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Tuesday, January 14, 2020

नदीसूत्रः गंगाजल पाइपलाईन योजना बिहार सरकार का मायोपिक विजन है

एक तरफ गंगा खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही है, वहीं बिहार सरकार गंगा के 50 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी को गया भेजने के लिए भारी-भरकम योजना लेकर तैयार है. गया में भूजल स्तर सुधारने के दूसरे मुफीद तरीके अपनाने की बजाए गंगा का पानी गया तक लाने के पीछे मंशा आखिर क्या है?


सरकारें विकास की योजनाओं को लेकर किस कदर मायोपिक होती हैं इसकी ताजा मिसाल है बिहार सरकार की गंगा वॉटर लिफ्ट योजना. 18 दिसंबर की शाम बिहार सरकार की कैबिनेट की मंजूरी के बाद सूबे के जल संसाधन मंत्री संजय कुमार झा ने फूले न समाते हुए ट्वीट कियाः "जल संसाधन मंत्रालय के प्रस्ताव को मिली कैबिनेट मंजूरी से आह्लादित हूं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जल जीवन हरियाली अभियान के तहत यह बहुमुखी और अनूठी योजना गंगा वॉटर लिफ्ट स्कीम गया, बोधगया और राजगीर जैसे शहरों में पेयजल मुहैया कराएगी."

नीतीश कुमार और संजय झा


उनका अगला ट्वीट अधिक सूचनाप्रद था जिसमें बिहार के जल संसाधन मंत्री ने बताया, "गंगाजल लिफ्ट स्कीम के पहले चरण का बजट 2836 करोड़ रुपए है और इससे गया को 43 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) और राजगीर को 7 एमसीएम पानी मुहैया कराया जाएगा. यह जल दोनों ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के दोनों शहरों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त होगा."

झा का तीसरा ट्वीट यह बताने के लिए काफी था कि गंगा का पानी ही फल्गु नदी में श्रद्धालुओं के नहाने के लिए छोड़ा जाएगा. क्योंकि इस भारी-भरकम बजट वाली योजना का कुछ फायदा तो आम लोगों के लिए दिखना चाहिए था. झा के ट्वीट के मुताबिक, 'यह योजना बिहार सरकार की उस कोशिश का हिस्सा है जिसके तहत सरकार फल्गु नदी में साफ पानी उपलब्ध कराना चाहती है.'

सवाल है कि आखिर इस योजना को लेकर शक क्यों है?

शक इसलिए है कि फल्गु नदी को आखिर गंगा का पानी चाहिए ही क्यों? गया जिले में बारिश कम नहीं होती. मौसम विभाग के साइट पर जाएं तो आंकड़े बताते हैं कि गया के पूरे इलाके में औसतन बरसात 110 सेमी के आसपास होती है. लेकिन सचाई यह है कि गया नगर निगम के तहत आने वाले 70 फीसदी घरों में नल का पानी नहीं आता. पूरे जिले में भूजल तेजी से नीचे गिर रहा है.

यह स्थिति तब है जब गया में फल्गु नदी के साथ ही साथ पड़ोस में दो और नदियां, जमुनी और मोरहर मौजूद हैं. दो साल पहले गया के जिलाधिकारी संजय सिंह ने इन नदियों का पानी शहर तक पहुंचाने की योजना बनाई थी. पर इस योजना का नामलेवा कोई नहीं बचा. आखिर, सरकार पानी के नाम पर वाकई कुछ बड़ा करना चाहती थी.

बिहार सरकार भी कभी फल्गु को गंगा से जोड़ने तो कभी फल्गु को सोन नदी से जोड़ने को लेकर दुविधा में रही.

बहरहाल, गंगा का पानी 170 किलोमीटर लंबे पाइपलाईन के जरिए मोकामा से गया तक लाने का काम किसी को मछली देने जैसा है, जबकि मछली पकड़ना सिखाना बेहतर विकल्प होता. बिहार सरकार ने गया के पानी की समस्या को निबटाने के लिए गया के गिरते भूजल को सुधारने की योजना क्यों नहीं बनाई? खासकर तब, जब गया जैसे इलाके में तालाब और पोखरे बनाकर और वर्षा जल संचयन के जरिए भूमिगत जल का स्तर ठीक किया जा सकता था.

