आज ट्विटर पर मधुबनी के किसी मित्र ने वहां के एक छोटे शहर सकरी के रामशिला अस्पताल के सामने मौजूद भीड़ की चार तस्वीरें चस्पां करते हुए लिखा है, “ये हालात हैं रामशिला हॉस्पिटल, सकरी मधुबनी के बाहर, हॉस्पिटल प्रशासन कह रहा है कि ऑक्सीजन ख़त्म हो गया है. आज का ऑक्सीजन बाकी है कल के लिए कुछ नहीं है. कृपया मदद करें बहुत लोगों की ज़िंदगी का सवाल है.”
बिहार में 4 मई, 2021 को कोविड संक्रमणों की सरकारी संख्या 14,794 थी. ठीक एक महीना पहले 4 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 864 थी. महीने भर में सोलह गुना वृद्धि कैसे हुई? वह भी तब, जब टेस्ट कौन करा रहा है, कितने टेस्ट हो रहे हैं और टेस्ट से निकले नतीजे कितने भरोसेमंद हैं इसपर गहरा शक है. असल में, कुछ साल हुए जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि हिंदुस्तान के 90 फीसद लोग मूर्ख हैं, तो जनता तिलमिला गई थी. पर न्यायमूर्ति सही थे.
पूरे हिंदुस्तान की जनता काटजू साहब के मूर्खता के तराजू पर खरी उतरती है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन मेरा गृहराज्य बिहार खरा उतरता है. पिछले डेढ़ दो महीनों में बिहार में सब कुछ हुआ है. जो-जो मुमकिन उत्सव हो सकते हैं. सब कुछ. सारे मांगलिक कार्य, जिसका नतीजा अमंगल में निकलना था. पिछले दो महीनों से प्रवासी बिहारी (सफेद और नीले कमीज पहनने वाले, दोनों) भेड़ियाधंसान करते हुए बिहार भाग रहे थे.
किसी के घर में मुंडन था, किसी के जनेऊ, कहीं भाई का ब्याह था, कहीं बहिन के हाथ पीले होने थे. कोई इसरार कर रहा था कि तुम्हारे बिना कैसे मुमकिन होगा, कोई कह रहा था कि तुम्हारी भांजी का ब्याह है, बारात कौन संभालेगा. एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसके भाई का ब्याह है, अब तो दरभंगा में हवाई जहाज भी उतरने लगा है, सीधे आओ, मुजफ्फरपुर तक कार से आकर पार्टी में शामिल हो जाओ और फिर वापस. मेरे खुद के परिवार में विवाह था. मैंने एक सुर से विनम्रता से सबको मना किया, कुछ लोगों ने मुझ पर लानतें भेजीं, पर अधिकतर ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया.
यह सिर्फ मेरी बात नहीं है. आप सबके साथ, जिन्होंने कोविड प्रोटोकॉल का पालन अपने लिए, और देश के लिए किया होगा, ऐसा सहना पड़ा होगा. लेकिन खासतौर पर बिहार में शादी-ब्याह के न्यौतों में शामिल होने का न सिर्फ इसरार किया जा रहा है (अभी भी) बल्कि बाकायदा धमकी तक दी जा रही है उससे तो यही लगता है कि जनता वाकई भांग पीकर बैठी है.
मेरे एक वरिष्ठ राज झा, जो मशहूर विज्ञापन निर्माता हैं और एक साथी किसान-पत्रकार गिरीन्द्रनाथ झा हैं. राज झा मधुबनी के पास और गिरीन्द्र पूर्णिया के पास रहते हैं. उन दोनों ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट्स के जरिए बताया कि बिहार के लोग, कोरोना के प्रसार से जरा भी चिंतित नहीं हैं. बारातें निकल रही हैं, डीजे तेज आवाज में ढिंचक बज रहा है और भोज-भात पूरे शबाब पर है. बिहार में जिसतरह से कोरोना को लेकर लोग लापरवाह रहे हैं, उससे यक्ष-युधिष्ठिर वार्ता में यक्ष का प्रश्न याद आता है.
यक्ष ने पूछा था, आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा, लोग रोज अपने आसपास दूसरों को मरते देखते हैं, पर वह यह कभी नहीं सोचते कि कभी वह भी मर सकते हैं, यही आश्चर्य है.
लोग भले ही यह न सोचें कि कोरोना का संकट कितना गहरा हो सकता है, और उनकी यादद्दाश्त भी इतनी कमजोर है कि पिछले साल इन्हीं दिनों जब कोरोना की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लगा था तो लोगों को सड़को पर पैदल चलते हुए अपने घर लौटना पड़ा था. उन दर्दनाक तस्वीरों में सबसे ज्यादा पैदल प्रवासी बिहार के ही थे. पिछले साल का दर्दनाक मंजर बिहार भूल गया पर शायद वहां की सरकार वहां लोगों से अधिक संवेदनशील साबित हुई है. कम से कम इस बार तो जरूर.
लॉकडाउन की तैयारियों के ही मद्देनजर शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासियों को जल्दी लौट आने का आग्रह किया और एक ओर जहां, मिथिला, मगध और भोजपुर में ब्याह की शहनाइयां गूंज रही थी, स्पीकर फटने की हद तक डीजे का वॉल्यूम बढ़ा हुआ था, सरकार ने 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा कर दी है.
सच में, बिहार में लोगों ने ‘कोरोना आश्चर्य’ पेश किया है. मैंने मधुबनी जिले में जयनगर के पास दुल्लीपट्टी गांव के एक मित्र को जब फोन पर कहा कि सावधानी जरूरी है, क्योंकि बीमार पड़े तो बिहार में खस्ता स्वास्थ्य सुविधाओं के मद्देनजर ऑक्सीजन भी नहीं मिलेगा. पर दोस्त आत्मविश्वास से लबरेज थे. उन्होंने मुझे फौरन जवाब दिया कि बिहार में ऑक्सीजन की जरा भी कमी नहीं है. आपको कितना ऑक्सीजन चाहिए भला! आइए हमारे गांव... आम की गाछी (अमराई) में ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन है.
न्यायमूर्ति काटजू वाकई आप सही थे. क्योंकि कम से कम बिहार निवासियों को यही लगता है कि दुनिया में जीवन से भी आवश्यक अपने चचेरे भाई के सबसे छोटे बेटे का मुंडन है.
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Wednesday, May 12, 2021
Sunday, June 14, 2020
सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी छोटे शहरों के सपनों के लिए झटका है
जानने वाले कहते हैं सुशांत सिंह राजपूत पूर्णिया के पास मलहारा नाम के किसी छोटी जगह के थे. मुंबई जैसी जगहों में, जहां मुंबई से बाहर की दुनिया बाहरगांव कही जाती है, मलहारा छोड़िए, पूर्णिया भी कम ही लोग जानते हैं. चमकदमक की उस दुनिया में सुशांत सिंह राजपूत पटनावाले कहलाते थे. सवाल यह नहीं है कि सुशांत पटना के थे या पूर्णिया के, महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि छोटे शहरों के प्रतिनिधि के रूप में, जो जाकर मुश्किल से मुश्किल चोटी पर परचम लहरा दे, एक चेहरा और कम हो गया है.
सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.
दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,
जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,
जिन्हें तुमने जीता है.
पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता!
राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं.
कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.
सुशांत सिंह राजपूत के साथ दो विडंबनाएं हुईं. पहली, छोटे शहरों से आकर धाक जमाने वाले और दुनिया जीत लेने वाले जज्बे से भरे लोगों के एक प्रतीक पुरुष अगर खुद महेंद्र सिंह धोनी हैं, तो दूसरे प्रतीक खुद सुशांत सिंह राजपूत भी हैं. इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की एक और फिल्म छिछोरे भी आई थी.
फिल्म छिछोरे में वह अपने ऑनस्क्रीन बेटे के लिए प्रेरणा की तरह सामने आते हैं जो अवसाद में है. अपने उस बेटे को अवसाद से निकालने के लिए वह अपने सहपाठियों को खोज निकालते हैं. पर अपने जीवन के अवसाद, क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुशांत सिंह राजपूत अवसाद में थे, को कम करने के लिए वह कुछ नहीं कर पाए.
क्या सुशांत सिंह राजपूत जैसे फिल्मी नायकों के इस कदर आत्महत्या करने का असर पड़ेगा? हिंदुस्तान जैसी जगह में जहां आगे बढ़ने की राह में तमाम किस्म की दुश्वारियां दरपेश होती हैं, जहां अपनी दसवीं का नतीजा जानने से लेकर ग्रेजुएशन में परीक्षा के लिए फॉर्म भरने तक किसी किरानी की जेब गर्म करनी होती है, जहां चौथी श्रेणी के छोटी-छोटी नौकरियों के लिए पीएचडी जैसी उपाधियां हासिल करने वाले हजारों लोग आवेदन कर देते हैं, जहां नौकरी के लिए हुई परीक्षा में घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले नित दिन उजागर होते रहते हैं, वहां हमारे बच्चों को, खासकर छोटे शहरों और गांवो के लोगों को प्रेरणा कहां से मिलेगी?
