Thursday, July 28, 2016

एक चिंकारे की आत्महत्या

भई, सुलतान छूट गए। क़ातिल नहीं मिले। गवाह गायब हो गए। न्याय-व्यवस्था साफ कहती है, सौ दोषी छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। तो इस बिनाह पर, मियां सलमान निर्दोष साबित भये। हिरण बेचारा मारा गया। बंदूक भी थी, लाश भी थी, बस न था तो कोई क़ातिल।

अब कहां ढूढ़ने जाओगे हिरण के क़ातिल? यूं करिए कि क़त्ल का इल्जाम हिरण पर ही रख दीजिए।

सलमान खान रिहा हो गए। गज़ब की ख़बर हुई। सुल्तान, दबंग या फिर भाईजान, जाने कितने नामों से मीडिया को खुशी से बेहाल होते देखा। हाई कोर्ट ने छोड़ा है तो सुप्रीम कोर्ट में भी छूट ही जाएंगे।

न, न सहारा की मिसाल न दीजिएगाः वे संपत्ति नहीं बेच पाए हैं, वाला उनका बयान मार्केट में चला नहीं है। वैसे भी सवाल इस बात पर खड़ा नहीं होना चाहिए कि सलमान को रिहाई कैसे मिली। सवाल तो यह होना चाहिए कि असल में हिरण मरे या नहीं मरे?

बल्कि कायदे से तो उस जंगल के हिरणों को इस अपराध में सज़ा देनी चाहिए कि उनकी वजह से एक मासूम सुपरस्टार को परेशानी हुई। हरिण बिरादरी पर मानहानि का दावा करना चाहिए सलमान को। एक सजा यह भी हो सकती है कि सलमान खान को अब हिरणों के शिकार की इजाज़त दे देनी चाहिए।

हिरण मूर्ख ही हैं। मूर्ख नहीं तो क्या.. कि दबंग के हाथों मरने के लिए बेकरार नहीं हो रहे? भाईजान के हाथों? उनको तो कतार में आना चाहिए, भाईजान एक लात मुझे, सल्लू भाई एक गोली इधर भी।

हरीश दुलानी का नाम आपने सुना ही होगा। इस मामले के चश्मदीद गवाह थे। लेकिन मीडिया को सलमान जितना ग्लैमर हरीश दुलानी में नहीं दिखा। दिखना भी नहीं चाहिए। सालों पहले जब इस खबर में हरीश दुलानी की कहानी शुरू हुई थी तो उसकी मां मिली थी एक मकान में बैठी हुई। बेटा गायब हो गया था। एक बार बयान देने के बाद गायब हो गया हरीश दुलानी। फिर सालों तक कहां रहा कुछ पता नहीं। एक दूसरा गवाह और था जो एक गांव में था, अच्छा-खासा आदमी पागलों की तरह बरताव कर रहा था और झोंपड़ी में उसकी हालत देख कर लगा था ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहेगा। वही हुआ।

सलमान की राह के कांटे ज्यादा दिन टिकने वाले नहीं थे। सत्य की राह पर खड़े सलमान ने इसी वजह से शादी भी नहीं की। (ऐसा वह एक चैनल पर इंटरव्यू में बता रहे थे) हाय रे त्याग।

वैसे, कुछ साल बाद हरीश दुलानी वापस आ गया। दुलानी को अदालत ने कई बार सम्मन भेजे। कई बार उसकी तलाशी का नाटक हुआ। लेकिन किसी को उसका पता नहीं लगा। लेकिन किसी अदालत ने किसी अधिकारी को कठघरे में खड़ा करने की नहीं सूझी।

अदालतों की एक बात और सुंदर लगती है कि जब वो किसी को रिहा करती हैं तो जांच एजेंसी को काफी कोसती है लेकिन किसी के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं करती। हालांकि, ऐसा करना भी उनके अधिकार-क्षेत्र में आता है। लेकिन यह तरीका फायदेमंद है।