वैज्ञानिक मानते हैं कि पानी को आयात करना समस्या का महज फौरी निवारण ही है. वॉटरशेड मैनेजमेंट, यानी स्थानीय बारिश को रोककर रखना, उससे भूमिगत जल के स्तर को दुरुस्त करना और बारिश के पानी को रोककर शहर में उसकी आपूर्ति करना न सिर्फ दीर्घकालिक समाधान होता बल्कि पाइप लाईन बिछाने से अधिक सस्ता और त्वरित भी होता. सरकार को गया, राजगीर, नवादा जैसे इलाकों में अधिकाधिक तालाब खुदवाने चाहिए थे. इससे मछली उत्पादन भी बढ़ता, खेतों के सिंचाई के लिए भी पानी मिलता और कुओं में भी पानी आ जाता. साथ भी यह ध्यान भी रखना चाहिए था कि गया के इलाके में अभी भी अच्छी खासी खेती होती है, जो बिना पानी के मुमकिन नहीं है. गया का इलाका अभी भी बुंदेलखंड जैसी स्थिति में नहीं पहुंचा है. हां, नदियों को जोड़ना फैशन और चलन में आ गया है तो बात और है.

दूसरी तरफ, खुद गंगा अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. अगर गर्मियों में उससे 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा, तो खुद इसके पारितंत्र पर क्या असर पड़ेगा इसका क्या कोई अध्ययन बिहार सरकार ने कराया है?

असल में, सरकारों को लगता है कि नदी में पानी बहकर और बचकर निकल जाए तो वह पानी की बरबादी है. जबकि ऐसा है नहीं और मोकामा से अगर 50 एमसीएम पानी निकाल लिया जाएगा तो उसके आगे बड़ी मात्रा में नदी के बेड में गाद भी जमा होगी. क्या राज्य सरकार उसके लिए तैयार है?

गया के आसपास जिस तरह की धरती है वहां वॉटरशेड प्रबंधन बहुत कारगर भी साबित होता. पिछली गर्मियों में मिथिला क्षेत्र के दरभंगा और मधुबनी जैसे जिलों में भी अमूमन सालों भर पानी से भरे रहने वाले पोखरे सूख गए थे, वैसे में उनको जिलाने की कोई योजना सरकार की निगाह में नहीं है. पर, गंगा का पानी गया भेजने की योजना को जिसतरह फटाफट लागू करने की तैयारी है और जिस तरह से उसके लिए रकम भी जारी की गई है, उससे तो सरकार के विकास वाले विजन पर सवालिया निशान और भी गहरा ही हो गया है. 

हां, जद-यू का अगले साल के चुनावी मैदान का विजन स्पष्ट दिख जरूर रहा है.

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Monday, September 30, 2019

नदीसूत्रः आपका स्मार्ट फोन रामगंगा नदी का गला घोंट रहा है

क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं? मुरादाबाद में देश भर का जमा हो रहा ई-कचरा रामगंगा में भारी धातुओं के प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह और आम लोगों में कैंसर का बड़ा कारण

हो सकता है कि आप यह लेख अपने स्मार्ट फोन पर पढ़ रहे हों. आपके पास दूसरा विकल्प है कि आप इसे अपने लैपटॉप या डेस्कटॉप पर पढ़ें. पर क्या आपने कभी सोचा भी है कि आपके इस स्मार्टफोन या कंप्यूटर की वजह से मैदानी भारत की एक अहम नदी रामगंगा की सांसे थम रही हैं?

सोचिए जरा कि आखिर आपका मोबाइल फोन या टीवी का रिमोट, कंप्यूटर या घर का कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान खराब हो जाए, पुराना हो जाए तो आप उसका क्या करते हैं? जाहिर है, हम उसे कबाड़ी वाले को दे देते हैं. देश भर में हम सबके घरों से निकले इस ई-कचरे का पचास फीसदी हिस्सा उत्तर प्रदेश के शहर मुरादाबाद पहुंच जाता है. वही शहर जो कभी, पीतल के बर्तनों के लिए मशहूर था. अब यह शहर भारत के ई-कचरे का सबसे बड़ा कबाड़खाना है. और इसका बुरा असर पड़ रहा है इसके बगल से बह रही बदकिस्मत नदी रामगंगा पर.

