सपा और बसपा के गठबंधन में शामिल न होने के बाद कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के लिए अपनी अलग रणनीति बनानी शुरू कर दी है. तो इससे फैसले के पीछे दो रणनीतियां नजर आती हैं. पहली कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पैरों पर खड़ी होना चाह रही है. दूसरा, वह भाजपा के उस जनाधार में सेंध लगाना चाह रही है जो मूलतः ब्राह्मण वोट है और जिसके खिसकने से सपा-बसपा गठजोड़ की जीत सुनिश्चित हो जाएगी. यानी एक तरह से यूपी में भाजपा-विरोधी दल मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण और हिंदू वोटों का जातिगत तौर पर बिखराव चाह रहे हैं. ऐसा इसलिए भी कि सपा के साथ 2017 में चुनावी गठजोड़ का दांव उलटा पड़ चुका है.
समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन में शामिल न होने के बाद कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के लिए अपनी अलग रणनीति बनानी शुरू कर दी है. जब गुलाम नबी आजाद ने यह कहा कि पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में पूरी शक्ति से अपनी विचारधारा का पालन करते हुए यह चुनाव लोकसभा लड़ेगी और भारतीय जनता पार्टी को पराजित करेगी. तो इससे दो रणनीतियां नजर आती हैं. पहली कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने पैरों पर खड़ी होना चाह रही है. दूसरा, वह भाजपा के उस जनाधार में सेंध लगाना चाह रही है जो मूलतः ब्राह्मण वोट है और जिसके खिसकने से सपा-बसपा गठजोड़ की जीत सुनिश्चित हो जाएगी. यानी एक तरह से यूपी में भाजपा-विरोधी दल मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण और हिंदू वोटों का जातिगत तौर पर बिखराव चाह रहे हैं. ऐसा इसलिए भी कि सपा के साथ 2017 में चुनावी गठजोड़ बैकफायर कर चुका है.
फिलहाल, कांग्रेस कह रही है कि उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर वह अकेली चुनाव लड़ेगी. और चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे.
फिलहाल, पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, कांग्रेस अमेठी, रायबरेली, सुल्तानपुर, बाराबांकी, धौराहा, प्रतापगढ़, कानपुर, उन्नाव, कुशीनगर, मुरादाबाद, बरेली, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, फर्रूखाबाद, सहारनपुर, जौनपुर मथुरा फैजाबाद और फतेहपुर सीकरी पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी.
अगर यह मानकर चला जाए कि कांग्रेस यूपी में विपक्षी गठबंधन में शामिल न किए जाने से खीजकर 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो भी उसके बयान में थोड़ा आत्मविश्वास दिख रहा है. यह आत्मविश्वास तीन राज्यों में उसकी सत्ता में वापसी से आया है, जिसमें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो 15 साल के बाद जीत हासिल हुई है. जाहिर है, इससे उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का भी उत्साह बढ़ा है. इस सूबे में कांग्रेस सत्ता से 29 साल से दूर है. 2014 के लोकसभा में भी कांग्रेस की दुर्गति हुई थी और सिर्फ राहुल गांधी और सोनिया गांधी ही अपनी सीटें जीत पाए थे. नारायण दत्त तिवारी सूबे के आखरी कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. दिसंबर, 1989 तक वह मुख्यमंत्री रहे और उसके बाद से सूबे में कांग्रेस का पराभव शुरू हो गया.
उत्तर प्रदेश में जिस भाजपा विरोधी गठबंधन के कयास लगाए जा रहे थे, उसमें हालिया चुनावी जीत के बाद से कांग्रेस ने अपने लिए तकरीबन बराबरी की सीटों की मांग की थी. जाहिर है, सपा और बसपा के तालमेल में, जिसमें रालोद को भी जगह देनी थी, कांग्रेस के लिए पैर फैलाने की गुंजाइश नहीं थी. लेकिन यहीं पर आकर फच्चर फंस गया. असल में, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने जो सियासी स्पेस खाली किया था सपा और बसपा उसी पर काबिज हुई हैं. कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम, दलित और ब्राह्मणों का था और सपा और बसपा ने इसके बड़े हिस्से को तोड़कर आपस में बांट लिया है. खासकर, कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर छीजा है. उत्तर प्रदेश में कुल आबादी का 18.5 फीसदी हिस्सा मुस्लिमों का है, दलित करीबन 20.5 फीसदी हैं और ब्राह्मण 9.2 फीसदी. मुसलमान वोटर सपा की तरफ मुड़ गए, बसपा के हिस्से दलित आए और ब्राह्मणों ने भाजपा को चुन लिया.
