हैं. कडरूडीह, पुरनानगर, नोढ़ी, तुलसीडीह जैसे गांवों के लोग इस नदी से पीढियों से सोना निकाल रहे हैं. पहले यह काम इन गांवों के पुरुष भी करते थे, लेकिन आमदनी कम होने से पुरुषों ने अन्य कामों का रुख कर लिया, जबकि महिलाएं परिवार को आर्थिक मदद देने के लिए आज भी यही करती हैं.

नदी की रेत से रोज सोना निकालने वाले तो धनवान होने चाहिए? पर ऐसा है नहीं. हालात यही है कि दिनभर सोना छानने वालों के हाथ इतने पैसे भी नहीं आते कि परिवार पाल सकें. नदी से सोना छानने वाली हर महिला एक दिन में करीब एक या दो चावल के दाने के बराबर सोना निकाल लेती है. एक महीने में कुल सोना करीब एक से डेढ़ ग्राम होता है. हर दिन स्थानीय साहूकार महिला से 80 रुपए में एक चावल के बराबर सोना खरीदता है. वह बाजार में इसे करीब 300 रुपए तक में बेचता है. हर महिला सोना बेचकर करीब 5,000 रुपए तक महीने में कमाती है.

395 किलोमीटर लंबी यह बरसाती नदी देश की सबसे छोटी अंतरराज्यीय (कई राज्यों से होकर बहने वाली) नदी है जिसके बेसिन का क्षेत्रफल करीब 19 हजार वर्ग किमी है. यह रांची, सरायकेला-खरसावां, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) और बालासोर (ओडिशा) से होकर बहती है. पर जानकारों का कहना है कि यह नदी अब सूखने लगी है और इसके उद्गम स्थल पर यह एक नाला होकर रह गई है. जानकारों के मुताबिक, इस नदी में कम होते पानी की वजह से भूजल स्तर भी तेजी से गिरता जा रहा है. काटे जा रहे जंगलों की वजह से मृदा अपरदन भी बढ़ गया है.

हालांकि इस नदी पर बनने वाले चांडिल और इछा बांध का आदिवासियों ने कड़ा विरोध किया और यहां 6 जनवरी, 1979 को हुई पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों ने अपनी जान दे दी. परियोजना चलती रही और 1999 में इस परियोजना पर भ्रष्टाचार की कैग की रिपोर्ट के बाद इसे पूरे होने में 40 साल का समय लगा. परियोजना तो पूरी हुआ लेकिन इसमें चस्पां स्थानीय लोगों के लिए रोजगार और बिजली मुहैया कराने के वायदे पूरे नहीं हुए.

इस नदी की बेसिन में कई तरह के खनिज हैं. सोने का जिक्र हम कर ही चुके हैं. पर इन सबने नदी की सूरत बिगाड़ दी. खनन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों ने नदी को प्रदूषित करना भी शुरू कर दिया है. अब नदी के पानी में घरेलू और औद्योगिक अपशिष्टों के साथ-साथ रेडियोसक्रिय तत्वों की मौजूदगी भी है. खासकर, खुले खदानों से बहकर आए अयस्क इस नदी की सांस घोंट रहे हैं.

ओडिशा के मयूरभंज और सिंहभूम जिलों में देश के तांबा निक्षेप सबसे अधिक हैं. 2016 में किए गिरि व अन्य वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक, सुवर्ण रेखा नदी में धात्विक प्रदूषण मौजूद है. अब नदी और इसकी सहायक नदियों में अवैध रेत खनन तेजी पर है. इससे नदी की पारिस्थितिकी खतरे में आ गई है.

इस नदी बेसिन के मध्यवर्ती इलाके में यूरेनियम के निक्षेप है. यूरेनियम खदानों के लिए मशहूर जादूगोड़ा का नाम तो आपने सुना ही होगा. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रेडियोसक्रिय तत्व इस खदान के टेलिंग पॉन्ड से बहकर नदी में आ रहे हैं.

जमशेदपुर शहर, जो इस नदी के बेसिन का सबसे बड़ा शहर है, का सारा सीवेज सीधे नदी में आकर गिरता है. और अब इसके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा घटती जा रही है और नदी के पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) तय मानक से अधिक हो गया है, जबकि बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड मानक से कम होना चाहिए. झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने स्वर्णरेखा नदी के पानी के नमूने की जांच कराई तो पता चला कि अधिकतर जगहों पर पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम पाई गई.

स्थिति यह है कि स्वर्णरेखा नदी का पानी जानवरों और मछलियों के लिए सुरक्षित नहीं है. जानवरों और मछलियों के लिए पानी में बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड की मात्रा 1.2 मिलीग्राम से कम होनी चाहिए, जबकि 7.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक है. इसकी वजह से काफी संख्या में मछलियां नदी में मर रही हैं इसके साथ ही साथ जानवरों को भी कई तरह की बीमारियां हो रही हैं.

स्वर्णरेखा और खरकई नदियों का संगम, जमशेद पुर के ठीक पास में है और यहां आप लौह अयस्क के कारखानों से निकले स्लग को देख सकते हैं. हालांकि, भाजपा नेता (अब बागी) सरयू राय ने 2011 में इसे लेकर जनहित याचिका दायर की थी, और तब टाटा स्टील ने जवाब में कहा कि यह स्लग शहर की जनता को स्वर्णरेखा की बाढ़ से बचाने के लिए जमा किया गया है. हाइकोर्ट ने टाटा को यह जगह साफ करने को कहा था. हालांकि इस पर हुई कार्रवाई की ताजा खबर नहीं है.

इस इलाके में मौजूद छोटी और बड़ी औद्योगिक इकाइयों, लौह गलन भट्ठियों, कोल वॉशरीज और खदानों ने नदी की दुर्गति कर रखी है.

बहरहाल, खेती, पर्यटन और धार्मिक-आध्यात्मिक केंद्र के नजरिए से सम्भावनाओं से भरे स्वर्णरेखा नदी में उद्गम से लेकर मुहाने तक, इस इलाके में पांडवों से लेकर चुटिया नागपुर के नागवंशी राजाओं से जुड़े मिथकों का प्रभाव कम और हकीकत के अफसाने ज्यादा सुनाई पड़ते हैं. मृत्युशैय्या पर पड़ी जीवनरेखा स्वर्णरेखा की आखिरी सांसों में फंसे अफसाने.

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Friday, August 9, 2019

नदीसूत्रः शिव के त्रिशूल पर बसी काशी में नदियों की दुर्गति


जिस देश में गंगा की ही फिक्र कम है उसमें बेचारी वरुणा और असि की क्या बिसात? जिन नदियों के नाम पर वाराणसी शहर बसा, उन नदियों के विलुप्त होने के बाद क्या शहर बचा रह जाएगा! कोई शहर लाख शिव के त्रिशूल पर बसा हो, पर बिना पानी के जड़े सूख ही जाएंगी.


बहुत समय से सुनते आए हैं कि नदियां किसी भी सभ्यता का आधार रही हैं और उसकी धमनियों की तरह होती हैं. दुनिया की तमाम महान सभ्यताएं नदी घाटियों में विकसित हुई हैं. आप चाहे सिंधु-गंगा घाटी की मिसाल लें या दजला-फरात की. एक नदी अपने इलाके की संस्कृति की वाहक होती है और अपने साथ एक इतिहास और सांस्कृतिक विरासत लेकर चलती है. किसी इलाके की खेती, वहां मछलीपालन और मछली समेत जलीय और तटीय जैव-विविधता नदी पर निर्भर होती है.

भारतीय साहित्य में नदियां मौजूद हैं. ऋग्वेद से ही हमारे साहित्य में नदियों का उल्लेख है. धार्मिक महत्व तो खैर है ही. आपको आज की परिस्थिति में संभवतया मजाक लगे लेकिन हाल तक देश के कई हिस्सों में सीधे नदियों का पानी पिया भी जाता था. मैं खुद ओडिशा के कालाहांडी इलाके में जब नियामगिरि पहाड़ियों पर जा रहा था, तो वहां स्थानीय लोगों को बमुश्किल छह सात फुट चौड़ी नदी का पानी पीते देखा था. मुझसे भी कहा गया कि यहां के नदियों का पानी अभी प्रदूषण से बचा है और इसमें पहाड़ियों की दुर्लभ जड़ी-बूटियों का मिश्रण हैं. वाकई पानी साफ था और सुस्वादु भी. (जी हां, आप माने न माने, पानी का भी स्वाद होता है)

लेकिन यकीन मानिए, जिस तरह से हम अपनी नदियों का नाश करते जा रहे हैं हम जल्दी ही दुनिया में जलसंकट का सामना करने वाले देशों में होंगे. हमारी आबादी भी अबाध गति से बढ़ती जा रही है और नदियां उतनी ही तेजी से लुप्त होती जा रही हैं.

वैसे हम जब भी नदी शब्द कहते हैं तो दिल्ली वालों को यमुना याद आती है (गाद से भरी, काली) और मैदानी लोगों को गंगा. लेकिन इसके साथ ही हम उन छोटी नदियों को भूल जाते हैं. पिछले हफ्ते मैंने कोलकाता की आदि गंगा का जिक्र किया था जो गंदे नाले में बदलकर रह गई है. लेकिन इन छोटी नदियों के योगदान से ही बड़ी नदियां वाकई बड़ी नदियां बन पाती हैं, यह भी हमें याद रखना चाहिए. इन छोटी नदियों मे से कई बड़े शहरों का शिकार बन गई हैं. इनमें से कुछ तो शहर के अपशिष्ट प्रवाह को बहाने के काम आने वाले नालों में बदल गई हैं. इन छोटी नदियों पर हमारा ध्यान तभी जाता है जब घटिया ड्रेनेज सिस्टम की वजह से बरसात के मौके पर इन नदियों का पानी सड़कों पर आकर जमा हो जाता है.

इसलिए हमें याद रखना चाहिए कि एक सुचारू नदी तंत्र की भारत की बाढ़ जैसी आपदाओं से बचाव का एक रास्ता हो सकता है. इन दिनों बनारस बहुत चर्चा में है. प्रधानमंत्री जिस चुनाव क्षेत्र से मैदान में हो वह चर्चा में न आए तो क्या आए भला? हाल के हिंदी लेखकों की नौजवान पीढ़ी ने अस्सी घाट को भी बहुत तवज्जो दे दी है. पर इस बात का जिक्र लोग कम ही करते हैं कि वाराणसी का नाम जिन असि और वरुणा नदियों के नाम पर पड़ा और इन दोनों नदियों के भूखंड को ही वाराणसी कहा गया, उन नदियों का क्या हुआ? इस शहर को बनारस नाम तो मुगलों ने दिया था और बाद में अंग्रेजों ने भी इसी नाम को आगे बढ़ाया.

अस्सी नदी वाराणसी के घमहापुर गांव में स्थित कर्मदेश्वर महादेव कुंड से शुरू होकर लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गंगा में मिलती है. इसका जल-ग्रहण क्षेत्र लगभग 14 वर्ग किलोमीटर के दायरे में है.

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवी दुर्गा ने शुम्भ-निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के बाद जहां अपनी तलवार फेंकी थी, उस स्थान पर ही महादेव कुंड बना और इससे निकले पानी से ही असि (बाद में अस्सी) नदी का उद्गम हुआ. तलवार को संस्कृत में असि कहते हैं. यह अस्सी नदी पहले अस्सी घाट के पास गंगा में मिलती थी, पर गंगा कार्य योजना के बाद से इसे मोड़ कर लगभग दो किलोमीटर पहले ही गंगा में मिला दिया गया. यही नहीं, सरकारी फाइलों में भी इसे अस्सी नदी नहीं बल्कि अस्सी नाला का नाम दे दिया गया है.

आज की पीढ़ी को पता नहीं होगा कि अपनी विरासतों को सहेजने में जितनी उदासीन हमारी सरकार है उतने ही हम भी हैं. और जिस नाले में हम मूलमूत्र विसर्जित करके प्रकारांतर से गंगा में भेज रहे हैं वह नदी थी और वाराणसी के वातावरण के लिए आवश्यक थी.

पर जिस देश में गंगा की ही फिक्र कम है उसमें बेचारी वरुणा और असि की क्या बिसात. वरुणा भी साथ में ही काल का ग्रास बन रही है. पर क्या यह मुमकिन है कि जिन नदियों के नाम पर वाराणसी शहर बसा, उन नदियों के विलुप्त होने के बाद बचा रह जाएगा. कोई शहर लाख शिव के त्रिशूल पर बसा हो, पर बिना पानी के जड़े सूख ही जाएंगी.


