उत्तर प्रदेश में खनन माफियाओं का तिलिस्म कभी कोई सरकार नहीं तोड़ पाई या यों कहें कि पिछले एक दशक में सियासी दलों के आकाओं ने जान-बूझकर इस ओर से अपनी आंखें बंद किए रखीं। खासकर बुंदेलखंड की बात करूं, तो इलाके में कोई पहाड़ी, कोई नदी नहीं बची जहां खनन का काम न चल रहा हो। ऊपरी तौर पर शायद तस्वीर बहुत गंभीर नहीं दिखेगी, लेकिन इसका असली खेल तब समझ में आता है, जब पता चलता है कि समूचा धंधा अब तक राजनेताओं के संरक्षण में फल-फूल रहा था।
हर रोज़ हजारो की संख्या में ट्रक बांदा और आसपास के इलाकों से नदियों से रेत लेकर निकलते हैं। जबकि रेत के खनन पर एनजीटी और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रोक लगा रखी है। यहां की केन, बागे और रंज नदियों से रेत निकालने का काम किया जा रहा है। बांदा के गांवों से हर रोज़ ट्रैक्टर के ज़रिए, रेत लाकर फिर बड़े ट्र्कों से दूरदराज को भेजा जाता है। हर रोज जिले से हजारों ट्रक रेत को बाहर ले जाने का काम करते हैं, वह भी प्रशासन की ठीक नाक के नीचे से।
पत्थरों के अवैध खनन के खिलाफ हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में याचिका दायर कर चुके राजकुमार हों या नदियों में रेत के अवैध खनन के खिलाफ राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का दरवाज़ा खटखटाने वाले ब्रजमोहन यादव, दोनों पर झूठे केस बनाए गए और उन पर जानलेवा हमले भी हुए हैं।
अब एनजीटी ने रेत के अवैध खनन को लेकर बांदा प्रशासन को नोटिस भेजा है। बुंदेलखंड में पिछले एक दशक में रेत का अवैध खनन का व्यापार काफी फला-फूला है और इसको किस कदर सियासी संरक्षण हासिल है यह बांदा के पुलिस सुपरिटेंडेंट आर के पांडे की डीएम को लिखी चिट्टी से भी साफ हो जाता है, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के विधायक दलजीत सिंह और सपा नेता लाखन सिंह के नाम का उल्लेख किया है। जाहिर है, पिछले एक दशक में खनन माफिया के सिर्फ दल बदले हैं, काम नहीं बदला और इसका खामियाजा बुंदेलखंड के पर्यावरण के साथ-साथ सरकार के खज़ाने को भी भुगतना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि खनन माफियाओं पर नकेल कसने के लिए कानूनों की कमी हो, धन-बल के प्रभाव ने हर कानून की सीमाओं को छोटा कर दिया है। खनन माफिया नेताओं और अफसरों को पैसों से अपने पक्ष में कर लेते हैं और इसके अलावा प्रतिरोध में उठी आवाजों को बाहुबल से बंद कर देते हैं।
सीएजी रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में करीब साढ़े चार सौ मामलों में जिलाधिकारियों ने एनओसी जारी की थी, लेकिन खनन का राजस्व नहीं दिया। इससे सरकार को करीब 238 करोड़ का नुकसान हुआ। इसकी बड़ी वजह है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में बाहुबली कहीं न कहीं अवैध खनन के धंधें में लिप्त हैं। अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे बड़े बाहुबलियों का नाम भी किसी न किसी रूप में इससे जुड़ा रहा है।
उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड के सभी जनपदों से सालाना बालू और पत्थर खनिज से 510 करोड़ रूपए राजस्व की वसूली होती है। सीएजी की रिपोर्ट 2011 पर नजर डाले तो 258 करोड़ रुपए सीधे राजस्व की चोरी की गई है। वहीं वन विभाग की लापरवाही से जारी की गई एनओसी के बल पर वर्ष 2009 से 2011 के मध्य जनपद महोबा, हमीरपुर, ललितपुर में परिवहन राजस्व वन विभाग को न दिए जाने के चलते सरकार को 3 अरब की राजस्व क्षति का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है।
