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Monday, December 17, 2018

किताब ये जो देश है मेरा पर साकेत सहाय की प्रतिक्रिया

डॉ साकेत सहाय राष्ट्रपति जी के हाथों हिंदी की सेवा के लिए पुरस्कृत हो चुके हैं. खुद लेखक और अनुवादक भी हैं. पर साथ ही मेरे मित्र भी हैं. उन्होंने मेरी किताब ये जो देश है मेरा पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक के जरिए पोस्ट की, तो उसे यहां बांटने का लोभ संवरण नहीं कर पाया. मेरे मित्र हैं तो तारीफ भी ज्यादा की होगी. साकेत भाई का शुक्रियाः मंजीत

आज, भाई मंजीत ठाकुर जी की रचना ‘ये जो देश है मेरा’ पढ़ी. सच मायनों में किसी पुस्तक का शीर्षक ही उसके भीतर के पन्नों का आईना होती है. इस मायने में यह पुस्तक अपने शीर्षक के साथ न्याय करती नजर आती है. जनसामान्य की समस्याओं को समर्पित उनकी यह रचना विशिष्ट कही जा सकती है. रिपोर्ताज की शक्ल में उन्होंने अपने पत्रकारीय जीवन के अनुभवों एवं जनजुड़ाव के पक्ष को इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत किया है.

वास्तव में सच्चा पत्रकार वही होता है जो अपनी रिपोर्टों के माध्यम से उस खबर को जीता है. इस नजरिए से देखें तो पत्रकार समाज के नायक, सुधारक के रूप में उभरता है. क्योंकि वह अपनी सार्थक रिपोर्टों के माध्यम से समाज के समक्ष वास्तविक चित्र प्रस्तुत करता है. पुस्तक ‘ये जो देश है मेरा’ के माध्यम से लेखक इन दायित्वों का निर्वहन करते हुए उभरते हैं. पुस्तक में लेखक ने बुंदेलखंड, कूनो पालपुर, नियमागिरि, सतभाया, लालगढ़ आदि क्षेत्रों की विभिन्न समस्याओं को रेखांकित किया है. जो कि विकास की नई परिभाषा के कारण इन क्षेत्रों में उपजी है. 

पुस्तक में सामाजिक-विकासात्मक रिपोर्टिंग को भी नए ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे विकासशील देशों के संचार माध्यमों को समझना होगा. साथ ही वे अपनी रिपोर्टिंग के माध्यम से सांस्कृतिक पहुलूओं की भी बात करते है.

देश में उदारीकरण के बाद से एक लंबी विभाजक रेखा खिंचती चली जा रही है. पुस्तक वनवासी, आदिवासी, दलित, वंचित आबादी, जो इस विभाजक रेखा से ज्यादा प्रभावित हुए हैं की समस्याओं के बारे में सही चित्र प्रस्तुत करती है.
एक अच्छी रिपोर्ताज पुस्तक के लिए बधाई! पुस्तक अमेजॉन पर उपलब्ध है.

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Tuesday, March 13, 2018

'ये जो देश है मेरा' पर विनय कुमार की प्रतिक्रिया

मूलतः विस्थापन और वंचित इलाकों के विकास को केंद्र में रखकर लिखी गई मेरी किताब 'ये जो देश है मेरा', पर मेरे मित्र और अच्छे कथाकार विनय कुमार ने अपनी प्रतिक्रिया फेसबुक पर लिखी है, आप सबके साथ साझा करने का लालच नहीं रोक पा रहा. उन्हीं के शब्दः

जब से इस पुस्तक 'ये जो देश है मेरा' के बारे में पता चला था, तब से इसे पढ़ने की तीव्र इच्छा थी. और पिछले हफ्ते जब यह पुस्तक मिली तो जैसे जैसे समय मिला, इसको पढ़ता गया. 

यह तो पहले से ही मालूम था कि 'ये जो देश है मेरा' न तो उपन्यास है और न ही कोई दिलचस्प कहानी संग्रह, लेकिन एक रिपोर्ताज भी आपको इतना प्रभावित करती है और अगर दूसरे शब्दों में कहें तो पढ़ने के बाद इतना विचलित कर देती है तो इसका मतलब साफ है, लेखक अपनी बात को उसी शिद्दत से कहने में सफल है, जितनी शिद्दत से उसने इसे रचा है. 

पांच खंडों वाली इस किताब 'ये जो देश है मेरा' को पढ़ना एक अलग हिंदुस्तान से रूबरू होना है जिससे आम मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय जनमानस बड़ी आसानी से अपना मुंह फेर लेता है. 