यह प्रेरणा इन्हीं विजेताओं से आती है, जो कभी धोनी के रूप में, कभी जहीर खान के रूप में, कभी सुशांत सिंह राजपूत के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. टीवी से शुरुआत करके सीढी-दर-सीढ़ी सिनेमा की संकरी दुनिया में अपनी जगह बनाना और उस में पैर जमाकर अपने लिए अच्छी भूमिकाएं हासिल करना खासी मशक्कत का काम है.
सुशांत सिंह राजपूत ने यह सब किया था. पर, आज उनकी आत्महत्या की घटना से उनको अपना आदर्श मानने वाला एक बड़ा तबका यह जरूर सोचेगा कि क्या इस भीड़ में जगह बनाकर आगे खड़े होने की जद्दोजहद इतनी जानलेवा है?
हो सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे कोई और वजह हो. अवसाद न हो, निजी रिश्ते हों या शायद कोई ऐसा दवाब, जो जाहिर न किए जा सकते हो. पर, नायक होते ही से क्या जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती? भीड़ आपकी भूमिका पर सिर्फ तालियां बजाने नहीं आती, वह आपके किरदार का चोला ओढ़कर फिर अपने गांवो-कस्बों में उसे दूसरों तक ले जाती है.
संभवतया सुशांत सिंह राजपूत ने कुंअर बेचैन की कविता का बाकी आधा हिस्सा नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो शायद हमारा मुस्कुराता हुआ बांका नायक हमारे बीच होता.
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,
और कांपोगे नहीं...
जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में..
और अंत तक हिम्मत न हारने में.
***
सुशांत सिंह राजपूत उन चेहरों का स्पष्ट प्रतीक थे, जो कुंअर बेचैन की इन पंक्तियों को परदे पर अपने गालों पर पड़ने वाले खूबसूरत गड्ढों और कातिलाना मुस्कान से सजीव करते थे.
दुर्गम वनों और ऊंचे पर्वतों को जीतते हुए,
जब तुम अंतिम ऊंचाई को भी जीत लोगे,
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब,
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में,
जिन्हें तुमने जीता है.
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सुशांत सिंह राजपूत ने आज खुदकुशी कर ली. फोटोः ट्विटर |
पर सुशांत सिंह राजपूत हैं से थे हो गए. फेसबुक पर उनके बारे में जब लिखा तो कई पाठकों ने टिप्पणी की कि काश, कोई 2020 के साल को इस डिलीट कर सकता!
राजपूत ने खुदकुशी की और अमूमन लोग खुदकुशी को कायरों का काम कह रहे हैं.
कुछ साल पहले भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजयी कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर फिल्म बनी थी तो इन्हीं सुशांत सिंह राजपूत को रूपहले परदे पर धोनी का चेहरा बनाया गया था. चेहरा फिट बैठा था और फिल्म हिट हुई थी. इतिहास में अब जब तक महेंद्र सिंह धोनी का नाम रहेगा, परदे पर सुशांत सिंह राजपूत भी उनके चेहरे के प्रतिनिधि के रूप में जीवित रहेंगे.
सुशांत सिंह राजपूत के साथ दो विडंबनाएं हुईं. पहली, छोटे शहरों से आकर धाक जमाने वाले और दुनिया जीत लेने वाले जज्बे से भरे लोगों के एक प्रतीक पुरुष अगर खुद महेंद्र सिंह धोनी हैं, तो दूसरे प्रतीक खुद सुशांत सिंह राजपूत भी हैं. इसी तरह सुशांत सिंह राजपूत की एक और फिल्म छिछोरे भी आई थी.
फिल्म छिछोरे में वह अपने ऑनस्क्रीन बेटे के लिए प्रेरणा की तरह सामने आते हैं जो अवसाद में है. अपने उस बेटे को अवसाद से निकालने के लिए वह अपने सहपाठियों को खोज निकालते हैं. पर अपने जीवन के अवसाद, क्योंकि इस लेख के लिखे जाने तक कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सुशांत सिंह राजपूत अवसाद में थे, को कम करने के लिए वह कुछ नहीं कर पाए.
क्या सुशांत सिंह राजपूत जैसे फिल्मी नायकों के इस कदर आत्महत्या करने का असर पड़ेगा? हिंदुस्तान जैसी जगह में जहां आगे बढ़ने की राह में तमाम किस्म की दुश्वारियां दरपेश होती हैं, जहां अपनी दसवीं का नतीजा जानने से लेकर ग्रेजुएशन में परीक्षा के लिए फॉर्म भरने तक किसी किरानी की जेब गर्म करनी होती है, जहां चौथी श्रेणी के छोटी-छोटी नौकरियों के लिए पीएचडी जैसी उपाधियां हासिल करने वाले हजारों लोग आवेदन कर देते हैं, जहां नौकरी के लिए हुई परीक्षा में घोटाले और भ्रष्टाचार के मामले नित दिन उजागर होते रहते हैं, वहां हमारे बच्चों को, खासकर छोटे शहरों और गांवो के लोगों को प्रेरणा कहां से मिलेगी?
यह प्रेरणा इन्हीं विजेताओं से आती है, जो कभी धोनी के रूप में, कभी जहीर खान के रूप में, कभी सुशांत सिंह राजपूत के रूप में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हैं. टीवी से शुरुआत करके सीढी-दर-सीढ़ी सिनेमा की संकरी दुनिया में अपनी जगह बनाना और उस में पैर जमाकर अपने लिए अच्छी भूमिकाएं हासिल करना खासी मशक्कत का काम है.
सुशांत सिंह राजपूत ने यह सब किया था. पर, आज उनकी आत्महत्या की घटना से उनको अपना आदर्श मानने वाला एक बड़ा तबका यह जरूर सोचेगा कि क्या इस भीड़ में जगह बनाकर आगे खड़े होने की जद्दोजहद इतनी जानलेवा है?
हो सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी के पीछे कोई और वजह हो. अवसाद न हो, निजी रिश्ते हों या शायद कोई ऐसा दवाब, जो जाहिर न किए जा सकते हो. पर, नायक होते ही से क्या जिम्मेदारी नहीं बढ़ जाती? भीड़ आपकी भूमिका पर सिर्फ तालियां बजाने नहीं आती, वह आपके किरदार का चोला ओढ़कर फिर अपने गांवो-कस्बों में उसे दूसरों तक ले जाती है.
संभवतया सुशांत सिंह राजपूत ने कुंअर बेचैन की कविता का बाकी आधा हिस्सा नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो शायद हमारा मुस्कुराता हुआ बांका नायक हमारे बीच होता.
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे,
और कांपोगे नहीं...
जब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में..
और अंत तक हिम्मत न हारने में.
***
Saturday, September 21, 2019
आइआइटी का शाकाहारी अंडा हिप्पोक्रेसी का ताजातरीन नमूना है
खुद को शाकाहारी कहने वाले लोगों में भी ऐसे लोगों की हिस्सेदारी काफी है जिनमें मांसाहार की काफी ललक होती है. ऊपर-ऊपर भले ही वे मांस खाने वालों पर लानतें भेजते रहें, पर अंदर से मांस का जायका पाने की हसरत होती ही है.
आईआईटी के साथ इस मसले पर जुड़ी स्टार्ट-अप कंपनी फोर पर्स्यूट के बिजनेस मैनेजर कार्तिकेय का तर्क है कि पर्यावरण के बर्बाद होने में बीफ (गोमांस) या बफ (भैंसे का मांस) की अहम भूमिका है. दुनिया भर में वीगन यानी शाकाहारी होने को लेकर कई आंदोलन चल रहे हैं. ऐसे में अगर मांसाहार का विकल्प पेश किया जाए तो यह पर्यावरण को बचाने की मुहिम में शामिल होने जैसा होगा.
फोर पर्स्यूट कंपनी लगातार इस तरह की खोज में लगी है. और अब वह यह कंपनी साल भर में कई और मांसाहार के उत्पादों का विकल्प पेश करने की तैयारी कर चुकी है.
यह तो खबर हुई पर मुझे हमेशा लगता रहा है कि खुद को शाकाहारी कहने वाले लोगों में भी ऐसे लोगों की हिस्सेदारी काफी है जिनमें मांसाहार की काफी ललक होती है. ऊपर-ऊपर भले ही वे मांस खाने वालों पर लानतें भेजते रहें, पर अंदर से मांस का जायका पाने की हसरत होती ही है. यह बात मैं कुछ खास तथ्यों के आधार पर कह रहा हूं. सोचिए जरा. आपका भी कोई दोस्त ऐसा होगा जरूर जो कहता होगा कि वह शाकाहारी है और अंडा खाता होगा. अंडा करी या ऑमलेट खाने में उसे कत्तई मांसाहार नहीं लगता होगा. कई लोगों ने एगिटेरियन नाम से नया नामकरण ही कर डाला है.