भई, सांप भी न मरे और लाठी भी टूट जाए, यह कहावत किसी अक्लमंद ने ही बनाई होगी।

केस की मजेदार बात यह थी कि बचाव पक्ष को अहम गवाह से जिरह की जरूरत ही नहीं महसूस हुई।

बहरहाल, देश के सभी हिरणों से मेरी गुजारिश है कि वह यह मान लें कि जन्म उनका अगर हिरण में हुआ है तो मरना नियति है उनकी। तय है, हिरण हुए हो तो मारे ही जाओगे। जंगल में रहोगे, शेर से, शेर स बचे तो किसी बंदूक से। फिर कोई अदालत सज़ा न दे पाएगी, काहे कि सुबूत ही न होंगे। हिरणों के पक्ष में भी कभी कोई सुबूत हुआ है?

हिरण, तुम फुटपाथ पर सोओगे, तो याद रखना बीएमडब्ल्यू की जमात सड़को पर बेहिसाब दौड़ रही है, दिशाहीन, अनियंत्रित, जिनका कोई ड्राइवर नहीं है। अगर ड्राइवर है भी तो किसी ताकतवर का नौसिखिया नाबालिग छोकरा है। पता नहीं नशे में गाड़ी हो, या गाड़ियों में पेट्रोल की जगह शराब डाली जा रही है...हिरणों का कुचला जाना तय-सा हो गया है। देश की हिरणों...गाओ, हुड हुड दबंग-दबंग।


मंजीत ठाकुर

Thursday, July 21, 2016

बीसीसीआई को कोर्ट का इनस्विंगर

भारत एक मात्र देश है जहां क्रिकेट की देखरेख करने वाली संस्था क्रिकेट को कंट्रोल करती है। आखिर, बीसीसीआई का पूरा नाम भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड है। देश की सबसे धनी खेल संस्था कालिख पुतकर बाहर निकली थी जब खेल पर सट्टेबाज़ी का साया था और उसके पास पूरा मौका था कि वह सुधरने की पहल करता। तब वह देश की दूसरी खेल संस्थाओं के सामने पारदर्शिता और जवाबदेही की मिसाल बन जाता। नब्बे के दशक के बाद से ही मैच फिक्सिंग, हितों के टकराव और आईपीएल में गड़बड़ियों की शिकायत के बाद से साफ-सफाई की जरूरत सिरे से महसूस की ही जा रही थी। 

जस्टिस मुकुल मुद्गल समिति की रिपोर्ट के बाद मामला शीशे की तरह साफ था। बाद में, जस्टिस आरएम लोढ़ा समिति की रिपोर्ट आई, वह क्रिकेट की सफाई के लिए थी लेकिन बीसीसीआई को उस पर भारी एतराज था। हो भी क्यों न, दशकों से क्रिकेट के प्रशासन पर कब्जा किए नेता-नौकरशाह-प्रशासकों को क्रिकेट में विकेट के 22 गज का होने के सिवा सिर्फ रूपयों का लेन-देन ही तो आता है। वरना उनमें से कोई भी यह बता दे कि क्रिकेट की गेंद का वज़न कितना होता है? और उसकी परिधि कितनी होती है?

अब सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति की अधिकांश सिफारिशों को लागू करने के आदेश दिए हैं। अब बीसीसीआई के सामने आदेश मानने के सिवा कोई चारा नहीं। लेकिन बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने और सट्टेबाज़ी को कानूनी रूप देने की समिति की सिफारिशों को सुप्रीम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है।

अब हम जैसे क्रिकेट प्रेमियों और दीवानों की उम्मीद है कि इन उपायों से क्रिकेट प्रशासन में बदलाव आएंगे। मसलन, अब आईपीएल को बीसीसीआई के नियंत्रण से अलग करना होगा, कोई मंत्री या नौकरशाह बीसीसीआई का सदस्य नहीं रहेगा, 70 साल से अधिक के व्यक्ति बीसीसीआई के पदाधिकारी नहीं बन सकेंगे और हर राज्य को बीसीसीआई में सिर्फ एक वोट देने का हक होगा। इसतरह बोर्ड पर गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का अतिरिक्त प्रभाव खत्म होगा। गुजरात के पास बीसीसीआई में तीन और महाराष्ट्र में चार वोट हैं। बिहार के पास एक वोट और झारखंड के पास तो वह भी नहीं है।