गंगा नदी की बड़ी सहायक नदियों में से एक है रामगंगा, जो उद्गम स्थल से दो अलग धाराओं के रूप में शुरू होती है. तब इसे पूर्वी रामगंगा और पश्चिमी रामगंगा कहते हैं और पहाड़ों से उतरकर यह मैदानों तक बहती आती है.

पश्चिमी रामगंगा उत्तराखंड में गैरसैंण के पास निचले हिमालय के दूधा-टोली श्रेणी से निकलती है. यह पटाली दून से होती हुई निचले शिवालिक में उतरती है और मुरादाबाद, रामपुर, बरेली बदायूं और शाहजहांपुर जिलों में बहती हुई फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है. मार्छूला के पास यह कॉर्बेट नेशनल पार्क में प्रवेश करती है. जंगल में करीब 40 किमी तक इसका बहाव होता है और कालागढ़ के पास यह जंगलों से निकलकर मैदानी स्वरूप में आ जाती है.

जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के लिए यह एक बढ़िया बारहमासी स्रोत है. रामगंगा की प्रमुख सहायक धाराएं पलैन, मंडल और सोनानदी है जो जंगल के भीतर ही इसमें जाकर मिल जाती हैं. इसके बेसिन का आकार करीबन 30.6 हजार वर्ग किमी है और इसकी लंबाई 569 किमी है.

पूर्वी रामगंगा नंदाकोट पहाड़ के नामिक ग्लेशियर से निकलती है. यह पिथौरागढ़ जिले में है और वहां से यह पूर्व की तरफ बहती है. रामेश्वर घाट पर यह जाकर सरजू नदी में मिल जाती है, वहां के बाद इस नदी का नाम सरयू पड़ जाता है. जो आगे चलकर काली नदी में समाहित हो जाती है. काली नदी खुद कुमायूं श्रेणी के मिलन ग्लेशियर से निकलता है और यह नदी भी फर्रुखाबाद के पास गंगा में मिल जाती है.

कालागढ़ बांध तक रामगंगा नदी के पानी में कोई दिक्कत नजर नहीं आती. इसके पानी में सैकड़ों नस्ल की मछलियां पाई जाती हैं इसके अलावा अनोखे किस्म के और भी जीव पाए जाते हैं. कालागढ़ के डाउनस्ट्रीम के बाद से रामगंगा का डाउनफॉल शुरू हो जाता है. कालागढ़ से इसके पानी को सिंचाई के लिए खींचा जाने लगता है और इसकी धारा मुरादाबाद और उसके बाद से पतली और बीमार नजर आने लगती है. घरेलू अपशिष्ट और औद्योगिक गंदगी उत्तराखंड और पूरे यूपी में इसमें गिराई जाती है.

इस नदी के किनारे बढ़ती आबादी और उद्योगों की संख्या ने नदी की हालत पतली कर दी है. आइआइटी, रुड़की के वैज्ञानिकों ने नदी की सेहत का एक अध्ययन किया है. इन्होंने नदी के 16 साइट्स पर पानी के नमूनों का अध्ययन किया है और हर सीजन में पानी की जांच की. अध्ययन में निष्कर्ष निकला कि रामगंगा नदी अपनी निचली धारा में बहुत अधिक प्रदूषित है. इस प्रदूषण में फ्लोराइड, क्लोराइड, सोडियम, मैग्नीशियम और कैल्सियम जैसे तत्वों के यौगिकों की मात्रा काफी अधिक है.

समस्या की असली जड़ मुरादाबाद शहर का कबाड़ उद्योग है.

मुरादाबाद रामगंगा के किनारे बसा है और यह ई-कचरे की रीसाइक्लिंग के लिए भी जाना जाता है. गैर-सरकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवॉयर्नमेंट (सीएसई) ने मुरादाबाद के ई-कचरे के अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि इनमें भारी धातु का प्रदूषण का स्तर का काफी ऊंचा है. सीएसई ने नदी के किनारे मिट्टी और पानी के नमूने लिए, क्योंकि शहर के लोग इस पानी का इस्तेमाल कपड़े धोने और पीने के लिए भी करते हैं.