कुछ लोग ऐसे भी हैं, मांस नहीं खाएंगे पर उसका सालन खाने में परहेज नहीं उनको. ऐसे में मुझे लगता है कि मांसाहारियों से अधिक ललक इन कथित शाकाहारियों में होती है मांस खाने की. वरना, शाकाहारी अंडा, लेग पीस की शक्ल वाला सोया चाप और वेज बिरयानी जैसी खोजें नहीं होतीं. सवाल यही है कि आखिर शाकाहारी अंडे की जरूरत ही क्यों है? खाने की कुछ नई चीज है तो उसको नया नाम दो. अंडा क्यों? मांसाहार बनाम शाकाहार की बहस में अमूमन धर्म का कोण भी घुस ही आता है. कई लोग इसमें मानवीयता और इंसानियत भी जोड़ते हैं.
कारोबार, रोजगार और भोजन के चयन की स्वतंत्रता के तर्क तो खैर हैं ही, पर यह मानिए कि मांसाहार मनुष्य के लिए कुछ नई चीज नहीं है. कॉग्नीटिव रिवोल्यूशन से पहले भी और उसके बाद कृषि का काम सीखने से पहले भी, इंसान खाद्य संग्राहक और शिकारी ही था. इंसान अपने क्रम विकास में पशुपालक भी रहा है. फिर भी, यह लंबी बहस है. फिलहाल तो यही लगता है आईआईटी को जन-कल्याण से जुड़े शोधों पर अधिक ध्यान देना चाहिए. जिनको अंडे और चिकन का जायका चाहिए होगा, वह इनको खाने का प्रयोग खुद कर सकते हैं.
Tuesday, July 16, 2019
नदीसूत्र दो: बढ़ती आबादी का बोझ उठा रही नदियां समंदर तक नहीं पहुंच पाएंगी
कुछेक साल पहले मैं गंगोत्री गया था. मेरी इच्छा गोमुख तक जाने की थी, सो थोड़ी फूलती सांस के साथ जब मैं वहां पहुंचा और मैंने चारों तरफ पलटकर देखा तो बस कालिदास याद आएः
आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..
—कालिदास, मेघदूत
(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)
कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया थाः ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.
आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और शिव, ब्रह्मा का कमंडल, भागीरथ की तपस्या, वर्षा और बाढ़, आशा, निराशा, हताशा...और भारतवर्ष की असली परिभाषा.
और जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.
दुनिया की आबादी 7 अरब कब का पार कर गई. क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं? अब बढ़ती आबादी पर कोई बात नहीं करता. राजनीति में बढ़ती आबादी पर रोक लगाना कोई मुद्दा नहीं है. इसमें धर्म का कोण भी आ जाता है.
लेकिन, हम चाहें लाख इस मुद्दे पर बात करने से कतराते रहें और अपनी जनसंख्या को अपने संसाधन बताते रहें, लेकिन कुछ अध्ययनों पर गौर करें तो नदियों और जल के संदर्भ में आने वाले संकट के संकेत दिखेंगे. हाल ही में, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (कंपॉजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स, सीडब्ल्यूएमआइ) विकसित किया है ताकि देश में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सके. चेतावनी स्पष्ट है, साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी होने वाली है.
इस परिदृश्य में, हर राज्य की जनसंख्या वृद्धि को देखा जाए, जिसका पूर्वानुमान भारतीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग 2001-2026 ने 2006 में किया था. अब इसका पूर्वानुमान अब 2080 तक के लिए किया गया है. इसके मुताबिक, गंगा बेसिन में आबादी साल 2040 तक करीबन डेढ़ गुनी हो जाएगी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इस बेसिन की आबादी 45.5 करोड़ थी जो 2040 में बढ़कर 70.6 करोड़ हो जाएगी. बढ़ती आबादी के साथ शहरीकरण भी बढ़ेगा. शहरी आबादी में करीब 70 फीसदी वृद्धि होगी. शहरी आबादी मौजूदा 14.4 करोड़ से बढ़कर 24.3 करोड़ तक हो जाएगी. ग्रामीण आबादी में 35 फीसदी की बढोतरी होगी. यह मौजूदा (2011) के 34.1 करोड़ से पढ़कर 46.3 करोड़ हो जाएगी.
जाहिर है इस बढ़ी आबादी को खाने के लिए अनाज चाहिए होगा, नहाने और धोने के लिए पानी चाहिए होगा. अनाज उगाने के लिए पानी भी मौजूदा संसाधनों से ही खींचा जाएगा. असल में, पानी की मांग आबादी में बढोतरी के साथ उपभोक्ता मांग और विश्व बाजार के विकास से भी होता है.
वॉटर रिसोर्स ग्रुप का पूर्वानुमान कहता है कि साल 2030 तक सिंचाई के लिए पानी की जरूरत सालाना 2.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी. यानी 2040 तक की गणना की जाए, तो पानी की मांग आज की तुलना में 80 फीसदी बढ़ जाएगी. इसी शोध पत्र में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादनों की जरूरतों के लिए पानी की मांग चौगुनी हो जाएगी.
विषय ऐसा है कि हमें और आपको चिंता करने की जरूरत है. दुनिया भर की मीठे पानी का महज 4 फीसदी हिस्सा हमारे पास है. आबादी को बोझ उससे कई गुना ज्यादा. जैसा कि गांधी जी कहते थे, प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक बहुत है, पर हमारी लालच पूरी करने लायक नहीं.
हमें दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. एक तरफ नदियों को बचाना होगा, दूसरी तरफ आबादी पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी होगी. वरना, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो न हो, गृहयुद्ध जरूर हो जाएगा.
आसीनानाम् सुरभितशिलम् नाभिगन्धैर्मृगाणाम्
तस्या एव प्रभवमचलम् प्राप्ते गौरम् तुषारैः.
वक्ष्यस्य ध्वश्रमदिनयने तस्य श्रृंगे निषण्णः शोभाम्
शुभ्रत्रिनयन वृशोत्खात्पंकोपमेयाम्..
—कालिदास, मेघदूत
(वहां से चलकर जब तुम हिमालय की उस हिम से ढंकी चोटी पर बैठकर थकावट मिटाओगे, जहां से गंगा निकलती है और जिसकी शिलाएं कस्तूरी मृगों के सदा बैठने से महकती रहती हैं. तब उस चोटी पर बैठे ही दिखाई देगा जैसे महादेव के उजले सांड़ के सींगों पर मिट्टी के टीलों पर टक्कर मारने से पंक जम गया हो.)
कालिदास के मेघदूत की इन पंक्तियों को मन में दोहराने के साथ गंगोत्री के आगे गोमुख के पास जब मैंने अपनी नजरें चारों तरफ फिराईं तो मन में एक ही विचार आया थाः ये हिमशिखर इस पृथ्वी के नहीं हो सकते! मुझे लगा कि मैं किसी और लोक में हूं. जहां तक नज़र जाती, हर तरफ सूरज की किरणें हिमकणों को जादुई तरीके से बदल रही थीं. मेरे चारों ओर बिखरे थे असंख्र्य हीरे, मोती, माणिक...चांदी-सी चमकती एक अनंत चादर पर.
आप गोमुख आएंगे तो आपको चारों ओर बिखरा मिलेगा, युगों का इतिहास, भविष्य की झलक, सच जैसा मिथक और जादुई यथार्थ, वेदों की ऋचाएं, ऋषियों का तप, और कवियों की कल्पना. इन हिमकणों ने एक कैलिडोस्कोप का रूप ले लिया है और इसमें दिख रहा है सूदूर इलाकों में बुझती प्यास, अपने खेतों को सींचता किसान, साईबेरिया से आकर बसेरा ढूंढते पक्षी, बुद्ध और शिव, ब्रह्मा का कमंडल, भागीरथ की तपस्या, वर्षा और बाढ़, आशा, निराशा, हताशा...और भारतवर्ष की असली परिभाषा.
और जब भी मैं भारतवर्ष, गंगा नदी, इसके बेसिन की बात करता हूं, मुझे असंख्य नरमुंड नजर आते हैं. गंगा के किनारे-किनारे आप चलते चले जाइए, गंगासागर तक. गंगा ही क्यों, इसकी हर सहायक नदी के तट पर भी आपको अपार जनसंख्या मिलेगी.
दुनिया की आबादी 7 अरब कब का पार कर गई. क्या हम ज़रूरत से ज्यादा हो गए हैं? अब बढ़ती आबादी पर कोई बात नहीं करता. राजनीति में बढ़ती आबादी पर रोक लगाना कोई मुद्दा नहीं है. इसमें धर्म का कोण भी आ जाता है.
लेकिन, हम चाहें लाख इस मुद्दे पर बात करने से कतराते रहें और अपनी जनसंख्या को अपने संसाधन बताते रहें, लेकिन कुछ अध्ययनों पर गौर करें तो नदियों और जल के संदर्भ में आने वाले संकट के संकेत दिखेंगे. हाल ही में, नीति आयोग ने संयुक्त जल प्रबंधन सूचकांक (कंपॉजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स, सीडब्ल्यूएमआइ) विकसित किया है ताकि देश में जल प्रबंधन को प्रभावी बनाया जा सके. चेतावनी स्पष्ट है, साल 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी होने वाली है.
