Tuesday, December 30, 2008
विदेश यात्रा से तौबा
सड़क जितनी इंसानों की है उतनी ही जानवरों की भी तो। और सड़क पूछिए ही मत जनाब.. एकदम सपाट.. लगा ही नहीं कि सड़क पर हैं। गाड़ी दन-दनादन रपटती रही। सौ की रफ्तार पर। यार हद है..गाड़ी चल रही है कि उड़ रही है पता तो लगना चाहिए ना। कई बार दरवाज़ खोल कर देखा तो यकीन हुआ कि मुआ टैक्सी ड्राइवर गाड़ी खडी कर ठग नहीं रहा था। लेकिन वह यात्रा भी क्या यात्रा गुरु कि किसी का होल्डाल सर पर नहीं गिरा, किसी ने अपनी अटैची आपके पैर पर न पटक दी, किसी के बच्चे ने अपनी मां की गोद में मूता और वह मूत सरकता हुआ आपकी दसिर पर टपक रहा हो। न धक्के लगे ना हिचकोले, क्या सफर रहा। मजा ही नहीं आया।
ना पार्क में हगते हुए लोग ना नदियों में फूल बहाने वाले भक्तजन.. यार ये फिरंगी लोग नास्तिक होते हैं क्या। नदियों के प्रति श्रद्धा भाव का तो इनमें नितांत अभाव दिखा मुझे। जिस मित्र के घर ठहरा वह वक्त पर अपने दफ्तर जाता रहा, बल्कि अपना फ्लैट मेरी निगरानी में छोड़ गया। न दिन बिजली कटे ना रैन... मन मेरा मुआ धक-धक करने लगा।
निंदिया आवे तो कैसे...हरसूं मनाया कि भई विदेश आए हैं नींद आ ले बिना बिजली कटे ही आले..हम ठहरे दिल्ली वाले... अंधेर में रहने के आदी हमें प्रकाश में घुटन का अनुभव होता रहा। नींद नही आई... उधर मच्छर भी साथ छोड़ गए.. चांद की तलाश में तड़पते चकोर की तरह हमारी अखिंयां तरस गईं मच्छर महाराज विलुप्त हो गए मानो भक्त से भगवान रुठ गए हों। मानो कोई सजनी रुठ कर चली गई हो और हम प्रेमी की तरह बिस्तर पर लोट-पोट हो रहे हो...निज़ामुद्दीन के आसपास रहने वाले दिल्ली वाले जानते होंगे कि बिना मच्छर के रात कटनी कितनी बेमतलब की बात है। मच्छरों के कोरस के अभ्यस्त कान हरि दर्शन को प्यासी ही रह गईँ....
तो भाई लोग हफ्ते की बजाय तीन दिनों में हम वापस लौट लिए.. विदेश जाने से तौबा कर ली..वापसी में सबसे पहले निज़ामुद्दीन नाले की (बद)बू नथुनों में घुसेड़ी.. मच्छरों की संगत में रात काटी तब जाकर नींद आनी शुरु हुई है।
Monday, December 15, 2008
मुए इधर ना आइयो.. - प्रोलॉग (पूर्वकथन)
ऐसा कम ही होता है कि पहले लेख लिख दिया जाए फिर प्राक्कथन या प्रोलॉग लिखा जाए..। लेकिन ऐसा न करुं तो गुस्ताख़ कहलाऊं ही क्यों?