Thursday, August 1, 2019

नदीसूत्रः बढ़ता कोलकाता लील गया आदि गंगा

कोलकाता में कालीघाट के पास एक नाला बहता है. यह नाला नहीं, स्थानीय लोगों के मुताबिक असली गंगा है. आदि गंगा नाम की इस नदी को शहर ने बिसरा दिया, पर परंपराओं में यह अब भी मौजूद


पिछले साल जब मैं कोलकाता में था तो मेरे मित्रों की जिद थी कि उन्हें कालीघाट में देवी के दर्शन करने हैं और कालीघाट में दर्शन के बाद अपनी सहज जिज्ञासा में हम नीचे उतर आए थे, जहां एक गंधाता हुआ नाला बह रहा था. लेकिन उस नाले को पार करने के लिए नावें मौजूद थीं और उस वक्त भी नाववाले ने हम चार लोगों से आठ आने (पचास पैसे) की दर से सिर्फ दो रूपए लिए थे. मल्लाह ने बताया था कि यह नाला नहीं, आदि गंगा है. उसने बताया कि नाकतल्ला से गरिया जाते समय रास्ते में अलीपुर ब्रिज के नीचे जिस नाले से भयानक बदबू आती है वह भी आदि गंगा ही है. जिसको स्थानीय लोग टॉली कैनाल कहते हैं.

असल में दो सौ साल पहले तक आदि गंगा हुगली की एक सहायक धारा थी. हालांकि इसका इतिहास थोड़ा और पुराना है. लेकिन अठारहवीं सदी में जब यह अपना स्वरूप खो रही थी तब 1772 से 1777 के बीच विलियम टॉली ने इसका पुनरोद्धार करवाकर इसको नहर और परिवहन की धारा के रूप में इस्तेमाल करवाना शुरू कर दिया था.

बहरहाल, गंगा की यह धारा कोलकाता में बढ़ती आबादी, बढ़ते लालच और बढ़ते शहरीकरण के स्वाभाविक नतीजों का शिकार हुई और अब यह घरों के सीवेज ढोती हुई नाले में बदल गई है. अंग्रेजों के जमाने में इस नहर को बाकायदे दुरुस्त रखा जाता था क्योंकि उस समय नदियों की परिवहन में खासी भूमिका होती थी, लेकिन आजादी के बाद इसको भी बाकी विरासतों की तरह बिसरा दिया गया. न तो इसमें पानी के बहाव की देखरेख की गई, न ही खत्म होते पानी के बहाव को बचाए रखने की कोई जरूरत महसूस की गई.

ज्वार के समय हुगली का पानी इसमें काफी मात्रा में आता था और अपने साथ काफी गाद भी लेकर आता था. नतीजतन, यह नदी गाद से भरती गई. इस नदी की तली ऊंची होती गई.

शहर बड़ा हुआ तो कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के नाले बेरोकटोक इसमें गिरते रहे. निगम के पास ज्वार और भाटे के वक्त इस नाले में आऩे वाले पानी को नियंत्रित करने के लिए कोई तंत्र नहीं था.

कभी 75 किलोमीटर लंबी रही यह आदि गंगा आज की तारीख में कई जगहों से लुप्त हो चुकी है. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इसको पुनर्जीवित करने की भी कोशिशें हुईं और 1990 के बाद इसको फिर से जिलाने की गतिविधियों में करीब 200 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं.

आदि गंगा को लेकर हुआ एक एक शोध बताता है कि बंडेल के नजदीक, त्रिबेनी (त्रिवेणी) में गंगा तीन हिस्सों में बंट जाती है. एक धारा सरस्वती, दक्षिण-पश्चिम दिशा में सप्तग्राम की तरफ बहती है. दूसरी धारा जिसका नाम जमुना है, दक्षिण-पूर्व दिशा में बहती है और तीसरी धारा हुगली बीच में बहती हुई आगे चलकर कोलकाता में प्रवेश करके आदि गंगा में मिलकर कालीघाट, बरुईपुर और मागरा होती हुई समुद्र में जा मिलती थी. कई प्राचीन लेख और नक्शों पर भरोसा करें तो आदि गंगा ही मुख्य धारा थी और उसकी वजह से कोलकाता ब्रिटिश काल में बड़ा बंदरगाह बन पाया था.

लेकिन लगभग 1750 में संकरैल के नजदीक हावड़ा में सरस्वती नदी के निचले हिस्से को हुगली नदी से जोड़ने के लिए आदि गंगा की धारा को काट दिया गया. और इसी कारण से ज्यादातर पानी का प्रवाह पश्चिमोत्तर हो गया और हुगली, गंगा की मुख्य धारा बन गई, जो आज भी है.

बहरहाल, 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश अधिकारी डब्ल्यूडब्ल्यू हंटर ने लिखा है कि इस (आदिगंगा) पुरानी नदी को ही हिंदू असली गंगा मानते हैं. जो इस नदी के किनारे बने पोखरों में अपने लोगों के मुर्दे जलाते हैं. जाहिर है, चिताएं जलाने को लेकर हंटर उस परंपरा की ओर इशारा कर रहे थे जिसके तहत गंगा के किनारे जलाए जाने से मोक्ष मिलने की मान्यता है.

1770 के दशक में आदि गंगा शहर से दूर जाने लगी थी, तब विलियम टॉली ने 15 किमी गरिया से समुक्पोता तक की धारा के बहाव को देखकर हैरान थे और उन्होने आदि गंगा को सुन्दरवन की ओर प्रवाहित होने वाली विद्याधरी नदी से जोड़ दिया. और आज इसी वजह से यह धारा टोलीनाला नाम से जाना जाता है.

पहले जो नदी सुन्दवन के किनारे बोराल, राजपुर, हरीनवी और बरूईपुर के माध्यम से प्रवाहित होती थी, उसका प्रवाह तेजी से अवरुद्ध हो रहा था. हालांकि यह 1940 के दशक तक नावों के जरिए माल ढुलाई का काफी बड़ा साधन था.

1970 के आसपास भी, सुंदरवन से शहद इकट्ठा करने वाले लोग नदी पारकर अपनी नावों को दक्षिण कोलकाला के व्यस्त उपनगर टॅालीगंज की ओर जाने वाले पुल के नीचे खड़ा करते थे.

बहरहाल, आज की तारीख में आदि गंगा लोगों के लालच की शिकार हो गई है. इसमें आपको प्लास्टिक की थैलियां, कूड़ा, कचरा, हेस्टिंग (हुगली के संगम) से गरिया (टूली के नाले) 15 किमी तक 7,851 अवैध निर्माण, 40,000 घर, 90 मंदिर, 69 गोदाम और 12 पशु शेड जैसे अतिक्रमण दिखेंगे (यह आंकड़ा 1998 का है, और हाइकोर्ट में पश्चिम बंगाल सरकार ने माना था). आपको अगर इसमें नहीं दिखेगा तो पानी.

फिलहाल, गरिया के आगे जाते ही नदी गायब हो जाती है. नरेन्द्रपुर और राजपुर-सोनापुर से लगभग तीन किमी आगे आदि गंगा दिखाई नहीं देती. और उसकी पाट की जगह पक्के मकान, सामुदायिक भवन और सड़कें नमूदार होती हैं. उसके पास कुछ बड़े तालाब दिखाई देते हैं जिनके करेर गंगा, घोसर गंगा जैसे नाम हैं. जाहिर है, ये भी आदि गंगा के पानी से बनने वाले तालाब थे और उनके नामों से यह साबित भी होता है.

इन दिनों आप देश में बाढ़ की खबरें देख रहे होंगे कि देश का पूर्वी इलाका कैसे इससे हलकान है. लेकिन आदि गंगा की मौत मिसाल है कि कैसे फैलते शहर ने नदी निगल ली है. कभी फुरसत हो तो सोचिएगा.

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Tuesday, May 7, 2019

बंगालः कुछ वोटर बम बनाते हैं, कुछ बम खाते हैं

सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करने के लिए सबकुछ करता है. हत्याएं भी.

मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, बंगाल के लोगों की सेहत कैसी है? तभी से मैं सोच रहा हूं कि बंगाल में किसकी सेहत के बारे में बयान किया जाए? बंगाल में दो तरह के लोग हैं. एक वोटर, दूसरा नेता. वोटरों में कुछ कैडर हैं, कुछ गैर-कैडर समर्थक हैं, तो कुछ विरोधी हैं. और सबकी सेहत का हाल तकरीबन एक जैसा है.

कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए.

जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, तो कुछ खा रहे हैं. पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है. उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है. सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं.

आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है. वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है. स्वास्थ्य सबका ठीक है. बस, खून की कमी है. क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है. आज भी उस परंपरा को शिद्दत से निभाया जा रहा है.

आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए. बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है. इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है. इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर. इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हें ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा. इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है.

वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है. वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी.

बंगाल के वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि - निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है. यादद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है. हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है. वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है.

वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है. उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है. सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है. डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए. कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था.

असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं. साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था. बंगाल की क्रांति में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं.

ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंटीजन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए. ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही.

बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल? अभी प्रधानमंत्री मोदी कह कर आए हैं- चुपेचाप, फूले छाप. माकपा का सेकुलर वोटर ममता के मुस्लिम प्रेम से भौंचक्का होकर धार्मिक बनने की कोशिश कर रहा है. उसे दिख रहा है कि जन्मजात ब्राह्मणी ममता बंधोपाध्याय दुर्गा पूजा विसर्जन को नजरअंदाज कर रही हैं. मुर्शिदाबाद में कार्तिकेय की मूर्ति को पंडाल में ही पानी की बौछारों से गलाकर विसर्जित करना पड़ा, ऐसा भाजपा के एक नेता ने किस्सा सुनाया. बंगाल में ममता की तुष्टीकरण की नीतियों से सींची हुई जमीन भाजपा को बहुत उपजाऊ रूप में मिलने की उम्मीद है. सूबे में धीरे-धीरे पार्टी की सेहत सुधरती जा रही है. इस सुधरती सेहत ने ठीक से सौष्ठव नहीं दिखाया तो दिल्ली में भावी एनडीए सरकार की सेहत पांडु रोग से ग्रस्त हो जाएगी.

कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है. राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं. बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है. दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है.

लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करने के लिए सबकुछ करता है. अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर? 

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Thursday, May 2, 2019

तृणमूल के नारों में मां के लिए 'ममता' नहीं

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता तक के अपने सफर में मां, माटी और मानुष का नारा दिया था. माटी और मानुष को छोड़ दीजिए, आज सिर्फ मां की बात करें. नीले किनारों वाली सफेद साड़ी में ममता वात्सल्य और दया की मूर्ति मदर टेरेसा जैसी दिखती हैं. पर आंकड़े यही बताते हैं कि विधि-व्यवस्था पर ममता की पकड़ बदतर है. खासकर, महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले मे बंगाल शर्मनाक रूप से टॉप पर है.

चुनाव में नारे चलते हैं, तथ्य पीछे रह जाते हैं. क्या ऐसे आरोप सिर्फ खास पार्टियों के नेताओं पर ही लगते हैं? नहीं. ममता बनर्जी इसकी एक खास और विशिष्ट किस्म की मिसाल हैं.

पश्चिम बंगाल में 2011 से 2014 के बीच क्या बदला? राइटर्स बिल्डिंग का रंग बदला, लाल रंग नीले और सफेद में बदल गया. बदला तो 2016 तक भी नहीं. कुर्सी माकपा की बजाए तृणमूल कांग्रेस को मिल गई. बंगाल नहीं बदला.

बंगाल सिर्फ कोलकाता नहीं है. कोलकाता से बाहर बांकुड़ा भी है. वीरभूम भी. वीरभूम में शांति निकेतन भी है और सुबलपुर भी. शांति निकेतन से सुबलपुर ज्यादा दूर नहीं है. मुख्य सड़क से बाईं तरफ मुड़ने पर एक नहर के किनारे-किनारे जंगल में दाहिनी ओर एक गांव है. वहां अब भी कुछ नहीं बदला बजाए इसके कि गांव में अब मीडिया वाले नहीं पहुंच रहे हैं. वहां कोई 2014 के जनवरी महीने में हुई घटना के बारे में बात नहीं करना चाहता. जो भी बात करता है फुसफुसाकर बात करता है. आखिर लव जिहाद जैसा मसला फुसफुसाकर बात करने वाली चीज ही तो है. बंगाल तो पढ़े-लिखे लोगों का सूबा है. लव जिहाद यूपी वालों की विरासत है. पर, सचाई है कि घटना हुई और बड़े घिनौने तरीके से हुई.

एक जनजातीय लड़की को समुदाय के बाहर के लड़के से प्यार हो गया. नतीजतन, सालिशी सभा बुलाई गई. सालिशी सभा यानी जनजातीय पंचायत, जिसे सुविधा के लिए आप इलाके की खाप पंचायत मान सकते हैं. यह खाप की तरह ताकतवर भी है. बंगाल जैसे राज्य में खाप? पर सच यही है. बहरहाल, प्रेम करने के एवज में उस आदिवासी लड़की पर पचास हजार रू. का जुर्माना ठोंक दिया गया. लड़की गरीब थी, जुर्माना नहीं दे सकी तो सालिशी सभा के मुखिया के आदेश पर, बारह लोगों ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया. बलात्कार करने वालों में मुखिया महोदय भी थे.