इस परिदृश्य में, हर राज्य की जनसंख्या वृद्धि को देखा जाए, जिसका पूर्वानुमान भारतीय राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग 2001-2026 ने 2006 में किया था. अब इसका पूर्वानुमान अब 2080 तक के लिए किया गया है. इसके मुताबिक, गंगा बेसिन में आबादी साल 2040 तक करीबन डेढ़ गुनी हो जाएगी. 2011 की जनगणना के मुताबिक, इस बेसिन की आबादी 45.5 करोड़ थी जो 2040 में बढ़कर 70.6 करोड़ हो जाएगी. बढ़ती आबादी के साथ शहरीकरण भी बढ़ेगा. शहरी आबादी में करीब 70 फीसदी वृद्धि होगी. शहरी आबादी मौजूदा 14.4 करोड़ से बढ़कर 24.3 करोड़ तक हो जाएगी. ग्रामीण आबादी में 35 फीसदी की बढोतरी होगी. यह मौजूदा (2011) के 34.1 करोड़ से पढ़कर 46.3 करोड़ हो जाएगी.
जाहिर है इस बढ़ी आबादी को खाने के लिए अनाज चाहिए होगा, नहाने और धोने के लिए पानी चाहिए होगा. अनाज उगाने के लिए पानी भी मौजूदा संसाधनों से ही खींचा जाएगा. असल में, पानी की मांग आबादी में बढोतरी के साथ उपभोक्ता मांग और विश्व बाजार के विकास से भी होता है.
वॉटर रिसोर्स ग्रुप का पूर्वानुमान कहता है कि साल 2030 तक सिंचाई के लिए पानी की जरूरत सालाना 2.4 फीसदी की दर से बढ़ेगी. यानी 2040 तक की गणना की जाए, तो पानी की मांग आज की तुलना में 80 फीसदी बढ़ जाएगी. इसी शोध पत्र में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादनों की जरूरतों के लिए पानी की मांग चौगुनी हो जाएगी.
विषय ऐसा है कि हमें और आपको चिंता करने की जरूरत है. दुनिया भर की मीठे पानी का महज 4 फीसदी हिस्सा हमारे पास है. आबादी को बोझ उससे कई गुना ज्यादा. जैसा कि गांधी जी कहते थे, प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता पूरी करने लायक बहुत है, पर हमारी लालच पूरी करने लायक नहीं.
हमें दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है. एक तरफ नदियों को बचाना होगा, दूसरी तरफ आबादी पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी होगी. वरना, तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए हो न हो, गृहयुद्ध जरूर हो जाएगा.
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Tuesday, January 8, 2019
सवर्ण आरक्षण: सवर्णों का साधने का चुनावी जुमला या राजनीतिक ब्रह्मास्त्र?
केंद्रीय कैबिनेट ने गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का फैसला क्या किया, समझिए सियासी तूफान आ गया. देश में आरक्षण की राजनीति कोई नई नहीं है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान ने बिहार में मतदाताओं का उर्ध्वाधर विभाजन कर दिया. बिहार में भाजपा की पराजय के पीछे कई कारणों में एक कारण यह भी रहा. आरक्षण के मसले को तकरीबन हर चुनाव से पहले आंच दे दी जाती है और इस बार भी शायद यही एक वजह भी है. राम मंदिर पर घिरी सरकार को कुछ तो सनसनीखेज करना था. तीन राज्यों के चुनावों में मिली हार का जख्म रिस ही रहा था. रिस इसलिए रहा था क्योंकि भाजपा को लगातार जीत की आदत लग गई थी.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को लगा कि दलित उत्पीड़न कानून की जोरदार तरफदारी करने से उसका परंपरागत सवर्ण वोट बैंक खिसक गया. मध्य प्रदेश में तो सवर्णों के संगठन सामान्य, पिछड़ावर्ग अल्पसंख्यक कल्याण समाज (सपाक्स) ने शिवराज सिंह चौहान के ये कहने के बाद कि कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता, जोरदार आंदोलन चलाया. हालांकि सियासी तौर पर सपाक्स कोई नई जमीन नहीं फोड़ सकी, पर चेतावनी तो इसने दे ही दी थी. ऐसे में मोदी सरकार का ये फैसला चुनाव में सवर्णों की नाराजगी कम करने की जाहिराना कोशिश है.
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को लगा कि दलित उत्पीड़न कानून की जोरदार तरफदारी करने से उसका परंपरागत सवर्ण वोट बैंक खिसक गया. मध्य प्रदेश में तो सवर्णों के संगठन सामान्य, पिछड़ावर्ग अल्पसंख्यक कल्याण समाज (सपाक्स) ने शिवराज सिंह चौहान के ये कहने के बाद कि कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता, जोरदार आंदोलन चलाया. हालांकि सियासी तौर पर सपाक्स कोई नई जमीन नहीं फोड़ सकी, पर चेतावनी तो इसने दे ही दी थी. ऐसे में मोदी सरकार का ये फैसला चुनाव में सवर्णों की नाराजगी कम करने की जाहिराना कोशिश है.
वैसे, आरक्षण का पैंतरा सिर्फ भाजपा ने ही नहीं अपनाया है. चुनाव से पहली यही तीर यूपीए सरकार ने भी चलाया था जब उसने अल्पसंख्यकों को 4.5 फीसदी आरक्षण देने का ऐलान किया था. लेकिन वह फैसला अदालत में धराशायी हो गया. अदालत में टिक न पाने की प्रमुख वजह ठोस आंकड़ों और ताजा सर्वे का मौजूद नहीं था. असल में, पिछड़ेपन की पैमाइश करने के लिए जातिगत सर्वेक्षण जरूरी है जो 1932 के बाद नहीं हुआ. अभी देश में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को मिलाकर 49.5 फीसदी आरक्षण है.
अड़चन कहां है?
सुप्रीम कोर्ट 1992 के इंदिरा साहनी के अपने फैसले में साफ कर चुका है कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. ऐसा करना संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के खिलाफ जाता है. इसके बावजूद कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु में आरक्षण इस सीमा से ज्यादा है जिसका मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है. सच्चाई है कि सवर्णों में भी गरीबी है और उन्हें भी सरकारी मदद की जरूरत है. लेकिन एक दफा फिर से, आबादी के जातिगत ब्योरे उपलब्ध नहीं होने से मामला अटक सकता है.
दूसरी तरफ, संविधान भी आरक्षण को महज सामाजिक आधार पर दिए जाने की पैरवी करता है और संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात का उल्लेख नहीं है. ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन करना जरूरी होगा. इस प्रस्ताव पर दलों के रुख से भाजपा चुनाव मैदान में अपनी रणनीति को धार देगी. वह इसी आधार पर हमलावर होना चाहेगी.
अड़चन कहां है?
सुप्रीम कोर्ट 1992 के इंदिरा साहनी के अपने फैसले में साफ कर चुका है कि कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. ऐसा करना संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के खिलाफ जाता है. इसके बावजूद कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु में आरक्षण इस सीमा से ज्यादा है जिसका मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है. सच्चाई है कि सवर्णों में भी गरीबी है और उन्हें भी सरकारी मदद की जरूरत है. लेकिन एक दफा फिर से, आबादी के जातिगत ब्योरे उपलब्ध नहीं होने से मामला अटक सकता है.
दूसरी तरफ, संविधान भी आरक्षण को महज सामाजिक आधार पर दिए जाने की पैरवी करता है और संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात का उल्लेख नहीं है. ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन करना जरूरी होगा. इस प्रस्ताव पर दलों के रुख से भाजपा चुनाव मैदान में अपनी रणनीति को धार देगी. वह इसी आधार पर हमलावर होना चाहेगी.
बाकी जातियों का क्या?
लेकिन सवाल यह भी है कि क्या बाकी जातियों को आर्थिक आधार पर यह छूट मिलेगी? (ग्रामीण आबादी के सवर्णों के लिए आरक्षण का पात्रता 5 एकड़ जमीन होना और शहरी इलाकों में 1000 वर्गफुट का घर होना माना गया है) यह आधार ओबीसी के क्रीमीलेयर को फिर से पारिभाषित करने की जरूरत खडी़ करेगा.
कैबिनेट का फैसला ऐसे वक्त आया है जब कोई दल सीधे-सीधे इसकी मुखालफत करने की स्थिति में नहीं है. पर यह भी तय है कि विपक्ष इसे सिरे भी नहीं चढ़ने देगा. सिरे न चढ़ने देने में ही शायद भाजपा अपना फायदा देखेगी जब वह प्रस्ताव को लटकाने वाले विपक्षी दलों को सवर्ण विरोधी कह कर बदनाम करे. सवर्ण विरोधी होने का तमगा भी भाजपा की विरोधी पार्टियां नहीं लेना चाहेंगे. इसलिए वे प्रस्ताव में कोई बड़ी खोट निकालने का प्रयास करेंगी.
