लेखक को दो चीज़ों से बचना चाहिए : एक तो भूमिकाएँ लिखने से, दूसरे अपने नजदीकी लेखकों के बारे में अपना विचार प्रकट करने से। यहाँ मैं दोनों भूलें करना जा रहा हूँ; पर इसमें मुझे जरा भी झिझक नहीं, खेद की तो बात ही क्या। मैं मानता हूँ; कि गुस्ताक मंजीत पत्रकारिता और ब्लॉगिंग की उन उठती हुई प्रतिभाओं में से हैं जिन पर देश के चौथे खंभे का भविष्य निर्भर करता है और जिन्हें देखकर हम कह सकते हैं कि हिन्दी उस अँधियारे अन्तराल को पार कर चुकी है जो इतने दिनों से मानो अन्तहीन दीख पड़ता था।
प्रतिभाएँ और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेख्य है। पर उनसे मंजीत ठाकुर जी में एक विशेषता है। केवल एक अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक ही नहीं हैं; वे नयी मीडिया के सबसे मौलिक लेखक भी हैं।
मेरे निकट यह बहुत बड़ी विशेषता है, और इसी की दाद देने के लिए मैंने यहाँ वे दोनों भूलें करना स्वीकार किया है जिनमें से एक तो मैं सदा से बचता आया हूँ; हाँ, दूसरी से बचने की कोशिश नहीं की क्योंकि अपने बहुत-से समकालीनों के अभ्यास के प्रतिकूल मैं अपने समकालीनों के ब्लॉग भी पढ़ता हूँ तो उनके बारे में कुछ विचार प्रकट करना बुद्धिमानी न हो तो अस्वाभाविक तो नहीं है।
मंजीत जीनियस नहीं है : किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण देकर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यावेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और हाँ, एक गहरी विनय। ठाकुर जी में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और गुस्ताख़ में एक चीज़ और भी है जो प्रतिभा के साथ ज़रूरी तौर पर नहीं आती- हास्य।
ये सब बातें जो मैं कह रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने वे नहीं पढ़ीं, व सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से उसे क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके ? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली-पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और ‘गुस्ताख’ पर भी ठाकुर जी की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।
सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की-बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं—अलिफ़लैला वाला ढंग, पंचतन्त्र वाला ढंग, फक्क़ड़ों वाला अलमस्त और गाली-गलौज वाला बेलौस अंदाज... ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस जमाने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मज़े लेकर कही जाती थी।
मंजीत जीनियस नहीं है : किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण देकर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यावेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और हाँ, एक गहरी विनय। ठाकुर जी में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और गुस्ताख़ में एक चीज़ और भी है जो प्रतिभा के साथ ज़रूरी तौर पर नहीं आती- हास्य।
ये सब बातें जो मैं कह रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने वे नहीं पढ़ीं, व सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से उसे क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके ? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली-पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और ‘गुस्ताख’ पर भी ठाकुर जी की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।
सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की-बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं—अलिफ़लैला वाला ढंग, पंचतन्त्र वाला ढंग, फक्क़ड़ों वाला अलमस्त और गाली-गलौज वाला बेलौस अंदाज... ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस जमाने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मज़े लेकर कही जाती थी।
बात फुरसत का वक्त काटने या दिल बहलाने वाली नहीं है, हृदय को कचोटने, बुद्धि को झँझोड़कर रख देने वाली है। मौलिकता अभूतपूर्व, पूर्ण श्रृंखला-विहीन नयेपन में नहीं, पुराने में नयी जान डालने में भी है (और कभी पुरानी जाने को नयी काया देने में भी)।
‘गुस्ताख’ एक ब्लॉग नहीं, ब्लॉगों की भीड़ में सबका सिरमौर है। एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
‘गुस्ताख’ एक ब्लॉग नहीं, ब्लॉगों की भीड़ में सबका सिरमौर है। एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी।
आम तौर पर जैसे हम अपने को छोड़ दूसरोंके प्रति एक शाश्वत अनादर और गाली गलौज वाला भाव रखते हैं, गुस्ताख उसी कबीरपंथी सिलसिले को एक नवीन रंग दे रहा है।
यह ब्लॉग और यह ब्लॉगलेखक दोनों ही सुन्दर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; हालांकि खुद गुस्ताख खुद को बंबास्टिक दिखने का दम भरता है, लेकिन यह पाठकों के विवेक पर है कि वह ऐसा या वैसा सोचें। (अभिव्यक्ति की आजादी के तहत) पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं, क्योंकि वह थोडी बहुत चापलूसी करने की कोशिश भी करता है, कविताएं और पहुंचेलियों की कहानियां भी लिखता है।
उसमें दो चीज़ें हैं जो उसे इस ख़तरे से उबारती हैं—और इनमें से एक भी काफी होती है : एक तो उसका हास्य, भले ही वह वक्र और कभी कुटिल या विद्रूप भी हो; दूसरे एक अदम्य और निष्ठामयी आशा। वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही गुस्ताख है, वह ऐलान करता है--मेरी अदब से सारे फरिश्ते सहम गए ये कैसी वारदात मेरी शाइरी में है...अपने अदब (साहित्य और शिष्टाचार दोनों पर) ऐसा गुमान महज गुस्ताख ही कर सकता है। साहसपूर्ण ढंग से स्वीकार, और उस स्वीकृति में भी उससे न हारकर उठने का निश्चय—ये सब ‘गुस्ताख’ को एक महत्त्वपूर्ण ब्लॉगलेखक बनाते हैं।
कठमुल्ले पन को छोड़कर ठुड्डी पर हाथ टिकाए गुस्ताख एक बुद्धिजीवी किस्म की चीज साबित होते हैं..अपने मुंह मियां मिट्ठू..की तासीर को रग रग में बसाते हुए महाशय एलान करते हैं कि, चार्वाक, अरस्तू मार्क्स और फ्रायड.जैसे मनीषियों ने अपनी सारी जिम्मेदारी मेरे कधों पर डाल रखी है--अर्थात् गुस्ताख को अपनी महती जिम्मेदारी का अहसास भी है और उसे वह निभाने की कोशिश भी करते हैं। उनकी गुस्ताखी ऐसी चीज है, जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है।
कठमुल्ले पन को छोड़कर ठुड्डी पर हाथ टिकाए गुस्ताख एक बुद्धिजीवी किस्म की चीज साबित होते हैं..अपने मुंह मियां मिट्ठू..की तासीर को रग रग में बसाते हुए महाशय एलान करते हैं कि, चार्वाक, अरस्तू मार्क्स और फ्रायड.जैसे मनीषियों ने अपनी सारी जिम्मेदारी मेरे कधों पर डाल रखी है--अर्थात् गुस्ताख को अपनी महती जिम्मेदारी का अहसास भी है और उसे वह निभाने की कोशिश भी करते हैं। उनकी गुस्ताखी ऐसी चीज है, जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है।
किसी उक्ति के निमित्त से एक ब्लॉगर के साथ उनके पत्रकारीय और साहित्यिक गुणों को घालमेल और गुम करने की प्रचलित मूर्खता मैं नहीं करूँगा, पर इस उक्ति में बोलने वाला विश्वास स्वयं मंजीत ठाकुर जी भी विश्वास है, ऐसा मुझे लगता है; और वह विश्वास हम सबमें अटूट रहे, ऐसी कामना है।
( यह अज्ञेय द्वारा लिखित -सूरज का सातवां घोड़ा की भूमिका का होलीनुमा डिस्टॉरटेड रुप है। इसे गंभीरतापूर्वक लें न लें यह आपके विवेक पर है)