यह बात मीडिया की नजरों में आई और हंगामा हुआ तो बाद में वे लोग गिरफ्तार हुए. यह घटना पश्चिम बंगाल में तब हुई थी जब मुख्यमंत्री पद पर एक महिला थीं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता तक के अपने सफर में मां, माटी और मानुष का नारा दिया था. माटी और मानुष को छोड़ दीजिए, आज सिर्फ मां की बात करें.



नीले किनारों वाली सफेद साड़ी में ममता वात्सल्य और दया की मूर्ति मदर टेरेसा जैसी दिखती हैं. लोग कहते हैं वह बड़ी कड़क हैं. होंगी. पर आंकड़े यही बताते हैं कि विधि-व्यवस्था पर ममता की पकड़ बदतर है.

सालिशी सभा वाला सुबलपुर कांड सिर्फ एक मिसाल है. उसी दौर में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनके लिए ममता बनर्जी को एक मुख्यमंत्री के तौर पर शर्मसार होना चाहिए था.

जरा गिनिएगा, फरवरी 2012 में कोलकाता के पार्क स्ट्रीट में रेप कांड हुआ, ममता ने इस बलात्कार को झूठा बताया, वर्धमान के कटवा में रेप कांड हुआ जिसमें महिला का उसकी बेटी के सामने बलात्कार किया गया, मुख्यमंत्री ममता ने कहाः यह झूठी साजिश है. पीड़िता माकपा की सदस्या है. दिसंबर 2012 में उत्तरी 24 परगना में बारासात में सामूहिक बलात्कार हुआ, असली बलात्कारी की बजाए पुलिस ने ईंट भट्ठे के मजदूर को गिरफ्तार कर लिया. जुलाई, 2013 मुर्शिदाबाद के रानी नगर में शारीरिक रूप से अशक्त लड़की का रेप, आरोपी था तृणमूल का नेता-पुत्र. अक्तूबर, 2013 में उत्तरी 24 परगना में मध्यमग्राम में एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, लड़की का परिवार डर कर मकान बदल लेता है, अपराधी वहां भी उसका पीछा करते हैं. जनवरी, 2014 में दक्षिणी कोलकाता के फिटनेस सेंटर की कर्मचारी को ट्रक में अगवा कर लिया जाता है और 5 लोग उसके साथ रेप करते हैं. जून 2014 में कामदुनी में कॉलेज छात्रा का रेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है. मुखालफत पर उतरी महिलाओं को ममता बनर्जी माओवादी बता देती हैं.

यह उन बलात्कारों की सूची है जो मीडिया की नजर में आए, और मीडिया के जरिए लोगों की निगाह-ज़बान पर चढे. पर 2014 के आंकड़े 2015 और 2016 में और भयावह होते जाते हैं. नेशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के साल 2016 के आंकड़े पश्चिम बंगाल में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की तरफ इशारा करते हैं. इन अपराधों में महिला तस्करी से जुड़े बढ़ते मामलों की फेहरिस्त भी है और यह खतरनाक ट्रेंड है.

जानकार कहते हैं कि पश्चिम बंगाली की राजनीति में तेज़ाबी बयानबाजियां होती हैं. पर वहां तेजाबी हमले भी महिलाओं के खिलाफ उतने ही कारगर ढंग से इस्तेमाल में लाए जाते हैं. 2016 में, एनसीआरबी कहता है. देश भर के कुल एसिड अटैक के 283 में से 76 सिर्फ बंगाल में हुए. यानी 26 फीसदी. महिलाओं के खिलाफ क्रूरता के देश भर में 1,10,434 मामले दर्ज किए गए हैं और उनमें से 19,305 मामले यानी करीब 17 फीसदी सिर्फ बंगाल में हुए हैं.

मानव तस्करी में भी बंगाल पीछे नहीं है और देश भर में मानव तस्करी का 44 फीसदी मामले बंगाल से ही हुए हैं. 2016 में देश भर में कुल 8,132 केस दर्ज किए गए और बंगाल में यह 3,579 केस थे.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों में बंगाल ने हमेशा अपनी शर्मनाक ऊंची पायदान बरकरार रखी है. साल 2016 में, 32,513 मामलों के साथ महिलाओं के खिलाफ अपराधों की ऊंची संख्या के साथ बंगाल में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का करीब 10 फीसदी (9.6 फीसदी) हिस्सा होता है. हालांकि तर्क यह होगा कि इस पायदान पर भाजपा शासित उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर है और पश्चिम बंगाल दूसरे पायदान पर, लेकिन बंगाल में देश की कुल महिला आबादी का महज 7.5 फीसदी ही है, जबकि यूपी में देश की 17 फीसदी महिलाएं ही रहती हैं.

बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के ऊंची दर के बावजूद प्रशासन ने इसे लेकर कुछ खास किया नहीं है. खतरनाक बात यह है कि पश्चिम बंगाल में न तो राज्य सरकार को इसकी परवाह है और न ही तृणमूल कांग्रेस को चुनौती दे रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए कोई चुनावी मुद्दा.

राज्य में पश्चिम बंगाल महिला आय़ोग और पश्चिम बंगाल बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी इस दिशा में कुछ ठोस करने की पहल नहीं की है.

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में सजा देने की दर 18.9 फीसदी है, पर हैरतअंगेज तरीके से पश्चिम बंगाल में यह महज 3.3 फीसदी ही है.

पर हैरत यह है कि, जैसा मैंने शुरू में कहा, सियासत में नारे आगे चलते हैं तथ्य पीछे छूटते जाते हैं. भावनाएं भारी होती हैं और असलियत को दरकिनार कर दिया जाता है. बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराध पर मैंने शांति निकेतन की एक प्राध्यापिका और कोलकाता में एक महिला पत्रकार से टिप्पणी चाही, तो दोनों ने एक ही जवाब के साथ बंगाल का बचाव कियाः आखिर अपराध किस सूबे में नहीं होते?

मैंने कहा था न, सियासत में नारे तथ्यों पर भारी हों तो वैचारिकता की टेक लिए लोग उसकी हिमायत में आएंगे ही, बचाव में भी.

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Wednesday, January 17, 2018

अब सबको चाहिए हिंदू वोट

नया साल सियासी दलों के लिए अपनी ताकत आजमाने का साल है. इस साल को सियासी दंगल का सेमीफाइनल भी कहा जा सकता है. गुजरात और हिमाचल के बाद राजनीतिक पार्टियां इस साल 8 राज्यों के चुनाव के लिए कमर कस रही हैं.

लेकिन, नया साल भूमिकाएं बदलने का साल भी है. गुजरात में कड़ी टक्कर दे चुकी कांग्रेस ही नहीं, बाकी की पार्टियां सॉफ्ट-हिंदुत्व का दामन थाम रही हैं. एक तरफ तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैय्या ही हैं, जिन्होंने जनसभा में कहा कि वे हिंदू हैं. उन्होंने अपने नाम में राम के जुड़े होने का हवाला दिया और कहा कि सिर्फ भाजपा के लोग ही हिंदू नहीं हैं. अब कर्नाटक में मार्च में ही विधानसभा के चुनाव होने हैं. सूबे में करीब 85 फीसदी हिंदू वोटर हैं. इनमें से 20 फीसदी लोग लिंगायत हैं, जो भगवान शिव के उपासक हैं.

दूसरी तरफ, गुजरात में राहुल गांधी के बाइस मंदिरों की पूजा-अर्चना खबरों में रही ही थी. इसका अर्थ यह है कि कांग्रेस अपनी हिंदुत्व विरोधी छवि को तोड़ने की जुगत में लगी है.

याद करिए, जब गो-वध के खिलाफ देश भर में भाजपाईयो ने हवा बनाई तो केरल में युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने खुलेआम बछड़े का मांस बनाया और खाया था.

कांग्रेस के लिए यह नुकसानदेह था क्योंकि सेकुलर से सेकुलर हिंदू भी खुले तौर पर बीफ को लेकर कुछ ऐसा कहने से बचता है. यह बात और है कि भाजपा के अपने शासन वाले राज्यों में बीफ को लेकर अलग किस्म की रस्सा-कस्सी है.

असल में, अब सभी पार्टियों की नजर हिंदू वोटरों पर है. गुजरात में, भाजपा मोदी के करिश्मे के बूते सरकार और साख बचाने में कामयाब रही थी. लेकिन मानना होगा कि कांग्रेस ने सॉफ्ट हिंदुत्व अपनाकर कड़ी टक्कर दी. अब इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस गुजरात में148 राम मंदिरों में पूजा किट बांटने वाली है.

कोई भी दल, यहां तक कि खुद को काफी सेकुलर दिखाने और जताने वाली तृणमूल कांग्रेस भी इस आरोप से बाहर निकलना चाहती है.

पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ महीनों में हुए सांप्रदायिक विवादों में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर मुसलमानों के पक्ष में खड़े होने के आरोप लग रहे हैं. दुर्गा पूजा और मुहर्रम के बीच विसर्जन को लेकर विवाद में आरोप लगा कि वह मुस्लिम तुष्टिकरण में जुटी हैं. अब मुकुल रॉय पार्टी छोड़कर भाजपा में जा चुके हैं तो ममता को अपने वोट बैंक साधने की याद आई है.

ऐसे में उन्होंने पहले तो गाय पालने वालों को गाय देने की योजना शुरू की और अब उनके करीब माने जाने वाले अनुब्रत मंडल ने वीरभूम जिले में ब्राह्मण सम्मेलन में आठ हजार ब्राह्रमणों की गीता बांटी. साथ में अलग उपहार भी थे. ममता भी इससे पहले खुद को हिंदू बता ही चुकी हैं.

असल में, इस कवायद के पीछे की वजह जानना कोई रॉकेट साइंस नहीं है. भाजपा ने मुकुल रॉय के पार्टी में आने के बाद से अभी से2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है.

कोलकाता में भाजपा ने एक अल्पसंख्यक सम्मेलन किया था. इस सम्मेलन में अच्छी खासी भीड़ जुटी थी. पिछले तीन महीने में यह भाजपा दूसरा अल्पसंख्यक सम्मेलन था.


इसका मतलब है कि एक तरफ कथित सेकुलर पार्टियां हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में करने के लिए बेचैन हैं तो दूसरी तरफ भाजपा इन वोटरों को अपना मानकर चल रही है और वह 2019 में अपनी मजबूती राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश के अलावा पश्चिम बंगाल जैसे इलाके में भी दिखाना चाह रही है.

आखिर, पश्चिम बंगाल में आज तक भाजपा ने 2 से अधिक लोकसभा सीटें नहीं जीती हैं. बंगाल में वाम मोर्चा बेहद कमजोर स्थिति में है और अगर ममता बनर्जी की टीएमसी कमजोर पड़ती है उस सत्ता-विरोधी रूझान को झपटने के लिए भाजपा खुद को दूसरे विकल्प के तौर पर तैयार करना चाहती है.

पश्चिम बंगाल भाजपा के दफ्तर में सोशल मीडिया के कमरे में पीछे फ्लैक्स बोर्ड पर लगा मिशन 148 हालांकि विधानसभा के लिए तय किया टारगेट है. जो अभी तो शायद दूर की कौड़ी लगे, लेकिन सियासत में कुछ भी अचंभा नहीं होता. आखिर, 2011 के विधानसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में भाजपा को महज 4.5 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन लोकसभा में दो सीटों के साथ यह वोट शेयर बढ़कर 16फीसदी हो गया था. 2016 के विधानसभा में, फिर पिछले विधानसभा की तुलना में वोट शेयर बढ़ा था, लेकिन लोकसभा से थोड़ा कम था. यह आंकड़ों में बढोत्तरी और वाम दलों की सुस्ती भाजपा को चुस्ती से घेरेबंदी करने के लिए उत्साहित कर रही है.

बंगाल में भाजपा के पास ले-देकर ढाई चेहरे थे. रूपा गांगुली, दिलीप घोष और राहुल सिन्हा. बाबुल सुप्रियो जरूर आसनसोल से चुनाव जीते हैं लेकिन उनका जनाधार अपने लोकसभा क्षेत्र में भी कुछ खास नहीं है. अब मुकुल रॉय जैसे पुराने नेता को पाले में लाकर भाजपा के लिए राह आसान हुई न हो, लेकिन लड़ने के लिए अब उसके पास एक चेहरा जरूर है.

अब, बंगाल ही क्यों, देश भर में तीन तलाक जैसे मुद्दों पर उदारवादी मुस्लिमों का समर्थन पाकर भाजपा उत्साहित है. लेकिन लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देश के पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी इलाकों में छवियां बदलने के खेल की शुरुआत हो चुकी है.