पार्टियों की स्थिति
वैसे आरक्षण का राजनीति का एक दायरा होता है. हार्दिक पटेल से लेकर मायावती तक, आरक्षण की सियासत करने वाले नेता अपनी स्वीकार्यता का दायरा और अपने वोट बैंक को विस्तृत नहीं कर सके. यूपीए के दौर में कांग्रेस ने खुद को मुस्लिमों का सरपरस्त जताने की कोशिश की और सत्ता से हाथ धोने के साथ ही, उस पर मुस्लिमपरस्त होने की लेबल चस्पा हो गया. आज राहुल गांधी को शिवभक्त बनने और जनेऊ पहने की कवायद इसी लेबल को हटाने की कोशिश भर है.
बहरहाल, सवाल यह है कि सवर्णों को आरक्षण का विधेयक कितना दमदार है? मंगलवार यानी 8 जनवरी को लोकसभा में सरकार संविधान संशोधन विधेयक ला रही है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि इस विधेयक की उम्र बहुत ज्यादा नहीं रहेगी. असल में, संविधान संशोधन विधेयक के लिए सदन में व्यवस्था होनी चाहिए. यानी सदन में शांति रहे और शोर-शराबा नहीं हो. इसके अलावा सदन में सदस्यों की संख्या (543) की दो तिहाई उपस्थिति और समर्थन अनिवार्य है. यदि ऐसा नहीं है तो फिर विधेयक पारित नहीं होगा.
क्या हो सकता है संसद में
आशंका तो यही है कि खुद एनडीए के कई घटक दल और कुछ अन्य पार्टी भी सदन में शोर-शराबा कर यह संविधान संशोधन विधेयक अटका सकते हैं. यदि किसी तरह से यह विधेयक यहां से पास हो जाता है तो फिर राज्यसभा में इसमें अड़ंगा लगना लगभग तय है क्योंकि सरकार को राज्यसभा में बहुमत नहीं है. यदि राज्यसभा में विधेयक किसी वजह से अटकता है तो फिर 16वीं लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक खत्म हो जाएगा. सीधे-सीधे विधेयक का विरोध करने की बजाए कुछ दल इसमें मामूली संशोधन की मांग भी कर सकते हैं. कोई इसकी 10 फीसदी की सीमा को कम या अधिक की मांग करके तो कोई आय की सीमा पर अपना विरोध जाहिर करके ऐसा कर सकता है. सरकार यदि इस संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल देती है, जिसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर माना जाता था पर अब उसकी भी समीक्षा की जा सकती है. ऐसे में संसद के बाद अदालती चक्कर भी सवर्ण आरक्षण में फच्चर फंसा सकते हैं.
लेकिन बात का ब्याज कुछ हो, लेकिन मूलधन यही है कि सरकार को भी पता है कि यह फैसला भी कमोबेश राम मंदिर के उस अध्यादेश की तरह ही है (जो सरकार नहीं लाई) जिसका गिरना तय है. उस उस नाकाम विधेयक का परचम लहरा कर सरकार वोटरों से कहेगीः हमने कोशिश तो की थी. विरोधियों ने कामयाब नहीं होने दिया. अब कोई यह सवाल न करे, यह फैसला चुनाव के ठीक पहले क्यों आया भला?
लेकिन सवाल यह भी है कि क्या बाकी जातियों को आर्थिक आधार पर यह छूट मिलेगी? (ग्रामीण आबादी के सवर्णों के लिए आरक्षण का पात्रता 5 एकड़ जमीन होना और शहरी इलाकों में 1000 वर्गफुट का घर होना माना गया है) यह आधार ओबीसी के क्रीमीलेयर को फिर से पारिभाषित करने की जरूरत खडी़ करेगा.
कैबिनेट का फैसला ऐसे वक्त आया है जब कोई दल सीधे-सीधे इसकी मुखालफत करने की स्थिति में नहीं है. पर यह भी तय है कि विपक्ष इसे सिरे भी नहीं चढ़ने देगा. सिरे न चढ़ने देने में ही शायद भाजपा अपना फायदा देखेगी जब वह प्रस्ताव को लटकाने वाले विपक्षी दलों को सवर्ण विरोधी कह कर बदनाम करे. सवर्ण विरोधी होने का तमगा भी भाजपा की विरोधी पार्टियां नहीं लेना चाहेंगे. इसलिए वे प्रस्ताव में कोई बड़ी खोट निकालने का प्रयास करेंगी.
पार्टियों की स्थिति
वैसे आरक्षण का राजनीति का एक दायरा होता है. हार्दिक पटेल से लेकर मायावती तक, आरक्षण की सियासत करने वाले नेता अपनी स्वीकार्यता का दायरा और अपने वोट बैंक को विस्तृत नहीं कर सके. यूपीए के दौर में कांग्रेस ने खुद को मुस्लिमों का सरपरस्त जताने की कोशिश की और सत्ता से हाथ धोने के साथ ही, उस पर मुस्लिमपरस्त होने की लेबल चस्पा हो गया. आज राहुल गांधी को शिवभक्त बनने और जनेऊ पहने की कवायद इसी लेबल को हटाने की कोशिश भर है.
बहरहाल, सवाल यह है कि सवर्णों को आरक्षण का विधेयक कितना दमदार है? मंगलवार यानी 8 जनवरी को लोकसभा में सरकार संविधान संशोधन विधेयक ला रही है. लेकिन ऐसा लग रहा है कि इस विधेयक की उम्र बहुत ज्यादा नहीं रहेगी. असल में, संविधान संशोधन विधेयक के लिए सदन में व्यवस्था होनी चाहिए. यानी सदन में शांति रहे और शोर-शराबा नहीं हो. इसके अलावा सदन में सदस्यों की संख्या (543) की दो तिहाई उपस्थिति और समर्थन अनिवार्य है. यदि ऐसा नहीं है तो फिर विधेयक पारित नहीं होगा.
क्या हो सकता है संसद में
आशंका तो यही है कि खुद एनडीए के कई घटक दल और कुछ अन्य पार्टी भी सदन में शोर-शराबा कर यह संविधान संशोधन विधेयक अटका सकते हैं. यदि किसी तरह से यह विधेयक यहां से पास हो जाता है तो फिर राज्यसभा में इसमें अड़ंगा लगना लगभग तय है क्योंकि सरकार को राज्यसभा में बहुमत नहीं है. यदि राज्यसभा में विधेयक किसी वजह से अटकता है तो फिर 16वीं लोकसभा भंग होने के साथ ही यह विधेयक खत्म हो जाएगा. सीधे-सीधे विधेयक का विरोध करने की बजाए कुछ दल इसमें मामूली संशोधन की मांग भी कर सकते हैं. कोई इसकी 10 फीसदी की सीमा को कम या अधिक की मांग करके तो कोई आय की सीमा पर अपना विरोध जाहिर करके ऐसा कर सकता है. सरकार यदि इस संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल देती है, जिसे न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर माना जाता था पर अब उसकी भी समीक्षा की जा सकती है. ऐसे में संसद के बाद अदालती चक्कर भी सवर्ण आरक्षण में फच्चर फंसा सकते हैं.
लेकिन बात का ब्याज कुछ हो, लेकिन मूलधन यही है कि सरकार को भी पता है कि यह फैसला भी कमोबेश राम मंदिर के उस अध्यादेश की तरह ही है (जो सरकार नहीं लाई) जिसका गिरना तय है. उस उस नाकाम विधेयक का परचम लहरा कर सरकार वोटरों से कहेगीः हमने कोशिश तो की थी. विरोधियों ने कामयाब नहीं होने दिया. अब कोई यह सवाल न करे, यह फैसला चुनाव के ठीक पहले क्यों आया भला?
(मेरा यह लेख Ichowk पर प्रकाशित हो चुका है)
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Saturday, March 24, 2018
हमारा फेसबुक और आधार का डेटा चुराकर कर क्या लोगे बाबू!
सुबह अखबार में खबर आई तो गांव में जो भी भाई-बंदा अपने मोबाइल पर फेसबुक चलाता था, एकदम से सहमा हुआ था और गुड्डू आंखें फाड़-फाड़कर तकरीबन बेहूदगी से सबको देख रहे थे. उनसे रहा न गया, पूछ ही बैठेः "काहे सब परेशान हैं इतने?'
'ददा, पता नहीं है आपको, फेसबुक पर हमारे डेटा सुरक्षित नहीं रहे, पहले आधार वाले हमारे डेटा पर सेंध थी और अब इस फेसबुक पर दी गई सूचनाओं पर भी खतरा है.'
गुड्डू भैया जोर-जोर से हंसने लगे, 'सुनो रे ठाकुर, एक ठो किस्सा सुनो. एक आदमी ज्योतिषी के पास हाथ दिखाने गया. ज्योतिषी ने कहा, शनि का साढ़ेसाती है. काली गाय दान करो.
