Sunday, November 27, 2011

फलक- फेसबुक लघु कथाएँ उम्दा रचनाएँ

मेट्रो मुहब्बतः

कुलदीप मिश्रा
कथाकारः कुलदीप मिश्रा

(कुलदीप मिश्रा दैनिक भास्कर में चंडीगढ़ में सह-संपादक हैं। आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई कर चुके कुलदीप सीएऩईबी टीवी चैनल में भी काम कर चुके हैं)
शंका, उम्मीद, एक्साइटमेंट। कुछ कॉकटेल सा था दोनों के मन में। फर्स्ट टाइम मिलना बड़ा अजीब होता है। बाइ गॉड। सोचते हुए वो पीतमपुरा मेट्रो पहुंच गई। ये भी शमशेर बहादुर पढ़कर तैयार हुआ। कटवारिया का मुंशी प्रेमचंद पीतमपुरा की लेडी गागा से मिलने वाला था। बीच की कहानी रिकॉर्ड में नहीं है।

वो कुर्ते और चप्पल पर भड़की थी और ये उसके भड़कने पर।

आठ बजे की दिल्ली। सड़कों पर धुंधली रौशनी थी। दिल्ली के ऑफिस वालों के साथ लौट रहे थे दोनों। ख़्यालों के कॉकटेल से लबालब।



2. रोना  
विनायक काले
कथाकारः विनायक काले

( विनायक काले हैदराबाद विश्वविद्यालय में पढाते हैं, और फेसबुक लघुकथा मंच के सक्रिय सदस्य हैं)

 उसने कहा,
“किसी के मृत्यु पर
रोते क्यों नहीं तुम?”
मैंने कहा,
“ब्रेकींग न्यूज़ देखकर उब गया हूँ मैं।”

3. सेल

कथाकारः विनायक काले
सने कहा,
“सुनामी के समाचारों के बीच आते
साबुन और कंडोम के ऐड के बारे में क्या कहोगे तुम?”
मैंने कहा,
“बाजार में इन्सान खोज रहा हूं मैं"



4. वफादारी

कथाकारः मंजीत ठाकुर

दोपहर को भयंकर गरमी थी। जोरों की लू चल रही थी। मैं एक बाईट के चक्कर में कांग्रेस दफ्तर गया। वहां मीडिया सेंटर वाले कमरे में कुरसी पर बैठे नेता ने जोरों से हवा देते पंखे का रुख अपनी बजाय, सोनिया गांधी की तस्वीर की ओर कर रखा था.

Wednesday, November 23, 2011

कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले-भाग दो

....पिछली पोस्ट से आगे...

क्षिणी मध्य-प्रदेश और खानदेश के सिवनी, छिंदवाडा, चंद्रपुर के गोंड साम्राज्य में तालाब बनवाने के लिए बनारस के कारीगरों को बुलवाया गया था. ये लोग विस्थापित होकर यहीं बस गए और उन्होंने न सिर्फ गांव-गांव में हजारों तालाब बनाए, बल्कि पानी के वितरण की एक चाकचौबंद व्यहवस्था भी निर्मित की. इस व्यवस्था में तालाब के कारण विस्थापित होने वालों को तालाब के पास की जमीन देने और गांव के भूमिहीन को पानी के वितरण की समिति का मुखिया बनाने जैसे प्रावधान थे.

मर्जी और मजबूरी में पलायन, विस्थापन की ऐसी कहानियां ऊपरी तौर पर भले ही दाल-रोटी के लिए रोजगार के लिहाज से की गई लगती हों, लेकिन इनमें वैसी गरीबी, दयनीयता दिखाई नहीं देती जैसी आज के थोकबंद पलायन में पग-पग पर दिख जाती है. परदेस जाकर रोजी-रोटी कमाना तो हमेशा मजबूरी में ही हुआ करता है, मगर यह आज की तरह अपने आत्मसम्मान को बेचकर नहीं होता था. आमंत्रित या जजमानी करने वाला समाज भी पलायन करने वालों की मजबूरी का उपहास उडाने के बजाए उनकी क्षमताओं, हुनर का सम्मान करता था.

