Sunday, July 29, 2012

एक था टाइगर का असली टाइगर

एक था टाइगर" सलमान खान अभिनीत ये फिल्म आगामी 15 अगस्त को भारत भर मेँ रिलीज की जायेगी,
अगर आपने भी इस फिल्म को देखने का प्लान बनाया है तो पहले आपको ये पोस्ट पढ़नी चाहिये ।
फोटो मेँ दिखाया गया ये शख्स सलमान खान की तरह बहुत मशहूर तो नहीँ है और शायद ही कोई इनके बारे मेँ जानता हो या किसी से सुना हो - इनका नाम था रवीन्द्र कौशिक ये भारत की जासूसी संस्था RAW के भूतपूर्व एजेन्ट थे राजस्थान के श्रीगंगानगर मेँ पले बढ़े रवीन्द्र ने 23 साल की उम्र मेँ ग्रेजुएशन करने के बाद RAW ज्वाइन की थी ,भारत पाकिस्तान और चीन के साथ एक-एक लड़ाई लड़ चुका था और पाकिस्तान भारत के खिलाफ एक और युद्ध की तैयारी कर रहा था।
... जब भारतीय सेना को इसकी भनक लगी उसने RAW के जरिये रवीन्द्र कौशिक को भारतीय जासूस बनाकर पाकिस्तान भेजा, रवीन्द्र ने नाम बदलकर यहाँ के एक कालेज मेँ दाखिला लिया यहाँ से वो कानून की पढ़ाई मेँ एक बार फिर ग्रेजुएट हुए और उर्दू सीखी और बाद पाकिस्तानी सेना मेँ जासूसी के लिये भर्ती हो गये कमाल की बात है पाकिस्तान को कानोँ कान खबर नहीँ हुई कि उसकी सेना मेँ भारत का एक एजेँट है !
 रवीन्द्र ने 30 साल अपने घर से दूर रहकर देश की खातिर खतरनाक परिस्थितियोँ के बीच पाकिस्तानी सेना मेँ बिताए !

 इसकी बताई जानकारियोँ के बलबूते पर भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ हर मोर्चे पर रणनीति तैयार की !
पाकिस्तान तो भारत के खिलाफ कारगिल युद्ध से काफी पहले ही युद्ध छेड़ देता पर रवीन्द्र के रहते ये संभव ना हो पाया केवल एक आदमी ने पाकिस्तान को खोखला कर दिया था !
भारतीय सेना को रवीन्द्र के जरिये रणनीति बनाने का पूरा मौका मिला और पाकिस्तान जिसने कई बार राजस्थान से सटी सीमा पर युद्ध छेड़ने का प्रयास किया उसे मुँह की खानी पड़ी !

ये बात बहुत कम लोगोँ को पता है कि पाकिस्तान के साथ हुई लड़ाईयोँ का असली हीरो रवीन्द्र कौशिक है रवीन्द्र के बताये अनुसार भारतीय सेना के जवानोँ ने अपने अतुल्य साहस का प्रदर्शन करते हुये पहलगाम मेँ घुसपैठ कर चुके 50 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकोँ को मार गिराया।
 
पर दुर्भाग्य से रवीन्द्र का राज पाकिस्तानी सेना के सामने खुल गया।
 
रवीन्द्र ने किसी तरह भागकर खुद को बचाने के लिये भारत सरकार से अपील की पर सच्चाई सामने आने के बाद तत्कालीन इंदिरा गाँधी सरकार ने उसे भारत वापिस लाने मेँ कोई रुचि नहीँ दिखाई ! अततः उसे पाकिस्तान मेँ ही पकड़ लिया गया और जेल मेँ डाल दिया उस पर तमाम तरह के मुकदमेँ चलाये गये उसको टार्चर किया गया कि वो भारतीय सेना की गुप्त जानकारियाँ बता दे उसे छोड़ देने का लालच भी दिया गया पर उसने मुँह नहीँ खोला और बाद मे जेल मे ही उसकी मौत हो गयी...।


ये सिला मिला रवीन्द्र कौशिक को 30 साल की देशभक्ति का , भारत सरकार ने भारत मेँ मौजूद रवीन्द्र से संबंधित सभी रिकार्ड मिटा दिये और RAW को धमकी दी कि अपना रवीन्द्र के मामले मे अपना मुँह बंद रखे
उसके परिवार को हाशिये मेँ ढकेल दिया गया और भारत का ये सच्चा सपूत गुमनामी के अंधेरे मेँ खो गया।

एक था टाइगर नाम की ये फिल्म रवीन्द्र कौशिक के जीवन पर ही आधारित है जब इस फिल्म का निर्माण हो रहा था तो सरकार के दखल के बाद इसकी स्क्रिप्ट मेँ फेरबदल करके इसकी कहानी मे बदलाव किया गया पर मूल कथा वही है !

 इस देशभक्त को गुमनाम ना होने देँ इस पोस्ट को शेयर एवं टैग करेँ इस पोस्ट को और ज्यादा से ज्यादा लोगोँ को बतायेँ और हाँ जब भी ये फिल्म देखने जायेँ तब इस असली टाइगर को जरूर याद कर लेँ।
 

Thursday, July 26, 2012

सुनो ! मृगांका:18: इत्ता लंबा सफ़र...?

