दिल्ली में मौसम मां-बाप की लड़ाई सरीखा हो गया है। दिल्ली की धूप हमारे जमाने के मास्टर की संटी सरीखा करंटी हुआ करता है। हमारे जमाने इसलिए कहा काहे कि आज के मास्टर बच्चों को कहां पीट पाते हैं।
तो जनाब, तीन दिन बीते, दिन की धूप में बाप-सा कड़ापन आना शुरु ही हुआ था..कि सरदी मां के लाड़-सी बीच में कूद पड़ी। यों कि अब बाबू जी के अनुशासन और मां के लाड़ के खींचतान में बच्चे की तो दुविधा द्विगुणित हो जाए।
सर्द हवा की झोंकों, रात के तापमान में बरफीले अहसास और दिन में बाबूजी सरीखे आंखे लाल किए सूरज की छड़ीनुमा धूप के बीच बच्चा सरीखा आदमी ज्वर में कांपे, खांके, छींके...। अब धूप का रंग बाबूजी से मिला ही दिया है तो उसके भी कई तेवर हैं...सुबह की धूप, सुबह 11 बजे की धूप, दोपहर की सिर पर तैनात धूप...खेल के वक्त की कनपटी पर पड़ती धूप, ड्रिल मास्टर सरीखी...शाम की धूप विदा कहती प्रेमिका-सी, जाड़े की धूप, भादो के दोपहर की धूप...और न जाने कितने रंग हैं।
रघुवीर सहाय को ये रंग तो कई तरीके का नजर आया हैः
‘एक रंग होता है नीला,
और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है,
इसी तरह लाल भी लाल नहीं है,
बल्कि एक शरीर के रंग पर एक रंग,
दरअसल कोई रंग कोई रंग नहीं है,
सिर्फ तेरे कंधों की रोशनी है,
और कोई एक रंग जो तेरी बांह पर पड़ा हुआ है।’
धूप पिताजी के अवतार में है, पापा के भी. डैडी के भी...अलग अलग लोगों के लिए अलग-अलग संबोधन..अलग चरित्र। मोंटेक की धूप मनमोहन की धूप...मेरे आपके और एक मजदूर की धूप में अंतर तो होगा ना। धूप में पसीना बहाना...कुछ ऐसा मानो कह रहा हो, आदमी जब तक हारता रहता है जिंदा रहता है। जब जीतने लगता है आदमी नहीं रहता।
लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित ही है...धूप बाप सा तीखा क्यों हो गया। जवाब भी होगा, सरदी की हवाओं ने मां जैसी नरमाई छोड़ी नहीं है अब तक।
आखिर में, शाहरुख खान को याद कीजिए, हर घड़ी बदल रही है रुप जिंदगी, धूप है कभी कभी है छांव जिंदगी...जिंदगी में अभी धूप वाला दौर है।
तो जनाब, तीन दिन बीते, दिन की धूप में बाप-सा कड़ापन आना शुरु ही हुआ था..कि सरदी मां के लाड़-सी बीच में कूद पड़ी। यों कि अब बाबू जी के अनुशासन और मां के लाड़ के खींचतान में बच्चे की तो दुविधा द्विगुणित हो जाए।
सर्द हवा की झोंकों, रात के तापमान में बरफीले अहसास और दिन में बाबूजी सरीखे आंखे लाल किए सूरज की छड़ीनुमा धूप के बीच बच्चा सरीखा आदमी ज्वर में कांपे, खांके, छींके...। अब धूप का रंग बाबूजी से मिला ही दिया है तो उसके भी कई तेवर हैं...सुबह की धूप, सुबह 11 बजे की धूप, दोपहर की सिर पर तैनात धूप...खेल के वक्त की कनपटी पर पड़ती धूप, ड्रिल मास्टर सरीखी...शाम की धूप विदा कहती प्रेमिका-सी, जाड़े की धूप, भादो के दोपहर की धूप...और न जाने कितने रंग हैं।
रघुवीर सहाय को ये रंग तो कई तरीके का नजर आया हैः
‘एक रंग होता है नीला,
और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है,
इसी तरह लाल भी लाल नहीं है,
बल्कि एक शरीर के रंग पर एक रंग,
दरअसल कोई रंग कोई रंग नहीं है,
सिर्फ तेरे कंधों की रोशनी है,
और कोई एक रंग जो तेरी बांह पर पड़ा हुआ है।’
धूप पिताजी के अवतार में है, पापा के भी. डैडी के भी...अलग अलग लोगों के लिए अलग-अलग संबोधन..अलग चरित्र। मोंटेक की धूप मनमोहन की धूप...मेरे आपके और एक मजदूर की धूप में अंतर तो होगा ना। धूप में पसीना बहाना...कुछ ऐसा मानो कह रहा हो, आदमी जब तक हारता रहता है जिंदा रहता है। जब जीतने लगता है आदमी नहीं रहता।
लेकिन सवाल अब भी अनुत्तरित ही है...धूप बाप सा तीखा क्यों हो गया। जवाब भी होगा, सरदी की हवाओं ने मां जैसी नरमाई छोड़ी नहीं है अब तक।
आखिर में, शाहरुख खान को याद कीजिए, हर घड़ी बदल रही है रुप जिंदगी, धूप है कभी कभी है छांव जिंदगी...जिंदगी में अभी धूप वाला दौर है।