ऐसा पलायन, विस्थापन समाज को आपस में एक-दूसरे को समझने का मौका देता था. जहां एक तरफ खेतिहर मैदानी समाज पहाड़ी आदिवासियों के रहन-सहन, खान-पान और कठिन हालातों से निपटने की आदतें सीखता था, वहीं दूसरी तरफ सुदूर आंध्र, उत्तराखंड या ओडीशा के लोग उसे नई तकनीकें सिखाते थे. कुंए से पानी निकालने के लिए रहट की तकनीक मध्य-प्रदेश के किसानों को पंजाब से करीब सौ साल पहले विस्थापित होकर आए लोगों ने सिखाई थी.

ऐसा नहीं है कि आज के पलायनकर्ता, विस्थापित हुनरमंद नहीं हैं. अपने-अपने इलाकों में खेती-किसानी और दूसरे रोजगार करने वाले ये लोग सीखने, समझने में माहिर होते हैं. आखिर बुंदेलखंड में बेहद संवेदनशील पान, परवल और सब्जियों की खेती और हाल में आया पीपरमेंट ऐसे लोगों की बदौलत ही फला-फूला है.

दूसरे इलाकों की तरह शिक्षा में बदहाल, लगभग पिछड़ा माने गए पर्यटन क्षेत्र खजुराहो के दर्जनों युवा आजकल फ्रेंच, जर्मन, पुर्तगाली जैसी भाषाएं सीख रहे हैं. इसी बुंदेलखंड में कपड़े, धातु और मिट्टी के कलात्मक कामों की लंबी परंपरा रही है. ऐसी हुनरमंद आबादी को उनके घर के आसपास ही काम उपलब्ध करवाया जा सकता है. सरकारें विकास को केवल भारी-भरकम बजट आकर्षित करने का जरिया मानती हैं, लेकिन क्या समाज और उसके साथ जुड़ी ढेरों औपचारिक-अनौपचारिक संस्थाएं ऐसा कर सकती हैं?
 

कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले

---राकेश दीवान
( भोपाल में राकेश दीवान जी से मुलाकात हुई, एक सेमिनार मेँ। मेरी फिल्म पर उनकी प्रतिक्रिया वाकई उत्साह बढाने वाली थी। उनका यह लेख बिना छापे मन नहीं मान रहाः गुस्ताख)

पलायन की चपेट में चकरघिन्नी होते लोगों को यह जानकारी चौंका सकती है कि एक जमाने में हुनरमंद पलायन करने वालों को पूजा भी जाता था. अपने-अपने इलाकों की मौजूदा बदहाली के बवंडर में फंसकर दाल-रोटी कमाने के लिए सैकडों मील दूर, अनजान इलाकों में जाने वाले आज भले ही शोषित, गरीब और बेचारे कहे-माने जाते हों, लेकिन एक समय था जब उन्हें उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था. 

महाकौशल, गोंडवाना और बुंदेलखंड समेत देश के कोने-कोने में बने तालाब, नदियों के घाट, मंदिर इसी की बानगी हैं. सुदूर आंध्रप्रदेश के कारीगर पत्थर के काम करने की अपनी खासियत के चलते इन इलाकों में न्यौते जाते थे. काम के दौरान उनके रहने, खाने जैसी जरूरतों की जिम्मेदारी समाज या घरधनी उठाता था और काम खत्म हो जाने के बाद उनकी सम्मानपूर्वक विदाई की जाती थी. गोंड रानी दुर्गावती के जमाने में बने जबलपुर और उसके आसपास के बड़े तालाब, नदियों पर बनाए गए घाट इन पलायनकर्ताओं की कला के नमूने हैं. 
गुजरात से ओडीशा तक फैली जसमाओढन की कथा किसने नहीं सुनी होगी? इस पर अनेक कहानियां, नाटक लिखे, प्रदर्शित किए गए हैं, लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि यह जसमाओढन और उनका समाज पलायन करने वालों का समाज था. परंपरा से ओडीशा, छत्तीसगढ़ के कारीगर मिट्टी के काम में माहिर माने जाते हैं. बडे तालाबों, कुओं की खुदाई के लिए इन्हें आमंत्रित किया जाता था और इनके साथ भी आंध्र के पत्थर के कारीगरों की तरह सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था.
कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले


तालाब बनाने वाले पलायनकर्ताओं में छत्तीसगढ़ के रमरमिहा संप्रदाय के लोग भी शामिल हैं, जो अपने पूरे शरीर पर रामनाम के गोदने गुदवाते हैं. तालाब रचने के अपने बेहतरीन काम के कारण इन्हें दूर-पास के इलाकों में सादर बुलाया जाता है.

एक जमाने में दुरूह यात्राओं की कठिनाइयों को झेलते बंजारे देश भर में पालतू पशुओं और मसालों के व्यापार की गरज से लंबी दूरियां तय किया करते थे. बीच-बीच में उनका बसेरा तो हो जाता था, लेकिन जानवरों को पानी पिलाने कहां जाएं? ऐसे में वे अपनी हर यात्रा के ठौर-ठिकानों के आसपास तालाब खोदते जाते थे. लाखा बंजारे का बनवाया बुंदेलखंड के सागर का विशाल तालाब इन्हीं में से एक है. ऐसे अनेक जलस्रोत इन पलायनकर्ता बंजारों के पारंपरिक मार्ग पर आज भी देखे, उपयोग किए जाते हैं.

छत्तीसगढ़ के जशपुर में पानी के तेज बहाव से बनी बरसों पुरानी आटा पीसने की चक्की उत्तराखंड से पलायन करके आए पंडितों की सलाह पर बनी थी. ये पंडित आदिवासी, मराठा राज्यों, जमींदारियों में पंडिताई के लिए आते थे और अपने जजमानों को हिमालय के पहाड़ों में आजमाई गई कुछ-न-कुछ नई तकनीक दे जाया करते थे.

खेती को उद्योग का दर्जा दिलाने और इस नाते कटाई, बोनी, निंदाई, गुड़ाई आदि के लिए तरह-तरह की मशीनों की तरफदारी करते लोगों की नजरों से कुछ साल पहले तक दिखाई देते चैतुए अब ओझल हो गए हैं. पलायन की मार से बदहाल हो रहे बुंदेलखंड, मालवा, महाकौशल इन्हीं चैतुओं की दम पर अपनी खेती किया करते थे. आसपास के अपेक्षाकृत कम पानी के एकफसली और आमतौर पर आदिवासी इलाकों से ये लोग कटाई के चैत मास में आते थे और इसीलिए उन्हें चैतुआ कहा जाता था. 


पलायन या प्रवास

साल के दो-तीन महीने पलायन करने वाले इन चैतुओं को रबी के संपन्न इलाकों से न सिर्फ भरपूर अनाज और मजदूरी मिलती थी, बल्कि उनके रहने, खाने की व्यवस्था भी की जाती थी. कई जगहों पर तो साल-दर-साल आते रहने की वजह से उनका स्थायी नाता तक बन जाता था.

आमतौर पर सुंदर, गहरे रंगों के परिधानों से सजे-धजे राजस्थान के गाडिया लुहार सडकों के किनारे आज भी दिखाई पड़ जाते हैं. कहा जाता है कि कभी किसी राजा से अनबन हो जाने के कारण इन लोगों ने विरोधस्वरूप काले कपड़े पहनकर लगातार घुमन्तू बने रहने का प्रण लिया था. यह प्रण आज भी बरकरार है और उंट, बकरी समेत अपने बाल-बच्चों, घर-गृहस्थी के साथ सतत पलायन करते ये गाडिया लुहार गांव-गांव में खेती, कारीगरी के लोहे के जरूरी औजार बनाते दिख जाते हैं.