आज के तथाकथित विकसित हिंदुस्तानी समाज के एक ऐसे वर्ग के बारे में यह किताब 'ये जो देश है मेरा' न सिर्फ बताती है बल्कि पूरी ईमानदारी से हमें उन लोगों और उन क्षेत्रों से परिचित भी कराती है, जिसके विकास के नाम पर आज भी राजनीतिज्ञ अपनी दुकान चला रहे हैं और जिन्हें सरकारी तंत्र भी बड़ी आसानी से भुला देता है. और अगर यह लोग अपनी जायज मांगों के लिए आंदोलन करते हैं तो उसे बड़ी आसानी से नक्सली आंदोलन बताकर बेरहमी से कुचल दिया जाता है.
ये जो देश है मेरा


'ये जो देश है मेरा' किताब का पहला खंड ही पानी की कमी का ऐसा भयावह चित्र प्रस्तुत करता है कि दिल भविष्य के आसन्न संकट को लेकर कांप उठता है. 'ये जो देश है मेरा' के पांचों खंड अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों के बारे मे तथाकथित विकास का भयावह पहलू दिखाते हैं जिनके बारे मे कुछ करना तो दूर, सरकार सोचना भी गंवारा नहीं करती. 

कहीं कहीं किताब थोड़ी बोझिल भी हो जाती है लेकिन तथ्यों की ऐसी पड़ताल पढ़कर लेखक की मेहनत के बारे मे अंदाजा हो जाता है. 

कुल मिलाकर 'ये जो देश है मेरा' हर गंभीर पाठक के लिए पठनीय और संग्रहणीय किताब है जिसके लिए श्री मंजीत ठाकुर बधाई के पात्र हैं.

Wednesday, March 7, 2018

एक पाठक की नज़र से "ये जो देश है मेरा"

मेरी किताब, ये जो देश है मेरा पर समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी है, मेरे अनुज सदृश रामकृपाल झा ने, 

एक सामान्य पाठक जब किसी क़िताब को पढ़ना शुरू करता है और पढ़ते हुए उसे ख़त्म करता है, इन 3-4 घंटे के दौरान वह लेखक द्वारा प्रस्तुत कथा, कथानक और कथ्य में अपने आप को खोजते हुए लगातार जुड़े रहने का यत्न करता है। अगर लेखक अपनी प्रस्तुति से पाठक को इन 3-4 घंटे तक जोड़ने में सफल रहता है तो क़िताब सफल मानी जाती है । (इस विचार पर मतभिन्नता हो सकती है )

"ये जो देश है मेरा" कोई कहानी , उपन्यास या उपन्यासिका नहीं है। यह किताब भुखमरी, विस्थापन और सूखे के दंश को झेलते हुए उन लाचार किसान, आदिवासियों और विस्थापितों के दर्द को समेटे हुए आंकड़ों और भावनाओं की एक रिपोर्ट है, (रिपोर्ताज) जिसे पढ़ते हुए आप कई मर्तबा भावुक होंगे और शायद झुंझला जाएंगें।

पांच हिस्से में लिखी गई यह रिपोर्ट शुरुआत में अपनी कसावट, बेहतर आंकड़े और सुंदर शब्द संयोजन के साथ सामने आती है। बुंदेलखंड के सूखे से जूझते हुए किसान, किसान के परिवार और उससे होती हुई आत्महत्या के आंकड़े हृदयविदारक हैं।

पढ़ते हुए यह एहसास होने लगता है कि खेती जुआ समान ही तो है। किसान बैंकों से कर्ज लेते हैं, कर्ज के पैसे से बीज बोते हैं, फ़सल उग आती है और फिर सूखा पड़ जाता है। स्थिति अब भयावह हो जाती है। ना खाने को पैसे बचते हैं ना कर्ज़ चुकाने को! बाकी जो शेष बच जाता है वो फांसी का फंदा होता है जिसे किसान किसी शर्त पर ठुकरा नहीं सकता है।

कई मामले में राज्य सरकारों ने इसे गृह क्लेश का भी कारण बताया है ।

मेरे समझ से गाँव में रहने वाले लोगों में गृह क्लेश के ज्यादातर मामलों का अगर पोस्टमार्टम किया जाए तो यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि ग़रीबी गृह क्लेश का प्रमुख कारण है ।