रिक्शा आगे बढ़ता रहा... अंततः गांव की सरहद आ गई, लोहे की बनी पुलिया.. जिस पर कोलतार कई जगह से चिटक गया था। रिक्शा उसपर चढ़ गया। पीपल के उस पेड़ को पार करते हुए जिसके नीचे पहले कुछ नहीं था, और बचपन में अभिजीत को लगता था कि यहां इस पेड़ पर भूत रहते हैं...वहां हनुमान की मूर्ति जैसा एक पत्थर विराजमान् था। चारों तरफ ईंटों से घेराव कर दिया गया था। रिक्शा, कोलतार की सड़क से होता हुआ उसके घर के पास पहुंचा। 

अभिजीत ने रिक्शेवाले को पैसे दिए और अपने घर के दालान के पास बने टीन के दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिए चाबी निकालनी चाही। चाबी गुम हो गई थी।

अपना बैग पीठ से उतार भी नहीं पाया था कि उसे हैरान होकर सड़क पर वापस आ जाना पड़ा। रिक्शावाला सड़क के किनारे लघुशंका कर रहा था...क्या हुआ बाबू साहेब?
अरे चाबी गुम हो गई है...। अभिजीत ने लगभग मुस्कुराते हुए ये बात कही।

उसके घर के पास ही पाकड़ का बेहद विशाल पेड़ है। गांव वाले मानते हैं कि उस पेड़ पर बाबा भैरव का निवास है। एक दम मोटा-सा पेड़। जिसको देखते ही अभिजीत को धर्म की अनुभूति हो न हो, एक वैसे प्यार का अनुभव जरूर होता है, जो लोगों को एपने दादाजी से होता होगा।

अभिजीत ने देखा उसी पेड़ से अचानक हजारों जुगनू उड़ गए। अभिजीत मुस्कुराया। कुदरत ने उसका स्वागत ऐसे किया। वाह पाकड़ बाबा। आदमियों ने पहचानने से इनकार कर दिया, लेकिन आप नहीं भूले।

रिक्शेवाले ने उसे अपने घर चलने का प्रस्ताव दिया। अभिजीत के पास उसका प्रस्ताव मानने के सिवा और कोई चारा था भी नहीं। गांव आधी रात बीतते न बीतते गांव में लोग एक नींद सोकर लघुशंका के के लिए जागते हैं। उस अधरतिया में रिक्शावाला मड़र उसे लेकर कहां-कहां घूमता?...सो अजनबी को भी उसकी मेहमाननवाजी मंजूर करनी पड़ी।

सिगरेट के भाईचारे के बाद इतना मामला तो बनता ही था। उधर, अभि भी सोच रहा था कि आज की रात किसी तरह कट जाए तो कल समूचे गांव का चक्कर लगाया जाए। कोई न कोई अपना पहचान वाला तो मिल ही जाएगी। आख़िरकार, उसकी उम्र छत्तीस साल के आसपास है और पचीस साल को एक युग भी मान लें तो ये पूरी अवधि एक युग से भी ज्यादा है।

अभिजीत को लगा कि उसकी पूरी जिंदगी पर एक काला परदा लगा दिया गया है। कुछ इस तरह
कि अंधेरी रात में  वह कोलतार की सड़क पर चल रहा हो और एकमात्र उजाला सामने से आ
रही तेज़ हैडलाईट जैसी रौशनी हो, जिससे उसकी चौंधिया गई हो।
 
 
मड़र का घर। घर क्या था, मड़ई (झोंपड़ी) थी। सड़क से कुछ दूर हटकर गलियों को पारकर उसका घर था। कच्ची नालियां सड़क को आड़े-तिरछे 'बाइसेक्ट' करती थीं। इसका पता तभी चल पाया जब रिक्शे के पहिए नाली में अचानक गहरे धंसे और पैडल के ज़ोर से गली में सूखी ज़मीन पर चढ़ भी गए। इस क्षणांश की प्रक्रिया में अभिजीत के पिछवाड़े बड़ी तेज़ पीड़ा हुई। दरअसल, ऐसी पीड़ाएं और भी तेज़ साबित होती हैं जब बिना बताए, सहसा, बगैर चेतावनी के, यक-ब-यक आती हैं और आपको आश्चर्यचकित, हैरान और दर्द में डूबा छोड़ जाती हैं।

पहिए के ऊधम से पैदा हुआ दर्द इतना तेज़ और मार्मिक था कि अभिजीत के मुंह से कराह-सी निकल पड़ी। लेकिन रिक्शे की खड़खडा़हट में मड़र तक नहीं पहुंची।

 गली के दोनों तरफ़ झोंपड़ियों में घुप्प अंधेरा था। फिर एक घर नज़र आया, जिसमें लालटेन की रौशनी दम तोड़ रही थी। शीशे के चारों तरफ़ कालिमा इस क़दर चाई थी कि अंधेरा मिटने की बजाय और ज़्यादा भयावह लग रहा था। कुल मिलाकर लालटेन मड़र की बचत पर चपत था और बेकार ही केरोसिन पी रहा था। थोड़ी खाली ज़मीन और ऐसी ही जगह जिसके दो तरफ़ टाट लगे थे। यहां टाट का मतलब पटसन नहीं.. बल्कि बांस के फट्टे के फ्रेम में पुआल, मूंज, या अरहर की सूखी टहनियां घुसेड़कर बनाई गई दीवार या प्लाईवुड जैसी चीज़ है। लालटेन भी जल तो खैर क्या रहा था.. आखिरी सांसे ले रहा था।