वैसे, भारत में मिट्टी में भारी धातुओं के प्रदूषण के स्तर के मापन के लिए कोई मानक अभी तक तय नहीं किया गया है ऐसे में सीएसई ने जांच के नतीजों की तुलना अमेरिकी और कनाडाई मानकों से की. इन नमूनों में तय मानकों से 15 गुना अधिक जिंक पाया गया जबकि तांबे का स्तर 5 गुना अधिक था. मिट्टी के नमूने में क्रोमियम (कैंसरकारक तत्व) भी कनाडाई मानको के मुकाबले तीन गुना अधिक था जबकि कैडमियम का स्तर 1.3 गुना अधिक था.

यह नतीजे पानी के नमूनों में भी समान निकले. रामगंगा के पानी में पारे का स्तर भारतीय मानकों से आठ गुना अधिक है. पानी के नमूनों में आर्सेनिक भी मिला है. यह सब नमूने नवाबपुरा, करूला, दसवाघाट और रहमत नगर से लिए गए थे. यह वही जगहें हैं जहां ई-कचरे का कामकाज होता है.

प्रशासन का मानना भी है कि देश में कुल प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी) का पचास फीसदी मुरादाबाद में आकर जमा होता है. और रोजाना शहर में ई-कचरे की 9 टन मात्रा जमा हो जाती है.

रामगंगा के घाटों पर ई-कचरे के रीसाइक्लिंग की गतिविधियों से न सिर्फ गैस रिलीज होती है बल्कि एसिड सोल्यूशन, जहरीला दुआं और राख भी निकलता है. इनमें भारी धातु होते हैं जो पर्यावरण के लिए काफी खतरनाक हैं. इनसे कैंसर होने का खतरा होता है. ई-कचरे से निकले रसायन जमीन में चले जाते हैं और इस तरह मिट्टी और भूमिगत जल को प्रदूषित कर देते हैं.

असल में, पारा और आर्सेनिक इंसानी सेहत के नजरिए से काफी जहरीले तत्व होते हैं. पारा अगर खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर जाए, जाहिर है जलीय जीवों और मछलियों के जरिए, तो इंसानी मस्तिष्क के कामकाज करने पर बुरा असर डालता है. इससे तंत्रिका तंत्र भी प्रभावित होता है. इनसे होने वाली बीमारियों का इलाज अभी पूरी तरह मुमकिन नहीं हो पाया है.

जानकार कहते हैं कि इस इलाके में रहे वाले लोगों में खासतौर पर पीसीबी को डिसमैंटल करने वाले लोगों में सांस लेने की परेशानियों में इजाफा हुआ है. अमूमन गरीब लोग ऐसी तकलीफों में डॉक्टरी मदद लेने नहीं पहुंचते इसलिए कितने लोगों पर असर हुआ है इसका विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ई-कचरे का यह काम अधिकतर अवैध है जहां किसी किस्म के सुरक्षा मानकों का भी पालन नहीं किया जाता इसलिए यह समस्या कहीं अधिक घातक है. मानकों का पालन नहीं करने की वजह से भारी धातुओं का आधा हिस्सा कचरे से निकाला नहीं जा सकता और उससे ई-प्रदूषण फैल रहा है.

हालांकि हाल ही में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने उत्तर प्रदेश सरकार पर ई-कचरे के समाधान में उचित कार्रवाई न करने के एवज में 10 लाख रूपए का जुर्माना ठोंका है. पर इसका असर क्या होगा यह देखना बाकी है. फिलहाल, रामगंगा में ई-कचरे की वजह से जमा हो रहे भारी धातुओं ने खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करना शुरू कर दिया है. इसके घातक परिणाम दिखने शुरू हो गए हैं. इससे पहले कि मामला हाथ से निकल जाए, गंगा की इस सहायक नदी की सेहत पर ध्यान देना जरूरी है.

रामगंगा को साफ नहीं किया तो गंगा कभी साफ नहीं होगी.


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Sunday, March 1, 2015

दो टूकः माटी की सेहत


सौजन्यः गांव कनेक्शन
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजस्थान के सूरतगढ़ में थे। विभिन्न राज्यों और देशभर के किसानों को प्रधानमंत्री ने अधिक अन्न उपजाने के लिए कृषि कर्मण पुरस्कार दिए। मुझे अच्छी तरह से याद है, पहले यह पुरस्कार कहीं और नहीं, बेहद उबाऊ सरकारी आयोजन की तरह दिल्ली के विज्ञान भवन में दिए जाते थे। अच्छा हुआ, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर पदयात्रा की खबरों के बीच सरकार किसानों के बीच पहुंची।