जब एक माँ, अपने नई ब्याही बेटी और दामाद का अपने घर में स्वागत कुल जमा एक किलो अनाज से करती है और यह रिपोर्ट आप पढ़ रहे होते हैं तब आपके अंदर कुछ चटक रहा होता है जिसे केवल आप महसूस करते हैं ।

रिपोर्टर की रिपोर्ट आगे बढ़ती है जहाँ,
जब एक जवान बेटी अपने शादी में होने वाले खर्चे के लिए अपने पिता द्वारा लिए जाने वाले संभावित कर्ज और परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभीषिका से चिंतित होकर (पिताजी को आत्महत्या ) एक दिन चुपचाप डाई (बालों में लगाया जाने वाला रसायन) पीकर मरने की कोशिश करती है और पूरा तंत्र कुछ नहीं कर पाता है। ये सब पढ़ते हुए आप भन्नाकर रह जाते हैं !

लोग आत्महत्या कैसे कर लेते हैं एक आध की बात हो तो ठीक है पर मुआमला जब दहाई नहीं सैंकड़ों में हो तो विषय चिंताजनक और ध्यान देने योग्य होती है ।

मैंने घास की रोटियों पर न्यूज़ चैनलों की कई बार रिपोर्टिंग देखी है किंतु इस विषय को गौर से पढ़ते हुए यह सोचना बेईमानी लगती है कि हम जो पढ़ रहे हैं वो सिर्फ सच है,सच के सिवा कुछ भी नहीं है ।

यह सच है की सूखे के इस प्रेत को यूँ ही नहीं आना पड़ा है। लोगों ने प्रकृति और पर्यावरण का अनुचित दोहन करते हुए ढ़ोल और मृदंग की थाप पर इसे आमंत्रण दिया है जो अब ब्रह्मपिशाच सा बन गया है ।

हालांकि लेखक ने यह जिक्र नहीं किया है आखिर कैन और बेतवा नदी के किनारे बसे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने कभी इन दोनों नदियों पर बांध बनाने को लेकर कोई मांग क्यों नहीं उठाई है जिससे किसानों को सूखे की समस्या से थोड़ी बहुत निजात मिल जाती / हुई होगी।

8000 कूनो पालपुर वनवासी के विस्थापन के साथ क़िताब का मध्य भाग में  थोड़ी ढीली हो जाती है इसके ये मायने नहीं है कि आंकड़े ग़लत और उलूल जुलूल हो जाते हैं। लेखक अपनी भावनाओं को हम जैसे पाठकों के सामने लाने में थोड़े से चूक गए हैं।

पर जैसे ही ये रिपोर्ट नियामगिरी के पहाड़ों और उनके असली हकदारों के बीच पहुंचती है आप जंगल के हरियाली और प्रकृति के बीच कहीं खो से जाते हैं। यहाँ सब कुछ वास्तविक है। महिलाओं और पुरुषों के फ़ैशन भी समानान्तर हैं। 

शहरीकरण के दौर से जूझती एक संभ्रांत महिला और नियामगिरि की एक आदिवासी महिला के बीच लेखक द्वारा की गई ईमानदार तुलना आपको भाव-विभोर कर देती है। एक आदिवासी कन्या की मुस्कुराहट उसके धंसे गालों में से सफ़ेद झांकते दांत मिलियन डॉलर वाली स्माईल की मिथक को सत्यापित करने वाली रिपोर्ट आपके चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लकीर सी छोड़ देती है।

ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से समुद्री जल स्तर के बढ़ने से डूब रहे तटीय प्रदेश की कहानी है सतभाया। समुद्र गाँव को लगातार डुबाए जा रहा है और साथ में डूब रही है लोगों की भावनाएँ। लोग बाग मजबूर हैं विस्थापन के लिए। घर छोड़कर चले जाना कितना कष्टदायक होता है यह बताते हुए सतभाया के विस्थापित भावुक हो जाते हैं ।

खैर !

पांच रिपोर्टों को समेटे यह रिपोर्ताज देश की मुख्यधारा को छोड़ उन लोगों की कहानी है जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं और ताउम्र किसी भी कीमत पर अपने जंगल देवता को छोड़ना पसंद नहीं करते हैं । सरकारें इन्हें मुआवजा तो देती है पर इनके बेहतरी के लिए क्या करती है यह सरकार ही जानती है। कुल मिलाकर यह रिपोर्ताज़ भावनओं और मजबूरियों से बुनी एक स्वेटर है जिसे पहनकर आप भावविभोर हो जाएंगे ।