एक लाइसेंसधारी आपूर्तिकर्ता राज्य को रॉयल्टी चुकाने के बाद ऊंची कीमत, करीब 20,000 रुपये प्रति डंपर के हिसाब से बालू बेचता है। इतना ही बालू एक गैरकानूनी आपूर्तिकर्ता 8000 रुपये में ट्रांसपोर्टरों को मुहैया कराता है, जो भवन निर्माताओं को 10,000 रुपये में बेचते हैं।
माफियाओं ने कभी मिर्जापुर-सोनभद्र में एक लाल पत्थर के पहाड़ को इस बेदर्दी से खोद डाला कि पूरा का पूरा पहाड़ ही ध्वस्त हो गया। ऐसे ही दृश्य आप बांदा के कुलपहाड़ और कबरई इलाके में देख सकते हैं। नदियों मे रेत के खनन से उसकी तली में गाद जमा हो जाती है और उसका प्रवाह बाधित होता है। बालू के अवैध खनन का मामला केवल अपराध से जुड़ा नहीं है. इससे न केवल सरकार को बड़े पैमाने पर राजस्व की हानि हो रही है, बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता भी खतरे में हैं। पर्यावरणविद् मानते हैं कि अगर इसी तरह खनन होता रहा, तो नदी की मौत हो जाएगी और जैव विविधता भी नष्ट हो जाएगी। नदी में बालू फिल्टर की तरह काम करता है और इससे छन कर शुद्ध पानी भूमि में जाता है, लेकिन बालू के अवैध खनन से न केवल भू-जल स्तर घटता है बल्कि इसके प्रदूषित होने का खतरा भी बढ़ जाता है।
बुंदेलखंड में तो बेतवा नदी पर पूर्व में सत्ता में रही दोनों सियासी पार्टियों के कुछ नेताओं के गुर्गो ने कब्जा ही कर रखा है। यहां से निकली महीन और मोटी मोरंग की मांग पूरे देश में है। हैरत की बात है कि बाजार में चालीस हजार रुपये प्रति ट्रक बिकने वाली मोरंग का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा खनन के समय ही इन गुर्गों द्वारा वसूल लिया जाता है।
बेतवा से मोरंग का अवैध खनन करने के बाद ट्रकों को माफिया के लोग सुरक्षित रूप से 50 से सौ किलोमीटर के दायरे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी लेते हैं।
उत्तर प्रदेश में जिस तरह अवैध बूचड़खाने बंद हुए हैं अब रेत के इस अवैध खनन को भी रोकने की ज़रूरत है। आखिर, अवैध रूप से रेत और पत्थर निकालकर पहाड़ों और नदियों के बेमौत मारने की ही तो काम किया जा रहा है।
मंजीत ठाकुर
हर रोज़ हजारो की संख्या में ट्रक बांदा और आसपास के इलाकों से नदियों से रेत लेकर निकलते हैं। जबकि रेत के खनन पर एनजीटी और इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रोक लगा रखी है। यहां की केन, बागे और रंज नदियों से रेत निकालने का काम किया जा रहा है। बांदा के गांवों से हर रोज़ ट्रैक्टर के ज़रिए, रेत लाकर फिर बड़े ट्र्कों से दूरदराज को भेजा जाता है। हर रोज जिले से हजारों ट्रक रेत को बाहर ले जाने का काम करते हैं, वह भी प्रशासन की ठीक नाक के नीचे से।
पत्थरों के अवैध खनन के खिलाफ हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में याचिका दायर कर चुके राजकुमार हों या नदियों में रेत के अवैध खनन के खिलाफ राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) का दरवाज़ा खटखटाने वाले ब्रजमोहन यादव, दोनों पर झूठे केस बनाए गए और उन पर जानलेवा हमले भी हुए हैं।
अब एनजीटी ने रेत के अवैध खनन को लेकर बांदा प्रशासन को नोटिस भेजा है। बुंदेलखंड में पिछले एक दशक में रेत का अवैध खनन का व्यापार काफी फला-फूला है और इसको किस कदर सियासी संरक्षण हासिल है यह बांदा के पुलिस सुपरिटेंडेंट आर के पांडे की डीएम को लिखी चिट्टी से भी साफ हो जाता है, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के विधायक दलजीत सिंह और सपा नेता लाखन सिंह के नाम का उल्लेख किया है। जाहिर है, पिछले एक दशक में खनन माफिया के सिर्फ दल बदले हैं, काम नहीं बदला और इसका खामियाजा बुंदेलखंड के पर्यावरण के साथ-साथ सरकार के खज़ाने को भी भुगतना पड़ रहा है।