साफ है, बीसीसीआई के रसूखदार और मनमाने ढंग से चलाने वाले लोग अब इसको चला नहीं पाएंगे।

वैसे, सरकार एक कानून बनाने की तैयारी मे तो रही लेकिन हुआ कुछ नहीं। वैसे डेढ़ दशक पहले जब दक्षिण अफ्रीका के कप्तान हैंसी क्रोनिये पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था, तब 2001 में प्रिवेंशन ऑफ डिसऑनेस्टी इन स्पोर्ट्स बिल तैयार किया गया था, किंतु कुछ दिन बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। बता तो चुका ही हूं कि उस आरोप को डेढ़ दशक बीत गए, हुआ कुछ नहीं।

यूरोप की तरह हमारे देश में खेलों पर सट्टा नहीं लगाया जा सकता। फिक्की का अनुमान है कि भारत में हर साल सिर्फ क्रिकेट पर तीन लाख करोड़ का सट्टा लगता है, जो देश में काले धन का सबसे बड़ा ज़रिया है। अलग कानून न होने से सट्टेबाजों पर धोखाधड़ी और आपराधिक षड्यंत्र की धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाता है। ऐसे में वे अकसर बच जाते हैं या मामूली सजा पाकर छूट जाते हैं।

याद दिला दूं कि देशभर के खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके चुनाव निष्पक्ष कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डेवलपमेंट बिल पारित कराने का प्रयास किया था। इस बिल में बीसीसीआई को सूचना के अधिकार के तहत लाने का प्रावधान भी था, जिसका तब के कैबिनेट के करीब आधा दर्जन मंत्रियों ने कड़ा विरोध किया। ये सभी मंत्री सीधे-सीधे बीसीसीआई से जुड़े थे और किसी भी सूरत में देश के सबसे धनी खेल संगठन को जवाबदेही और पारदर्शिता की ज़द में लाने को राजी नहीं थे। लेकिन अब यदि सरकार पुराना विधेयक ही ले आए, तब उसका खुलेआम विरोध करने का साहस शायद ही कोई नेता कर पाए।

बताते चलें कि बीसीसीआई एक गैर-मुनाफे वाली निजी संस्था के तौर पर रजिस्टर्ड है, जिसका संचालन गैर-पेशेवर लोगों के हाथों में है। संस्था निजी है फिर भी जो टीम चुनती है, वह भारतीय क्रिकेट टीम कहलाती है। हिंदुस्तान दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसके खिलाड़ी अपनी टोपी पर राष्ट्रीय चिह्न नहीं, बीसीसीआई का लोगो लगाते हैं। बोर्ड का मकसद मुनाफा कमाना नहीं है, फिर भी उसके खाते में अरबों रुपये हैं। वह हर साल अपनी इकाइयों को करोड़ों रूपये बांटता है, फिर भी उसकी दौलत बढ़ती जाती है।

जिस अनुपात में बोर्ड का मुनाफा बढ़ रहा है, उसी अनुपात में नेताओं और उद्योगपतियों की क्रिकेट में दिलचस्पी बढ़ रही है और इसी हिसाब से झगड़ों में इजाफा भी हो रहा है। अब बड़े मंत्रियों-नेताओ-नौकरशाहों में इतना अधिक क्रिकेट को लेकर दिलचस्पी इसी रूपये को लेकर है। सौरभ-सचिन-लक्ष्मण की तिकड़ी ने क्रिकेट का कोच चुनने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वक्त आ गया है कि खेल से जुड़े लोगों को ही अब बीसीसीआई चलाने की जिम्मेदारी भी दी जाए।

मंजीत ठाकुर

Sunday, July 17, 2016

पलायन के मर्ज़ की दवा क्या है!