इसके साथ ही शुरुआत हो चुकी है ध्रुवीकरण की भी. इसको आप चाहें तो भूमिकाएं बदलना कह लें, लेकिन उससे अधिक यह बस दूसरे के सुविधा के क्षेत्र में सेंधमारी ही है.

यह समीकरण अगर दस फीसदी भी कारगर होते हैं तो 2019 से पहले, इसी साल के चार बड़े राज्यों और चार छोटे सूबों के चुनावी दंगल के दांव बड़े हो जाएंगे.

Sunday, January 14, 2018

ये जो देश है मेरा

मित्रों, मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा' छपकर आ गई है. यह किताब  पांच लंबी रिपोर्ताज का संकलन है. मेरी यह किताब मेरी लंबी यात्राओं का परिणाम है.इनमें बुंदेलखंड, नियामगिरि, सतभाया, कूनो-पालपुर और जंगल महल जैसे हाशिए के इलाकों की कहानियां हैं.

बुंदेलों की धरती बुंदेलखंड को अपनी प्यास बुझाने लायक पानी हासिल हो पाएगा या दशकों लंबा सूखा हमेशा के लिए आत्महत्याओं और पलायन के अंतहीन सिलसिले में बदल जाएगा? 

मध्य प्रदेश के कूनो-पालपुर के जंगलों के सरहदी इलाके में बसा टिकटोली गांव डेढ़ दशक में दोबारा जमीन से उखड़ेगा या बच जाएगा? उड़ीसा का नियामगिरि पहाड़ अपनी उपासक जनजातियों के बीच ही रहेगा या अल्युमिनियम की चादरों में ढल कर मिसाइलों और बमबार जहाजों के रूप में देशों की जंग की भट्ठी में झोंक दिया जाएगा? 
उड़ीसा का ही सतभाया गांव अपनी जादुई कहानियों के साथ समुद्र की गोद में दफ्न हो जाएगा, या उससे पहले ही उसे बचा लिया जाएगा? मैंने इन्ही सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है. कोशिश की है कि इसे दिलचस्प तरीके से लोककथाओं के सूत्र में पिरोकर आप तक पहुंचाया जाए.

आप इसे पढ़कर फीडबैक देंगे तो मेरा उत्साहवर्धन होगा.

दिल्ली के विश्व पुस्तक मेला में किताब के साथ प्रवीण कुमार झा

Monday, April 10, 2017

बंगाल में बीजेपी की उर्वर होती ज़मीन

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया, और पार्टी अब उन इलाकों में पैठ बनाना चाह रही है, जहां उसका प्रचार-प्रसार उतना ज्यादा नहीं है। उन राज्यों में केरल और पश्चिम बंगाल हैं। पिछले साल पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनाव ने वोट प्रतिशत के हिसाब से अपना अच्छा प्रदर्शन किया। हालांकि, यह 2014 के लोकसभा चुनाव के वोट प्रतिशत से कम था, लेकिन 2011 के विधानसभा चुनावों से तकरीबन दोगुना था।

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनाव बीजेपी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जिन दो लोकसभा सीटों पर बंगाल में बीजेपी ने जीत दर्ज की थी, अब उस आधार को बढ़ाना जरूरी है। 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को मिली दो लोकसभा सीटें मूलरूप से उन इलाकों में है, जहां बंगलाभाषी जनता का बहुमत नहीं है। आसनसोल सीट में हिन्दी-भोजपुरी बोलने वाले गैर-बांगलाभाषी लोगों का वोट अधिक है, तो दूसरी सट दार्जिलिंग की है, जहां का समीकरण बाकी के बंगाल से अलहदा है।

पश्चिम बंगाल बीजेपी की राज्य इकाई ने पंचायत चुनावों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के अपने समकक्षों से सुझाव लेना शुरू कर दिया है। सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरने के लिए उसने त्रिस्तरीय रणनीति भी बनाई है।

बीजेपी यूपी में शानदार जीत के बाद बंगाल पर ध्यान केन्द्रित कर रही है, जहां ममता बनर्जी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई है। बीजेपी मुस्लिम तुष्टीकरण करके ध्रुवीकरण करने की अपनी नीति पर ही काम करेगी। दूसरी तरफ, तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी की इस बढ़त को रोकने के लिए वामपंथी पार्टियों से भी हाथ मिला सकती हैं। वैसे, इस महाजोट (जिसमें कांग्रेस और तृणमूल तो स्वाभाविक रूप से होंगे) की संभावना दूर की कौड़ी है। लेकिन बीजेपी अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए हरमुमकिन उपाय कर रही है।


वैसे भी, वाम के किले मे दरार के बाद बीजेपी के अंदरूनी रणनीतिकार तबके को लगने लगा है कि बंगाल में एक ऐसे राजनीति दल की आवश्यकता है जो तृणमूल को चुनौती दे सके। बंगाल में बीजेपी के पास फिलहाल कोई बड़ा चेहरा नहीं है। बाबुल सुप्रियो केन्द्र में मंत्री हैं, लेकिन जनाधार वाले नेता नहीं है। कम से कम आसनसोल के बाहर उनका असर अभी दिखता नहीं है। रूपा गांगुली ज़रूर उत्तर बंगाल में असर दिखा सकती हैं, और पार्टी के कैडर में उनकी स्वीकार्यता अगर बढ़ी तो वह स्वाभाविक नेतृत्व दे सकती हैं। राहुल सिन्हा और दिलीप घोष बंगाल बीजेपी के बड़े नेता तो हैं लेकिन असरहीन हैं।

इसलिए बंगाल में भी संभवतया उसी रणनीति पर काम किया जाएगा। यानी अगर दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल होना चाहें तो पार्टी उनका स्वागत करेगी। राज्य इकाई
प्रशिक्षित और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक फौज बना रही है, जो राज्य के प्रत्येक जिले में जा कर नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों और तृणमूल सरकार के कुशासन के बारे में लोगों को बता सके।

बंगाल में बीजेपी अगर अपने इस नेताओं की कमी वाले संकट से निबट ले तो उसके लिए विस्तार की एक उर्वर ज़मीन तैयार है। उत्तर बंगाल में, जो कांग्रेस का पुराना और मजबूत गढ़ रहा है, तृणमूल ने सीटें तो जीती हैं, लेकिन वहां जड़ अभी भी कांग्रेस की ही जमी हुई है। दोनों ही पार्टियां अल्पसंख्यकों के वोटों के भरोसे चुनाव लड़ती हैं। हालांकि बहरामपुर हो या मुर्शिदाबाद, मालदा हो या रायगंज, मुस्लिम वोट वहां निर्णायक होता है। ऐसे में, समीकरण यही होगा कि मुस्लिम वोट, वाम मोर्चे (बड़े वामपंथी नेता मोहम्मद सलीम ने लोकसभा चुनाव उत्तर बंगाल से लड़ा था), कांग्रेस (क्यों कि उत्तर बंगाल की छह सीटें, एबीए गनी खान चौधरी और अधीर रंजन चौधरी समेट दीपा दासमुंशी के असर में है) और तृणमूल (उत्तर बंगाल में विधानसभा चुनाव में तूफानी प्रदर्शन किया) के बीच बंटेगा। बीजेपी, तुष्टीकरण और दंगों को मुद्दा बनाकर हिन्दुओं की पार्टी बनेगी। असल में, बंगाल में हाल के वर्षों में कुछ दंगे हुए हैं, मुख्यधारा की मीडिया ने भले ही इन दंगो को ठीक से कवरेज न दी हो, लेकिन यह बंगाल में बड़ा मुद्दा बना।

फिर, दुर्गा पूजा में ममता ने जिस तरह मूर्ति विसर्जन के वक्त खासी फजीहत कराई और फिर उन्ही दिनों उनकी नमाज पढ़ने वाली तस्वीर वायरल हुई, उससे लगता है कि बंगाल में ममता बनर्जी से नाराज हिन्दू वोट खिसककर बीजेपी की तरफ जाएगा। जाहिर है, अगर आने वाले वक्त में बीजेपी ने बंगाल में ठीक से होम वर्क किया तो पश्चिम बंगाल उसके लिए काफी उपजाऊ ज़मीन साबित होगी। देश की राजनीति में भी, 42 लोकसभा सीटें कम नहीं होती।



मंजीत ठाकुर


Friday, April 22, 2016

वाइ दिस कोलावरी दीदी?

पहली नज़र में देखिए तो ममता बनर्जी बौखलाहट में दिखाई देती हैं। उनकी सरकार के कई मंत्रियों पर और तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के संगीन मामले हैं। शारदा चिट फंड घोटाले से लेकर नारद स्टिंग तक और कोलकाता में फ्लाई ओवर गिरने तक ममता बनर्जी को जवाब नहीं सूझ रहा है।

चुनावी मंचों से ममता बनर्जी न सिर्फ वाम मोर्चें के खिलाफ आग उगलती दिख रही हैं बल्कि वह अपने पुराने साथी बीजेपी के खिलाफ खासकर प्रधानमंत्री के खिलाफ कड़े तेवरों में बोल रही हैं। जबकि, बंगाल में ममता के खिलाफ बीजेपी बहुत ज्यादा कुछ कर पाएगी इसकी उम्मीद कम ही है। बल्कि बीजेपी की मिलने वाली संभावित बढ़त से ममता को उन सीटों पर फायदा ही होगा, जहां अल्पसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण वह अपने पक्ष में चाह रही हैं, और जहां उनकी पार्टी अभी भी कमजोर है। यह इलाके उत्तरी बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा जैसे जिले हैं, और यह कांग्रेस का गढ़ है।

तो फिर सवाल तो बाजिव है कि वाई दिस कोलावरी दीदी?

यह बात भी है कि आचार संहिता उल्लंघन मामले में ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। असल में, इस मुश्किल में फंसने के लिए ममता बनर्जी खुद ही जिम्मेवार हैं। मैं हर बार कहता हूं कि जिस एरोगेंस या अकड़फूं की वजह से पश्चिम बंगाल की जनता ने वाम मोर्चा को सत्ता से बेदखल कर दिया और सत्ता की चाबी तृणमूल कांग्रेस को सौंप दी, वही अकड़ अब तृणमूल कांग्रेस में भी दिखने लगी है।

असल में, आसनसोल की एक चुनावी रैली में ममता बनर्जी ने आसनसोल को ज़िला बनाने का वायदा कर दिया। यह सरासर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला था। जाहिर है, चुनाव आय़ोग फौरन हरकत में आया और एक नोटिस ममता बनर्जी को थमा दी।

लेकिन, इसके बाद सामने आय़ा ममता के वह बेपरवाह रवैया जो खलने वाला है। ममता को मिले नोटिस का जवाब पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव ने दिया था। अब आयोग ने जो नोटिस दिया था वह अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के अध्यक्ष को था न कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को। लेकिन जवाब मुख्य सचिव ने दिया। सरकारी तंत्र पर सत्ताधारी दल के शिकंजे की यह एक अलग कहानी है।

संयोग से, ममता बनर्जी को जिस दिन नोटिस मिला वह पहला बैशाख था, यानी बंगाली नए साल का पहला दिन। ममता ने वीरभूम की रैली में बिफर कर कहा था कि मुझे नोटिस के बारे में पता चला। जो मैंने कहा, वह फिर कहूंगी। एक हजार बार कहूंगी। एक लाख बार कहूंगी। जो करना है कर लो। यदि कोई मेरे खिलाफ झूठी अफवाह फैलाएगा, तो मैं जवाब मांगूंगी।’

यह सरासर एक संवैधानिक संस्था पर प्रहार था और एक तरह से अवमानना भी। बहरहाल, चुनाव आयोग ने ममता बनर्जी की तरफ से पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव द्वारा दिए गए जवाब को खारिज कर दिया और कहा कि इस नोटिस का जवाब खुद ममता बनर्जी को देना चाहिए और इसके लिए आयोग ने आखिरी तारीख 22 अप्रैल की तय कर दी।

आयोग की चिट्ठी की भाषा कड़ी है और उसमें साफ लिखा है कि आचार संहिता उल्लंघन के मामले में नोटिस पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को नहीं, बल्कि तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी को दिया गया था, लिहाजा, इसका जवाब भी उन्हें ही देना चाहिए।

आयोग ने जोर दिया है कि अगर ममता इस नोटिस का जवाब 22 अप्रैल तक देने में नाकाम रहती हैं तो उसके बाद आयोग उनकी राय सुने बिना अपना फैसला ले सकता है।

इधर, आयोग ने ममता के नजदीकी माने जाने वाले और सत्ताधारी दल के पक्ष में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने के आरोप में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को पहले ही हटा दिया।

ममता शाय़द इस बात से भी काफी नाराज़ चल रही हैं। नारद स्टिंग के मामले में भी ममता को बचाव में कुछ सूझ नहीं रहा और ऐसे में ममता यही कह रही हैं कि अगर यह स्टिंग चुनाव की प्रक्रिया से पहले आ गया होता तो शायद वह अपने उम्मीदवार बदल लेतीं।

तो क्या यह समझा जाए कि ममता बनर्जी बौखला गई हैं। लेकिन चालीस दिनों का मेरे अपने बंगाल प्रवास का अनुभव यही कह रहा है कि ममता—भले ही कुछ कम सीटों के साथ—सत्ता में वापसी कर रही हैं। तो उनकी बौखलाहट किस लिए? या यह उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुका है?