मड़र की मां अपने पोते-पोतियों को कथरी में लिपटाए थी। मुमकिन है कि आवाज़ सुनते ही मड़र की मां ने अपनी बहू को आवाज़ दी हो। क्योंकि जबतक मड़र उस खलिहाननुमा जगह पर रिक्शे में चेन और ताला बंद करता, गृहथनी (गृहस्थिन) बांस से बने फट्टक (फाटक) पर आकर खड़ी हो गई।

मड़र ने बीवी को आवाज़ लगाई.. पईन..(पानी)। बीवी को शायद उसकी मांग का अंदाज़ा थी.. उसने अल्यूमिनियम का एक लोटा बढ़ा दिया। "...आज घर मे पाहुन आए हैं, एक लोटा पईन औरो लाओ..खाने का जुगाड़ करो..सहरी लोग हैं रोटी जरी लरम (नरम) बनाना.." मड़र ने आदेशात्मक लहजे में बीवी से कहा। पत्नी सिर हिला कर चली गई।

ग़रीब आदमी के घर में पाहुन...उधर बिसेसर मड़र बच्चों को दुलारते हुए पूछ रहा था कि आज उन्होंने दाई (दादी) से कौन-सा किस्सा सुना.। बच्चे बड़े इतराते हुए बता रहे थे, कि आज दाई तिलिया-चवलिया की कहानी सुना रही थी। लड़की ने इतरा के पूछा, सुनाऊं...?

बिसेसर की सहमित पर उसने बताना शुरु किया कि एक सुंदर लड़की की सौतेली मां ने डाह में आकर उसे तिल की कोठी यानी कोठार में बंद कर दिया और अपनी बेटी को इस उम्मीद में कि वह गोरी और सुंदर दिखेगी चावल की कोठी में बंद कर दिया। लेकिन तिल की कोठी वाली लड़की खूब सुंदर निकल गई और तिलोत्तमा नाम से या तिलिया नाम से मशहूर हुई।

चावल को कोठी में बंद लड़की चावल की तरह पीली पड़ गई। तिलिया की शादी एक राजकुमार से हो गई...

अभिजीत को लगा ऐसी कहानियों में हर नायिका राजकुमार से ही क्यों ब्याही जाती है। उधर, मड़र के लड़के ने उसके पैरों से लिपटते हुए अपनी बड़ी बहन की शिकायत की कि दीदिया ने घूर में पकाए गए आलुओं का बड़ा हिस्सा खुद ही साफ़ कर दिया और उसको कम दिया। मड़र ने  उसे दिलासा दिया कि वह अगली सुबह दीदिया को खूब पीटेगा और दिन का खाना भी नहीं देगा।

जब तक दोनों कल (चापाकलः हैंडपंप) पर जाकर नहा आए..मड़र की लड़की वहीं थालियां सजा गई।  अभिजीत ने हाथ-पैर धोते वक्त महसूस किया कि पानी हवा की बनिस्बत ज्यादा ठंढी है।
ओस है... हवा में तरावट है, लोगों के व्यवहार में भी। ठंडे पानी से नहाते वक्त पता नहीं क्यों इस गरमी में भी उसे थरथराहट हो आई थीष। खाने के लिए दोनों एक साथ पटिया यानी चटाई पर
बैठे.. पुआल की रस्सी बांटकर उसे चटाई की शक्ल दी गई थी।

गेहूं की मोटी रोटी...गोभी की सब्जी..एक अलग तरह का स्वाद। थोड़े मौन के बाद सन्नाटा टूटा। मड़र ही बोला," जिंदगी ही बदल गई है सर। पहले हमलोगों को मड़ुए की रोटी और भात भी मुश्किल से ही मिल पाता था। गेहूं की सोहाड़ी (रोटी)दोनों जून खना भी मुश्किल था। सोहाड़ी का चलन इधर से शुरु हुआ है..पहले दोनों टाईम भात खाते थे मोटके चावल उसना भात..मज़दूरी करते थे बाबू लोगों के खेत में...अकाल पड़े तो मालिक भी भूखे..हम भी। हमारी हालत ज्यादा खराब होती। हमलोग दोनों टाईम मंड़सटका (चावल में ज्यादा पानी देकर पकाना और पानी ओसाना नहीं) खाते..खुद्दी (टूटे चावल) भी मुश्किल से मिलता। फिर रिक्शा चलाने चले गए कलकत्ता..। कुछ पैसा जोड़ के आए, तो मजूरी छोड़के खेत बटाई पर लिए। रिक्शा भी चलाते हैं, बटाई का काम भी करते हैं।

खाना खत्म हो गया। अभिजीत की सिगरेट जलती रही, मड़र खैनी ठोककर होंठों में दबाता रहा। थूक-थूक कर लघु सिंचाई परियोजना की तरह उसने आसपास की ज़मीन गीली कर दी।

उधर, खटोले पर केथरी में लिपटी दाई बच्चों के सुलाने में लग गई। सांझे-सकारे बच्चे सो तो जाते हैं, गिल्ली-डंडा और गोली खेल कर लौटे धूल-धूसरित बच्चे लालटेन जलाकर पढ़ने के लिए बैठते तो हैं, लेकिन संभवतः पढ़ना कोई बहुत रुचिकर काम नहीं हैं और यह एक शाश्वत सत्य है। सो, प्रायः हर शहर और गांव के बच्चे संध्याकाल में सो जाते हैं या सोने का उपक्रम करने लग जाते हैं। लेकिन
वही बच्चे जो खाना भी ऊंघते-ऊंघते ही टूंगते हैं खाने के बाद तरोताजा़ हो उठते हैं। खिले हुए गुलाब की तरह..फिर उनके मुख से खरंटन गोल-गोल गप्प निकलते हैं।