बेहतर जिंदगी की उम्मीद में एक जगह से दूसरे जगह तक जाना, मनुष्य का स्वभाव रहा है। लेकिन आज के संदर्भ में स्थितियां उलट गई हैं। आज पलायन या प्रवास करने वालों की गिनती बहुत अधिक हो गई है। पलायन जहां प्रवास का नकारात्मक नज़रिए की तरफ इशारा करता है वहीं प्रवास अधिक सकारात्मक शब्द है।

आज, गांव से शहरों में आय़ा आदिवासी या दलित जब शहर में आता है तो उसे सांस्कृतिक रूप से एक खाई का सामना करना होता है। शहरों की परंपराएं और जीवन-मूल्य उसके गंवई परंपराओँ से अलग होते हैं। वैसे, पलायनों को कई दफा सकारात्मक भी माना जाता है। आखिर, शहरी उच्च और सुविधाभोगी मध्यवर्ग को
एक ऐसी आबादी चाहिए होती ही है, जो कम लागत पर उसके लिए घरेलू नौकर से लेकर मजदूरों तक का काम निबटाए। ऐसे में तर्क सामने आते हैं कि पलायन को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता और ऐसे पलायन को विकासवादी पलायन कहा जाता है। लेकिन सच तो यह है कि यह एक तरह से निराशावादी पलायन है क्योंकि
विकास की धारा में पीछे छूट गए लोग ही शहरों की तरफ पलायन करते हैं।

दिल्ली की ही मिसाल लीजिए। यहां आने वाली आबादी में बिहार से आने वाले छात्र और नौकरीपेशा लोगों के साथ बुंदेलखंड के मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के हिस्सों से आने वाले लोग है। राजस्थान से दिल्ली आए लोग हों, या फिर उत्तराखंड है, यह सब तभी आए हैं जब उन्हें उनकी ज़मीन पर किसी न किसी किस्म की समस्या का सामना करना पड़ा है।

बिहार में शिक्षा की गत बुरी होने के बाद छात्रों ने बड़ी संख्या में दिल्ली का रूख किया था। राजद के शासन के पंद्रह साल के बदतरीन दौर में बिहार प्रतिभाशाली लड़कों का क़ब्रिस्तान जैसा हो गया था और फिर नौकरी के
लिए दिल्ली आने वाले युवाओं की तादाद बढ़ती गई। पिछले दो दशक में दिल्ली में रह रहे प्रवासियों की गिनती करीब 40 लाख के आस-पास पहुंच गई है।

दोनों राज्यों के बुंदेलखंड के लोग पानी और रोज़गार, अकाल और भुखमरी से दिल्ली का रास्ता नापने को मजबूर हुए। मैं यहां सिर्फ दिल्ली की मिसाल दे रहा हूं, इसका मतलब यह नहीं है कि सारे लोग सिर्फ दिल्ली ही आए हैं। ऐसा ही उत्तराखंड और राजस्थान के साथ भी हुआ।

पलायन का यह किस्सा असंतुलित विकास की वजह से हुआ है। देश के समग्र विकास में पीछे छूटे लोग ही पलायन करते हैं। इस विकास में न तो इस छूट गए वर्ग की न तो कोई हिस्सेदारी होती है और न ही कोई भूमिका। 

तो सवाल है कि इस समस्या को किस रूप में देखा जाना चाहिए? पहली बात तो यही कि हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि क्या यह पलायन परंपरागत है? या किसी नीतिगत योजना के तहत होने वाला विस्थापन? अगर विस्थापन अपरिहार्य है, बेहद जरूरी ही है तो क्या इसके तहत पुनर्वास की कोशिशें ईमानदार हैं?
इसकी पड़ताल मीडिया को तो करनी ही चाहिए जो अमूमन किसी स्कूप की तलाश में रहता है, साथ ही आला अधिकारियों को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए।

