Friday, December 23, 2016

क्या सिद्धू फुंके हुए कारतूस हैं?

ठहाकों के सरदार नवजोत सिंह सिद्धू अब कांग्रेस का दामन थामेंगे। उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर सिद्धू और हॉकी खिलाड़ी और सिद्धू के साथी परगट सिंह पहले ही कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं।

इसका मतलब यह हुआ कि नवजोत सिंह सिद्धू कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और वह सीट अमृतसर-पूर्व की सीट भी हो सकती है, जहां से निवर्तमान विधायक उनकी पत्नी डॉ. नवजोत कौर रही हैं।

बीजेपी से दूरी बनाने की जो भई वजहें खुद सिद्धू गिनाएं और या फिर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से पींगे बढ़ाने के पीछे उनकी मंशा क्या है यह साफ करें, लेकिन यह जानना बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर पंजाब की राजनीति में सिद्धू को क्या ताकत हासिल है? आखिर, पंजाब में कांग्रेस के खेवनहार कैप्टन अमरिन्दर सिंह क्यों पहले सिद्धू के कांग्रेस में आने से नाखुश थे और अब क्यों उन्होंने सिद्धू के आने की खबरों का स्वागत किया है। (गुरूवार को सिद्धू की पत्नी कांग्रेस में जाने की खबरों की पुष्टि कर चुकी हैं)

नवजोत सिंह सिद्धू को अरुण जेटली ही राजनीति में लेकर आए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अमृतसर के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू की जगह बीजेपी ने अरुण जेटली को वहां से उम्मीदवार बनाया। गुस्साए सिद्धू ने जेटली के लिए चुनाव प्रचार नहीं किया। हालांकि, इसी साल अप्रैल में बीजेपी ने सिद्धू को राज्यसभा की सदस्यता दी, लेकिन सिद्धू बजाय राज्यसभा जाने के एक कॉमिडी शो में सिंहासन पर बैठकर ठहाके लगाते और शेरो-शायरी करते देखे गए।

बहरहाल, ऐसा लग गया था कि यह क्रिकेटर विधानसभा चुनाव से पहले कुछ तो करेगा और पंजाब की राजनीति में उबाल आया तो सत्ताविरोधी लहर की और आम आदमी पार्टी की संभावनाओं के मद्देनज़र सिद्धू का नाम भी आप से जोड़ा जाने लगा। हालांकि, न तो आप ने और न कभी सिद्धू ने इसके बारे में किसी अंतिम फ़ैसले पर टिप्पणी की।

फिर सिद्धू ने 18 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। उनकी पत्नी और अमृतसर से विधायक नवजोत कौर सिद्धू ने भी इस्तीफ़ा दे दिया। यानी तस्वीर साफ होने लगी थी।

आम आदमी पार्टी में शामिल होने को लेकर बात यहां तक गई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ उनकी कई बैठकें भी हुईं, लेकिन बात किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई।

कहा जाता है कि सिद्धू आप से अपने लिए, पत्नी और अपने कुछ लोगों के लिए विधानसभा चुनाव की टिकट मांग रहे थे. लेकिन आप का संविधान एक ही परिवार के दो लोगों को टिकट देने से रोकता है।

इसके बाद उन्होंने पूर्व हॉकी खिलाड़ी परगट सिंह और लुधियान के दो विधायक भाइयों के साथ 'आवाज़-ए-पंजाब' के नाम से एक राजनीतिक मंच बनाया।

उनका कहना था कि उनका मंच चुनाव में उन लोगों का साथ देगा जो पंजाब के लिए कुछ अच्छा करना चाह रहे हैं. लेकिन उन्होंने उन लोगों का नाम नहीं बताया जिनका वो साथ देना चाहते हैं. इस तरह उन्होंने अपने विकल्पों को खुला रखा।

बाद में 'आवाज़-ए-पंजाब' में सिद्धू के साथ आए लुधियाना के दोनों विधायकों ने आप में शामिल होने का फ़ैसला किया।