Sunday, February 11, 2018

ये जो देश है मेरा की गौरव झा की समीक्षा

आज सुबह ही यह किताब पढ़कर खत्म की, तो सोचा दो-चार लाइनें लिख दी जाएं इस किताब के बारे में, जिसे हमारे मामा ने लिखा है। यह देश के जमीनी हकीकत की कहानियां हैं, जो उन्हें पत्रकारिता के दौरान अनेक जगह में किये गए यात्राओं से मिली हैं। उन जानकारियों, अनुभवों को उन्होंने बहुत रिसर्च के बाद किताब की शक्ल दी है।

इस किताब में भारत के पांच हिस्सों और वहां के लोगों का दर्द ए हाल बयां किया गया है। बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश/उत्तरप्रदेश) के लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं, कूनो पालपुर (मध्य प्रदेश) के सहरिया जनजाति पर अभ्यारण्य की वजह से  विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, नियामगिरि (ओडिशा) के डंगरिया-कोंध जनजाति पर बॉक्साइट खनन के लिए विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, सतभाया पंचायत (ओडिशा) के लोगों को बढ़ते समंदर का खतरा परेशान किये हुए है, लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) के लोगों को नक्सलियों-पुलिस-राजनीतिक पार्टी के कैडर का खतरा हमेशा परेशान करता रहता है।

आपको पढ़कर यह भी पता चलेगा कि ऐसा नही है कि इन परेशानियों के निपटारे के लिए सरकारों ने प्रयास नही किये। ढेरों प्रयास किये गए और किये जा रहे हैं। बजट आवंटित किए जा रहे हैं, स्थानीय लोग भी प्रयास कर रहे हैं। पर एक चीज की कमी हर जगह दिख रही है वह है उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी, लापरवाही, लूट-खसोट, अनियमितता।

उन जगहों के इतिहास, भूगोल, वर्तमान और भविष्य के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की गई है।

आमलोगों से बातचीत करके उनकी समस्या को सामने रखने का बेहतरीन प्रयास आपको किताब में दिखेगा। हर इलाके के परेशानियों को आंकड़ों सहित दर्शाने के कारण उसे समझना आसान हुआ है, कई बारीक जानकारियां मिलेंगी आपको उन जगहों के बारे में, परिस्थिति के बारे में इस किताब को पढ़कर।

साथ में यह भी पता चलता है कि लेखक ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी।

एक बार जब आप किताब पढ़ना शुरू कीजियेगा तो आपको उन क्षेत्रों के बारे में जानने की इच्छा इतनी बढ़ जाएगी कि बिना खत्म किये किताब छोड़ना मुश्किल होगा। आपके भी जेहन में ये सवाल आएगा कि विकास के मायने सबके लिए एक ही पैमाने से तय किये जा सकते हैं क्या??

बेहतरीन किताब को लिखने के लिए मामा जी को बधाई। जय हो,शुभ हो।

Saturday, February 3, 2018

ये जो देश है मेरा किताब बिंदु छिब्बर की समीक्षा

शिवपुरी में एक स्कूल की प्रिंसिपल और पढ़ाकू बिंदु छिब्बर ने ये जो देश है मेरा की समीक्षा लिखी है, उसको यहां शेयर करने से रोक नहीं पायाः


Manjit Thakur' s book ' Ye jo desh hai mera' for me, broke a spell of 'books bought but not read / finished' lately.

It is a non-fiction account of a few rural-tribal pockets and the sufferings and agony that lead to the poor going destitute or committing suicides.
The book is basically a study of five troubled areas. There are the poor landless farmers of bundelkhand, wrestling with the parched land, failing crops and indebtedness. Second are the tribals Seheriya, displaced from their native land and resources for an outlandish sanctuary.
The third chapter highlights the fascinating Dangariya-kondh tribes of Niyamgiri, who locked horns with Vedanta, the company that wanted to exploit for bauxite their sacred mountain Niyamgiri! Their united action through gram-sabhas proved their vehement stand against dacoity in the name of development! The pristine greenery of kalahandi belies their long combat against starvation. When land is over-exploited and forests are brutally razed, an entire local civilisation is put to death.
The fourth part of the book is about the sinking lands of coastal Orissa..a place called Satbhaya. The land rich in bio-diversity, mangroves, crocodile and breeding place of Ridley turtles is being gradually gobbled by the hungry sea. Some experts blame global warming,coastal erosion and building of artificial ports. Infertility of soil affected crops, caused poverty and malnutrition and resulted in a reluctant exodus.
The last chapter depicts the trials and tribulations of ethnic group called Santhals in lalgarh, West bengal. Struggling for livelihood, they were caught in the deathtrap of the administration, fear of naxalites and manipulating Marxist communists and predatory capitalists. Fear prevailed over the green haven abundant in natural resource but notorious for violence, starvation and despair.
The book is easy-to-read and replete with official statistics that assert its trustworthiness and anecdotes that move you to compassion.
In our democratic set-up, regional imbalances, corruption and apathy in the system, lack of far-sightedness and injustice are rampant. It would not be patriotic but foolish to deny it. It is an impartial, thought-provoking account of the challenges before the nation and more sensitivity is required to overcome them. 