आदमी उजबक की तरह देखने लग गयाः इत्ते पइसे कहां है महराज?
ज्योतिषी ने तोड़ निकालाः तो लोहे की कड़ाही में काली तिल भरकर दान करो.
आदमी ने फिर हाथ जोड़ेः पंडिज्जी, इत्ते पइसे कहां है मेरे पास?
ज्योतिषी ने आखिरी बात कहीः चल एक टोकरी कोयला ही दान कर दे.
आदमी ने फिर हाथ जोड़ लिएः नहीं कर पाऊंगा ज्योतिषी जी. इत्ते पइसे नहीं पास में.
ज्योतिषी उठ खड़ा हुआ, अबे कंगले, जब तेरे पास टोकरी भर कोयला दान करने लायक कलदार भी नहीं, तो शनि महराज भी तेरा क्या बिगाड़ लेगें.'
गुड्डू भैया जोर-जोर से हंसने लगे, 'सुनो रे ठाकुर, एक ठो किस्सा सुनो. एक आदमी ज्योतिषी के पास हाथ दिखाने गया. ज्योतिषी ने कहा, शनि का साढ़ेसाती है. काली गाय दान करो.
आदमी उजबक की तरह देखने लग गयाः इत्ते पइसे कहां है महराज?
ज्योतिषी ने तोड़ निकालाः तो लोहे की कड़ाही में काली तिल भरकर दान करो.
आदमी ने फिर हाथ जोड़ेः पंडिज्जी, इत्ते पइसे कहां है मेरे पास?
ज्योतिषी ने आखिरी बात कहीः चल एक टोकरी कोयला ही दान कर दे.
आदमी ने फिर हाथ जोड़ लिएः नहीं कर पाऊंगा ज्योतिषी जी. इत्ते पइसे नहीं पास में.
ज्योतिषी उठ खड़ा हुआ, अबे कंगले, जब तेरे पास टोकरी भर कोयला दान करने लायक कलदार भी नहीं, तो शनि महराज भी तेरा क्या बिगाड़ लेगें.'
गुड्डू ने कहानी खत्म की और मुझसे पूछाः 'समझे ठाकुर!'
मैंने भी हाथ जोड़ लिएः क्या भइया, चाहते क्या हैं कहना.
गुड्डू ने हाथ में पकड़े गिलास से लंबा घूंट भरा और बोलेः 'हमारे डेटा चोरी कर के कोई क्या कर लेगा यार?'
'क्यों, हमारी सारी सूचना तो उसमें है? क्या सूचना है बता तो सही? आय़कर भरने वाले सौ लोगों में से 89 फीसद लोग तो 5 लाख रु. से कम की आमदनी वाले हैं. बाकी जो 11 लोग आयकर देते हैं उनमें से भी 80 फीसदी लोग मुंबई के हैं तो इ डेटा चोरी होने से होगा क्या. वैसे भी अदालत में सरकारी नुमांइदे ने कहा ही है, हमारे डेटा दस फीट मोटी दीवार वाले कमरे में सुरक्षित हैं. अरे ऐसे में तो क्लाउड में सेव किया डेटा भीग भी जाता होगा.' गुड्डू भैया ने फिर लंबा ठहाका लगाया.
'लेकिन जो मेल पर रोज रोज प्रस्ताव आते हैं सो?' गुड्डू भैया ने अपना जीमेल खोलकर दिखाया. इनबॉक्स में कोई 6,879 अनरीड मेल पड़े थे. 'जो आदमी मेल चेक ही नहीं करता उसका यह लोग डेटा चोरी करके करेंगे क्या? और रोजाना जो आपके पास मार्केटिंग वाले फोन किया करेंगे, लोन लो, पर्सनल भी होम भी, क्रेडिट कार्ड भी, और न जाने क्या अल्लम-गल्लम.'
मैंने भी हाथ जोड़ लिएः क्या भइया, चाहते क्या हैं कहना.
गुड्डू ने हाथ में पकड़े गिलास से लंबा घूंट भरा और बोलेः 'हमारे डेटा चोरी कर के कोई क्या कर लेगा यार?'
'क्यों, हमारी सारी सूचना तो उसमें है? क्या सूचना है बता तो सही? आय़कर भरने वाले सौ लोगों में से 89 फीसद लोग तो 5 लाख रु. से कम की आमदनी वाले हैं. बाकी जो 11 लोग आयकर देते हैं उनमें से भी 80 फीसदी लोग मुंबई के हैं तो इ डेटा चोरी होने से होगा क्या. वैसे भी अदालत में सरकारी नुमांइदे ने कहा ही है, हमारे डेटा दस फीट मोटी दीवार वाले कमरे में सुरक्षित हैं. अरे ऐसे में तो क्लाउड में सेव किया डेटा भीग भी जाता होगा.' गुड्डू भैया ने फिर लंबा ठहाका लगाया.
'लेकिन जो मेल पर रोज रोज प्रस्ताव आते हैं सो?' गुड्डू भैया ने अपना जीमेल खोलकर दिखाया. इनबॉक्स में कोई 6,879 अनरीड मेल पड़े थे. 'जो आदमी मेल चेक ही नहीं करता उसका यह लोग डेटा चोरी करके करेंगे क्या? और रोजाना जो आपके पास मार्केटिंग वाले फोन किया करेंगे, लोन लो, पर्सनल भी होम भी, क्रेडिट कार्ड भी, और न जाने क्या अल्लम-गल्लम.'
'लेकिन, ददा. देश के अधिकतर फेसबुक यूज़र को यह नहीं पता है कि सोशल मीडिया कंपनियां उनके बारे में कितना जानती हैं. फ़ेसबुक का बिज़नेस मॉडल उसके डेटा की गुणवत्ता पर आधारित है. फ़ेसबुक उन डेटा को विज्ञापनदाताओं को बेचता है. विज्ञापनदाता यूज़र की ज़रूरत समझकर स्मार्ट मैसेजिंग के ज़रिए आदतों को प्रभावित करते हैं और यह कोशिश करते हैं कि हम उनके सामान को खरीदें.' मैंने अपना तर्क रखा.
'तो क्या होगा. कितनी तो मीठी आवाज में बात करती हैं बेचारी. पूरी बात सुन लो, और उसके बाद आखिर में कह दो नहीं लेना है लोन. नही लेना क्रेडिट कार्ड.'
'तो क्या होगा. कितनी तो मीठी आवाज में बात करती हैं बेचारी. पूरी बात सुन लो, और उसके बाद आखिर में कह दो नहीं लेना है लोन. नही लेना क्रेडिट कार्ड.'
'बात सिर्फ क्रेडिट कार्ड की नहीं है न ददा. फ़ेसबुक न सिर्फ़ सामान बल्कि राजनीति भी बेच रहा है. राजनीतिक दल, चाहे वो लोकतांत्रिक हों या न हों, हमारी सोच को प्रभावित करने के लिए स्मार्ट मैसेजिंग का इस्तेमाल करना चाहते हैं ताकि हमलोग किसी ख़ास उम्मीदवार को वोट करें. वो इसका इस्तेमाल आम सहमति को कमज़ोर करने और सच्चाई को दबाने के लिए भी करते हैं.'
'देखो ठाकुर, हमारे देश में पहले से लोग जाति, धर्म और सौ के नोट के बदले वोट देने के आदी रहे हैं. फेसबुक और वॉट्सऐप मेसेज के बदले भी दे लेंगे तो क्या हो जाएगा? और तुम कर भी क्या लोगे? तुम जो करते हो सब तो सरकार से ज्यादा गूगल की निगाहों में है. कितने बजे उठते हो, कितने बजे पोट्टी जाते हो, कितने बजे दफ्तर जाते हो और किस रास्ते जाते हो, कौन सी कैब से जाते हो. तेरी रग-रग से वाकिफ है गूगल. तो फिर क्या बचा लोगे उससे. कौन से डेटा की सुरक्षा चाहिए तुम्हें और कौन करेगी सुरक्षा! बात रही मेरे प्रोफाइल फोटो की, तो करने दो डाउनलोड मेरा फोटो. चिपकाने दो कलेजे से मेरा फोटो, फेविकोल लगाकर.'
'देखो ठाकुर, हमारे देश में पहले से लोग जाति, धर्म और सौ के नोट के बदले वोट देने के आदी रहे हैं. फेसबुक और वॉट्सऐप मेसेज के बदले भी दे लेंगे तो क्या हो जाएगा? और तुम कर भी क्या लोगे? तुम जो करते हो सब तो सरकार से ज्यादा गूगल की निगाहों में है. कितने बजे उठते हो, कितने बजे पोट्टी जाते हो, कितने बजे दफ्तर जाते हो और किस रास्ते जाते हो, कौन सी कैब से जाते हो. तेरी रग-रग से वाकिफ है गूगल. तो फिर क्या बचा लोगे उससे. कौन से डेटा की सुरक्षा चाहिए तुम्हें और कौन करेगी सुरक्षा! बात रही मेरे प्रोफाइल फोटो की, तो करने दो डाउनलोड मेरा फोटो. चिपकाने दो कलेजे से मेरा फोटो, फेविकोल लगाकर.'