मड़र पटिया में एक ओर लुढ़क गया, उसके नाक बजने की आवाज़ आने लगी। चांद की रौशनी पीली पड़ने लगी। अंधेरा बढ़ता जा रहा था। अंधेरा... अभिजीत ने सोचा, ये मेरी जिंदगी के अंधेरे से ज्यादा काला नहीं।

क्रमशः

Wednesday, July 18, 2012

ऐ शायर बदनामः आई हेट टीयर्स

आज हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार नहीं रहे। इस बात पर टीवी चैनलों पर जितना शोर मचना चाहिए था, मचा। लेकिन राजेश खन्ना के निधन पर लोगों ने इतने फलसफेनुमा गाने सुने, सुनाए, बजाए, दिखाए..कि सोचना पड़ गया....क्या राजेश खन्ना को सही श्रद्धांजलि यही होगी कि तमाम दुख वाले किस्से उनकी मौत के दिन दिखाए जाएं।

मैं राजेश खन्ना के करिअर पर, उनकी राजनीतिक विचारधारा पर कुछ नहीं कहना चाहता। यह काम किसी इतिहासकार के जिम्मे होना चाहिए।

मैं तो बस उनको तब से जानता हूं, जब हमारे क़स्बानुमा शहर में उनकी फिल्म लगी थी--आन मिलो सजना। राजेश खन्ना, तब अपने पूरे स्टाइल में थे। अजब-गजब कपड़े, अजीब अंदाज में पलके झपकाना, सिर को थोड़ा तिरछे करके चलना, या नाचना..कुरते और पैंट का कॉकटेल लिबास।

मुझे उनका एक संवाद बहुत याद आता है, जब वो कहते हैं--पुष्पा आई हेट टीयर्स। आंसू से नफरत करना हमें सीखना होगा।

परदे पर राजेश खन्ना मुझे बावर्ची में सबसे अच्छे लगे। मुझे रोमांस की उनकी सपनीली दुनिया से ओम पुरी का रुखड़ा और खुरदरा यथार्थ हमेशा ज्यादा अच्छा लगा है। राजेश खन्ना के सुनहरे सपने, जहां वो सपनों की रानी की खोज करते हैं, अपनी मस्तानी मोहक अदा की मुस्कुराहट से मादक मादाओं के दिल जीत ले जाते हैं, भारत की जनता को यथार्थ से दूर ले उड़ा गई थी।

राजेश खन्ना एक बेहतरीन अदाकार के रुप में मुझे हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में ही दिखे। लेकिन, नमकहराम में उन्होंने शूटिंग के दौरान रज़ा मुराद के हिस्से का एक गाना हथिया लिया था...मैं शायर बदनाम।

फिर भी, निजी रूप से चाहे जैसे भी रहे हो. राजेश खन्ना ने भारतीय व्यावसायिक सिनेमा को बहुत कायदे से मुस्कुराने के मौके दिए, कितने लड़कियों के दिल टूटे, और उनका करिश्मा क्या था...इस पर ढेर सारा लिखा जा चुका है।


राजेश खन्ना को लेकर सभी ग़मज़दा हैं। मैं नहीं हूं। मैं जानता हूं, जिन फिल्मों के जरिए वो लोकप्रिय हुए, और उनकी जिन फिल्मों को मैं भी पसंद करता हूं...मेरे दिलोदिमाग़ में वो वैसे ही जिंदा रहेंगे। मेरे लिए 18 जुलाई को कोई अर्थ नहीं है।

विज्ञापन याद आ रहा है, जिसमें राजेश खन्ना किसी पंखे की बिक्री बढ़ाने के लिए कह रहे है, बाबू मोशाय मुझसे मेरे फैन्स कोई नहीं छीन सकता।

सोलहों आने सच है।

Sunday, July 15, 2012

सुनो ! मृगांका:17: जड़ो की ओर


आसमान में हल्की चांदनी का उजास आ गया। खडंजे के दोनों ओर खेत थे और वह खेतों से तकरीबन मीटर भर ऊंचाई पर था। चांद से लुका-छिपी खेलते हुए बादल के टुकड़े...। दोनों ओर खेतों में शकरकंद की कुछ लताएं आपस में लिपट-चिपट रही थीं, कुछ में यूं ही घास उग रही थी..लेकिन ज्यादातर खेत परती पड़े थे। दो महीने पहले ही गेहूं की कटाई हो गई थी और खेत उसकी याद को सीने से चिपटाए रो रहे थे। कुछ खेतों में मूंग की फसल जवान थी।

रिक्शे की खड़-खड़ अभिजीत को परेशान नहीं कर रही थी, बल्कि वह इस पूरे माहौल का मज़ा ले रहा था। हवा उसके बालों को उलझाए दे रही थी। लेकिन वह इन सबसे बेखबर था। अमराईयों में कोयल की कूकें थीं, झींगुर बोल रहे थे....जुगनुओं की आमद अच्छी थी। जुगनू कुछ  टोही विमानों की तरह इधर-उधर उड़ रहे थे। लग रहा था हीरे के टुकड़े हवा में बिखर गए हों। आम और जामुन के पेड़ों से आती खुशबू के बीच घोरन अपने सुर में गा रहे थे, कोरस की तरह। इन खेतों के बीत कहीं-कहीं कुछेक घर भी थे। बांस के फट्टों से बने, कभी-कभार ईँटों के भी।

कुछ घर ढिबरियों से रौशन थे। उनकी पीली रोशनी सफेद चांदनी के खजाने में सेंध की तरह थे। वह मुस्कुरा उठा। चुपचाप रिक्शे पर बैठा रहना अभिजीत को बहुत अखर रहा था। मुमकिन है कि रिक्शेवाले को भी..। जो भी हो, बातचीत की पहल रिक्शेवाले ने की।

" मालिक, आहां कतॅ सं आएल छी..?"  रिक्शेवाले  के मुँह में गुटखा भरा था, सो मुँह से आवाज़ साफ-साफ नहीं निकली, सो अभिजीत बेवकूफ की तरह उसका चेहरा देखता रहा। रिक्शेवाले ने अपना सवाल दुहराया- ' आप कहां से आए हैं..?'