दूसरा सवाल है कि क्या अगर पलायन रोकना मुमकिन नहीं है, तो इसे बेहतर प्रबंधन के ज़रिए नियंत्रित किया जा सकता है? अगर हां, तो कैसे? इसके लिए कौन से राजनीतिक और नीतिगत कदम उठाए जाने चाहिए? आखिर बड़े से बड़े शहर में भी विकास की संभावनाएं एक वक्त के बाद सीमित हो जाती हैं। छोटे शहरों
का ढांचागत विकास इंतजामों के अभाव में रूका पड़ा है। ऐसे में क्या हम इन सीमित शहरी संसाधनों के बूते पलायन को रोक सकते हैं? नहीं। तो इस समस्या के प्रबंधन की दिशा में कारगर बुनियादी नीतियां और व्यवस्थाएं क्या होंगी?

तीसरा सवाल यह है कि क्या महानगरों की तरफ बढ़ते पलायन से वहां के स्थानीय संसाधनों को हक को लेकर वर्ग विशेष के बीच टकराव की स्थिति नहीं बनेगी? जवाब हैः बनेगी। जैसा कि हम महाराष्ट्र खासकर मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को लेकर एक खास मानसिकता वाले लोगों की बातचीत में इस देख ही सकते हैं।

तो क्या पलायन को रोकने के लिए माइक्रो स्तर पर खाद्य सुरक्षा इत्यादि को बढ़ावा देकर और कमजोर तबकों को सामाजार्थिक शोषण से मुक्ति दिलाने के कड़े कदम नहीं उठाए जा सकते हैं? मोदी सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हैं लेकिन उनके नतीजे आने में वक्त लगेगा। और हां, यह काम सिर्फ मनरेगा के ज़रिए नहीं हो सकेगा। स्किल इंडिया के नतीजे आने में पांच साल का वक्त लेगा और अगर देश विनिर्माण में ठीक-ठाक प्रगति कर पाया तो ग्रामीण स्तर पर रोज़गार का प्रबंध हो पाएगा।

फिलहाल, तो बुंदेलखंड हो या बिहार का ठेठ गंवई शख्स, पलायन के बाद उसके लिए शहरी उपभोक्तावाद के नए झमेले में फंसने के सिवा कोई चारा नहीं, जो उनकी तहज़ीब, उनकी परंपराओं, मूल्यों सबको एक साथ लील रहा है। और हर चीज़ से महरूम यही शख्स हमारे-आपके यहां का शहरी गरीब है, जिसके शोषण का सिलसिला गांवों में होने वाले जातिवादी शोषण से कम खतरनाक नहीं।

मंजीत ठाकुर

Saturday, July 16, 2016

अमरनाथ को केदारनाथ बनने मत दीजिए

बाबा बर्फानी यानी बाबा अमरनाथ लाखों हिन्दुओं की श्रद्धा के केन्द्र रहे हैं और भारत में श्रद्धा पर सवाल खड़े करना बेहद खतरनाक है। लेकिन इन दिनों मैं बाबा अमरनाथ की यात्रा को बड़े गौर से देख रहा हूं। 2 जुलाई को
जिस दिन यात्रा की शुरूआत हुई थी, नौ हज़ार यात्री थे, और श्रद्धालुओं की यह संख्या दूसरे ही दिन बढ़कर सोलह हजार हो गई।

जम्मू-कश्मीर के जिस हिस्से में बाबा अमरनाथ की पवित्र गुफा है, उसे पारिस्थितिकी के लिहाज़ से बेहद संवेदनशील माना जाता है। लोगों की बढ़ती तादाद से उस इलाके में, उस ऊंचाई पर सामान्य तापमान में बढोत्तरी हो जाती है। और बर्फ से बनने वाला शिवलिंग कई दफा पूरा नहीं बन पाता। 

इस इलाके में हरियाली बहुत तेज़ी से कम हो रही है और यात्रा के लिए नए रास्ते बनाए जा रहे हैं। रास्ते में अधबनी सड़कों की वजह से धूल के बगूले उठते हैं। असल में, बाबा अमरनाथ तक जाने के दो रास्ते हैं, एक है पारंपरिक पहलगाम-चंदनबाड़ी होकर जाने का रास्ता। इस रास्ते की लंबाई अधिक है, करीब 38 किलोमीटर का सफ़र तय करना होता है। लेकिन पारंपरिक रास्ता तो यही है। इसी रास्ते पर आतंकवादी हमले का खतरा भी अधिक होता है।