सवाल यह है कि आखिर नवजोत सिंह सिद्धू में ऐसा क्या ख़ास है कि आप हो या कांग्रेस उनके आने से खुश है और अपना हाथ ऊपर मान रही है। असल में, इसकी एकमात्र वजह है सिद्धू की पृष्ठभूमि क्रिकेटर की होना और यही वजह है कि सिद्धू भी अपने मशहूर ‘खड़काओ’ की तर्ज पर मंजीरा छाप होकर निकल लिए हैं। अब यह उनका अति-आत्मविश्वास ही है कि उन्हें लगता है कि वह बेहद कामयाब या करिश्माई शख्सियत हैं और पंजाब की राजनीति के लिए अपरिहार्य हैं।

वैसे, सिद्धू ने गोटी बड़े करीने से खेली है और इस बार चुनाव में उनने पंजाबी बनाम बाहरी का दांव चल दिया है। ठीक बिहार विधानसभा चुनाव की तरह और अगर यह दांव सही पड़ गया तो मूलतः हरियाणा के केजरीवाल को नुकसान हो जाएगा।

बहरहाल, सिद्धू को जब बीजेपी में खास तवज्जो नहीं मिली तो आप के ज़रिए उन्होंने सीएम की कुरसी पर निशाना साधने की कोशिश की और अब कम से कम इतना ज़रूर चाहते हैं कि वह किंग नहीं तो कम से कम किंगमेकर की भूमिका में ज़रूर रहें।

पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वालों का मानना है कि जिस समय नवजोत सिंह सिद्धू की आम आदमी पार्टी से बातचीत चल रही थी, उस समय अगर वो आप में शामिल हो गए होते तो शायद उन्हें बड़ी सफलता मिलती।

लेकिन जिस तरीके से पिछले तीन-चार महीने में सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर अलग-अलग पार्टियों से बातचीत में मशगूल दिखाई दीं, तो लोगों में यही संदेश गया कि वे लोग सियासी मोल-भाव में व्यस्त हैं। जाहिर है, इससे उनकी चमक कम हुई है।

वैसे भी, सिद्धू के लिए इससे भयभीत होने की ज़रूरत नहीं। पंजाब की पार्ट-टाइम पॉलिटिक्स तो किसी भी स्टूडियो से हो सकती है।



मंजीत ठाकुर

Thursday, December 22, 2016

गांवों की बात कौन करेगा

लोगों से एक खचाखच भरे ऑडिटोरियम में कभी शीलू राजपूत दमदार आवाज़ में आल्हा गूंजता है, फिर एक मदरसे की लड़कियां क़ुरान की आयतों को अपना मासूम स्वर देती है, ओर फिर गूंजती है वेदमंत्रो की आवाज़। लोगों के चेहरे विस्मित हैं। इन प्रतिभाओं में एक बात समान थी। यह सभी लोग गांव के थे। ठेठ गांवों के। जिनके लिए मुख्यधारा के मीडिया के पास ज़रा भी वक्त नहीं।

तो जब मुख्यधारा का मीडिया बहसों और खबरें तानने की जुगत में लगा रहता है, उस दौर में गांव की घटनाएं, नकारात्मक और सकारात्मक दोनों खबरें हाशिए पर पड़ी रह जाती हैं।

खबर दिल्ली की होंगी, या फिर बड़े शहरों की और बहुत हुआ तो दिल्ली जैसे शहरों के सौ किलोमीटर के दायरे में घटने वाली घटनाएं कवर कर ली जाती हैं। क्या वजह है?

चलिए, हम मुख्यधारा के मीडिया की आलोचना करने की बजाय यह देखें कि इस दिशा में कौन काम कर रहा है। निश्चित ही, यह नज़ारा देखने के लिए आपको स्वयं फेस्टिवल में मौजूद होना होता।

अपनी अकड़, अपने तेवरों और अपनी खूबियों-खामियों के साथ गांव इस अखबार में मौजूद है। गांव के लोगो के लिए भले ही सरकार ने रर्बन मिशन शुरू किया है, यानी गंवई इलाको में शहरी सुविधाएं उपलब्ध करने का। केन्द्र सरकार ही नहीं, देश के हर राज्य में गांवों के लिए और गांव के लोगों के लिए योजनाएं बनती हैं। कभी पीने के पानी के लिए, कभी सिंचाई के लिए, कभी रोजगार के लिए तो खेती के लिए...लेकिन उन योजनाओं के लागू करने में हुई देरी या मान लीजिए कामयाबी ही, उनकी खबर को कौन छापता-दिखाता है?