'तुमने पहले क्या पूछा था मुझसे...?'

' मैथिली में पूछा था सर '

'क्या..?'

" कि आप कहां से आए हैं.." रिक्शेवाले ने पैडल मारना जारी रखा, लेकिन मुंह में भरे गुटखे के थूक को सड़के के किनारे सादर समर्पित कर दिया।
." दिल्ली से..."
." कहां जाएंगे मालिक.. मेरा मतलब है कि किसके घर जाना है आपको...."


" अरे भाई, अपने ही घर। पाकड़ के पेड़ के नीचे वाला। दुर्गाथान (थानः स्थान) के पास।

." कोई बात नहीं मालिक, बसदस मिनिट और .........।" रिक्शावाला अपनी रौ में था। अभिजीत से पूछते ही उसने अपना नाम बिसेसर मड़र बताया। मूल रूप से यह नाम विश्वेश्वर मंडल था। थोडी़ देर तक चुप्पी रही। फिर अभिजीत ही पूछा, ."अच्छा भई, कुछ बदला है कि नहीं लक्ष्मीपुर में?

." गांव तो हुजूर अच्छा ही है.. रामचंद्र भगवान को भी अपना ही गांव अच्छा लगता था.. कहते थे कि जनमभूमि जो है सो सुअर्ग से भी सुन्नर है।"

सो तो है बिसेसर...." अभिजीत को पहली बार लगा कि उसने क्या खो दिया है। अपना नाम, अपनी पहचान..अपनी जड़ें..और मृगांका...कुछ महीनों में ये जिंदगी भी....। लेकिन उसने मड़र को फिर  कुरेदा,." लेकिन कितना बड़ा हो गया है गांव अब....?"

."..तीन-साढे तीन हज़ार अबादी है, हुजूर। बाभन, हरिजन ,जादव, पासी कुम्हार सब तरह के लोग हैं।."

."क्या करते हैं लोग..."
." खेती और क्या...बाभन लोगों के बच्चे सहर में नौकरी करते हैं। खेती का काम बंटाई पर दिए हुए हैं। गांव में ज्यादातर जमीन आज भी बाभन-राजपूतों के हाथ में हैं, इधर गुआर मने जादब लोग भी बहोत तरक्की किया है और ऊ लोग भी बहोत जमीन खरीदा है।."

."सरकार कोई काम-वाम कर रही है...."

."नईं... सरकार काम तो करिये रही है..आज लछमीपुर में बैंक है, इस्कूल है, पोस्ट ऑफिस है, इधर उधर जाने के लिए दिन में दू बार बस मिलता है, कहते हैं कि बिकास नै हुआ है.. बिकास तो हुआ है। ...और एक छोटा सा चौक भी है.. छोटा-मोटा सामान मिल जाएगा आपको..."

." ...और ब्राह्मण लोग कैसे बिहेव करते हैं...."

." नईं पुराने लोग उनको देखके पायलागी करते हैं अभी भी.." रिक्शा बदस्तूर चल रहा था। ."लेकिन दिल्ली और पंजाब से कमाकर आया लड़का लोग ई सब नईं मानता है। पहिले भी इ सब होबे करता था, लेकिन जब से पटना में लालू परसाद मुखमंतरी बना है..तब से ई लोग बाबरी सीटने लगा है... हमरा बाई लोग भी बाभन लोग से झगड़ा फसाद करते रहते हैं.. हम तो समझाते हैं उनको लेकिन जबान खून मानता है कहीं.. न बाभन लोग का.. न हमरे लोगों का..."

."आप देखिएगा न.. जो आदमी इधर आया होगा दस साल पहिले.. उसको ऊपर से सबकुछ वैसा ही दिखाई देगा..बाढ के बाद का अटका हुआ पानी, ऊबड-खाबड, टूटल-फाटल रोड...वैसे नीतीस मुखमंतरी बना तो रोड बनबाया, लेकिन रोड बनाने से का होगा....रोड का मरम्मती नहीं कराइएगा तो रोडवा बरसात के पानी में टूटिए जाएगा...लेकिन भीतरे-भीतर बहुत चीज बदल गया है मालिक..।"

."जो काम सहर में सरकार पचास साल में नहीं कर सका है ऊ काम तो एके साल में पिराविट कंपनी कर दिया है.. एके साल में एयरटेल और रिलांयस का टावर गांव में लग गया है, बाभन लोग मोबाईल खरीद लिए हैं..राजपूतटोला में भी कुछ लोग के पास गुअरटोली में भी...."

." गांव में स्कूल भी है..?."

." हां जी है ना.. अब तो उसमें चार शय लड़का लोग पढ़ते हैं.. हमरी बचिया भी जाती है.. इस्कूल में छोटा जात लोग ही ज्यादा पढ़ते हैं..."

."क्यो..ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ते नहीं..?."