लेकिन दूसरा रास्ता भी बना लिया गया है। हालांकि, लोग बताते हैं कि इस रास्ते का उपयोग 18वीं सदी से होता आय़ा है लेकिन पिछले 15-16 साल में बालटाल होकर जाने वाला रास्ता अधिक लोकप्रिय हुआ है। बालटाल के रास्ते बाबा अमरनाथ की पवित्र गुफा तक जाने में सिर्फ 14 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। सो, फटाफट पुण्य कमाने वालों के लिए यह रास्ता अधिक मुफीद साबित हो रहा है।

बालटाल से हेलिकॉप्टर भी उड़ते हैं। तो अमीर लोगों के लिए बाबा बर्फानी का दर्शन ज्यादा आसानी से उपलब्ध हो गया है। लेकिन यात्रा शुरू होने से पहले मेरी नजर उन कूड़ों पर पड़ ही गई जो पिछले साल के यात्रियों ने यहां छोड़ दिए थे। उनकी सफाई नहीं हो पाई थी।  अब इस साल का कूड़ा उस ढेर को और बड़ा कर देगा और इस कूड़े में प्लास्टिक-पॉलीथीन की थैलियां बहुतायत में हैं।

आखिर पर्यावरण की चिंता किसे है? श्रीनगर से बालटाल जाने के रास्ते में, आपको कंगन के बाद से ही दोनों तरफ ग्लेशियर दिखने लगते हैं। आपको इन ग्लेशियरों को देखकर स्वर्गीय आनंद आएगा और आपको इस बात का इल्म भी नहीं होगा कि सालों भर जमने वाली इस बर्फ की नदी (ग्लेशियर) में से तीन हमेशा के लिए खत्म हो चुके हैं।

बालटाल पहुंचकर हजारों गाड़ियां पार्किंग में लगी दिखती हैं। इनके डीज़ल के जलने से निकला धुआं, और अधजले कार्बन से इस साफ-सुथरी हवा में ज़हर घुल रहा है। कनाते और तंबू लगे हैं। बेस कैंप में 16 सौ तंबू हैं और हर तंबू में औसतन छह बिस्तर हैं। लेकिन पीने के पानी का सिर्फ एक नल। शौचालय के नाम पर सिर्फ एक ढांचा है। जिनमें पांच कमोड हैं। पांच में से एक कमोड टूटा-फूटा है, बाकी इतने गंदे हैं कि शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। ऐसे में यात्री कितना साफ-सुथरा होकर दर्शन के लिए आगे बढ़ेगा, यह कहना मुश्किल है।
यात्रियों में ऐसे लोगों की गिनती ज्यादा लग रही है मुझे जो पुण्य कमाने कम और पिकनिक मनाने आए लगते हैं। बेस कैंप में थोड़ा और आगे बढ़ें तो भारत की महान धार्मिक परंपरा का एक और उदाहरण मिलता हैः लंगर। यात्री, मीडियावाले कोई भी यहां आकर मुफ्त खा सकता है। जी नहीं, रूकिए, अगर आप दूर-दराज से आए ड्राइवर हैं तो आपका प्रवेश निषेध है।

फिर यह भी पता चला कि यह लंगर उन चंदों पर चलाकर पुण्य कमाए जाते हैं, जो पंजाब-हरियाणा के विभिन्न शहरों में पुण्य के अभिलाषी लोगों से जुटाए जाते हैं। तो यह लंगर भी एक तरह से घोटाला ही है। चंदे की रकम में से बाकी किधर जाती है, यह तो बगल में बहती झेलम ही बता पाए।