ऐसा नहीं रहा है कि लोग अपनी-अपनी जड़-जमीनों को छोडकर केवल मौसमी पलायन के लिए ही दो-चार महीने का प्रवास करते रहे हैं. अपनी काबिलियत के बल पर उन्हें बिना प्रमाणपत्र के स्थायी निवासी बनने का निमंत्रण भी दिया जाता था और कभी-कभी तो वे उन इलाकों के राजा तक बन जाते थे. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव राज का इतिहास ऐसे ही बैरागियों के बसने का इतिहास रहा है.

ये बैरागी हरियाणा, पंजाब से उनी कपड़े, कंबल आदि लाकर गांव-गांव बेचते थे और फुरसत मिलने पर भजन गाया करते थे. गर्म कपड़ों के व्यापार ने उनकी गृहस्थी संभाली, लेकिन भजन गायन ने उन्हें राजा बना दिया. असल में सुरीले भजन गाने पर उन्हें समाज से जो एक-एक पैसा मिलता था, उसे वे जोड़ते जाते थे और कई बार तो यह रकम इतनी अधिक हो जाती थी कि छोटे-मोटे राजा, जमींदार उनसे कर्ज तक ले लिया करते थे.

राजनांदगांव से सटी छूरा रियासत के आदिवासी राजा द्वारा अपने राजपाट को गिरवी रखकर लिए गए ऐसे ही कर्ज में स्थिति कुछ ऐसी बनी कि चुकारा नहीं हो पाया. कर्ज में डूबते-उतराते महाबली अमरीका से लेकर टुटपुंजिए पाकिस्तान तक से उलट छूरा के राजा को कर्ज में डूबी रियासत नामंजूर थी, लेकिन गली-मुहल्ले में भजन गाने वाले बैरागियों को भी राजपाट की झंझटों से कोई मोह नहीं था. भारी मान-मनुहार के बाद बैरागियों ने आखिर राजनांदगांव में अपना चमीटा गाड़ दिया और सबसे पहला काम किया-विशाल रानीताल बनवाने का. बाद के इतिहास में इन बैरागी राजाओं के रेल लाइन डलवाने, अनेक तालाब खुदवाने, अकाल में देश की शुरूआती कपडा मिल ‘सेंट्रल क्लॉथ मिल’ (जो बाद में शॉ वालेस कंपनी की मिलकियत में ‘बंगाल-नागपुर क्लॉथ मिल’ उर्फ ‘बीएनसी’ के नाम से मशहूर हुई) बनवाने जैसे अनेक लोकहित के काम दर्ज हुए.

लगभग ऐसी ही कहानी मंडला जिले के उत्पादक हवेली क्षेत्र की भी है, जहां गोंड राजाओं ने कृषि में पारंगत लोधी जाति को बसाया था. लोधियों ने जंगल साफ करके खेत-तालाब बनाने की तजबीज के जरिए इलाके को बेहतरीन पैदावार का नमूना बना दिया. यहां भी बाद में इन्हीं लोधियों ने राज स्थापित किया और वीरांगना अवंतिबाई जैसी रानियां बनीं. ये वे ही अवंतीबाई हैं, जिनके नाम पर आज का विशाल बरगी बांध बनाया गया है. 




....जारी


Thursday, November 17, 2011

मय सूरज, शबनम साकी हैः कविता

एक शाम,
सूरज मचल गया,
किसी के प्यार में पिघल गया,
पहले लाल हुआ
फिर सुनहरा होकर
गिलास में ढल गया
बन गया
एक जाम
एक शाम।

एक भोर,
अलसाई नींद में
दूबों की नोंक पर
जमा हुई शबनम
पहले ठिठकी ज्यादा
फिर कम
शबनम, गिलास के सूरज से मिल गई
पाकर मुहब्बत
गुलाब-सी खिल गई।
बजने लगे जलतरंग
चहुं ओर
एक भोर।

एक दिन
कड़कती धूप से थके तीन दोस्त
सीढियों पर बैठ
हवा के साथ समझकर मय
सूरज औ शबनम को पी गए
लगा कि जिंदगी जी गए
पर सपनों के सूरज को पचाना
कहां आसान है,
कितना भी पिघल ले,
सूरज बर्फ तो नहीं होता,