." नहीं ऊ लोग तो बहुत पहिले ही सहर चले गए.. तो गाऊं के इस्कूल में हमीं लोग बचे हैं।."





क्रमशः 

Saturday, July 7, 2012

सुनो! मृगांका:16: मुसाफिर

जब वह स्टेशन पर उतरा तो हर तरफ़ धुआं-धुआं सा था। खजौली- छोटा-सा स्टेशन। ठंड में दुकानों के चूल्हों से निकला धुआं और घना हो गया। रात के इस वक्त गांव के लोग एक नींद सोकर उठ जाते हैं। अभिजीत ने घड़ी देखी.. रात के साढ़े दस बज रहे थे।

खजौली बेहद छोटा स्टेशन है। महज दो प्लेटफॉर्म वाला स्टेशन। पहले यहां से छोटी लाईन गुजरती थी। दुनिया की रफ्तार से बेखबर जानकी एक्सप्रैस अपने नाम और गति के विरोधाभास को सच साबित करती चलती। जानकी वगैरह गाड़ियों में डीजल इंजन तो बहुत बाद में लगे। पहले तो काले-काले भीमकाय भाप के इंजन चला करते थे।

भारतीय सीमा में आखिरी रेलवे स्टेशन जयनगर तक छोटी लाईन जाती थी। जयनगर से आगे नेपाल के शहर जनकपुर तक नैरो गेज़ पर खिलौने जैसी ट्रेन चला करती। उस खिलौना-ट्रेन का सफ़र बेहद दिलचस्प हुआ करता। जो लोग कलकत्ता वगैरह घूम आए थे, वह हांकते कि इस रफ्तार से चलने वाली गाड़ी में तो आप लग्घी-पेशाब वगैरह भी करने के लिए चलती गाड़ी से उतर सकते हैं, फिर शंका का निबटारा करने के बाद पुनः चढ़ सकते हैं। लोगों की बातचीत में इतनी अतिशयोक्ति की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।

बहरहाल, बाहर निकलकर हाथ सिकोड़े अभिजीत चाय की दुकानों के सामने खड़ा हो गया।

खजौली स्टेशन पर भी स्टेशन के आगे से गुजरती सड़क को स्टेशन रोड कहा जाता है। तो स्टेशन से सटी दो-एक चाय की दुकानों को छोड़कर बाकी की दुकानें कब की बंद हो चुकी थीं। अंधेरे का साम्राज्य-सा फैला था। चांद का एक चोटा-सा टुकड़ा रौशनी बिखेरने की नाकाम कोशिश में जुटा था।

अभिजीत जब भी चांद को देखता है उसे मृगांका की याद बेतरह आ जाती है। उसके पॉकेट में सिगरेट थी, लेकिन माचिस नहीं था उसके पास...उसके गृहनगर से यहां तक के सफ़र में किसी राहगीर साथी ने लेने के बाद माचिस लौटाने की जहमत उठाई नहीं..।

गरमी काफी थी लेकिन गांव के खुली हवा में ओस की हल्की तरावट थी। पेड़ों के पत्तों से हवा सरसराती हुई बह रही थी। हवा में मौजूद ऊमस से थोड़ी राहत मिली थी।

सारे रास्ते उसे ट्रेन में पसीने की तमाम किस्म की गंधों से दो-चार होना पड़ा था। विज्ञान कहता है कि किसी भी दो आदमी के पसीने की बू अलग होती है लेकिन सच तो यह था कि उसे ट्रेन में जो भी आदमी मिला, पसीने से नहाया मिला और सबकी देह की बू एक-सी लगी। इस बू या बदबू में कुछ और आयाम जोड़ देते थे, कभी साफ न किए गए ट्रेन के यूरिनल, और उसमें कमोड के ऊपर कर दिए गए पाखाने और वॉश बेसिन कहे जा रहे टीन के चौकोर टुकड़े में उल्टियां, गुटखे का रंगीन थूक...। और भी बहुत कुछ।


दो-एक बंद पड़ी नाश्ते की दुकानों के ठंडे पड़ रहे चूल्हों से सटकर और उसकी राख पर आराम फरमा रहे कुत्ते अलसाए से पड़े थे। अभिजीत थोड़ा आगे बढा, तो दो-तीन रिक्शेवाले अपने रिक्शों से दूर चाय की दुकान पर बतिया रहे थे। केतली की टोटी से भाप निकलता हुआ साफ़ दिख रहा था। अल्यूमिनियम की केतली में लाल कोयले के अंगारों की रौशनी... उजली पृष्ठभूमि पर लाल रंग... बेहतर कॉम्बिनेशन! उसने ने सोचा।

वह चाय की उस दुकान तक बढ़ गया। उबलती चाय देखकर पता नहीं दिलके किसी कोने में दबी चाय पीने की इच्छा जाग गई। चाय के एक कप का ऑर्डर देकर उसने दुकानदार से माचिस मांगी। सिगरेट का धुआं उसेक चेहरे के आसपास घुमड़ता रहा। जयनगर जाने वाली आखिरी गाड़ी से उतरे एकमात्र पैसेंजर को देखकर रिक्शेवाले चौकन्ने हो गए।

सिगरेट आधी खत्म होते न होते चाय आ गई। कांच का ग्लास..पता नहीं बुद्धकाल में या उससे भी पहले कभी किसी सभ्यता के दौरान मांजी-धोई गई होंगी। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि कभी सफेद रहा गिलास किनारो पर भूरा पड़ने लगा है। माटी के कुल्हड़ से मिलते-जुलते रंग का। उसने ग्लास की सफाई को ज्यादा तवज्जो नहीं दी।

रिक्शेवाले लपक कर उसतक पहुंच गए। खैनी को होठों में दबाकर फटी धोती में हाथ पोंछते हुए एक रिक्शेवाले ने पूछा, "कहां जाइएगा?"