लेकिन चुनावी घमासान के बीच चुनाव आयोग के साथ इस तरह आमने सामने की लड़ाई में उतरी ममता लोकतंत्र के पर्व को खटास से भर रही हैं यह तय है।


मंजीत ठाकुर

Friday, April 15, 2016

बंगाल के वोटर की सेहत का मेडिकल बुलेटिन

मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा, बंगाल के लोगों की सेहत कैसी है? तभी से मैं सोच रहा हूं कि बंगाल में किसकी सेहत के बारे में बयान किया जाए?

बंगाल में दो तरह के लोग हैं। एक वोटर है, दूसरा नेता है। इन वोटरों में कुछ कैडर हैं, कुछ गैर-कैडर समर्थक हैं। कुछ विरोधी हैं, सबकी सेहत का हाल तकरीबन एक जैसा है।

कैडर का क्या है, जिन कैडरों को वाम ने 34 साल तक पाला-पोसा, उनमें से बेहद प्रतिबद्ध को छोड़कर, बाकी लोग तृणमूल की तरफ मुड़ गए।

जहां तक वोटर का सवाल है, कुछ वोटर बम बना रहे, कुछ खा रहे हैं। पिचके हुए गाल, और पेट के साथ राजनीतिक प्रतिबद्धता बरकरार है। उन्हें लगातार कायदे से प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि जीवन व्यर्थ है और उसे अपने पितृदल-मातृदल के लिए निछावर कर देना ही मानव जीवन का सही उपयोग है। सेहत सिर्फ नेताओं की सही है, सभी दल के नेता गोल-मटोल-ताजे-टटके घूम रहे हैं।

आम वोटर, भकुआय़ा हुआ देखता रहता है। वह अपनी झोंपड़ी पर किसी एक दल का या ज्यादा कमजोर हुआ तो सभी दल के झंडे लगा रहा है। स्वास्थ्य सबका ठीक है। बस, खून की कमी है क्योंकि बंगाल की राजनीति में उसे सड़कों पर बहाने की बड़ी गौरवपूर्ण परंपरा है। आज भी उस परंपरा को निभाया जा रहा है।

आम वोटर तब तक सही निशान पर उंगली नहीं लगा पाता, जब तक उसे कायदे से धमकाया न जाए। बंगाल में धमकी देना, राजनीति का पहला पाठ है। इसे सियासत के छुटभैय्ये अंजाम देते हैं, जो चुनाव प्रचार खत्म होने के बाद, अगले 48 घंटों में संपन्न किया जाता है। इसके तहत ज़मीनी पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर बाकायदा धमकी देने की रस्म पूरी करते हैं कि अलां पार्टी को बटन दबा देना, बिलकुल सुबह जाकर। इवीएम से बिलकुल सही पार्टी के पक्ष में ‘पीं’ निकलना चाहिए वरना तुम्हे ‘चीं’ बुलवा दिया जाएगा। इसके बाद कार्यकर्ता वोटर को प्यार से समझाता है कि वोट विरोधी पार्टी को देने पर हाथ भी काटे जा सकते हैं, और फिर इसके बाद वह बंगाल के विभिन्न इलाकों में हुए ऐसे महत्वपूर्ण और इतिहास में स्थान रखने वाले उदाहरण गिनाता है।

वोटर का ब्लड प्रेशर सामान्य हो जाता है। वह समझ जाता है कि राजनीतिक हिंसा की इस गौरवपूर्ण परंपरा और इतिहास में उसके हाथ काटे जाने को फुटनोट में भी जगह नहीं मिलेगी।

बंगाल वोटर की आंखें कमजोर हैं क्योंकि दूरदृष्टि-निकट दृष्टि के साथ विकट दृष्टि दोष भी है। याद्दाश्त समय के साथ कमजोर हो गई है, हिप्नोटिज़म का उचित इस्तेमाल किया जा रहा है। वोटरों की आंखों के सामने उन्हें याद दिलाया जा रहा है कि हमने उनके लिए क्या-क्या किया है, क्या-क्या किया जा सकता है।

वोटर गजनी की तरह शॉर्ट टर्म मेमरी लॉस का शिकार हो गया है। उसे दो महीने पहले की बात याद नहीं रहती, यह बात सभी पार्टियों को पता है। सीपीएम को पता है, कांग्रेस के पास विकल्प नहीं है। डायनासोर बनने से अच्छा है, खुद को बदल लिया जाए। कांग्रेस जानती है कि वोटर को यह कत्तई याद नहीं होगा कि वर्धवान जिले में 1971 में साईंबाड़ी में सीपीएम के कैडरों ने उसके कार्यकर्ता के साथ क्या किया था।

असल में पार्टी को मजबूत बनाना हो तो ऐसे कारनामे करने होते हैं। साईं बाड़ी में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता की हत्या कर उसके खून में भात सानकर उसकी मां को जबरन खिलाया गया था। क्रांति की राह में ऐसी वारदातें बहुत आम हैं।

ज़मीनी कार्यकर्ता रूठ भले जाए लेकिन सियासी खेल में एंडीजेन-एंडीबॉडी की तरह फ्रेंडली फाइट उर्फ दोस्ताना संघर्ष होते रहना चाहिए। ज़मीनी कार्यकर्ता का क्या है, वो तो झक मारकर आएगा ही।

बंगाल में वोटर को नेता-कार्यकर्ता सधे हुए डॉक्टर की तरह दवा लेने का नुस्खा समझाते हैं, हंसिया-हथौड़ा दिए चो कि फूल छाप? कोन फूल टा? एकला फूल ना जोड़ा फूल?

कुपोषण से ग्रस्त वोटर के पास दाल-रोटी की चिंता है, राइटर्स में ममता बैठें या बुद्धो बाबू, उसके लिए सब बराबर हैं। बंगाल के नेता के लिए वोटर महज सरदर्द के बराबर है। दिल्ली में बैठे पत्रकार अपनी बातचीत में कहते जरूर हैं, कि बंगाल का वोटर बहुत जागरूक है।

लेकिन सच यह है कि बंगाल का नेता बहुत जागरूक है और उससे भी अधिक जागरूक है वह कैडर, जो बंगाल में अधिक से अधिक वोटिंग को सुनिश्चित करता है अब इसमें कुछ मृतक वोटरों के भी वोट डल जाएं तो इस कार्यकर्ता का क्या कुसूर?


मंजीत ठाकुर

Saturday, April 9, 2016

बंगाल के उद्योगों को चाहिए पोरिबोर्तन

आसनसोल झारखंड की सरहद से लगा पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। रेलवे का बड़ा केन्द्र। पहले कभी इस इलाके में कोयले की बहुत सारी खदानें थीं, और कांच के सामान बनाने वाले कारखानों से लेकर इस इलाके में उद्योगो का जाल बिछा था।

लेकिन आसनसोल के पास कुल्टी में राहुल गांधी एक जनसभा को संबोधित करने वाले थे तो मेरी मुलाकात परचून की दुकान में काम करने वाले भास्कर घोष से हुई। भास्कर पहले आसनसोल औद्योगिक क्षेत्र के एक तापबिजली घर में कर्मचारी थे, लेकिन वाम मोर्चे के शासनकाल में बीमार चल रहा उद्योग ममता के शासन में आकर बंद हो गया और कारखाने में काम कर रहे डेढ़ सौ नियमित और करीब दो सौ ठेके पर काम करने वाले कर्मचारी बेरोजगार हो गए। अब ये लोग सड़क पर आ गए हैं।

बिजलीघर के बंद होने की मुखालफत में कर्मचारी तीस महीने तक धरने पर बैठा रहा। वामपंथी कामगार यूनियनों से उनका साथ नहीं दिया। वजहः यह कारखाना बंद करने का आदेश तो उनकी सरकार ने ही दिया था। अब फैक्ट्री के ज्यादातर कर्मचारी सड़क पर आ गए। रोज़ी-रोटी की तलाश अधेड़ हो चुके लोगों के लिए आसान नहीं थी।

यह स्थिति सिर्फ आसनसोल के किसी भास्कर घोष या किसी चंदन चक्रवर्ती की ही नहीं हुई, बल्कि पूरे बंगाल में उद्योग बीमार हो गए, बंद हो गए।

आजादी के वक्त रोजजगार देने के मामले में बंगाल के उद्योग उस वक्त के बंबई यानी आज के गुजरात और महाराष्ट्र दोनों राज्यो के बराबर था। सन 60 के दशक तक बंगाल कारखानों के मामले में पूरे देश में अव्वल था। सन 1971 के आंकड़े बताते हैं कि नेट वैल्यू के लिहाज से यहां कारखाने पूरे देश के 14 फीसद थे और आज की तारीख में यह 4 फीसद से भी कम है। लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में सन 1971 का यह आंकड़ा 16 फीसद से 2012 में घटकर 6 फीसद हो गया।

पूरे औद्योगिक उत्पादन के लिहाज से बंगाल पिछले तीस साल में पचास फीसद की कमी आई है। सल् 1991 के बाद से भारत में हुए कुल विदेशी निवेश का महज 2 फीसद यहां आया है। एक अनुमान के मुताबिक बंगाल में स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट गुजरात के 28 फीसद की बनिस्बत महज 10 फीसद है। जाहिर है, तमाम दावों और न जाने कितने व्यापार मेलों के बाद भी ममता बनर्जी बंगाल के उद्योगों को धीमी मौत मरने से नहीं उबार पाई हैं।

वाम मोर्चे ने एक रिकॉर्ड ज़रूर बनाया हैः दुनिया में सबेस लंबे वक्त तक चलने वाली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार चलाने का। लेकिन उनके खाते में एक और शर्मनाक रिकॉर्ड होगाः किसी सूबे में सबसे अधिक कारखाने बंद होने का। एक फलता-फूलता राज्य तबाही की कगार पर जा खड़ा हुआ और ओवरड्राफ्ट का शिकार हो गया।

साल 2011 के विधानसबा चुनावों के वक्त ममता बनर्जी ने वादा किया था कि वह सूबे में छोटे, लघु और मंझोले उद्योगो को तरज़ीह देकर औद्योगिक सूरतेहाल की शक्ल बदल देंगी। बंद उद्योगों को फिर से खोला जाएगा, इंजीनियरिंग, इस्पात, चाय और कपड़ा जैसे भारी उद्योग खोले जाएंगे।

पांच बरस बीत गए। इस बार के चुनावी मैनिफेस्टो में ममता के पास कहने के लिए कुछ आंकड़े हैं। अभी तक 2.26 लाख करोड़ के निवेश पर बात चल रही है और सवा दो लाख करोड़ की अन्य परियोजनाएं भी आ रही हैं। ममता ने 48 घंटो के भीतर 143 कारोबारी बैठकें कीं, और 68 सहमति पत्रो पर दस्तख़त किए। राज्य की 7 करोड़ आबादी को 2 रूपये किलो चावल दिया जा रहा है और बंगाल के किसानों की सालाना आमदनी 1.60 लाख रूपये है।

ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। कुल मिला कर पांच लाख करोड़ की परियोजनाएं और विनेश हवा में हैं और उनके कागज़ों पर कोई काम नहीं हुआ है। कारोबारी बैठकें चाहे कितनी कर लें लेकिन उनका नतीजा सिफर रहा है। 2 रूपये किलो चावल पर 27 रूपये की सब्सिडी केन्द्र सरकार देती है और यह चावल जरूरतमंदो तक पहुंचने से पहले कहीं शून्य में विलीन हो जाता है। ममता के दावे के हिसाब से बंगाल का किसान भारत का सबसे अमीर किसान है लेकिन वीरभूम-बांकुड़ा-वर्धवान से प्रायः किसान आत्महत्याओं की खबरें आती रहती हैं।

ममता ने वाम को बेदखल करके सत्ता हासिल की थी तो आम लोगों को उम्मीद जगी थी उनसे। इस बार ममता बनर्जी की वापसी राइटर्स बिल्डिंग में तय है। लेकिन कोई उनको बताए कि आंकड़ों की हवाबाज़ी और ज़मीन सच्चाई में ज़मीन आसमान का फर्क है।

बंद होते उद्योग आंकड़ों से नहीं, निवेश से शुरू होंगे और तब ही किसी चंदन चक्रवर्ती और किसी भास्कर घोष के घर का चूल्हा दोनों वक्त जला करेगा। आमीन

मंजीत ठाकुर

Tuesday, April 5, 2016

ममता का ‘पोरिबोर्तन’

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी एक लहर लेकर आईं। यह लहर 2009 के लोकसभा के वक्त से आनी शुरू हुई थी, और ममता बनर्जी ने इसको पोरिबोर्तन (परिवर्तन) का नाम दिया था।

आज से पांच साल पहले ममता बनर्जी ने वाममोर्चे को सत्ता से बेदखल कर दिया और उनका परिवर्तन चक्र पूरा हुआ लेकिन उनके स्वभाव में एक परिवर्तन आ गया। प्रधानमंत्री ने इस बार खड्गपुर में चुनाव रैली की, तो ममता के स्वभाव में आए इस परिवर्तन को ओर इशारा भी किया और हमला भी।

आज हम और आप ममता को किस रूप में देखें? जनाधार वाली मजबूत नेता या गरीबों की मसीहा? दयालु और तीखे तेवर वाली नेता या दबंग और तानाशाह? जो खुद तो ईमानदार है लेकिन जिसके पार्टी के नेता शारदा से लेकर नारदा तक भ्रष्टाचार के कीचड़ में लिथड़े हैं?