ऐसा नहीं है कि खनन माफियाओं पर नकेल कसने के लिए कानूनों की कमी हो, धन-बल के प्रभाव ने हर कानून की सीमाओं को छोटा कर दिया है। खनन माफिया नेताओं और अफसरों को पैसों से अपने पक्ष में कर लेते हैं और इसके अलावा प्रतिरोध में उठी आवाजों को बाहुबल से बंद कर देते हैं।
सीएजी रिपोर्ट कहती है कि उत्तर प्रदेश में करीब साढ़े चार सौ मामलों में जिलाधिकारियों ने एनओसी जारी की थी, लेकिन खनन का राजस्व नहीं दिया। इससे सरकार को करीब 238 करोड़ का नुकसान हुआ। इसकी बड़ी वजह है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में बाहुबली कहीं न कहीं अवैध खनन के धंधें में लिप्त हैं। अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी जैसे बड़े बाहुबलियों का नाम भी किसी न किसी रूप में इससे जुड़ा रहा है।
उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड के सभी जनपदों से सालाना बालू और पत्थर खनिज से 510 करोड़ रूपए राजस्व की वसूली होती है। सीएजी की रिपोर्ट 2011 पर नजर डाले तो 258 करोड़ रुपए सीधे राजस्व की चोरी की गई है। वहीं वन विभाग की लापरवाही से जारी की गई एनओसी के बल पर वर्ष 2009 से 2011 के मध्य जनपद महोबा, हमीरपुर, ललितपुर में परिवहन राजस्व वन विभाग को न दिए जाने के चलते सरकार को 3 अरब की राजस्व क्षति का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है।
एक लाइसेंसधारी आपूर्तिकर्ता राज्य को रॉयल्टी चुकाने के बाद ऊंची कीमत, करीब 20,000 रुपये प्रति डंपर के हिसाब से बालू बेचता है। इतना ही बालू एक गैरकानूनी आपूर्तिकर्ता 8000 रुपये में ट्रांसपोर्टरों को मुहैया कराता है, जो भवन निर्माताओं को 10,000 रुपये में बेचते हैं।
माफियाओं ने कभी मिर्जापुर-सोनभद्र में एक लाल पत्थर के पहाड़ को इस बेदर्दी से खोद डाला कि पूरा का पूरा पहाड़ ही ध्वस्त हो गया। ऐसे ही दृश्य आप बांदा के कुलपहाड़ और कबरई इलाके में देख सकते हैं। नदियों मे रेत के खनन से उसकी तली में गाद जमा हो जाती है और उसका प्रवाह बाधित होता है। बालू के अवैध खनन का मामला केवल अपराध से जुड़ा नहीं है. इससे न केवल सरकार को बड़े पैमाने पर राजस्व की हानि हो रही है, बल्कि पर्यावरण और जैव विविधता भी खतरे में हैं। पर्यावरणविद् मानते हैं कि अगर इसी तरह खनन होता रहा, तो नदी की मौत हो जाएगी और जैव विविधता भी नष्ट हो जाएगी। नदी में बालू फिल्टर की तरह काम करता है और इससे छन कर शुद्ध पानी भूमि में जाता है, लेकिन बालू के अवैध खनन से न केवल भू-जल स्तर घटता है बल्कि इसके प्रदूषित होने का खतरा भी बढ़ जाता है।
बुंदेलखंड में तो बेतवा नदी पर पूर्व में सत्ता में रही दोनों सियासी पार्टियों के कुछ नेताओं के गुर्गो ने कब्जा ही कर रखा है। यहां से निकली महीन और मोटी मोरंग की मांग पूरे देश में है। हैरत की बात है कि बाजार में चालीस हजार रुपये प्रति ट्रक बिकने वाली मोरंग का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा खनन के समय ही इन गुर्गों द्वारा वसूल लिया जाता है।
बेतवा से मोरंग का अवैध खनन करने के बाद ट्रकों को माफिया के लोग सुरक्षित रूप से 50 से सौ किलोमीटर के दायरे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी लेते हैं।
उत्तर प्रदेश में जिस तरह अवैध बूचड़खाने बंद हुए हैं अब रेत के इस अवैध खनन को भी रोकने की ज़रूरत है। आखिर, अवैध रूप से रेत और पत्थर निकालकर पहाड़ों और नदियों के बेमौत मारने की ही तो काम किया जा रहा है।
मंजीत ठाकुर