मौसम विभाग ने लगातार दूसरे
साल भी औसत से कम बारिश की भविष्यवाणी की है। ऐसा दो बार लगातार सिर्फ 28 साल पहले हुआ था। सोलह साल के बाद ऐसा होगा कि देश को सबसे
अधिक खाद्यान्न पैदा करके देने वाले दो राज्य पंजाब और हरियाणा में सबसे कम बारिश होने
वाली है। इन निराशाजनक आंकड़ों में फंसने की बजाय मैं कुछ उम्मीद से भरी बातें करना
चाहता हूं।
प्रधानमंत्री मॉनसून में इस
कमी को एक मौके के रूप में लेने की बात कह गए हैं और कहा है कि सूखाग्रस्त इलाकों में
माइक्रोसिंचाई योजनाओं का विकास किया जाना चाहिए। दशकों से सिर्फ सरकारें बदलती रही
हैं और अब तक हर सरकार गांवों में सिंचाई के लिए एक असरदार और विस्तृत तंत्र बना पाने
में नाकाम रही हैं।
हमारे पास आज सिंचाई के नाम
पर जो सुविधा है वह बस दशकों पुरानी सिंचाई व्यवस्था का हिस्सा भर है। मौजूदा नहरें
कई दशक पुरानी हैं और इनमें गाद की समस्या के साथ-साथ पानी का काफी नुकसान भी होता
है।
विख्यात पर्यावरणविद् अनुपम
मिश्र ने एक किताब लिखी है, आज भी खरे हैं तालाब। वह किताब
पढ़ें तो आप आसानी से समझ जाएंगे कि तालाबों, पोखरों, कुओं जैसे पारंपरिक जलसंग्रह साधनों को जिन्दा करना ही सबसे
मुफीद है।
चावल, गेहूं और मोटे अनाजों को एफसीआई के गोदामों से बाहर निकालने
की जरूरत है। देश के वैज्ञानिक पहले ही सूखाप्रतिरोधी बीजों का विकास कर चुके हैं, अब इन्हें सस्ती दरों पर किसानों को दिए जाने की जरूरत है। फिलहाल, जन-धन योजना में जो पंद्रह करोड़ खाते खोलने का दावा सरकार कर
रही है, अब उस खाते के सही इस्तेमाल का वक्त आ गया है। सरकार किसानों
के लिए राहत सीधे इन्ही खातों में डाल दे, तो बात बन जाए।
कमज़ोर मॉनसून की भविष्यवाणी
पर हालांकि लोग शक कर रहे है और मौसम की भविष्यवाणी करने वाली एक निजी वेबसाईट का जिक्र
कर रहे हैं जो अल नीनो वर्ष होने के बावजूद दावा कर रही है कि इस साल 102 फीसद बरसात होगी। मेरा मन है कि ऐसा ही है। भारतीय मौसम विभाग
88 फीसद की बात कर रहा है।
लेकिन मॉनसून कमजोर हो तो
भी मेरे खयाल में पांच ऐसी बातें हैं जो उम्मीदें बनाए रखने के लिए उजाले की आस सरीखी
है। पहली तो यही कि मौसम की भविष्यवाणियां बाज़दफ़ा ग़लत भी साबित हो जाती हैं। ऐसा
साल 2006, 2007,
2011 और 2013 में हो चुका है।
दूसरी, उत्तर और पश्चिम के ऐसे इलाकों में ठीक-ठाक बरसात की भविष्यवाणी
की गई है जहां अनाज की बढ़िया पैदावार होती है, और जहां पिछले साल
बारिश खराब हुई थी। यानी, उत्तर-पश्चिम का इलाका जहां
पिछली बार 79 फीसद बारिश हुई थी वहां इस बार 85 फीसद होने की उम्मीद है। मध्य भारत में 90 के मुकाबले 90 फीसद, पूर्वोत्तर में 88 फीसद के मुकाबले
90 फीसद, दक्षिण भारत में 93 फीसद के मुकाबले 92 फीसद बरसात की भविष्यवाणी
है।
उम्मीद की तीसरी वजह है कि
खाद्यान्न की पैदावार पर असर सिर्फ तभी पड़ता है जब बारिश बेहद कम हो। साल 2009 और 2014 ही ऐसा साल रहे हैं जब क्रमशः
सामान्य से 21.8 फीसद और 12 फीसद कम बारिश की वजह से
खाद्यान्न की पैदावार पर असर पड़ा था।
चौथी वजह यह है कि जाड़े में
हुई ठीक-ठाक बारिश की वजह से देश के जलाशयों में 43.14 बिलियन क्यूबिक मीटर
पानी है। यह पिछले दस वर्षों के औसत का 136 फीसद है। तो पानी
की कमी नहीं होगी यह भरोसा है।
पांचवी और आखिरी वजह यही कि
मॉनसून में देरी—केरल तट पर यह देर से पहुंचा है—का मतलब यह नहीं कि सूखा पड़ेगा
ही। साल 2005 में मॉनसून 7 जून को शुरू हुआ था, बारिश महज 1.3 फीसद कम हुई थी। साल 2009 में 25 मई को ही केरल तट से मॉनसून
टकराया था, बारिश 21.8 फीसद कम हुई थी।
मुख़्तसर यह कि बारिश का कम
होना, या मॉनसून का केरल तट पर कम आना, यह चिंता का विषय तो है लेकिन इस चुनौती को हम मौके में बदल
पाए, तो देश की माली हालत के साथ-साथ किसानों के लिए भी राहत की बात
होगी।