" लक्ष्मीपुर-ठाहर"

सवाल पूछने वाले उस रिक्शेवाले ने दूसरे रिक्शेवाले से कुछ कहा जिसका आशय शाय़द ये था कि ये मेरी तरफ ही जा रहे हैं, मैं इन्हें छोड़कर घर निकल लूंगा। दूसरा रिक्शेवाला भी प्रतिवाद किए बिना साइड हो गया। धीरे-धीरे अजनबी को लिए रिक्शा बस्ती से बाहर निकलने लगा।

रिक्शेवाले ने स्टेशन रोड छोड़कर गली पकड़ ली। ये गली क़स्बे के बीच से होकर गुजरती थी। सड़कें कभी, बहुत ज़माने पहले, आज़ादी के ठीक बाद या मुमकिन है कि दूसरी बड़ी लड़ाई के दौरान कोलतार की बनी थी, लेकिन अब नई सदी में सड़क के नीचे पड़े पत्थरों ने विद्रोह में सर उठाना शुरु कर दिया था। ठीक वैसे ही जैसे इस इलाके के दलित सर उठाके चलने लगे हैं, और सड़क पर यहां-वहां अलकतरे के अवशेष बचे हैं, वैसे ही जैसे दबंग जातियों के कुछ परिवार अभी भी अपनी दबंगई क़ायम किए हुए हैं। लेकिन इससे राहगीरों को ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ता।

स्टेशन रोड के दुकानदार और सब्जीवाले सरकार से सहयोग करना जानते हैं, और शायद अपनी इसी भावना से वशीभूत होकर या फिर जनसेवा की पवित्र भावना के तहत अपनी दुकानों, घरों और ठेले का कूड़ा सड़क पर डाल देते हैं।

सड़क पर समाजवाद फैलाते थूथन उठाकर घूमते सूअर, बैल-गाय बकरियों और इंसानों ने अपने पैरों, गाड़ियों के पहियों से उन्हे थौआ-थौआ करके हर ओर बिखेर दिया है। ऐसे में पता ही नहीं लगता कि सड़क शुरु कहां हो रही है और खत्म कहां हो रही है। 'तुझमें मैं और मुझमें तू है' की तर्ज़ पर सड़क और कूडे एकमेव हो गए हैं..कूड़े और सड़क का फर्क ही नहीं। साम्यवाद का असली रूप तो यहीं दिखता है।

अभी देऱ रात हो रही है वरना मुर्गे, कुत्ते, सूअर, गाय, गधे, इँसान सब एक साथ एक तरह से नज़र आते हैं।

रिक्शों साइकिलो के पहिए, बैलगाडी़ के पहिए तक आधे धंस जाते हैं इन कचरों में। बरसात की जाने दें, जेठ की दुपहरी में भी सड़क का कीचड़ नहीं सूखता। गरमी में भी रिक्शा इस कीचड़ में धंसा जा रहा था। सूअर इन कचरों में मुंह मार कर निकलते हैं और साथी सूअरों से कहते हैं- आनंद अखंड घना था। बहरहाल, उसी सड़क से, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, और जो बरसात में नाले का भव्य रुप धारण कर लेती है और जो बरसात रुपने के ठीक बाद ऐनोफेलिस, एडीज और क्यूलेक्स और नामालूम किन-किन नस्लों के मच्छरों का पनाहगाह और ख्वाबगाह होता है- रिक्शा दुबककर दुलकी के साथ एक खडंजा पर चढ़ गया।

अभी तक जिस रिक्शे की गति कीचड़ से बाधित थी, वह अचानक थोड़ी तेज़ हो गई, पर बाधा दौड़ में हिस्सा ले रहे किसी धावक की तरह वह फुदक-फुदककर आगे बढ़ रहा था।

क्रमशः

Tuesday, July 3, 2012

मेघ की तलाश में, दिल्ली से पूर्वोत्तर तक

लोगबाग मॉनसून को लेकर हायतौबा मचा रहे हैं। बच्चों के स्कूल गरमी की वजह से 9 जुलाई को खुलेंगे। गरमी की छुट्टियों का एक्सटेंशन हो रहा है..हमें टेंशन इस बात की है कि जब हम स्कूल में थे तो ऐसे क्यों एक्सटेंशन नहीं होता था गरमी की छुट्टियों का।

कुछ लोगों यानी बापों को इस बात की राहत जरूर मिली होगी कि चलो बच्चे का होमवर्क और प्रोजेक्ट पूरा करने में कुछ मोहलत और मिली। दरअसल, आजकल होमवर्क बच्चों को नहीं उनके मां-बापों और सच-सच कहें तो बापों को मिला करता है।

अमां, ये तो ठीक लेकिन ऐसे मॉनसून का क्या करें, जहां बारिश मौन है और बाकी सब सून।

मने भी ठान लिया कि बारिश की खोज में हम आकाशमार्ग से विचरण करेंगे और बादलों को कान पकड़कर खींचते ले आएँगे। तो जनाब, नीले आसमान में हम पहुंत गए श्वेत-नील राजहंस पर बैठकर।