प्राक्कथन के लिए भी एक कहानी हाजि़र है, आप मतलब निकाल लेने के लिए स्वतंत्र हैं, (हमारी मीडिया की तरह, जो आज़ादी के नाम पर कुछ भी कहीं भी कभी भी बेच सकती है)
कहानी- भारत समुदायों में बंटा है। जाति के आधार पर, धर्म के आधआर पर तो है ही, अब राज्य और जिले के स्तर पर भी बंटवारा दिखने लगा है। बहरहाल, एक राज्य है जिसके निवासी पहले काफी वीरता दिखा चुके हैं पर दंतकथाओं में इसके निवासी प्रायः कायर या भीरु बताए जाते हैं।
इस सूबे के ही इसी समुदाय के एक महोदय रेल में सफर कर रहे थे। रेल की राह एक दूसरे सूबे से होकर गुजरती थी, जिसके निवासी प्रायः बेहद अशालीन, असभ्य, बर्बर और उद्दंड माने जाते हैं। ( साबित होता है कि किसी को कुछ भी कभी भी माना जा सकता है) । रेल में सफर के दौरान पहले राज्य के निवासी का दूसरे राज्य के निवासी से झगडी़ हो गया। हमारे यहां रेल यात्रा के दौरान पहले चरण में लात-घूंसे चलने का दौर-दौरा रहता है, तत्पश्चात् मित्रता का भाव आता है। जो खीरा से लेकर झालमुडी बांटने तक स्थायी हो जाता है)
तो, हुआ यूं कि प्रथम चरण में ही दोनों के बीच चरणों का आदान-प्रदान हुआ। घर के किराए के साथ बिजली बिल की तरह गालियां दी -ली गईं। पहले राज्य वाले निवासी थोड़े पिट-से गए। कई ताबड़तोड़ घूंसे उन्हें पड़ गए, क्योंकि कहावत है कि उस खास राज्य के पढ़े-लिखे लोग मार-पीट इत्यादि में थोड़े कमज़ोर हो गए हैं।
लेकिन उन सज्जन से रुका नहीं गया। कहने लगे मुझे पीट दिया कोई बात नहीं, मेरी बीवी को मार कर दिखाओं तो फिर बताता हूं। दूसरे सूबे वाले को औरतों-वगैरह की इज़्ज़त का ज्यादा ख्याल था नहीं, सो बेचारे की बीवी को भी मार खाने पड़ी। इसी तर्ज़ पर उन महौदय ने अपने बेटे और बेटी को भी मार खिलवा दिया। फिर भी चुप बैठे रहे।
दूसरे वाले सज्जन(?) अपने गंतव्य पर उतर गए। उनके जाने के बाद बीवी-बच्चों ने शोर मचाया कि आप मार ही खा चुके थे, तो हमें पिटवाने की क्या ज़रुरत? महोदय तपाक से बोले- अगर मैं अकेला मार खा कर घर जाता तो तुम सब क्या मुझे बोर नहीं बनाते? मुझे चिढा़ते नहीं?
कहानी इतचनी सी ही है। जो मतलब निकालना हो निकालिए। और हां, एक डिस्क्लेमर देना ज़रुरी समझता हूं- कहानी पूरे समुदाय को लेकर नहीं है। उन महाशय के ही समुदाय ने कई जगह दंगा-फसाद करके साबित कर दिया है कि वो कायर नहीं हैं और मार-पीट कर सकते हैं। आगजनी वगैरह में सक्रिय भागीदारी ने उनकी वीरता को स्थापित कर दिया है। हां, देश के लिए एक जुट होने में पहले अपने सूबे की याद ज़रुर आती है। और वो एक होने से मना कर देते हैं।
Saturday, December 13, 2008
मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं
चैनल छान रहा हूं... १४-१५ दिन हो गए चैनल वाले लगातार मुंबई हमले को बेच रहे हैं। मैंने प्रण किया था कि चाहे कुछ हो जाए मुंबई हमले पर लिख कर हमलावरों को फुटेज नहीं दूंगा। लेकिन प्रण गुस्ताख़ का था, टूट गया। अंदर से लग रहा है कि शिवराज पाटिल हो गया हूं।
शख्सियत के तौर पर शिवराज पाटिल होने का मतलब तो जानते हैं न आप? बहरहाल, सरकार के हुंकार पर एक कहानी याद आ रही है। पिछली सरकार का हुंकार और प्रण भी याद आ रहा है... आर या पार की लडाई का हुंकार...।
कहानी थोड़ी देर में बता देगे, काहे परेशान हो रहे हैं। पिछली सरकार ने हज़ारों करोड़ खर्च करके सेना को सरहद पर जमा कर दिया फिर हमला भी नहीं किया। संसद पर हमले के बाद की कहानी है।
हमारे सोच-समझ कर बोलने वाले पीएम को मुमकिन है नोबेल के शांति पुरस्कारों का मन रहा हो। नहीं मिला, मिलेगा भी नहीं।
इस बार देश के मुसलमान पता नहीं क्यों तत्काल प्रतिक्रिया दे रहें हैं। सलमान, शाहरुख, आमिर वहीदुद्दीन खान सबने हमले की निंदा की। अपनी फिल्मों का प्रचार भी कर डाला लगे हाथों। रब ने आने वाली थी शाहरुख ने बयान दिया। हमले की निंदा की। सीएएन-आईबीएन ग्रुप पर एक ही दिन में बैक-टू-बैक शाहरुख डेढ़ गंटा दिखे। आमिर की फिल्म भी रिलीज़ होने वाली है गज़नी। महाशय भी बयान दे रहे हैं। टीवी वाले फुटेज दे रहे हैं, फ्री फोकट में पब्लिसिटी मिल रही है। मौका क्यो गंवाया जाए भला?