मुश्किल है जीना सूरज बिन
एक भी दिन।


Saturday, November 12, 2011

अंधेर नगरी, चौपट चैनल

एक बार क्या हुआ कि वाकया बहुत दिलचस्प हुआ। अंधेर नगरी नामक राज्य के राजा को- जो कि एक बब्बर शेर था- एक चैनल की जरुरत महसूस हुई। ताकि वह चैनल जंगल राज के किस्सों को दिखा सके।

जंगल राज में कई किस्म की योजनाएं चलाई जाती थीं। बब्बर शेर चूंकि शेर था लेकिन उनके पिता- जो उनके जैविक पिता भी थे- ने उनका नाम चौपट सिंह रखा था। जंगल राज में नाम से ज्यादा महत्व काम का था और काम से भी ज्यादा महत्व उस चीज का था, जिसे अंग्रेजी में चीज, अथवा बटर या मक्खन कहते हैं। यहां चमचागिरी अकेले कारगर नहीं थी, उसमेंम बटरिंग यानी मक्खनबाजी की जरुरत थी। बहरहाल, बजाय देश की महिमा का बखान करने के, हम आपको सीधे चैनल में लिए चलते हैं।

तो उस चैनल का नाम भी देश के नाम पर ही अंधेर चैनल ही रखा गया। अंधेर चैनल में समान रुप से घोड़े -गधे भरे गए। वहां घोड़ों गधों में कोई फर्क नहीं था। लेकिन क्राइसिस आइडेंटिटी की थी। ये ठीक से पता ही नहीं चलता था कि घोड़ा कौन है और गधा कौन..।

दरअसल, घोड़े गधों को गधा समझते थे और गधे घोड़ों को...। गधे एक समान थे एक ही रंग के घोड़ों का रंग अलग-अलग था। कोई घोड़ा काला, कोई सफेद, कोई भूरा या कोई चितकबरा था। किसी घोड़े से काम लेने के दिन भी नियत नहीं थे। तो गधे जो घोड़ो को गधा समझते थे, उनको स्थायी तौर पर चैनल में रहने नहीं दिया गया।

चूंकि जंगल राज में प्रायः दंगल हुआ करते तो दूसरे महकमों को भी गधों की समान आवश्यकता हुआ करती थी। देश को घोड़ो की आवश्यकता तो थी लेकिन जंगल घने होने के साथ ही घोड़ा होना आसान होता गया था और गधा होना मुश्किल।

चूंकि गधे काम के बोझ से दबे हुए थे और उनको प्रोत्साहित करना जरुरी था। इसलिए अंधेर चैनल उनको हर साल सम्मानित करता था। चूंकि घोड़ों को वक्त पर घास दे दी जाती, कभी कभार कुछ वफादार घोड़ों को चना और गुड़ भी दिया जाता।

....जारी।

Wednesday, November 9, 2011

भूली-बिसरी चंद यादें

परसों शाम को अचानक पीयूष का फोन आया। फेसबुक, मोबाईल फोन, इंटरनेट ने दुनिया न जाने कितनी बदल दी है। पीयूष से पिछले आठ सालों से बात नहीं हुई थी। बचपन का दोस्त है मेरा। फोन आजकर बरेली में है।

बारहवीं तक विज्ञान पढ़ने के बाद एक तरफ मैं परिवार के मेरे डॉक्टर बनने के ख्वाब के झूले पर हिलकोरे ले रहा था, मेरा मन दूसरी और जा रहा था, वहीं पीयूष ने अपनी मां के सामने बिना लाग लपेट के अपना बात सामने रख दी थी। उसे चित्रकार बनना था। वह बन गया।

लखनऊ चला गया वो। मैं खेती बाड़ी पढ़ने लगा। यह बाद की बात है। उसके फोन ने मुझे अतीत की खिड़की पर खड़ा कर दिया है।