सूरतगढ़ में एक और गौरतलब शुरूआत हुई। यह शुरूआत थी किसानों को उनके खेतों की मिट्टी की सेहत से वाकिफ कराने के लिए सेंट्रल सॉइल हेल्थ कार्ड स्कीम की। इसके ज़रिए किसानों को उनकी खेतों की मिट्टी के बारे में लैब में जांच करके बताया जाएगा। केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए फिलहाल तरीब 600 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है।

अब इस स्कीम के लॉन्च के बरअक्स मैं दूसरी खबर के बारे में बताना ठीक समझता हूं। ख़बर उत्तर प्रदेश के दनकौर की है। दनकौर और जेवर ब्लॉक के करीब 8 हजार खेतों से लिए गए मिट्टी के नमूनों की जांच ने सबको चौंका दिया है।

रासायनिक उर्वरक और नमक यहां की जमीन को बंजर कर रहा है। बिलासपुर की लैब में लिए गए मिट्टी के नमूनों के आधार पर कृषि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि खेतों में अच्छी पैदावार लेने के लिए केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक दवाइयों के ज्यादा इस्तेमाल से जमीन बंजर बनती जा रही है। इलाके की मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा बेहद ही कम पाई गई है। इसके अलावा जीवांश की मात्रा न्यूनतम, फास्फोरस अति न्यूनतम और पोटाश की मात्रा भी न्यूनतम ही पाई गई है। इन सभी की मात्रा 80 से लेकर 100 पर्सेंट तक होनी जरूरी है। कृषि एक्सपर्ट की मानें तो अच्छी पैदावार लेने के लिए मिट्टी में 16 पोषक तत्व होने अति आवश्यक हैं। यहां किसानों को सिर्फ जिंक व सल्फर डाइआक्साइड जैसे ही पोषक तत्व मिल रहे हैं। आने वाले दिनों में यह भी कम होते चले जाएंगे। इसकी वजह है खेतों में केमिकल फर्टिलाइजर, नमक और कीटनाशक दवाओं का भारी प्रयोग।

प्रधानमंत्री से जुड़ी एक और योजना का जिक्र यहां मैं करना चाहता हूं, वह है गंगा की सफाई का। गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए सरकार अपने तरह से कोशिशें शुरू कर चुकी है और इसके तीन मुख्य मानक होते हैं पानी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की मांग, घुलनशील ऑक्सीजन और कॉलिफॉर्म बैक्टिरिया की प्रति सौ मिलीलीटर संख्या।

एक मिसाल लेते हैं। अगर गंगा के तट से पचास-साठ किलोमीटर के दायरे में कोई किसान अपनी खेतों में जरूरत से अधिक उर्वरक का इस्तेमाल करता है। तो यह उर्वरक खेतों में पड़ा रह जाता है। बरसात में खेतों के पानी में घुलकर यह उर्वरक बरास्ते सहायक नदियों के, गंगा में आ मिलता है।

इस उर्वरक की वजह से गंगा में शैवालों की बढ़ोत्तरी सामान्य से ज्यादा तेजी से होती है। मूल रूप से ये शैवाल पानी के बहाव को बाधित करते हैं और प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए ऑक्सीजन पानी में छोड़ते भी हैं। इससे पानी मेम घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाएगी, लेकिन साथ ही पानी में जलीय जीवों का खात्मा हो जाएगा।

इस परिस्थिति को आप पारिस्थितिकीय जटिलता की श्रेणी में रख सकते हैं। इससे गंगा को साफ करने के सामान्य तरीके बेअसर साबित होते जाएंगे और फिर जटिल वैज्ञानिक तरीकों का विकल्प ही बच रहेगा।

यानी, मिट्टी की सेहत बचानी हो और लंबे वक्त तक पैदावार लेना हो, तो पानी, उर्वरक और रसायनों का बहुत सोचसमझ कर इस्तेमाल करना होगा। दनकौर हो या पानी से जूझता राजस्थान का कोई जिला, इन संसाधनों का किफायती इस्तेमाल खेती की लागत को कम ही करेगा। टिकाऊ विकास की रणनीति भी यही कहती है।

मंजीत ठाकुर


(यह लेख गांव कनेक्शन में मेरे स्थायी स्तंभ, दो-टूक में प्रकाशित हो चुका है)