लेकिन यह बात माननी होगी कि ममता बनर्जी की कुछ खासियतें भी हैं। ग्रामीण इलाकों में उनकी जबरदस्त पकड़ है। सत्ता में आने से पहले वाम मोर्चे की खिलाफ आंदोलनों की उन्होंने झड़ी लगा दी थी और चाहे नंदी ग्राम हो या सिंगूर, तापसी मलिक हत्याकांड हो या सड़को पर कैडरों की लड़ाई, ममता ने हर बार आंदोलन की अगुआई की थी और अपने आंदोलन से जुड़े छोटे से छोटे कार्यकर्ता को वह न सिर्फ नाम से जानती थीं, बल्कि उनको निजी तौर पर एसएमएस करके उनका हालचाल भी पूछा करतीं।

ममता ने खुद को आम आदमी की आवाज़ बना कर पेश किया। उनकी यह छवि इसलिए भी बनी क्योंकि पश्चिम बंगाल के वाम नेताओं में 34 साल की सत्ता ने एक खास किस्म की अकड़ ला दी थी और एक एरोगेंस भी।

ऐसे में जंगल महल इलाके में या फिर दार्जीलिंग के पहाड़ो में जब वाम मोर्चे के खिलाफ आंदोलन शुरू हुए तो उनको दीदी ने कभी मौन तो कभी मुखर समर्थन दिया। नतीजाः पहाड़ और जंगल दोनों ही ममता के गढ़ बन गए।

लेकिन सत्ता में आए परिवर्तन ने ममता के स्वभाव में भी बदलाव कर दिया। ममता बनर्जी की खासियत रही है, उनका आवेगपूर्ण स्वभाव। इसी आवेग में वह प्रेम भरा रवैया भी है जो वह अपने लोगों के साथ करती हैं। अपनी टेबल पर बिछे मुरी-चनाचूर में से आपको एक मुट्ठी उठाकर खाने का न्योता देना, ममता के लिए ही मुमकिन है। लेकिन इसके साथ ही कुछ और विशेषण भी उनके साथ आ लगे हैं, वह अब बेहद अधियानकत्व भरी नेत्री हो गई हैं तो साथ ही स्वेच्छाचारी और निरंकुश भी। 

बंगाल में जो बुद्धिजीवी ममता के समर्थन में थे, उनमें से ज्यादातर लोग आज उनसे दूर हो चुके हैं। चाहे उनमें कौशिक सेन हो या कबीर सुमन। अरूणाभ घोष जैसे उनके साथी कांग्रेस में चले गए।

इस बार ममता अपने दम पर चुनाव लड़ रह हैं। तृणमूल कांग्रेस में दूसरी कतार का कोई नेता नहीं। इसकी दो वजहे हैं- अव्वल तो यही कि ममता के सामने कोई दूसरा क़द्दावर नेता खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा सकता, दोयम, उनके कैबिनेट के ज्यादातर लोग नारद स्टिंग में कैमरे के सामने नकद लेते पकड़े गए हैं। दागी नेताओ पर जनता कितना भरोसा करोगी, यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए ममता बनर्जी हर चुनावी रैली मे यही कह रही हैं कि जनता यही माने कि सूबे के सभी 294 सीटों पर ममता बनर्जी खुद चुनाव लड़ रही हैं।

इधर, अगर तृणमूल कांग्रेस के चरित्र में भी पिछले पांच साल में बदलाव आ गया है। अगर साल 2011 के तृणमूल के घोषणापत्र को देखें तो उसके मुखपृष्ठ पर पार्टी का चुनाव निशान है। इस दफे यह स्थान ममता के मुस्कुराते हुए चेहरे ने ले लिया है।

ममता बनर्जी अब लार्जर दैन पार्टी, लार्जर दैन लाइफ हो गई हैं।

भवानीपुर में भले ही ममता बनर्जी से लोहा लेने के लिए नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परपोते चंद्र कुमार बोस और कांग्रेस की तरफ से दीपा दासमुंशी मैदान में हों, लेकिन जिधर देखिए पोस्टरों-बैनरों पर सिर्फ ममता ही ममता हैं।

नारदा स्टिंग पर ममता कुछ नहीं बोल रहीं। जिस तीखे सुर में ममता बनर्जी एक सांस में विपक्ष को गरियाती रही है, जिस सुर में ममता बनर्जी ने 2005 में लोकसभा में विधेयक फाड़कर स्पीकर की तरफ उछाल दिया था वह बाग़ी तेवर अब आधिनायकत्व की तरफ बढ़ गया है।

मालदा में बच्चों की मौतें हो रही है। नवजात शिशुओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया नहीं करा पाईं, सिंगूर ममता के लिए दुखती रग है। जिस सिंगूर के मुद्दे को उछाल कर ममता बनर्जी सत्ता तक पहुंची, उसे वह सुलझा नहीं पाईं।

बंगाल में थका-हारा वाम मोर्चा और उससे भी अधिक थका हुआ कांग्रेस प्रतिष्ठा की लड़ाई भले ही लड़ रहा हो, लेकिन ममता अति आत्मविश्वास से भरी है।

बंगाल के अवाम ने वाम को उसके एरोगेंस की वजह से नकार दिया था। वाम की वापसी की सूरत भी नहीं दिखती। लेकिन हैरत नहीं होगी कि खाली जगह को बीजेपी भरना शुरू कर दे। हेकड़ी का जवाब जनता के पास ही होता है, ममता को याद रखना चाहिए।

मंजीत ठाकुर

Monday, March 28, 2016

लंदन बनने के कलकतिया सपने

कोलकाता के एक झुग्गी में घूम रहा था। एक नल, न जाने कितने लोग। कतार में खड़े होकर खाली बाल्टी लिए, अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। बस्ती में गंदगी है। सफाई वाला हफ्ते में एक बार आता है।

मैं एक महिला से पूछता हूं- समस्या होती होगी? वह नकार देती है, कहती है बस सफाई हो नियमित रूप से तो कोई समस्या नहीं है। अपनी टूटी झुग्गी को ठीक कर रहे रमेश राम बिहार के मोकामा से यहां आकर रहते हैं। जाहिर हैः रोज़ी के लिए। वह कहते हैं, नल से दोनों वक्त पानी आए तो फिर कोई समस्या नहीं है। बिजली के लिए कोई नियमित कनेक्शन नहीं है, कनेक्शन मिल जाए तो फिर कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता सिटी ऑफ जॉय है। आनंद का शहर। उत्सव का शहर। इसलिए समस्याओं के बीच भी कोई समस्या नहीं है। लोग आनंद में हैं। सीमित साधनों में। बुनियादी समस्याओं से जूझते हैं, कहते हैं कोई समस्या नहीं है। कम साधनों, गंदगी और कमियों के बीच उनको जीने की आदत पड़ गई है इसलिए कोई समस्या नहीं है।

रात के दस बजे निकलता हूं, बालीगंज रेलवे स्टेशन के पास फ्लाई ओवर के नीचे नजर जाती है। दिन में जहां दुकानों की कतार थी वहां लोग कतार से सोए पड़े हैं। उनको जगाकर पूछता हूं- यहां सोने में क्या समस्या है? कहते हैं- कोई समस्या नहीं।

बंगाल की राजनीति का एक अनोखा पहलू है। आदमी कहता है कोई समस्या नहीं है। फ्लाई ओवर के पास कतार में सोए आदमियों के ऊपर कतार से तीन लैम्पों वाला लैम्प पोस्ट है। ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में वादा किया थाः कोलकाता को लंदन बना देंगी।

मैं कोलकाता को लंदन होते हुए देखना चाहता हूं। लेकिन ममता ने सबसे पहला काम किया कि पूरे शहर में एक खास किस्म की लाईटें लगवाईं। विपक्षी इनको त्रिकुटी लाइट कहते हैं। विपक्षी आरोप लगाते हैं कि महज 6 हजार वाली इन त्रिकुटी लाइटों को लगाने में 39 हजार का खर्च आया है। आरोप अपनी जगह है। त्रिकुटी लाईटें देखने में बहुत खूबसूरत हैं। उससे भी खूबसूरत है, उसके पोस्ट से लिपटी सफेद-नीली छुटके बल्ब। लैंपपोस्ट के नीचे स़ड़क पर सोने वालों तक इस त्रिकुटी लाईट की रोशनी नही पहुंचती तो क्या हुआ। कोई समस्या नहीं है।

कोलकाता को लंदन बनाने का यह पहला दौर था। फिर, कोलकाता की सभी सार्वजनिक इमारतों का रंग नीला-सफेद करने का दौर शुरू हुआ। कोलकाता में हर फ्लाईओवर, पुल, सड़क के किनारे के पत्थर अब नीले सफेद हैं।

लेकिन लंदन में ऐसा नहीं है। लंदन में कोलकाता की तरह लोग इतने बड़े पैमाने पर शायद सोते भी नहीं होंगे।

वाम मोर्चे वाले पहले कोलकाता को लेनिनग्राद बनाना चाहते थे। जेम्स ओरवेल ने एक किताब लिखी थी। संदर्भ सोवियत संघ का था। उसमें जुमला थाः बिग ब्रदर इज वॉचिंग। बड़े भैया देख रहे हैं। आप उनकी निगहबानी में हैं। वाम के दौर में परिवार के झगड़ो में भी वामी कैडरों का दखल होता था। अब ऐसा ही कुछ दखल तृणमूल के कार्यकर्ताओँ का है।

इसलिए अवाम, वाम से दूर हो गया। अब सत्ता के उसी तरीके को ममता ने भी अपनाया है। उतने ही ठसक भरे अधिनायकत्व से। उनके मंत्री दागी हो गए है। कैमरे ने उनको (क्या पता वीडियो से छेड़छाड़ हुई हो, लेकिन वह तो समय बताएगा) नकद लेते पकड़ा है। सारदा से नारदा तक तृणमूल की छवि धूमिल हुई है। तो अब ममता उसी ठसक से लोगों से कह रही हैं, राज्य की सभी सीटों पर समझो मैं ही खड़ी हूं। वोट मेरे नाम पर दो।

कोलकाता लंदन नहीं बन पाया। कोलकाता में झुग्गी वहीं हैं, नाले वहीं हैं। लोग अब भी सड़कों पर सो रहे हैं। रोजगार और उद्योग वहीं है। सिंगूर का मसला अब भी अनसुलझा है।

लंदन बनाने का सपना बिक गया था। शायद अबकी बार भी बिक जाए। लेकिन ममता बनर्जी सपना भले ही बेच लें, लेकिन याद रखना चाहिए कि लंदन में खुद विक्टोरिया रहती थीं, कोलकाता में तो सिर्फ उनका मेमोरियल है।

मंजीत ठाकुर

Sunday, March 20, 2016

अयोध्या हिल्स में रामराज्य

अयोध्या हिल्स यानी पुरुलिया का वह हिस्सा जो माओवादी उपद्रवों के लिए पूरे देश में बदनाम था। इस इलाके में घूम रहा हूं तो एक बात गौरतलब दिख रही हैः शांति। साल 2009 में नक्सली हिंसा के दौर में इधर आया था तो जिन रास्तों में आप कदम भी नहीं रख सकते थे वहां आज सैनानियों का मेला लगता है। होली के आसपास का वक्त है और अयोध्या हिल्स में कोलकाता से आए सैलानी मटरगश्ती करते देखे जा सकते हैं। सवाल यह है कि आखिर 2011 के बाद ममता बनर्जी ने इस इलाके में क्या जादू किया?