महज 30 की उम्र में स्साला यह अतीत क्यों खड़ा हो जाजा है मेरे सामने..? बचपन की कई चीजें एकसाथ साकार हो जा रही हैं।

उन दिनों जब हम नौजवान थे ( माशा अल्लाह जवान तो हम अब भी हैं, मेरे एक दोस्त ने कहा कि आप अपने लिए एक उम्र स्थिर कर लें, तो ताउम्र उसी उम्र का मिज़ाज बना रहता है, उन्हीं की सलाह पर हमने अपने लिए पहले 22 और बाद में संशोधित कर 26 की उम्र तय कर रखी है) उन दिनों गरमियों की लंबी छुट्टियों के साथ दुर्गा पूजा की छुट्टी भी होती थी, कॉलेज सीधे छठ की छुट्टियों के बाद खुलते थे।

यानी पहले 30- दिन की गरमी की छुट्टी फिर एक महीने क्लास और फिर 40 दिन छुट्टी। इन छुट्टियों का सदुपयोग होता। गरमी की दोपहर मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए विकेट तैयार करने में इस्तेमाल में आता।

हमारे झारखंड में ज़मीन काफी कठोर हुआ करती है। तो विकेट बनाने के लिए हम उसे ईटों से घिसा करते थे। उसमें स्टंप्स आसानी से गाड़े नहीं जा सकते थे, हम उस जगह पर कई रावणों (खलनायक नहीं, आगे पढ़े) का इस्तेमाल करते।

स्टंप्स आसानी से गाड़े जा सकें, इसके लिए उस स्थान पर टीम के सदस्य मूत्र विसर्जन किया करते थे। देवघर में शिवगंगा के बारे में मान्यता है कि वह रावण के मूत्र से बना सरोवर है। इस मान्यता का इतना प्रैक्टिकल अप्रोच हम अपनाते थे लेकिन किसी ने हमें पुरस्कृत करने की कोई कोशिश तक नहीं की है। खैर...

मैदान में शीशम के कई पेड़ थे। हम फुनगियों तक चढ़ जाते। गिल्ली डंडा बनाने के लिए उपयुक्त शाखाओं की खोज की जाती। सारी दोपहर गिल्ली डंडे का खेल होता। सूरज थोड़ा तिरछा होता तो क्रिकेट शुरु किया जाता।

शाम को धूल-धूसरित हम घर पहुंचते। उसके बाद हमारे कड़क भाई साब हमारी कस के कुटाई करते। लेकिन उस पिटाई का भी अपना मजा था। मधुपुर बहुत याद आ रहा है।

दिल्ली में गाड़ियों की चिल्लपों के बीच छोटा-सा मधुपुर बहुत याद आ रहा है। दो साल हो गए मधुपुर जा नहीं पाया हूं। पहले मधुपुर का था, दिल्ली आ गया हूं, यहां का होने की कोशिश में कहीं का नहीं रहा..।



Friday, November 4, 2011

सप्तपर्णी का मौसम

सप्तपर्णी के फूल खिल गए हैँ। उसकी मादक गंध मेरे दिलोदिमाग में छाती जा रही है। यह गंध मुझे अपने दस साल पीछे अतीत में ले जाती है।

दिल्ली खुद से न जाने किस तरह लोगों को जोड़ती है। मुझे इसने सप्तपर्णी की मादक खुशबू से जोड़ा है। हर जगह आपको किसी न किसी तरह जोड़ती होगी। दिल्ली का ख्याल मन में आते ही विजुअल्स अलग लोगों के मन में अलग अलग आते होंगे...किसी के मन में दिल्ली का मतलब लाल किला होगा, कोई इंडिया गेट से तो कोई कुतुब मीनार से जोड़ता होगा, किसी के लिए दिल्ली संसद भवन से आगे कुछ नहीं। जैसे खयालात वैसे विजुअल्स...लेकिन किसी जगह को लेकर कोई खुशबू कौंधती है मन में...??