I applaud the efforts ofManjit Thakur and recommend the book highly especially to the many idealistic youngsters I can see desirous of making a difference.


Monday, December 25, 2017

मधुपुर का तिलक विद्यालय

मधुपुर. अपने कस्बाई खोल से शहरी ढांचे में ढलने के लिए यह शहर ज़रूर छटपटा रहा होगा, लेकिन जो लोग शहरों में रहते हैं, वे ही बता सकते हैं कि महानगरों के जीवन में जो संकीर्णता और भागमभाग होती है, वह अपनी जड़ों की याद दिलाती है. दिलाती रहती है.

हर किसी को अच्छा लगेगा कि उनका शहर आगे बढ़े और तरक्की करे.

लेकिन अगर नगर नियोजन सही हो, तो भी सपनों और हकीकत में फासले कम रखने चाहिए. आखिर हर शहर, क़स्बे और गांव की एक आत्मा होती है. नकल में वह मर जाएगी. आपको अच्छा लगेगा कि आपके शहर के दूसरे मुहल्ले या अपने ही मुहल्ले को लोग आपसे अनजान रहें!

तो एक सवाल यही उठता है कि क्या सब ठीक ठाक है? क्या मधुपुर एक बेहतर शहर के रूप में विकसित हो रहा है? पर इसकी परीक्षा कभी कभी अतीत के उन 'टिप्स' से मालूम हो सकता है जो हमारे महान लोगों ने दिया था. खासकर जो लोग शहर का 'मास्टर प्लान' बनाते हैं, बनाना चाहते हैं या बना रहे हैं.

मुझे नहीं मालूम कि मधुपुर के लोग मधुपुर को कितना बड़ा शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन मैं चाहता हूं कि मधुपुर सभी शहरी सुविधाओं से युक्त तो हो लेकिन उतना ही छोटा, उतना ही प्यारा, उतना ही हरा-भरा बना रहे. नदियों में पानी रहे, झरने बहते रहे, लोग प्यारे रहें, कुछ सड़कें कच्ची रहें, धान के खेत रहे, भेड़वा और गोशाला मेला बना रहे...

कुछ दिन पहले भाई रामकृपाल झा ने मधुपुर के इतिहास के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की थी. इस विषय पर उमा डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के सर्वेसर्वा उत्तम पीयूष ने बहुत काम किया है. लेकिन मैंने अपने स्तर पर जो जानकारी जुटाई है उसे साझा करने की कोशिश कर रहा हूं. अपने पहले के पोस्ट में मैं तिलक विद्यालय के दिनों की चर्चा कर रहा था, वह चर्चा जारी रहेगी और कोशिश करूंगा कि इसी बहाने कुछ इतिहास भी आए.

आपमें से अधिकतर को पता होगा कि अपने कस्बेनुमा शहर में कितनी विशिष्टता थी. सन् 1925 में जब महात्मा गांधी मधुपुर पधारे और उन्होंने तब एक 'राष्ट्रीय शाला '(नेशनल स्कूल) तिलक विद्यालय और नगरपालिका का उद्घाटन किया था. यह बड़ी और ऐतिहासिक घटना है मधुपुर के संदर्भ में. एक ज्ञान और राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले केंद्र और एक शहरी जीवन को सिस्टम देने वाला केंद्र. यह बड़ी बात थी. बड़ा संयोग.

तिलक कला विद्यालय अपने पीछे स्वर्णिम इतिहास लिए खड़ा है. बापू उस दौरान आजादी की लड़ाई के साथ-साथ लोगों में स्वदेशी और खादी अर्थशास्त्र के प्रति भी जागरूकता फैला रहे थे. एक पत्र से इस बात की जानकारी मिली है. इससे पता चलता है कि छात्रों के जरिए सूत कताई को लोकप्रिय बनाने के प्रति वे काफी संजीदा थे. पत्र के अनुसार, बापू आठ अक्टूबर 1934 को पहली बार मधुपुर आए थे. उन्होंने नौ अक्टूबर 1934 को ऐतिहासिक तिलक कला विद्यालय के विषय में पत्र लिखा था. उसमें इस विद्यालय के बारे में जिक्र किया गया है. कहा गया है कि यहां पर राष्ट्रीय शाला का आयोजन किया गया था. वहीं प्रधानाध्यापक ने अभिनंदन पत्र के माध्यम से तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जिक्र करते हुए विद्यालय की समस्याओं की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया था.