जंगल महल कहा जाता है इस इलाके को। यह इलाका यानी बांकुरा, पुरिलाय और पश्चिमी मेदिनीपुर का हिस्सा, जो झारखंड और छत्तीसगढ़ से लगता है। जंगल महल का नाम माओवादी उपद्रवों के लिए देशभर में मशहूर था, लेकिन अब इस इलाके में विकास की गतिविधियां शुरू होती देखी जा सकती हैं। उद्योगों की कमी वाले इस इलाके में माओवादी गतिविधियों में रोज़ाना कोई न कोई हत्या हुआ करती थी, साथ इलाके में अधिकतर लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते थे।

लेकिन करीबों की समर्थक मानी जाने वाली वाम मोर्चे की सरकार 33 साल के शासन में जो नहीं कर सकी, ममता ने चार साल में कर दिखाया है। ममता की तारीफ करनी होगी कि इस इलाके में अब हिंसक गतिविधियां शून्य हैं। वरना साल 2010-11 में सिर्फ लालगढ़-झारग्राम में 350 लोग नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गए थे। 2012 के बाद से एक भी व्यक्ति की मौत हिंसक गतिविधियों या नक्सली हमले में नहीं हुई है।

2011 में सत्ता में आईँ ममता बनर्जी जंगल महल में शांति और विकास को अपनी बड़ी कामयाबियों में गिनाती हैं। हालांकि यह दावा कुछ ठीक भी लगता है कि पिछले साढ़े तीन साल से यहां शांति है और सारे माओवादी लीडर पकड़ लिए गए हैं।

सरकार ने इस इलाके में टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज और जंगल के इलाकों में बेहतर सड़कों के विकास के साथ लालगढ़ में कंसावती नदी पर 60 करोड़ की लागत से बने पुल ने विकास को नया नज़रिया दिया है।

रोज़गार के लिए इलाके से 10000 (दस हजार) लोगों को होम गार्ड की नौकरी दी गई है और इस इलाके में रहने वाले हर शख्स को 2 रूपये किलो की दर से हर हफ्ते 2 किलो चावल देने की योजनाएं चलाई गई हैं। मनरेगा के पैसे से तालाबों पर भी काम चल रहा है।

लेकिन, अयोध्या हिल्स हो या सालबॅनी, या फिर झाड़ग्राम...यह इलाका अब ठिठककर देशभर की विकास गतिविधियों से अपनी तुलना करने लगा है। दो राय नहीं कि सड़कें बनी हैं। लेकिन रोज़गार के लिए पुरुलिया के अयोध्या हिल्स इलाके में अब भी संताल जनजाति के लोगों के लिए जंगल से लकड़ी काटकर लाना और साल के पत्ते तोड़कर बाजार में बेचना ही है। मनरेगा से मिलने वाली मजदूरी और 2 रूपये किलो चावल, विकास के नाम पर यही हुआ है। नए संस्थान खोले जाने के काम हुए हैं, लेकिन ज्यादार मेदिनीपुर के आसपास।

यह भी सच है कि वाम मोर्चे से लोगों के मोहभंग हुआ था, लेकिन तब से पांच साल बीत चुके हैं। पुरुलिया के काफी बड़े इलाके में कुएं तालाब सब सूख गए हैं। नदियों की तली खोदकर जो पानी इकट्ठा किया गया है, वहां मवेशी भी पानी पी रहे हैं, घरों में भी वही पानी ले जाया जा रहा है। घरों की बहू बेटियों के नहाने का भी एकमात्र साधन वही है। और यह सिर्फ एक गांव की बात नहीं है। अयोध्या हिल्स के आसपास 106 गांवों में यही स्थिति है। इस इलाके के लोग बड़ी दयनीयता से ममता बनर्जी से पानी की गुहार लगाते हैं।

पूरी यात्रा के अंत में मैं तो सिर्फ इतना देख पा रहा हूं कि विकास का काम शुरू तो हुआ है लेकिन यह शुरूआत से भी काफी पीछे है। हम अगर इन लोगों से देशभक्ति की उम्मीद करें तो कैसे, खाली पेट भजन भी तो नहीं होता। और् रही बात शांति की, यह शांति से अधिक खामोशी लग रही है। जो शायद ममता बनर्जी के राजनीतिक कौशल का नतीजा है, और शायद एक फौरी जुगत का भी, जिसके नाकाम हो जाने की आशंका हमेशा सताती रहेगी।


मंजीत ठाकुर

Monday, March 14, 2016

बंगाल का रणघोष

चुनाव का शंखनाद हो गया है। पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुदुचेरी इन पांच राज्यों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। एक बार फिर मैं बंगाल पहुंच गया हूं। मैंने 2009 के लोकसभा से लेकर अभी तक बंगाल के तमाम चुनावों को नजदीक से देखा है। मैंने बंगाल में पोरिबोर्तन (परिवर्तन) को देखा है।

लेकिन इस बार बंगाल कि फिज़ा अलग है। बंगाल का नज़ारा बहुत ही दिलचस्प है। ममता बनर्जी जानती हैं कि लोगों के जेहन से अभी 33 साल के वाम शासन की यादें मिटी नहीं है और वह इस डर को, जो वाम की अकड़ की वजह से पैदा हुई थी, और ममता बनर्जी उस डर को एक दफा फिर से भुनाने में लगी हैं।

कांग्रेस के सामने चुनौती है कि वह अपने छीज चुके जनाधार को किसी तरह बचा ले। कांग्रेस का आधार ऐसे भी सिर्फ बंगाल के उत्तरी इलाके में बचा है, जो मरहूम एबीए गनी खान चौधरी दीपा दासमुंशी, अभिजीत मुखर्जी और अधीर रंजन चौधरी का इलाका है।

वाम मोर्चे के जनाधार में जबरदस्त सेंध लगी थी और पिछले विधानसभा के बाद लोकसभा चुनाव में भी वाम मोर्चा औंधे मुंह गिरा था। पांच साल बाद भी, वाम मोर्चा बंगाल में खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाया है।

ममता बनर्जी ने चुनाव की तैयारी बहुत पहले से करनी शुरू कर दी थी। उन्होंने चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी कर दी। ममता दी की सूची में फुटबॉल खिलाड़ी वाइचुंग भूटिया से लेकर रहीम नबी और क्रिकेटर लक्ष्मी रतन शुक्ला से लेकर पत्रकार प्रवीर घोषाल जैसे नाम है।

शुरूआती अनुमानों के मुताबिक, हालांकि मैंने अभी पूरे सूबे का जायज़ा नही लिया है, लेकिन ममता बनर्जी के बारे में यहां के राजनीतिक पंडित फिलहाल यही उचार रहे हैं कि इस बार उनकी सीटें पिछली बार से अधिक होंगी। यानी ममता बनर्जी के लिए सत्ता विरोधी लहर काम नहीं करेगा इस बार।

इधर, देशद्रोह के आरोप में जेल जाने के बाद कन्हैया वाम दलों के लिए हॉट केक बन चुके हैं और सीताराम येचुरी ने कह दिया है कि कन्हैया बंगाल में प्रचार करेंगे।

लेकिन, येचुरी के लिए बंगाल में अच्छा प्रदर्शन करना बहुत जरूरी है क्योंकि माकपा महासचिव बनने के बाद यह उनके लिए पहला चुनाव है। लेकिन येचुरी के लिए आगे की राह कठिन है। वाम दल अंदरूनी विवादों के बावजूद कांग्रेस के साथ गठजोड़ की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। वाम मोर्चे के कई दल इस गठबंधन से खुश नहीं हैं। लोकसभा चुनाव 2014 में वाम दलों को 27 फीसद वोट मिले थे और कांग्रेस दस फीसद वोट के साथ दो सीटें हासिल कर पाई थी।

इसी तर्क के आधार पर कांग्रेस ने बंगाल में एक सौ सीटें मांग ली हैं और सीपीएम को कांग्रेस की यह मांग नाजायज़ लग रही है।

गौरतलब है कि साल 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की एक लहर उठी थी और उनकी पार्टी 184 सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी।

लेकिन बंगाल में ममता बनर्जी का हाथ ऊपर बताया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए क्योंकि ममता ने विकास के दिखने वाले काम कर दिखाए हैं। सड़के, पानी, बिजली। यानी विकास का वही बिपाशा समीकरण। गांव के लोग खुश हैं कि पिछले साठ साल में जो सड़क नहीं बनी, जिन गांवो में बिजली नहीं थी, वहां यह सब हुआ है। ममता की वजह से हुआ है।

तो नीतीश मॉडल पर अगर बंगाल में भी ममता वापस आएँ तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। राजनीतिक पंडित तो यह भी कह रहे हैं कि इस बार ममता बनर्जी की सीटें पिछली दफा के 184 से भी अधिक आएंगी। वाम मोर्चे के लिए चिंता का एक सबब भारतीय जनता पार्टी भी है।

पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 6.5 फीसद के आसपास वोट आए थे। लोकसभा में मोदी लहर में यह बढ़कर 17 फीसद हो गया था।

इस बार बीजेपी इसे थोड़ा और आगे खिसकाने के प्रयास में है। झारखंड से लगते इलाकों और मालदा, मुर्शिदाबाद के मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी की पैठ पहले से अधिक हुई है, और उसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ेगा।

लेकिन बंगाल राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक है और यहां बिहार या यूपी की तरह वोटों का जातिगत बंटवारा नहीं होता है। हुगली और भागीरथी में पानी बहुत तेजी से बहता है, ममता के लिए 294 में से 220 सीटों की भविष्यवाणी भी अभी भविष्य के गर्त में ही है। चुनावी कवरेज के क्लीशे अपनी जगह, लेकिन ममता की ही दोबारा राइटर्स बिल्डिंग में ताजपोशी होगी, यह तय है।

मंजीत ठाकुर

Friday, September 19, 2014

बंगाल डायरीः दुर्गा पूजा, तापस पाल और बंगाल

कुछ दिनों बाद दुर्गा पूजा शुरू होगी। और कुछ दिन पहले तृणमूल नेता तापस पाल के बयान मीडिया में खूब सुर्खियां बटोर रहे थे। बंगाल आम तौर पर बहुत पढ़ा-लिखा और जागरूक सूबा माना जाता है। परिवार में भी महिलाओं की स्थिति ठीक मानी जा सकती है। लेकिन परिवार में रूतबा, समाज में भी वही रूतबा नहीं दिला सकता।

चुनाव कवरेज के दौरान बंगाल में घूम रहा था तो बांकुरा जाने का मौका भी मिला था। वीरभूम जिला। सुबलपुर गांव। लव जिहाद जैसा एक मामला सामने आया। एक जनजातीय लड़की को समुदाय के बाहर के लड़के से प्यार हो गया। 

सालिशी सभा यानी जनजातीय पंचायत, जिसे सुविधा के लिए आप इलाके की खाप पंचायत मान सकते है, ने उस आदिवासी लड़की पर पचास हजार रूपये का जुर्माना ठोंक दिया। लड़की गरीब थी, जुर्माना नहीं दे सकी तो सालिशी सभा के मुखिया के आदेश पर, बारह लोगों ने उस लड़की के साथ बलात्कार किया। बलात्कार करने वालों में मुखिया महोदय भी थे।

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी न जाने कितने तर्क देती हैं, लेकिन विधि-व्यवस्था पर उनकी पकड़ बदतर है। जरा गिनिएगा, फरवरी 2012 में पार्क स्ट्रीट रेप कांड, वर्धमान में कटवा रेप कांड, दिसंबर 2012 में उत्तरी 24 परगना में बारासात में सामूहिक बलात्कार, जुलाई 2013 मुर्शिदाबाद के रानी नगर में शारीरिक रूप से अशक्त लड़की का रेप, आरोपी था तृणमूल का नेता-पुत्र, अक्तूबर 2013 में  उत्तरी 24 परगना में मध्यमग्राम में एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार, लड़की का परिवार डर कर मकान बदल लेता है, अपराधी वहां भी उसका पीछा करते हैं। जनवरी 2014 में दक्षिणी कोलकाता के फिटनेस सेंटर की कर्मचारी को ट्रक में अगवा कर लिया जाता है और 5 लोग उसके साथ रेप करते हैं। जून 2014 में कामदुनी में कॉलेज छात्रा का रेप कर उसकी हत्या कर दी जाती है। मुखालफत पर उतरी महिलाओं को ममता बनर्जी माओवादी बता देती हैं।

यह उन बलात्कारों की सूची है जो मीडिया की नजर में आए, और मीडिया के जरिए लोगों की निगाह-ज़बान पर चढे। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़े पश्चिम बंगाल में महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की तरफ इशारा करते हैं।
साल 2006--1731
साल 2007--2106
साल 2008--2263
साल 2009--2336
साल 2010--2311
साल 2011--2263

महिलाओं के प्रति अपराधों में पश्चिम बंगाल देश में पहले स्थान पर है। बलात्कार के मामलों में तीसरे पायदान पर है। महिलाओं के प्रति अपराधों के लिए बदनाम शहरो में कोलकाता तीसरे नंबर पर है।