मुख्यधारा की मीडिया पर गांव तभी आता है, जब कोई कुदरती आपदा हो, या कोई बड़ी घटना हो जाए। लेकिन अमूमन किसान आत्महत्याओं जैसी बड़ी और त्रासद घटनाएं भी बगैर नोटिस के रह जाती हैं। दिल्ली से या बड़े शहरों से गांव रिपोर्टिंग करने वाले लोग आखिर खबर क्या ढूंढते हैं और क्या छापते हैं। और ग्रामीण विकास की रिपोर्ट के लिए मंत्रालय की पहलों, खामियों और कामयाबियों पर रिपोर्टें दिल्ली या राज्यों की राजधानियों में बैठकर छाप दी जाती हैं।

गांव का मतलब इनमें से ज्यादातर मीडियावालों के बीच खेती-बाड़ी ही है। समस्या है, लेकिन क्या गांव के लोग सिर्फ खेती ही करते हैं?

अगर दूरदर्शन को छोड़ दें, तो मुख्यधारा की मीडिया से या सिनेमा से ओरिजिनल गांव गायब था और इसी परिदृश्य में गांव कनेक्शन ने अपनी अभिनव शुरूआत की थी। गांव कनेक्शन के इस सार्थक पहल, जिसकी नकल अब कई मीडिया हाउस कर रहे हैं, के बारे में आज इसलिए चर्चा क्योंकि मेरा यह स्तंभ मेरा सौवां स्तंभ है और हाल ही में स्वयं फेस्टिवल में हिस्सा लेने के बाद मैं यूपी के चौदह जिलों में आयोजित स्वयं फेस्टिवल की कामयाबी से आश्चर्य-मिश्रित सुख से आह्लादित भी हूं।

ऐसे में, गांव की कहानियां सबके सामने आ रही हैं, सरकार इस अखबार में छपी खबरों को संज्ञान लेकर गांव के लोगों की समस्याओं का निपटारा कर रही है। गांव कनेक्शन इस अर्थ में एक अखबार होने के साथ, जो गांव के लोगों को गांव-जवार और दुनिया-जहान की खबरें देता है, उनकी समस्या को सही दरवाज़े तक पहुंचाने के उम्मीद के केन्द्र के रूप में उभरा है।

वक्त की रेखा में चार साल कुछ नहीं होता, खासकर अगर वह कोई अखबार हो।

कई दशक पुराने पीत और प्रेत-पत्रकारिता करने वाले अखबारों को ठीक है कि अपने लीक पर चलते रहना चाहिए, क्योंकि इसके पीछे उनकी व्यावसायिक मजबूरियां भी होंगी, लेकिन अपनी सामग्री में अगर वह दस फीसद भी गांव कनेक्शन के स्तर की खबरें शामिल कर सकें, तो यह उन अखबारों की विश्वसनीयता में इजाफा तो करेगा ही, गांव के लोगों को भी आबादी के हिसाब से अपना प्रतिनिधित्व मीडिया में मिलेगा।

फिलहाल तो, जिस जुनून और जज्बे के साथ, जिस ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करके गांव कनेक्शन ने चार साल में चार कदम शिखर की तरफ बढ़ाए हैं, मुझे लगता है दूसरे अखबारों के लिए प्रेरणा-स्रोत बना रहेगा।





मंजीत ठाकुर

Saturday, December 10, 2016

भ्रमित विपक्ष का मतिभ्रम

संसद में विपक्ष के हंगामे और गतिरोध पर आखिरकार राष्ट्रपति को भी बोलना ही पड़ा। अमूमन राष्ट्रपति ऐसी परिस्थितियों में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते, लेकिन जिस तरह से संसद की गतिविधि थम सी गई थी, और विपक्ष अपनी मांग पर अड़ गया था, उससे लगा था कि यह पूरा सत्र बर्बाद ही न चला जाए।