इसमें कहा गया था कि सूत कताई के कारण विद्यालय में लड़कों की उपस्थिति कम हो रही है. साथ ही लोगों की तरफ से विद्यालय को कम आर्थिक सहायता मिल रही है. कुछ लोगों ने अपने बच्चों को सिर्फ इसलिए हटा लिया है क्योंकि कार्यशाला में सूत कताई का विषय अनिवार्य कर दिया गया है. इस अभिनंदन पत्र में बापू से मुश्किलों से बाहर निकलने का मार्ग पूछा गया था.

बापू का जवाब थाः यदि शिक्षकों को अपने कार्य में श्रद्धा है तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए. सभी संस्थाओं को भले बुरे दिन देखने पड़ते हैं और यह स्वाभाविक ही है. उनकी ये कठिनाई उनकी परीक्षा है. दृढ़ विश्वास के बल पर भीषण तूफान का भी सामना किया जा सकता है. यदि शिक्षकों को पूर्ण विश्वास है कि वे पाठशाला के जरिए आसपास के लोगों को विकास का संदेश दे रहे हैं तो उन्हें बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहना चाहिए. कुछ ही दिनों में उन्हें वहां के अभिभावकों से अनुकूल सहयोग मिलने लगेगा. लेकिन यदि उनके इस कार्य में वहां के लोगों का जल्दी सहयोग नहीं मिले तो उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है. पाठशाला में एक भी छात्र रहे तो उन्हें उसे चलाते रहना है, क्योंकि नए विचार का शुरूआत में लोग विरोध जरूर करते हैं.

सुना है मधुपुर के इस ऐतिहासिक तिलक विद्यालय में महात्मा गांधी और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़ी कई स्मृतियां आज उपेक्षा की वजह से संकट में हैं. आजादी से पहले 1925 से 1942 तक तिलक विद्यालय मधुपुर के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जब अंग्रेजों ने कुछ प्रमुख सेनानियों को कैद करने की कोशिश की थी तो वे लोग भूमिगत हो गए और गुस्से में अंग्रेजों ने विद्यालय के पुस्तकालय को ही जला दिया.

1936 में डॉ राजेंद्र प्रसाद मधुपुर आए थे. यहां उनको आजादी के दीवानों से मुलाकात करनी थी. इसी स्कूल में राजेंद्र बाबू ने एक रात बिताई थी. पुआल का बिछौना लगा और पाकशाला में भोजन बना. बाद में प्रांतीय चुनावों (1937) के वक्त भी राजेंद्र बाबू मधुपुर आए थे.

गांधी जी ने तिलक विद्यालय से जाकर उन्होंने मधुपुर, मधुपुर के कुदरती सौंदर्य और नगरपालिका पर जो कुछ लिखा वह आज भी 'संपूर्ण गांधी वांङमय', खंड- 28 (अगस्त-नवंबर 1925) में सुरक्षित है. आप और हम समझें कि कोई महानायक कैसे छोटी से छोटी लगती बातों पर गौर करते हैं, उसे समझते और लिखकर या बोलकर समझाते हैं. और उसके निहितार्थ आप भी समझें कि आखिर इस छटपटाते से शहर को कैसे विकसित करें. गांधीजी ने मधुपुर के संदर्भ में, नगरपालिका के दायित्व से जुड़ी बातें लिखी थी. क्या ये बातें जो मधुपुर के प्राकृतिक सौंदर्य और स्थानीय स्वशासन से जुड़ी हैं क्या आज भी प्रासंगिक हैं?

उन्होंने कहा था, "हमलोग मधुपुर गए. वहां मुझे एक छोटे से सुंदर नए टाउन हाल का उद्घाटन करने को कहा गया था. मैंने उसका उद्घाटन करते हुए और नगरपालिका को उसका अपना मकान तैयार हो जाने पर मुबारकबाद देते हुए यह आशा व्यक्त की कि वह नगरपालिका मधुपुर को उसकी आबोहवा और उसके आसपास के कुदरती दृश्यों के अनुरूप ही एक सुंदर जगह बना देगी. मुंबई व कलकत्ता जैसे बड़े शहरों को सुधार करने में बडी मुश्किलें पेश आती हैं मगर मधुपुर जैसी छोटी जगहों में भी नगरपालिका की आमदनी बहुत ही थोड़ी होते हुए भी उन्हें अपनी अपनी हद में आने वाले क्षेत्र को साफ सुथरा रखने में मुश्किलों का सामना भी नहीं करना पड़ता."