सपा-बसपा ने फिलहाल गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा गठजोड़ पर जोर दिया है, लेकिन अगर उन्हें जीत हासिल हुई तो चुनाव के बाद तालमेल और गठबंधन की संभावनाएं बनी रहेंगी. बसपा सुप्रीमो मायावती चुनाव पूर्व गठबंधनों में क्षेत्रीय दलों को साथ लेने पर जोर देती हैं और ऐसा उन्होंने कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में किया है.
तो क्या उत्तर प्रदेश में स्थिति 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार जैसी ही हो रही है? जब लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी ने कांग्रेस को महज तीन सीटें दी थीं. कांग्रेस ने तब बिहार में सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया था और इसका फायदा एनडीए को मिला था.
हालांकि, कांग्रेस यूपी में सभी 80 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर चुकी है. पर, कांग्रेस, सपा, बसपा और अजीत सिंह की रालोद के मिलने से सूबे में मुस्लिम, जाट, जाटव और यादव वोट एक साथ हो जाते. भाजपा पहले ही यूपी में आशंकाओं से घिरी है और उस गठबंधन से 2019 के लिए मुकाबला और अधिक कड़ा हो जाता. इस गठबंधन का अंकगणित 50 फीसदी वोटों का होता और भाजपा को 42.3 फीसदी वोट ही हैं. ऐसा लग रहा है कि मौजूदा गठजोड़ से उत्तर प्रदेश में हिंदुओं के वोट जाति के आधार पर बंटेंगे और मुस्लिम वोट पहले से अधिक ध्रुवीकृत होकर पड़ेगा. कांग्रेस ने सभी सीटों पर लड़ने का फैसला तो किया है लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए था कि उत्तर प्रदेश की चुनावी जमीन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की तरह दो ध्रुवीय नहीं है. यहां बहुदलीय बहुकोणीय मुकाबले होंगे, और नतीजे भी उसी तरह से आऩे वाले हैं.
इतना ही नहीं, कांग्रेस की बड़ी चुनौती शायद प्रदेश में 80 ऐसे नाम चुनने की भी होगी, जो लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ना चाहते होंगे. सूबे के ज्यादातर इलाकों में कांग्रेस पार्टी के दफ्तर या उनकी कमिटी भी नहीं है. जमीनी स्तर पर कांग्रेस अपने कार्यकर्ता खो चुकी है. सपा-बसपा कांग्रेस को साथ नहीं लाईं क्योंकि मुलायम सिंह यादव खुलेआम कह चुके हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को साथ लेने से सपा को बड़े पैमाने पर अपना जनाधार खोना पड़ा था. एक पेच शायद यह भी है कि तीन राज्यों में जीत से उत्साहित कांग्रेस अब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी को ही आगे करेगी और अखिलेश यादव या मायावती ऐसा क्यों चाहेगी?
अगर कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति में ताकतवर वापसी करनी है तो अकेले चुनाव लड़ना दीर्घकालिक रणनीति के तहत फायदेमंद ही होगा. 2009 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की भी महज 10 सीटों ही थीं. ऐसे में अमित शाह के आक्रामक और बारीक चुनाव अभियान से कांग्रेस को सबक लेना चाहिए. 2014 और 2017 में उनकी रणनीति ने भाजपा का प्रदर्शन सुधरा ही नहीं, परिणाम भी प्रचंड आए.
ऊपर-ऊपर जरूर ऐसा लग रहा है कि सपा-बसपा कांग्रेस को साथ नहीं लाए और कांग्रेस इससे थोड़ी बिफरी हुई है. पर सियासी गलियारों के सूत्र बता रहे हैं कि विपक्ष ने जानबूझकर कांग्रेस को साथ नहीं लिया है और कांग्रेस कई जगहों पर अपने वोटकटवा उम्मीदवार खड़ी करेगी. सपा-बसपा गठजोड़ के लिए यह फायदेमंद होगा.
बहरहाल, अकेले सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कांग्रेस की मजबूरी हो या सोचा-समझा फैसला, यह तय है कि चुनाव सिर्फ अंकगणित नहीं होते. 10 लोकसभा सीटों वाली भाजपा अगर 71 तक और 15 साल बाद प्रचंड बहुमत से सत्ता में लौट सकती है तो कांग्रेस के लिए भी दीर्घकालिक नीतियों के नतीजे ठीक हो सकते हैं.
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