मेरे मन में दिल्ली, खासकर दिल्ली की रात की गंध सोचते ही यह एक खूशबू में तब्दील होती है।

आप अगर दिल्ली में रहते हैं, तो एक मादक गंध ने आपका ध्यान भी ज़रूर आकर्षित किया होगा। खासतौर यह गंध अक्तूबर के आखिरी महीनों और नबंवर के आखिर तक के कुछ सप्ताहों में ही नाकों तक पहुंचती हैं।

इस मनमोहक गंध ने मुझे शुरु से अपनी ओर खींचा। पहले तो पता ही नहीं चला कि आखिर वो पेड़ है कौन सा। मैं साल 2002 में भैया के घर आश्रम से अपने एक सीनियर के घर जाता था। नॉर्थ में। पहले वो विजयनगर में रहते थे, फिर मुखर्जीनगर की तरफ शिफ्ट हो गए।

मैं महारानी बाग से बस पकड़ता था...रिंग रोड तीव्र मुद्रिका। मुद्रिका सर्विस की ब्ल्यू लाईन की बस के भीतर बदबुओँ का भभका होता था। लेकिन एक बार बस सराय काले खां बस अड्डे को पार कर गई तो खिड़की से इस मादक हवा के झोंके आने लगते थे। मैं प्रायः शाम को जाता था और रात 11 बजे तक लौटता, कुछ पढाई-वढाई करके। जाते समय यह खुशबू कम तेज होती...वापसी का सफर इस खूशबू की वजह से बेचैन रहता।


लगता कि कोई मुझे, मेरे पूरे वजूद को कही से पुकार रहा है, पुकार ही नही रहा, झकझोर कर अपनी तरफ खींच रहा है। बहुत खोज के बाद वह पेड़ पता चल ही गया, जो योजनगंधा की तरह मुझे अपना बनाए हुए थी।

छोटा था तो मां कहती थी रात को इत्र, सेंट खुशबू वगैरह न लगाया कर या देर रात अकेले जाते समय, कही कोई खूशबू पता चले, तो उसकी चर्चा मत किया कर। परियां रात में खुशबू लगाकर कुंवारों को रिझाती हैं। सच तो यह है कि अगर अंगरेज जिस पेड़ को डेविल्स ट्री कहते हैं, या मां के मुताबिक जो खुशबू परी की या अप्सरा की, या किसी चुड़ैल की ही हो..वह रिझाती है, तो सच तो यह है कि सप्तपर्णी ने मुझे रिझा लिया था।


 इस  वृक्ष को भारत में सामान्यतः सप्तपर्णी के नाम से जाना जाता है और इसका वैज्ञानिक नाम एलस्टॉनिया स्कॉलरिस है। अंग्रेज इसे अगर इसे डेविल्स ट्री कहते हैं तो गलत नहीं कहते। कभी कभार इसे  ब्लैकबोर्ड ट्री के रूप में भी जाना जाता है। बॉट्नी वाले जानते होंगे कि यह पेड एपोसाएनेसी परिवार का है।


कभी इतिहास में हमने कही पढ़ा था, सप्तपर्णी की गुफाओं के बारे में। क्या इन्हीं पेड़ो के नाम पर गुफा समूहों का नाम पडा़ था..। जो भी हो, अब जब इस पेड़ से पहचान हो गई है, सप्तपर्णी के पेड़ जहां कहीं देखता हूं, किसी भी मौसम में, बड़ा अच्छा लगता है।

लगता है किसी ऐसे चाहने वाले से मिल रहा हूं, जो मुझसे कुछ मांग नही रही, जिसकी कोई शर्त नहीं है। जो सिर्फ खुशबू दे रही है। जो बड़ी बड़ी आंखों, घनेरी जुल्फों से मेरी तरफ देख तो रही है..लेकिन शिकायत उसकी इतनी ही है, हम काट मत देना।

घनेरी जुल्फें इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि सप्तपर्णी का पेड़ बहुत हरियाला होता है। एक हरा, कचोर, घना। आप को दिखे, ये पेड़, आपको कभी खुशबू मिले इसकी, तो कहिएगा, मंजीत बहुत याद करता है तुम्हे सप्तपर्णी...।