'ऐसा मत कहिए गुड्डू भइया. रवि शंकर बाबू ने क्या तगड़ी डांट पिलाई है जुकरबर्ग को.'
'सुन ठाकुर बुरा न मानो तो एक किस्सा और सुन लो. दिल्ली पर मुहम्मद शाह रंगीले का शासन था. खबर मिली कि नादिरशाह का हमला होने वाला है. तो रंगीला चिंतित हो गया. उसके एक वजीर ने राय दी थी. यमुना के किनारे कनातें लगवा देते हैं. हम सब चूड़ियां पहनकर कनातों में बैठे रहें. जैसे ही नादिरशाह की फौज पास आए हम सब चूड़ियां चमका कर कहें, इधर न आइयो मुए, इधर जनाने हैं. फिर वो शर्म से नहीं आएंगे.
अरे ठाकुर, हूण आए, कुषाण आए, शक भी आए. नए दौर में यह नई तकनीक भी आई है, हमें तो लुटने की आदत है. यह जुकरबर्ग क्या लूट लेगा और आधार में से कंपनियां क्या लूट लेंगी. सुनते जाओ
चराग़ हाथ में हो तो हवा मुसीबत है
सो मुझ मरीज़-ए-अना को शिफ़ा मुसीबत है.
मैं चुप हो गया. गुड्डू भैया ने ग्लास में से लंबा घूंट लिया और बोले, 'मरीज़-ए-अना मतलब अभिमान की बीमारी से ग्रस्त, और शिफ़ा का मतलब स्वस्थ होना. बिना मतलब समझे शेर समझ नहीं आएगा.'
'सुन ठाकुर बुरा न मानो तो एक किस्सा और सुन लो. दिल्ली पर मुहम्मद शाह रंगीले का शासन था. खबर मिली कि नादिरशाह का हमला होने वाला है. तो रंगीला चिंतित हो गया. उसके एक वजीर ने राय दी थी. यमुना के किनारे कनातें लगवा देते हैं. हम सब चूड़ियां पहनकर कनातों में बैठे रहें. जैसे ही नादिरशाह की फौज पास आए हम सब चूड़ियां चमका कर कहें, इधर न आइयो मुए, इधर जनाने हैं. फिर वो शर्म से नहीं आएंगे.
अरे ठाकुर, हूण आए, कुषाण आए, शक भी आए. नए दौर में यह नई तकनीक भी आई है, हमें तो लुटने की आदत है. यह जुकरबर्ग क्या लूट लेगा और आधार में से कंपनियां क्या लूट लेंगी. सुनते जाओ
चराग़ हाथ में हो तो हवा मुसीबत है
सो मुझ मरीज़-ए-अना को शिफ़ा मुसीबत है.
मैं चुप हो गया. गुड्डू भैया ने ग्लास में से लंबा घूंट लिया और बोले, 'मरीज़-ए-अना मतलब अभिमान की बीमारी से ग्रस्त, और शिफ़ा का मतलब स्वस्थ होना. बिना मतलब समझे शेर समझ नहीं आएगा.'
मैं उस घड़ी को कोसता हुआ आगे निकल गया जब मैंने गुड्डू जी को आधार और फेसबुक के डेटा लीक होने की खबर पर चर्चा छेड़ी थी.
Wednesday, January 10, 2018
जेल में भी चल रहा है लालू का 'हथुआ राज'
#ठर्राविदठाकुर
(मेरा यह लेख आइचौक.इन में प्रकाशित हो चुका है)
ठंड में सिकुड़ता हुआ मैं अंग्रेजी के आठ की तरह हुआ जा रहा था. फिजां में धूप थी लेकिन देश की व्यवस्था की तरह होते हुए भी नहीं थी. बिलकुल नाकाफी किस्म की धूप. देश की पुलिस की तरह बेअसर.
मैंने देखा, गुड्डू भैया झूमते हुए अपनी देह में सरसों का तेल मल रहे हैं. उनकी तेल पिलाई लाठी बगल में रखी है. मैं भौंचक्का रह गयाः "क्या भिया, इस ठंड में मारपीट की तैयारी?"
"करना नहीं है, सिर्फ दिखाना है. वह भी हम नहीं करेंगे हमारे दोनों नौकर लडेंगे. "
मेरे हैरत की सीमा न रही, "काहे भिया."
गुड्डू मुस्कुराएः "पत्रकार महोदय, फ्रेंडली फाइट का नाम सुना है? चुनाव में होता है. "
मैंने हामी भरी तो गुड्डू ने कहा, कि पड़ोसी के मटर के खेत में उनकी भैंस घुस गई थी. तो अब इसके एवज़ में उनके जेल जाना पड़ रहा है.
मैं समझ गया कि गुड्डू निरे काहिल हैं और उनके जेल प्रवास के दौरान सुविधाओं के लिए अपने सेवकों की जरूरत होगा.
मैंने बस इतना पूछाः "य़ह आइडिया कहां से आया भैय्या? "
गुड्डू लंगोट कसकर योगमुद्रा में विराजमान हो चुके थेः "देखो बे ठाकुर, इस देश में आइडियों की कमी नहीं है. चुराने से लेकर उस चोरी को लॉजिक देने तक. पहले अपराध करो, फिर पकड़े जाओ तो कहो कि मैं अमुक जाति से हूं इसलिए फंसाया जा रहा है. फिर भी सज़ा-वज़ा मिल जाए, तो सेवकों को ले जाओ. यह मैंने अपने नेताओं से सीखा है. एक तर्क यह भी है कि आप दोषी साबित होने पर और दूसरे के छूट जाने पर तर्क दे सकते हैं कि पंडिज्जी को बेल हमको जेल...जैसा लालूजी ने किया. "
"लेकिन वह तो कह रहे हैं कि उनको पिछड़ी जाति का होने की वजह से परेशान किया जा रहा है"...मैंने कहा.
"लेकिन, जब सूबे के मुख्यमंत्री बने तब तो यह तर्क न दिया, जब रेल मंत्री बने और काम की तारीफ बटोरी तब तो यह तर्क न दिया"...गुड्डू खिसियाए से लग रहे थे.
"लेकिन सज़ा सुनाने वाले जज को क्या यह कहना चाहिए था कि ठंड लगती है तो तबला बजाइए! " मैंने पीछे हटना ठीक नहीं समझा.
"आपसी बातचीत को मीडिया में उछालना और उसको मुद्दा बनाना तुम मीडियावालों का काम है. किसने किसको कहां चुम्मा ले लिया, किस खिलाड़ी ने शादी में कितने खर्च किए, देश में ब्याह किया कि इटला जाकर इस पर विमर्श करो तुम लोग...बलिहारी है बे तुम पे. और अब जज साहब ने कह दिया कि लालूजी पशुपालन के एक्सपर्ट हैं तो उसको भी मुद्दा बना लो. अदालत जिसको सज़ा दे उसको शहीद बनाने के काम में लग गए हो. और तो और, जब जेल प्रशासन अभी तक सजायाफ्ता लालू के लिए काम तय नहीं कर पाया है. वहीं उनके जेल पहुंचने से दो घंटे पहले ही उनका रसोइया लक्ष्मण कुमार और सेवक मदन फर्जी केस के जरिए जेल पहुंच गए. अब इसका क्या अर्थ है? पता है, जेल जाने के लिए इन दोनों की ही चुना गया क्योंकि दोनों रांची के ही रहने वाले हैं और लालू के खास विश्वासपात्र हैं. मालिक से पहले सेवक के जेल जाने का यह मसला भी पहली बार नहीं हुआ. पहले भी होटवार जेल में बंद लालू के लिए मदन जेल पहुंच गया था. "
"इस बार तो क्या गजब का आइडिया चुना इन लोगों ने. दोनों ने मारपीट का एक फर्जी मामला गढ़ा. मदन ने पड़ोसी सुमित कुमार को इसके लिए तैयार किया. उसने लक्ष्मण पर मारपीट करके 10 हजार रु. लूटने का आरोप लगाते हुए डोरंडा थाने में शिकायत दर्ज कराई. फटाफट एफआइआर दर्ज हुआ, वकील ने दोनों का आत्मसमर्पण करवाया और जेल भी भेज दिए गए. भाई, जैसे जेल लालूजी गए वैसे सब जाएं. बुढ़ापे का तर्क देते हुए ओपन जेल में रहे, रसोइए से खाना बनवाएं, सारी सुविधाएं भोगे. ऐसा क्यों नही करते कि उनको जेल जाने से माफी ही दे दो. उनकी नेकचलनी के नाम पर! "
"गुड्डू भैया गुस्सा क्यों हो रहे हैं, आखिर वह जनता के सेवक हैं. "
"जनता का सेवक जब राजनीतिक बंदी होता है तब उसे ऐसा सुविधाएं दी जानी चाहिए, आपराधिक कृत्य के लिए नहीं. वित्तीय घोटाला कब से राजनीतिक मसला हो गया जी? "
"देखो बाबू, इस देश में किसी ने आम लोगों को कभी कैटल, कभी मैंगो पीपल कहा था, तब तो बहुत मिर्ची लगी थी तुम्हें. जरा बताओ कि जेल में ठंड क्या सिर्फ चारा घोटाले में सजायाफ्ता पूर्व-मुख्यमंत्री को ही लगती है या दूसरे कैदियों को भी ठंड लगती होगी? जब ठंड सबको लगती है तो सबको बजाने के लिए तबला क्यों नहीं मुहैया कराती सरकार? "
गुड्डू अब रंग में आ चुके थे. मेरे पास खिसक आए और लबनी से ताड़ी का बड़ा घूंट लगाते हुए बोलेः "देखो ठाकुर, आम आदमी हो तो औकात में रहा करो. कभी पुलिस और अदालत में चक्कर में पड़ोगे तब समझ में आएगा. समझे! लालूजी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी अपनी मां को पद के बारे में समझाते हुए कह चुके हैं कि, माई हथुआ राज मिल गईल (मां, हथुआ राज मिल गया) तो समझो कि वह असल में राजा ही हैं. उनकी सुविधा का ख्याल रखना हम सबका परम-पावन और पुनीत कर्तव्य है. जब जेल में शशिकला, शहाबुद्दीन, कनिमोई, ए राजा सबको सुविधा मिल सकती है तो क्या सिर्फ लालू को न मिले क्योंकि वह पिछडी जाति से हैं! धिक्कार है बे तुम पे, धिक्कार है. "
गुड्डू भैया ने मुझ पर धिक्कारों की बौछार कर दी और सारे धिक्कार समेटता हुआ मैं चुपचाप अपनी राह चल दिया.