लेकिन नोटबंदी के मुद्दे पर संसद में लगातार हो रहे हंगामे से एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है। वैसे माना यह जाता है कि संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है। यह बात भी बहसतलब है, और इसको बदलने को लेकर भी विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह तय है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ-साथ मजबूत और रचनात्मक विपक्ष का होना जरूरी है। यानी, लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है कि विपक्ष वैसा हो जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर सवाल करे, बहस शुरू करे। अपने लोकतंत्र ने पिछले सत्तर साल में विपक्ष की इस भूमिका को कई दफा देखा है। आपातकाल के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने इरादों पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर दिआ था।

राजीव गांधी के शासनकाल में जब बोफोर्स जैसा बड़ा घोटाला उजागर हुआ था तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था। यह बात और है कि उस वक्त लोकसभा चुनाव के में उनको जनादेश नहीं मिला और जनता दल बहुमत से दूर रह गया था। उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी थी और जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार बनी थी। सन 1977 में जनता पार्टीके नाकाम प्रयोग के बाद राष्ट्रीय मोर्चे का यह प्रयोग नायाब था। विश्वनाथ प्रताप सिंह को लेफ्ट पार्टियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का भी समर्थन मिला था। ऐसी कई मिसालें हमारे संसदीय लोकतंत्र ने पेश की हैं।

विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वह सरकार की गलत लग रही नीतियों के खिलाफ जनमानस तैयार करे। नीतियों के सही या गलत होने की बात, पूरी इनकी व्याख्या पर निर्भर है साथ ही, किसी भी नीति पर बहस करके उसके व्यापक असर की समीक्षा करना भी विपक्ष का काम है। सरकार के फैसलों और नीतियों को संशोधित करना विपक्ष का ही काम है।

जो भी हो, कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष सत्तासीन दल के लिए चाहे जितना मुफीद हो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक होता है। खासकर, विपक्ष जब अपनी मुखालफत की नीतियों पर ही एक राय नहीं है। ऐसा ही कुछ अभी नोटबदली के मामले पर भी दिख रहा है। लगभग सारे विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी-अपनी डफली लेकर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है। आप को भारत बंद के मसले पर वाम दल और ममता, कांग्रेस और सपा-बसपा के अलग सुर तो याद ही होंगे। विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है।

असल में, आज की तारीख में उस धुरी की कमी है, जिसके चारों तरफ विपक्ष एकजुट हुआ करता है। इन दिनों कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ज्यादा सक्रिय नहीं हैं, और राहुल गांधी उस धुरी के रूप में उभरने में ज़रूरत से अधिक वक्त ले रहे हैं, जिस पर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है।

इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लागू किया था, तब देश में छात्र आंदोलन शबाब पर था और कहा गया कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने जिस तरह सरकार के खिलाफ माहौल तैयार किया, उसी से घबराकर इमरजेंसी लगाई गई। फिर पूरा विपक्ष जेपी के आसपास इकट्ठा हुआ और आपातकाल के हुए चुनाव में कांग्रेस ढेर कर दी गई थी।

उसके बाद कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सभी दलों में अपनी साख की वजह से एक भरोसा पैदा किया, तो कभी हरकिशन सिंह सुरजीत इस धुरी के रूप में उभरे। इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों के लिए एक छाते की तरह उभर पाए, और जिसकी शख्सियत पर तमाम दलों को भरोसा हो।

राहुल गांधी नेता के तौर पर अभी भी नौसिखिए लगते हैं, और उनमें अभी वो बात पैदा नहीं हो पाई है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो कम से कम उनकी बात तो मानें। बीजेपी इस मौके को बखूबी भुना रही है। हर मौके पर विपक्ष की कमजोरियां खुलकर सामने आ रही हैं। जनता में यह संदेश जा रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष की बेफालतू अड़ंगेबाज़ी हो रही है। मैंने पंजाब से लेकर यूपी के गांवो तक देखा, लोग यही कह रहे हैं कि विपक्ष नोटबदली का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहा है।