गंभीर मसलों पर सलमान आम तौर पर बोलते नहीं। बोलते भी हैं तो कोई उन्हें गंभीरता से लेता नहीं। बहरहाल, वो भी बोले। हालांकि उनकी कोई फिल्म इधर आ नहीं रही है।
लोग डिजाइनर मोमबत्तियां लेकर सड़क पर उतर गए। फैशन डिजाइनर्स जिन्हे देश के प्रधानमंत्री का नाम भी पता नहीं, अपने पुरुष मित्रों के साए से निकल कर पुरुषत्व दिखाने निकले और हाथ में अपने किसी डिजाइनर दोस्त की डिजाइन की गई मोमबत्ती सॉरी कैडल लेकर सड़क पर उतर गए। क्या रस्म निभानी ज़रुरी थी। क्या सचमुच हम एक हो रहे हैं?
यह हम लोग मानने से क्यों हिचकते हैं कि हम भारत के लोग सत्य ही एक लुंजपुंज राष्ट्र हैं। संसद पर हमले करने वाला शख्स आज भी जिंदा है। कहीं सरकार कसाब को भी माफ करने के मूड में तो नहीं? कहीं मानविधाकर आयोग उसके लिए कुछ और सरंजाम तो नहीं जुटा रहा?
ये सवाल गुस्ताखी भरे हैं। लेकिन आपको तो कहानी का इंतजार होगा। चलिए कहानी बता दें। संदर्भ भी बता दें? चलिए बताए देते हैं- संदर्भ है आंतकी हमला और उसके बाद सुरक्षा को लेकर संकल्प। भारतेंदु के साहित्य से कहानी ली है, कहां से याद नही आ रहा।
फरवरी १७३९, दिल्ली पर नादिरशाह हमला करने वाला था। दिल्ली का बादशाह था। मुहम्मदशाह.. पूरा नाम मुहम्मद शाह रंगीला। हमले की खबर रंगीले को दी गई। पूरा दरबार चिंतित था। हमले को कैसे रोकें। बादशाहत हाथ से गई समझो। एक दरबारी बादशाह का मुंहलगा था। कहने लगा, हुजूरे-आला, ऐसा करते हैं कि यमुना के किनारे कनाते लगवा देते हैं। उन कनातो के भीतर हम सब चूडियां पहन कर बैठ रहें। जैसे ही अफ़गानी फौज़ आवे, हम चूडियां चमका करें सीधे औरतो की आवाज़ो में कहें, - मुए, इधर ना आइयो, इधर जनाने हैं।
Friday, December 12, 2008
भांग विद मंजीत- एक और लोकगीत
जे नहिं नबका भांग करै,
हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।
आ रसगुल्ला इमहर सं आ,
इमहर सं आ, उमहर सँ आ,
सीधे मुंह में गुड़कल आ
एक सेर छाल्ही आ दू टा रसगुल्ला
एतबे टा मन मांग करै।
हे.. लटर-पटर दूनू टांग करै,
जे नहिं नबका भांग करै।।
अर्थात्, ((लटर-पटर दोनों टांग मेरी
क्या असरदार है नई भांग मेरी
ओ रसगुल्ले इधर से
आइधरर से आ, उधर से आ,
सीधे मुंह में गिरती आ
एक सेर मलाई और दो
रसगुल्लेइतनी ही है मांग मेरी))
Tuesday, December 9, 2008
मेरे फिल्म की कहानी
मैं एक फिल्म बनाने जा रहा हूं.. बिलकुल साफ-सुथरी फिल्म। कहानी कुछ यूं है, तीन मुख्य किरदार और कुछ चरित्र अभिनेताओं के सहारे कहानी आगे बढ़ेगी।
कास्टिंग-
नायक- नाम नहीं सोचा है (वैसे भी नाम में क्या रखा है)
नायिका- कोई भी सुंदर( सारी नायिकाएं सुंदर होती है तो विकल्प खुले रखे हैं, ऐश्वर्य, कतरीना,चित्रांगदा से लेकर प्रियंका तक कोई भी हो सकती है, लेकिन प्रियंका और कतरीना का बाज़ार गरम है)