(मेरा यह लेख आइचौक.इन में प्रकाशित हो चुका है)
ठंड में सिकुड़ता हुआ मैं अंग्रेजी के आठ की तरह हुआ जा रहा था. फिजां में धूप थी लेकिन देश की व्यवस्था की तरह होते हुए भी नहीं थी. बिलकुल नाकाफी किस्म की धूप. देश की पुलिस की तरह बेअसर.
मैंने देखा, गुड्डू भैया झूमते हुए अपनी देह में सरसों का तेल मल रहे हैं. उनकी तेल पिलाई लाठी बगल में रखी है. मैं भौंचक्का रह गयाः "क्या भिया, इस ठंड में मारपीट की तैयारी?"
"करना नहीं है, सिर्फ दिखाना है. वह भी हम नहीं करेंगे हमारे दोनों नौकर लडेंगे. "
मेरे हैरत की सीमा न रही, "काहे भिया."
गुड्डू मुस्कुराएः "पत्रकार महोदय, फ्रेंडली फाइट का नाम सुना है? चुनाव में होता है. "
मैंने हामी भरी तो गुड्डू ने कहा, कि पड़ोसी के मटर के खेत में उनकी भैंस घुस गई थी. तो अब इसके एवज़ में उनके जेल जाना पड़ रहा है.
मैं समझ गया कि गुड्डू निरे काहिल हैं और उनके जेल प्रवास के दौरान सुविधाओं के लिए अपने सेवकों की जरूरत होगा.
मैंने बस इतना पूछाः "य़ह आइडिया कहां से आया भैय्या? "
गुड्डू लंगोट कसकर योगमुद्रा में विराजमान हो चुके थेः "देखो बे ठाकुर, इस देश में आइडियों की कमी नहीं है. चुराने से लेकर उस चोरी को लॉजिक देने तक. पहले अपराध करो, फिर पकड़े जाओ तो कहो कि मैं अमुक जाति से हूं इसलिए फंसाया जा रहा है. फिर भी सज़ा-वज़ा मिल जाए, तो सेवकों को ले जाओ. यह मैंने अपने नेताओं से सीखा है. एक तर्क यह भी है कि आप दोषी साबित होने पर और दूसरे के छूट जाने पर तर्क दे सकते हैं कि पंडिज्जी को बेल हमको जेल...जैसा लालूजी ने किया. "
"लेकिन वह तो कह रहे हैं कि उनको पिछड़ी जाति का होने की वजह से परेशान किया जा रहा है"...मैंने कहा.
"लेकिन, जब सूबे के मुख्यमंत्री बने तब तो यह तर्क न दिया, जब रेल मंत्री बने और काम की तारीफ बटोरी तब तो यह तर्क न दिया"...गुड्डू खिसियाए से लग रहे थे.
"लेकिन सज़ा सुनाने वाले जज को क्या यह कहना चाहिए था कि ठंड लगती है तो तबला बजाइए! " मैंने पीछे हटना ठीक नहीं समझा.
"आपसी बातचीत को मीडिया में उछालना और उसको मुद्दा बनाना तुम मीडियावालों का काम है. किसने किसको कहां चुम्मा ले लिया, किस खिलाड़ी ने शादी में कितने खर्च किए, देश में ब्याह किया कि इटला जाकर इस पर विमर्श करो तुम लोग...बलिहारी है बे तुम पे. और अब जज साहब ने कह दिया कि लालूजी पशुपालन के एक्सपर्ट हैं तो उसको भी मुद्दा बना लो. अदालत जिसको सज़ा दे उसको शहीद बनाने के काम में लग गए हो. और तो और, जब जेल प्रशासन अभी तक सजायाफ्ता लालू के लिए काम तय नहीं कर पाया है. वहीं उनके जेल पहुंचने से दो घंटे पहले ही उनका रसोइया लक्ष्मण कुमार और सेवक मदन फर्जी केस के जरिए जेल पहुंच गए. अब इसका क्या अर्थ है? पता है, जेल जाने के लिए इन दोनों की ही चुना गया क्योंकि दोनों रांची के ही रहने वाले हैं और लालू के खास विश्वासपात्र हैं. मालिक से पहले सेवक के जेल जाने का यह मसला भी पहली बार नहीं हुआ. पहले भी होटवार जेल में बंद लालू के लिए मदन जेल पहुंच गया था. "
"इस बार तो क्या गजब का आइडिया चुना इन लोगों ने. दोनों ने मारपीट का एक फर्जी मामला गढ़ा. मदन ने पड़ोसी सुमित कुमार को इसके लिए तैयार किया. उसने लक्ष्मण पर मारपीट करके 10 हजार रु. लूटने का आरोप लगाते हुए डोरंडा थाने में शिकायत दर्ज कराई. फटाफट एफआइआर दर्ज हुआ, वकील ने दोनों का आत्मसमर्पण करवाया और जेल भी भेज दिए गए. भाई, जैसे जेल लालूजी गए वैसे सब जाएं. बुढ़ापे का तर्क देते हुए ओपन जेल में रहे, रसोइए से खाना बनवाएं, सारी सुविधाएं भोगे. ऐसा क्यों नही करते कि उनको जेल जाने से माफी ही दे दो. उनकी नेकचलनी के नाम पर! "
"गुड्डू भैया गुस्सा क्यों हो रहे हैं, आखिर वह जनता के सेवक हैं. "
"जनता का सेवक जब राजनीतिक बंदी होता है तब उसे ऐसा सुविधाएं दी जानी चाहिए, आपराधिक कृत्य के लिए नहीं. वित्तीय घोटाला कब से राजनीतिक मसला हो गया जी? "
"देखो बाबू, इस देश में किसी ने आम लोगों को कभी कैटल, कभी मैंगो पीपल कहा था, तब तो बहुत मिर्ची लगी थी तुम्हें. जरा बताओ कि जेल में ठंड क्या सिर्फ चारा घोटाले में सजायाफ्ता पूर्व-मुख्यमंत्री को ही लगती है या दूसरे कैदियों को भी ठंड लगती होगी? जब ठंड सबको लगती है तो सबको बजाने के लिए तबला क्यों नहीं मुहैया कराती सरकार? "
गुड्डू अब रंग में आ चुके थे. मेरे पास खिसक आए और लबनी से ताड़ी का बड़ा घूंट लगाते हुए बोलेः "देखो ठाकुर, आम आदमी हो तो औकात में रहा करो. कभी पुलिस और अदालत में चक्कर में पड़ोगे तब समझ में आएगा. समझे! लालूजी पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी अपनी मां को पद के बारे में समझाते हुए कह चुके हैं कि, माई हथुआ राज मिल गईल (मां, हथुआ राज मिल गया) तो समझो कि वह असल में राजा ही हैं. उनकी सुविधा का ख्याल रखना हम सबका परम-पावन और पुनीत कर्तव्य है. जब जेल में शशिकला, शहाबुद्दीन, कनिमोई, ए राजा सबको सुविधा मिल सकती है तो क्या सिर्फ लालू को न मिले क्योंकि वह पिछडी जाति से हैं! धिक्कार है बे तुम पे, धिक्कार है. "
गुड्डू भैया ने मुझ पर धिक्कारों की बौछार कर दी और सारे धिक्कार समेटता हुआ मैं चुपचाप अपनी राह चल दिया.
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