पूरे पश्चिम बंगाल में देश का आबादी का साढे सात फीसद हिस्सा रहता है, लेकिन महिलाओं के प्रति अपराध में यह 12.2 फीसद हिस्सा बंटाता है।

यह सवाल जब कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं, मिसाल के तौर पर शांति निकेतन की एक प्राध्यापिका, और कोलकाता में एक महिला पत्रकार से किए गए तो दोनों ने यही उत्तर दिया कि आखिर अपराध किस सूबे में नहीं होते। 

तापस पाल हों या शांति निकेतन की शिक्षिका...उनके लिए दुर्गा पूजा के दौरान भी राजनीतिक प्रतिबद्धता अव्वल नंबर पर है।

Tuesday, May 13, 2014

बंगाल डायरीः बंगाल में भाजपा का आविर्भाव



2014 का चुनाव ऐसा रहा जिसने राजनीतिक सरहदों को चुनौती देना शुरू कर दिया है। इसकी मिसाल है बीजेपी की बंगाल में पैर जमाने की कोशिशें। और वह एक हद तक इसमें कामयाब दिखती है।

बहुत पहले पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने कहा था कि जिस दिन बंगाल में बीजेपी को सीटें मिलनी शुरू हो जाएंगी, केन्द्र में उसकी सरकार बननी तय है। इस दफा ऐसा दिख रहा है। बंगाल में बीजेपी का जनाधार नुमायां हो रहा है। वोट शेयर बढ़ेगा यह तय है। सीटों में कितनी तब्दील होंगी, यह कहना जल्दबाज़ी होगी।

ज्यादा दिन नहीं बीते, चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी और नरेन्द्र मोदी के बीच वाक्-युद्ध देखने को मिला। जबकि ठीक एक साल पहले, नरेन्द्र मोदी जब कोलकाता आए थे, तो उनने ममता के काम की तारीफ की थी और कहा था कि ममता को 34 साल के वाम मोर्चे के दौरान विकास के काम में पैदा हुए गड्ढे भरने का काम करना होगा। एक साल में हुगली में ऐसा कैसा पानी बह निकला?

यही सवाल मैंने जब माकपा पोलित ब्यूरो की सदस्य वृन्दा करात से किया तो उनका सहज उत्तर था, दोनों एक ही हैं, यह ज़बानी जंग महज नूराकुश्ती है।
लेकिन इस जवाब का एक और स्तर है। दरअसल, इस चुनाव में बीजेपी का वोटशेयर खासा बढ़ता दिख रहा है और इस बात की उम्मीद किसी को नहीं थी। ममता को तो कत्तई नहीं।

बीजेपी की तरफ बंगाल के उन वोटरों का झुकाव दिखा, जो तृणमूल कांग्रेस के विरोधी हैं लेकिन सीपीएम से निराश हैं।

अब इसको मोदी लहर कहिए या फिर कुछ और, बंगाल की कम से कम आठ सीटों पर बीजेपी कड़ी चुनौती पेश कर रही है। इन सीटों में, दार्जीलिंग, अलीपुर दुआर, हावड़ा और श्रीरामपुर शामिल हैं। साथ ही, आसनसोल और कृष्णानगर को भी जोड़ लीजिए। हाईप्रोफाइल कैम्पेन वाली वीरभूम सातवीं सीट मानी जा सकती है। बीजेपी इन सीटों पर जीत की उम्मीद लगाई बैठी है। कई साथी पत्रकार इनमें से चार पर बीजेपी की जीत पक्की मान रहे हैं।

लेकिन, मशहूर बांगला अभिनेत्री सुचित्रा सेन की बेटी, और खुद भी हीरोईन रह चुकी, राजनीति की नई नवेली खिलाड़ी मुनमुन सेन किसी लहर से इनकार करती हैं। मोदी लहर? वह किधर है...वह मुझी से पूछती हैं। कहती हैं, बंगाल में सिर्फ एक ही लहर है, ममता की।

मुझे भी इस बात से कहां इनकार है।

जिन आठ सीटों की बात मैंने की, उनमें  एक बात कॉमन है कि यहां की आबादी मिलीजुली है। 2009 में बीजेपी के खाते में सिर्फ एक सीट गई थी। दार्जीलिंग। तब उसे गोरखा पार्टियों का समर्थन मिला था। वह समर्थन इस बार भी मौजूद है।
दूसरी सीटों पर भी उसका एक छोटा सही लेकिन जनाधार तो मौजूद है ही। इस बार उस जनाधार में गैर-बंगाली, वाम-विरोधी और तृणमूल से मोहभंग हुए लोगों का तबका भी आ जुड़ा है।

खासकर, सेलिब्रिटी उम्मीदवारो ने बीजेपी का दावा थोड़ा और मजबूत कर दिया है। श्रीरामपुर में बीजेपी की सभाओँ में वहां के मौजूदा तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी की सभाओं से अधिक भीड़ जुटती है। हालांकि, यह वोटों की संख्या का सुबूत नहीं होता।

आसनसोल में बाबुल सुप्रीयो पर हथियार रखने का इलजाम सहानुभूति की तरह काम कर गया। इस सवाल पर सुप्रीयो कहते हैं, ममता ने मुझे फंसाने की कोशिश की है, इसी से मेरी उम्मीदवारी की गंभीरता का पता चलता है। जबकि मैंने आजतक कोई आर्म यूज़ नहीं किया, सिवाए अपने लेफ्ट और राइट आर्म के। बाबुल मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ दिखाते हैं।

हावड़ा में बीजेपी ने वेटरन एक्टर जॉर्ज बेकर को और वीरभूम में मशूहर जात्रा एक्टक जॉय बनर्जी पर दांव लगाया था।

इन सीटों पर बीजेपी कितनी जीतती है, यह सवाल पेचीदा है। लेकिन 2009 के मुकाबले उसके वोटों में सबस्टेंशियल बढोत्तरी होगी, यह तय है।

लेकिन, पश्चिम बंगाल में बीजेपी का यह उदय, बंगाली जनमानस में पैठे हुए उस सेल्फ-परेशप्शन पर सवाल खड़े करता है, जो कहीं न कहीं श्रेष्ठता भाव लिए था। जो कहीं न कहीं, बौद्धिकता और विमर्श आधारित राजनीति करने का दम भरता था। क्योंकि बंगाल की राजनीति में भी चमक-दमक और ग्लैमर का बढ़ता असर दिख रहा है, हालांकि यह एक अलग किस्म के बहस का विषय है।

फिलहाल, बीजेपी को एक नए राज्य में अपने बढ़ते वोटबैंक से खुश होना चाहिए।

जारी...

Sunday, May 11, 2014

बंगाल डायरीः हकों की सेंधमारी का किस्सा




मालदा से उत्तर जाएंगे तो सिलीगुड़ी जाने के रास्ते में रायगंज है। रायगंज पहले प्रियरंजन दासमुंशी का संसदीय क्षेत्र था। वो बीमार पड़े तो 2009 में उनकी पत्नी दीपा दासमुंशी चुनाव मैदान में उतरीं। सभी दलों में यह परंपरा चल पड़ी है। जनता में भी इसको लेकर ज्यादा परेशानी नहीं थी।

इस्लाममुर, रायगंज क्षेत्र का क़स्बानुमा शहर है। हाईवे को दोनों तरफ बसा हुआ बाजार। छोटा-सा।

2009 में सोनिया गांधी ने दीपा दासमुंशी के पक्ष में रैली की थी। बड़ी भारी भीड़ उमड़ी थी। मालदा में राहुल गांधी ने रैली की थी। वहां भी भारी भीड़ उमड़ी थी। लेकिन इस बीच पांच साल बीत गए।

पांच साल में न जाने कितना पानी बह गया गंगा में। तब, इस्लामपुर में एक अधेड़ सी शख्सियत से मुलाकात हुई थी। रेलवे में कुली का काम करते थे। नाम याद नहीं। डायरी में नाम लिखना भूल गया था। कह रहे थे, इंदिरा माता ने खुद उऩको आशीर्वाद दिया था। सोनिया माता के प्रति भी भरोसा कायम था।

कह रहे थे, शुरू में उनके गोरे रंग पर भरोसा नहीं था, अब जम गया है। राहुल को लेकर एक ऐसी चिंता थी उनके चेहरे पर, जैसे किसी नाबालिग बच्चे को लेकर घर के बुजुर्ग में होती है। उस आदमी की आवाज़ में एक शक था—राहुल संभाल पाएगा देश को, बाप जैसी बात नहीं उसमें। बांगला मिश्रित हिंदी। यह साल 2009 की बात है।

2014 में लोग परेशान दिख रहे हैं। रैलियों में भीड़ है। सोनिया की रैली में भी राहुल की रैली में भी। प्रतिबद्ध वोट बैंक है, लेकिन वह उत्साह नहीं। तृणमूल कांग्रेस के आक्रामक तेवर, कुछ देव जैसे बांगला सुपरस्टारों की चमक, और सबसे ज्यादा ममता के पोरिबोर्तन की धमक...। ममता एक आँधी की तरह हैं।

उनको पोरिबोर्तन का काम अभी भी अधूरा है। वाममोर्चा किसी तरह के चमक-दमक भरी रैली या रोड शो से प्रचार नहीं कर रहा। अंडरप्ले कर रहा है।

मैं बांगला समझ सकता हूं। बोल भी सकता हूं। लेकिन एक ट्रिक लगाई मैंने। कहता हूं लोगों से, दिल्ली से आया हूं, और बांगला नहीं जानता। यह बात बांगला में बोलने की कोशिश करता दिखता हूं।

सामने वाले को लगता है बांगला बोलने की कोशिश करने वाले शख्स की मदद करना उनका कर्तव्य है। मुझे मदद मिलती है।

2009 में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा था। मालदा इलाके में खान परिवार का बहुत असर है। 2014 में यह असर पूरी तरह छीजा नहीं है। ममता इस इलाके में तृणमूल की सेंध लगाने की कोशिश में रहीं। पांच दिनों तक लगातार मालदा में कैम्प किया।

ज़मींदार परिवार के अबू हसन खान चौधरी यानी डालू दा का अपना जनाधार है। लेकिन पांच बरस के अंतराल में कमजोर हुए हैं। ममता ने कांग्रेस को हराने के लिए मिथुन और देव जैसे स्टारों से रोड शो करवाए हैं। जंगीपुर, मालदा दक्षिण और मुर्शिदाबाद में कांग्रेस को मुश्किल हो सकती है। हालांकि बहरामपुर से लड़ रहे (मुर्शिदाबाद की ही पड़ोसी सीट) अधीर रंजन चौधरी को हराना बहुत मुश्किल है।

अधीर चौधरी की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है, जैसी गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की है। एकमात्र ऐसे प्रत्याशी हैं कांग्रेस के, जिनपर हत्या का मुकद्दमा चल रहा है।
इलाके में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन पार्टियों को लगर की बातें करना अच्छा लगता है। चुनाव वैचारिक धार पर लड़े जाते हैं। उत्तरी बंगाल में पीने की पानी की समस्या है, उद्योग ठप हैं। रोज़गार है ही नहीं। विकास की ज़रूरत ने तल्ख़ सच्चाईयों से परदा उठाया है, ममता को पोरिबोर्तन विकास की राह पर नहीं चल पाया है, कुछ काम होने शुरू हो गए हैं। लेकिन उम्मीद कायम है।

मुर्शिदाबाद में पीतल के बरतनों का काम होता है। लेकिन चमक खो गई है। कामगारों की लगातार अनदेखी होती रही है।

2009 में इस इलाके के कांसमणिपाड़ा गया था। निरंजन कासमणि मिले थे। पीतल के बरतन बनाते हैं। पूरे मुहल्ले का घर...हर घर से ठक-ठक की आवाज़ आ रही।
हर घर से धुआं निकल रहा। घर के अंदर जाएं, तो छोटे कमरों में लोग काम में जुटे...। निरंजन ने बड़े दुख से बताया, पीतल के बरतन बनाने का उद्योग बस आजकल का मेहमान है। स्टील के बरतनों ने जगह ले ली है। कामगारों के पास पूंजी की कमी है। काम करने के लिए ज़मीन तक नहीं मिलती। सरकार वायदे पर वायदे कर के चले जाते हैं, वोट के बाद कोई पूछने तक नहीं आता।

बड़ी बेचारगी से कहते हैं आप प्रणब दा (उस समय वह वित्त मंत्री थे, और जंगीपुर से चुनावी मैदान में थे) से मिलें तो हमारी व्यथा जरूर सुनाएं।

मुर्शिदाबाद एक और चीज़ के लिए बहुत मशहूर रहा है...रेशम। लेकिन यहां क्या रेशम के कारीगर, क्या बीड़ी मज़दूर क्या पीतल के कारीगर, सबकी व्यथा एक सी है...पानी तक पीने लायक नहीं...आर्सेनिक का ज़हर है उसमें।

जारी....