वैसे, अंतरराष्ट्रीय निवेश और बाज़ार के लिए मजबूत सरकारें बढ़िया मानी जाती हैं। इस लिहाज़ से तो सब ठीक है। लेकिन मजबूत सरकार का मतलब कमजोर और बिखरा हुआ विपक्ष नहीं होता। सदन में स्पीकर की वेल के सामने आकर हूटिंग करना और कामकाज रोकना भले ही, विपक्ष की रणनीति का हिस्सा हो, लेकिन हर रणनीति कामयाब सिय़ासी पैंतरा ही हो, यह भी सही नहीं है। विपक्ष को अपने जिद पर फिर से विचार करना चाहिए।

मंजीत ठाकुर

Saturday, December 3, 2016

थोड़ी चिंता खाद की भी कीजिए

अपने देश की खेती-बाड़ी में जो बढ़ोत्तरी हुई है, जो हरित क्रांति हुई है उसमें बड़ा योगदान रासायनिक उर्वरकों का है। हम लाख कहें कि हमें अपने खेतों में रासायनकि खाद कम डालने चाहिए-क्योंकि इसके दुष्परिणाम हमें मिलने लगे हैं—फिर भी, पिछले पचास साल में हमारी उत्पादकता को बढ़ाने में इनका योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा है। लेकिन, अभी भी प्रमुख फसलों के प्रति हेक्टेयर उपज में हम अपने पड़ोसियों से काफी पीछे हैं। मसलन, भारत में चीन के मुकाबले तकरीबन दोगुना खेती लायक ज़मीन है, लेकिन चीन के कुल अनाज उत्पादन का हम महज 55 फीसद ही उगा पाते हैं। इसका मतलब है उत्पादन के मामले में हम अभी अपने शिखर पर नहीं पहुंच पाए हैं।

इसी के साथ एक और मसला है जिसपर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, वह है कि क्या हम रासायनिक खादों का समुचित इस्तेमाल करते हैं? आज की तारीख़ में भारत रासायनिक खादों की खपत करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लेकिन देश के उत्पादन में मदद करने वाला यह उद्योग आज कराह रहा है।

देश में नियंत्रित रासायनिक खादों की कीमते साल 2002-03 के बाद से संशोधित नहीं की गई हैं। पिछले वित्त वर्ष में सरकार पर उर्वरक कंपनियों का बकाया करीब 43 हज़ार करोड़ रूपये था। लेकिन इस बार अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्राकृतिक गैस की कीमतों में कमी की वजह से आज की तारीख में इस उद्योग का करीब 30 बज़ार करोड़ रूपये सरकार पर बकाया है, जो मार्च में वित्त वर्ष खत्म होने तक करीब 40 हजार करोड़ तक चला जाएगा।

यूरिया खाद की कीमतें और सब्सिडी अभी भी डेढ़ दशक पुराने हैं। हालांकि, साल 2014 के अप्रैल से यूरिया के प्रति टन पर 350 रूपये की बढ़ोत्तरी की गई थी। लेकिन यह वृद्धि सिर्फ वेतन, अनुबंधित मजदूरों, विक्रय के खर्च और मरम्मत जैसे कामों के मद में की गई थी। जाहिर है, लागत पर इसका असर नहीं होना था। इस नीति के तहत, न्यूनतम कीमत 2300 रूपये प्रति टन स्थिर किया गया। लेकिन इसके तहत अभी तक कंपनियों को भुगतान नहीं किया गया है।

साल 2015 में नई यूरिया नीति भी सामने आई। इसमें फॉर्म्युला लाया गया कि ऊर्जा के खर्च और तय कीमतों के मद में ही पुनर्भुगतान किया जाएगा। बहरहाल, साल 2015-16 में यूरिया का 40 लाख टन अतिरिक्त उत्पादन किया गया। देश में यूरिया की कमी नहीं हुई। यह बड़ी खबर थी। लेकिन कंपनियों के अधिकारी अब शिकायत कर रहे हैं कि अपनी क्षमता के सौ फीसद से अधिक किए गए उत्पादन पर उन्हें प्रति टन महज 1285 रूपये का भुगतान किया गया।

अब उर्वरक कंपनियां सरकार के सामने अपनी मांग लेकर जा रही हैं कि वह उर्वरक सेक्टर में सब्सिडी को जीएसटी से अलग रखे। क्योंकि अगर सब्सिडी को जीएसटी से अलग नहीं रखा जाएगा तो इससे कीमतें बढ़ानी पड़ेगी। यानी, 5-6 फीसद से अधिक की जीएसटी की दर से उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ जाएगी, जिसे बाद में या तो सरकार को या फिर किसानों को वहन करना होगा।