1925 के बाद शहर, साधन और सुविधाएं काफी बदल गयी है. जनसंख्या का दबाब और शहरीकरण की दिक्कतें भी बढ़ी हैं. नेता भी बदल गए हैं. आज का आक्रामक नेतृत्व क्या यह जानता भी है कि गांधी ने मधुपुर के बारे में क्या कहा था? नगरपालिका के कर्ता-धर्ताओँ ने कभी सोचा भी कि हमें महात्मा गांधी के मधुपुर के संदर्भ में कहे गए विचारों को न केवल वर्तमान 'नगरपर्षद' पर कहीं शिलालेख पर उत्कीर्ण कराना (लिखाना) चाहिए बल्कि उनके विचारों को समझने और अनुकरण करने का भी प्रयास करना चाहिए?

उन्हें न तो समझ होगी, न फुरसत होगी. होती तो करा दिए होते.

तिलक विद्यालय के मजेदार पलो पर पोस्ट अगली दफा.

Friday, July 7, 2017

ये जो देस है मेराः बूंद चली पाताल

बुंदेलखंड हमेशा से कम बारिश वाला इलाका रहा है, लेकिन 2002 से लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया है. यह जमीनी रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है. साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे.

मैंने देश के विभिन्न इलाकों में माइनर विस्थापनों पर और अल्पविकसितइलाकों की स्थिति पर बहुत लंबे समय तक नजर रखने के बाद एक किताब लिखी हैः ये जो देस है मेरा। इस किताब का पहला अध्याय, 'बूंद चली पाताल' बुंदेलखंड की समस्या पर आधारित है.

किस तरह पानी ने बुंदेलखंड को बेपानी बना दिया है, उसकी रपट में मैंने केस स्टडीज और आंकड़ो का सहारा लिया है. कुछ परंपरा की बातें भी हैं, हल्के फुल्के इतिहास की भी.  इसमें, जरूरी आंकड़े भी हैं, ताकि सनद रहे और वक्त पड़ने पर काम आए. कोशिश की है, ज़रूर कुछ न कुछ छूट गया होगा, लेकिन उसे मानवीय भूल माना जाए.

इस किताब के छपने में रेणु अगाल जी के साथ, रेयाज़ुल हक़ का भारी योगदान है. जिन्होंने तकरीबन डांट-डांटकर मुझसे लिखवाया. अन्यथा मैं पर्याप्त या पर्याप्त से भी अधिक आलसी हूं.

पुस्तक अंशः

बुंदेलखंड का नाम हमेशा सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियों की याद दिलाता रहा है, बुंदेले-हरबोलों के मुंह सुनी गई कहानियों वाला बुंदेलखंड। जिसके नाम से आल्हा-ऊदल याद आते रहे, जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धंसी अढाई हाथ...। महोबे का पान, और चंबल का पानीः बुंदेलखंड के बारे में अच्छा-अच्छा सा बहुत कुछ सुना था।
बुंदेलखंड की जिस माटी के गुण कवि गाते नहीं थकते थे, लगता है वह माटी ही थक चली है। सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है। कुछ तो सूखे ने, कुछ सूखे की वजह से कर्ज़ ने, और बाकी बैंकों-साहूकारों के छल-कपट-प्रपंच ने बुंदेलखंड को किसानों की नई क़ब्रगाह बना दिया है।

बुंदेलखंड की धरती का सच, अब न तो आल्हा-ऊदल जैसे वीर हैं, न कीरत सागर, मदन सागर जैसे पारंपरिक तालाबों वाली उसकी पहचान। अब शायद किसानों की आत्महत्या और व्यापक पलायन ही इसकी पहचान बन गया है। बुंदेलखंड की अंदरूनी तस्वीर भयानक और अंदर तक हिला देने वाली है। बुंदेलखंड के किसानों में आत्महत्या की एक प्रवृत्ति हावी होने लगी है। बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर ज़िलों में न जाने कितने गांव हैं, जहां ज़्यादातर घरों में दरवाज़ों पर ताले लटक रहे हैं। हर गांव में ऐसे घर हैं, जिनमें अकेले बुज़ुर्ग बचे हैं और जो भूख से रिरियाते फिर रहे हैं। गांव के कई घरों में सिर्फ़ महिलाएं बची हैं। सात ज़िलों के चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा लोग इलाक़े से पलायन कर गए हैं। इतनी बड़ी आबादी दिल्ली में रिक्शा चलाती है, इटावा में ईंट-भट्ठों पर काम करती है, सूरत में मज़दूरी करती है।
खाली घरों और घरवालों को अपने प्रियजनों की वापसी की इंतज़ार है और धरती को पानी का।