दिल्ली हवा से देखें तो थोड़ी-थोड़ी हरी और कहीं भूरी कहीं गहरी भूरी नजर आती है। कहीं बादल क्या बादल की जात तक नहीं...। सब सून...अनुमानत- कानपुर से कुछ आगे तक आसमान साफ रहा। बाईँ तरफ, दूर उत्तर में हिमालय कपास के ढेर में बैठा जाड़े की रजाई तैयार कर रहा था।

मैं नीचे गंगा को देखने में मशगूल था कि बस अचानक बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े कतार में दिखने लगे। एक दम छुटकू बादल। केजी में स्कूल जानेवाले। कतार में। सफेद शर्ट और नीली पैंट पहनने वाले बच्चों की तरह। मेरे पास कैमरे वाला मोबाइल नहीं था, वरना उनक तस्वीर आपके लिए पेश करता। पचीस-तीस कतारों में बच्चों की तरह और कितने होंगे गिनती में कह नहीं सकता...शायद एक कतार में सौ से ज्यादा। इलाहाबाद तक ये कतार बनी रही।

कुछ आगे जाकर शायद बिहार में इन बादलों के आकार आठवीं जाने वाले या दसवीं जाने लायक बच्चों जैसे हो गए। लेकिन इन बेटों से पोतों की उम्मीद बेकार थी। काहे कि, कपासी थे। छोटे भी थे और लग रहा था कि खेत में गोभी लगाए गए हो...जिनमें से छोटे-छोटे फूल आ गए हों।

कपासी मेघ भौंकने वाले कुत्तों सरीखे होते हैं, जिनसे काटने यानी बरसने की उम्मीद भी नहीं होती।

बाद में बंगाल के ऊपर जब हम उड़ रहे थे, तो भी बादल बरसने वाले लगे नहीं। बस, कपासी बादलों का ही ठौर-ठिकाना बड़ा हो गया। मठीधीशों की तरह के बादल, खुद कुछ सिरजते नहीं, कुछ लिखते नहीं...दूर से दिखते हैं। सिर उठाए..वही बादल जिनमें आप तमाम किस्म की आकृतियां देख लेते हैं। पक्षाभ मेघ।


कुछ बादल स्त्रैण भी थे। लजाकर लुक-छिप कर महिलाओं से या यों कहें कि युवतियों (अखबार वालों को युवतियों की तस्वीर छापने का बहुत शौक है, विश्वास न हो तो 10 जुलाई के आसपास जब दिल्ली में बारिश होगी तो हर हिंदी अखबार में भींगती लड़कियों के फोटो छपेंगे...इस कैप्शन के साथ कि बारिश का मजा लेती  सुंदर युवतियां। ये बारिश का मजा लेती वहीं सुंदर युवतियां होती हैं, जो अभी गरमी-लू के टाइम में मुंह ढंककर दस्यु सुंदरियां बन चुकी हैं) की तरह दूसरे बादलों की ओट में छिप जा रहे थे।
इनमें पानी नहीं होता, पानी इनमें जमकर बर्फ बन जाता है। इसी से इतने उजले होते हैं मानों किसी ने नील-टिनोपॉल में धो डाला हो। इऩ बादलों को अपने आकार का बड़ा घमंड था। कुछ नेताओं जैसे थे, कुछ बादल मुख्यमंत्रियों जैसे और ज्यादातर राज्यपालों जैसे। हालांकि ये नेताओं जैसे थे लेकिन उन से वीर्यवान् न थे। इन नपुंसक बादलों पर भी किसी ने जरूर कविता लिखी होगी।

ऐसे क्लीव बादलों को देखता हूं तो लगता है इनके जरूर किसी सरकारी अधिकारी का दर्जा मिला होगा अपने बादलों के साम्राज्य में। फिर भी, इनमें इतनी ताकत तो थी कि इनसे होकर विमान गुजरता तो थोड़ा डगमगा जाता था।

जल्दी ही हम असम में प्रवेश कर गए। यहीं था असली खेल...बादलों में स्तरीय बादल भी, पक्षाभ भी, कपासी भी..गहरे भूरे से लेकर निंबस तक...आसमान में नीले के कई शेड देखने को मिले। धरती एक दम हरी-हरी। कुछ दूर पानी फैला हुआ भी...लेकिन आज सिर्फ बादलों की चर्चा..।

मैं उम्मीद लगाए बैठा था कि शायद कहीं बरस जाए। इस सत्र में बारिश से सिर्फ एक दफा मध्य प्रदेश में मुलाकात हुई है। बरसात बेवफा प्रेमिका की तरह मिलने से कतरा रही है लगातार। सिर्फ एक दफा उमक कर मिली है।

जोरहाट उतरे तो सूरज सिर पर चमक रहा था, प्रधानमंत्री के साथ सोनिया गांधी को भी असम के बाढ़ का जायज़ा लेना था। सरकार कह रही है 77 लोग मर गए हैं बाढ़ में। मुझे अंदेशा है कि ज्यादा मरे होंगे। मैंने भी बाढ़ के पानी को देखा, मेरे आगे के दो हेलिकॉप्टरो में प्रधानमंत्री और सोनिया थे।

मैंने अब सर पर मंडरा रहे बादलों को गाली दी थी भद्दी-सी। वो भड़क गए थे। मैंने कहा था सालों सरकारी योजनाओं की तरह एक ही जगह क्यों अटक गए हो। यहां किसी को डुबो कर मार रहे हो, कहीं लोग तुम्हारे इंतजार में मर रहे हैं।

मैंने पूर्वोत्तर के बादलों से दिल्ली चलो का आह्वान किया है। देखें क्या होता है....