उर्वरक कंपनियां सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) पर भी एतराज़ जता रहे हैं। कंपनियों के आला अधिकारी कह रहे हैं कि रासायनिक खादों में दिए जाने वाले सब्सिडी को कंपनियों के ज़रिए ही दिया जाए क्योंकि घरेलू गैस की तरह सीधे किसानों के बैंक खातों में दिया जाने वाला लाभ कामयाब नहीं हो पाएगा।

बहरहाल, आने वाले वक्त में, जब किसान नकदी की समस्या से जूझ रहा है और खेतों में आलू की फसल को खरीदार नहीं मिल रहे हैं, इन उर्वरक कंपनियों की मांग रासायनिक खादों की कीमत में इजाफा कर सकते हैं। ऐसे में इन कंपनियों की नज़र उस सब्सिडी पर है जो वह किसानों के नहीं अपने खातों में डलवाना चाहते हैं। अगर सरकार कंपनियों की मांग मानकर डेढ़ दशक पुरानी कीमतों को संशोधित करती है तो खाद की कीमत भी बढ़ सकती है, ऐसे में देश में खेती की लागत एक दफा फिर से बढ़ सकती है।

जो भी हो, किसानों तक निर्बाध रूप से उर्वरकों को पहुंचाने के लिए सरकार कदम तो जरूर उठाएगी। यूरिया की समुचित पर्याप्तता सुनिश्चित करके पिछले बरस एक सकारात्मक कदम दिखा था। कीमतें स्थिर रहें तो किसानों के हिस्से में ज्यादा आएगा।


मंजीत ठाकुर

Thursday, December 1, 2016

नागफ़नी

तपते रेगिस्तान में कैक्टस सीना ताने खड़ा था। गुलाब-केतकी-गेंदे की तरह उसे कभी किसी माली ने खाद-पानी नहीं दिया था, कभी उसकी कटिंग-प्रूनिंग भी नहीं हुई थी। किसी ने कभी जड़ में पानी तक नहीं दिया। वक़्त के साथ कैक्टस के कांटे तीखे हो गए थे। एकदम दरांती की तरह तेज़। और कैक्टस उर्फ नागफनी का फन नाग की तरह ज़हरीला हो गया।

तेज़ धूप, गरम हवा के थपेड़े, अपने ही कांटों से छिला बदन। रेगिस्तान में बारिश कहां होती थी, कभी भी नहीं। लेकिन इधर पता नहीं कहां से काली घटा आई, अपने गीले बालों से उसने कैक्टस को लपेट लिया, बालों से गिरती बूंदो ने कैक्टस को भिंगो दिया।

कैक्टस घटा के आगोश में था, तपती धरती पर गिरी बूंदो से जो सोंधी सुगंध निकली, उसने कैक्टस को मदहोश कर दिया। उसने ज़िंदगी में पहली दफ़ा ऐसी बू सूंघी थी। मेघा बोली, 'प्यारे कैक्टस, अब तेरा सारा ज़हर मेरा, तेरे सारे दर्द मेरे।' मेघा की न(र)मी से कैक्टस का ज़हर धुल गया। कांटे नरम पड़ गए और पत्तियों में बदल गए। कली निकल आई, फूल खिलने ही वाला था कि घटा हवा के साथ ऊपर उठ गई, उठती गई। एकदम आसमान में जाकर सिरस बादलों में तब्दील हो गई...मेरे प्यारे कैक्टस, तुम तो मेरे हीरो हो, अब से तुम कांटो के लिए नहीं, फूलों के लिए जाने जाओगे...अब तुम रेत पर कविताएं लिखा करना।

कैक्टस ने सिर उठाकर देखा, उसकी मेघा हमेशा उसके ऊपर रहने वाली थी, रेगिस्तान में हरा कैक्टस सीना ताने फिर खड़ा हो गया। धूप, लू के थपेड़ों, गरमी...अब किसकी परवाह थी उसे।