जीने की जानलेवा शर्तः कर्ज़

गढ़ा गांव में ही सुराजी का घर भी है। उनके घर में दो मौतें हुई हैं। राज्य सरकार के अधिकारी उनके घर की आत्महत्याओं को भी ‘गृह-कलह’ से हुई मौतें बताते हैं। सुराजी के घर में नितांत अकेलापन पसरा रहता है। बीवी बहुत पहले भगवान को प्यारी हो गई। सुराजी की एकमात्र पोती का ब्याह हो गया तो सुराजी ने चैन की सांस ली थी। 2010 में एक दिन जब पोती अपने पति के साथ घर आई तो हालात सूखे की वजह से बदतर हो चुके थे।
बताते हुए सुराजी की आंखें डबडबा जाती हैं, ‘पिछले ही साल, पोती और उसके पति पहली बार अपने घर आए, घर में सेर भर भी गल्ला (अनाज) नहीं था।’ इसी अपमान से भरे सुराजी के बेटे ने पास के नीम के पेड़ से फांसी लगा ली। सुराजी तर्जनी से सामने नीम का पेड़ दिखाते हैं। पिता की आत्महत्या के अपराधबोध में पोती ने भी जान दे दी। सुराजी के दुख में सारा गढ़ा गांव साथ है। लेकिन गांव के हर किसी के साथ परिस्थितियां कमोबेश ऐसी ही हैं।
नीम का वह पेड़ गांव भर के लिए अपशगुन का प्रतीक बन गया है, और यह अब भी हरा है, उस पर सुराजी की आहों का कोई असर नहीं हुआ है।

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बुंदेलखंड में आत्महत्या करने वाले किसानों की गिनती उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों से काफी ज़्यादा है। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 56 और 2016 में 163 किसानों ने आत्महत्या की और उनकी मौत की वजहें भी कुछ अलग ही रहीं। लेकिन, इलाके में काम कर रहे किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार के पास एक ऐसी डायरी है जिसमें तस्वीरों के साथ किसानों के नाम-पते दर्ज़ हैं जिन्होंने कर्ज़ के मर्ज़ से छुटकारा पाने का रास्ता मौत को ही समझा। शिवनारायण ने काले रंग की इस डायरी को ‘मौत की डायरी’ नाम दिया है और यह राज्य सरकार के आंकड़ों को मृतक किसानों के नाम-पते के साथ झुठलाती है। इस डायरी के मुताबिक, पिछले 20 महीनों में उप्र के तहत बुंदेलखंड के सात ज़िलों में करीब साढ़े आठ सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली है।

पिछले दो साल भी खेती की हालत कुछ ठीक नहीं रही है और उत्तर प्रदेश सरकार भी अपनी रिपोर्ट में 2015-16 में खरीफ की फसल में 70 फीसदी का नुकसान मान रही है। अकेले बांदा में 95,184 हेक्टेयर रकबे में दलहन और तिल की खेती चौपट हुई है। यहां छोटे सीमांत किसानों ने 68,241 हेक्टयेर में तिल, ज्वार, बाजरा, अरहर और धान बोया था, जिसकी लागत भी वसूल नहीं हो सकी।
बुंदेलखंड के सभी तेरह ज़िलों में साल 2010-2015 के बीच कुल मिलाकर करीब 3000 किसानों ने आत्महत्या की है। यह आत्महत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा है जो राष्ट्रीय मीडिया में कभी-कभार और उस इलाके में अमूमन सुर्ख़ियां पाता रहता है। इसमें आत्महत्या की कोशिशों के मामले शामिल नहीं हैं, क्योंकि आत्महत्याओं की गिनती करते वक़्त उन्हें नहीं गिना जाता। इसके बावजूद अगर नज़र रखी जाए, तो बुंदेलखंड में हर तीसरे दिन किसी न किसी ज़िले से किसी न किसी किसान की आत्महत्या की ख़बर आ ही जाती है।

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