विलेन- मैं खुद..।
कहानी-
मेरी फिल्म बेहद साफ-सुथरी होगी। पहले ही सीन में नायिका बदन रगड़-रगड़ कर नहाएगी। फिल्म में हीरोइन विलेन से प्यार करती है, दोनों के प्यार में दरार डालने हीरो आ जाता है, लेकिन वह कामयाब नही हो पाता। कुछ स्टंट सीनों और ट्विंस्ट के बाद हीरो जेल चला जाता है और विलेन और हीरोइन एक हो जाते हैं।
बहुत छोटी सी कहानी है हिट होगी या नहीं इस पर रायशुमारी चाहता हूं।
सादर
Monday, December 1, 2008
मजीद मजीदी- सांग ऑफ स्पैरौज़
सॉन्ग ऑफ स्पैरोज़ इस साल बर्लिन फिल्म समारोह में अदाकारी के लिए सिल्वर बियर जीत चुकी है। इसमें तेहरान के बाहरी गंवई इलाके में रहने वाले एक परिवार की व्यथाओं क ी कहानी है। हार और जीत है। १९८१ में एक डॉक्युमेंट्री फिल्मकार के तौर पर करिअर शुरु करने वाले मजीद मजीदी ने मोहसिन मखमलबाफ की फिल्म बायकॉट में अदाकारी भी की है। यह फिल्म १९८५ में बनी थी।
उबलने की कगार पर है गोवा
जिन्हें यह पता होगा कि गोवा बेहद खूबसूरत है और बेहद शांत भी, वह अपनी जगह ठीक है। गोवा की खूबसूरती को शब्दों में बयां करना शायद ही मुमकिन हो(कम से कम मेरेलिए)। वैसे भई गोवा कहते ही लोगों के मन में एक तस्वीर सी उभरती है- समंदर के किनारे अधनंगी लेटी लड़कियों- शराब के दौर पर दौर, सेक्स की तस्वीर। लेकिन पिछले तीन साल में पचास दिन यहां गुजार चुकने के बाद यह कह सकता हूं कि यहां भी भारत वैसा ही है जैसे दूसरे हिस्सों में। यानी पारंपरिक। कोकणी और मराठी तबजीब।
जनांकिकीय दृष्टि से गोवा में तकरीबन ६५ फीसद लोग हिंदू है, इसके बाद करीब ३० फईसद इसाईयों की आबादी है। ये एक पुराना ढर्रा है और इसमें कोई नई बात नहीं। लेकिन पिछले पांच सालों में यहां की आबादी में एक खास बदलाव देखा जा रहा है, जिसकी वजह से स्थानीय आम लोग अंदर से उबल रहे हैं।
कामत की सरकार ने मनोहर पार्रीकर को मात देने के लिए मुसलमानों का मत बटोरा है। और इसके लिए कर्नाटक के मुसलमानों को यहां जगह दी है। पिछले ५ साल में कन्नड़ मुसलमानों की तादाद बढ़कर कुल आबादी का ५ फीसद हो गई है। जनांकीकिय आंकड़ों में यह बदलाव निश्चित रुप से यहां के लोगों को आक्रामक बना रहा है। मेरी बात यहां के लोगों और कुछ पत्रकारों से भी हुई और यह समस्या एक बड़ी समस्या बनने वाली है ऐसा मुझे लग रहा है।
खासकर हिंदू अतिवादी संगठन इसे और बड़ा स्वरुप दे रहे हैं। गोवा जैसे सूबे में मराठी-गैर मराठी जैसा मुद्दा भले न हो लेकिन राज ठाकरेत्व का कुछ असर ज़रुर है और सांप्रदायिकता का नया मसला गोवा की शांति को भंग कर सकता है और इसकी तहजीब को भी।