यह लूट-खसोट तो हर तरफ है, लेकिन बाबा अमरनाथ तक जाकर पुण्य बटोरने से पहले यह ध्यान रख लिया जाता कि उससे इस इलाके के पर्यावरण, नदियों और हिमनदियों को कितना नुकसान हो रहा है, तो अधिक पुण्य के भागीदार होते। हम सब।

मंजीत ठाकुर

Thursday, July 14, 2016

वेतन आय़ोग और महंगाई

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी दे दी है जिससे केंद्र सरकार के एक करोड़ कर्मचारियों और पेंशनरों को फ़ायदा होगा। आयोग ने वेतन, भत्तों और पेंशन में कुल 23.55 फीसद बढ़ोतरी की सिफारिश की थी। इन सिफारिशों के लागू होने से सरकार पर 1.02 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।

इन सिफारिशों के साथ ही अब ये सुनिश्चित हुआ है कि सरकारी सेक्टर में सबसे कम तनख्वाह 18 हज़ार रूपए होगी जबकि क्लास वन श्रेणी में न्यूनतम तनख्वाह 58 हज़ार के करीब होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में यह फ़ैसला लिया गया।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ट्वीट किया है, "केंद्र सरकार के कर्मचारियों और पेंशनर को बधाई, वेतन और भत्तों में ऐतिहासिक बढ़ोतरी हुई है।'' उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में और जानकारी देते हुए कहा कि बहुत समय से कारपोरेट जगत के साथ सरकारी वेतनों की बराबरी की बात चल रही थी। हमने कोशिश की है कि ये बराबरी हो जाए।

सातवें वेतन आयोग ने पिछले साल नवंबर में अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी थीं. आयोग ने जूनियर लेवल के कर्मचारियों के मूल वेतन में 14.27 फ़ीसद बढ़ोतरी की सिफारिश की थी।

छठे वेतन आयोग ने इस स्तर के कर्मचारियों के लिए 20 फ़ीसद बढ़ोतरी की सिफारिश की थी। इसे लागू करते समय सरकार ने 2008 में बढ़ाकर दो गुना कर दिया था।

यह तो खबर थी, लेकिन अब इसके असर का अध्ययन करना भी जरूरी है। तो क्या सच में देश के सरकारी कर्मचारियों को इतने अधिक वेतन की जरूरत है? और अगर है, तो क्या सरकारी कर्मचारी क्या सचमुच कॉरपोरेट स्तर की उत्पादकता के लायक हैं?

वैसे, वेतन आयोग की रिपोर्ट का असर राज्यों में सरकारों के अधीन काम करने वालों सभी कर्मचारियों पर पड़ेगा। हर राज्य पर इस आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का दबाव होगा। जानकारों का कहना है कि करीब तीन करोड़ लोग इस आयोग की रिपोर्ट से सीधे तौर पर प्रभावित होंगे।

माना जा रहा है कि बढ़े वेतन से लोगों को हाथों में पैसे की ताकत बढ़ेगी और इससे ऑटोमोबाइल क्षेत्र में तेजी आएगी। साथ ही, उपभोक्ता सामानों की खरीदारी भी बढ़ेगी और इससे बाजार कुछ उछलेगा। यही वजह है कि इस खबर के साथ ही शेयर बाज़ार भी उछले, और ऑटो और होम एप्लाइएंस बनाने वाली कंपनियों के शेयर ऊपर चढ़ गए।

लेकिन यकीन मानिए इससे महंगाई दर बढ़ने की पूरी संभावना है। जिस तरह से आयोग की सिफारिश के बाद कर्मचारियों का आवासीय भत्ता को बढ़ाने की बात कही गई है उससे बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक में किराए में बढोत्तरी होना तय है।

कुछ अर्थशास्त्रियों की राय में इस वेतन आयोग लागू होने का असर सेवा क्षेत्र में भी आएगा। लोग बाहर खाने और घूमने पर कुछ खर्च करेंगे। साथ ही यह भी माना जा रहा है कि स्कूलों की फीस भी बढ़ जाएगी, यानी शिक्षा महंगी होगी।

लेकिन, इसी के साथ गांवों में जो खर्च कम हुआ है हाल फिलहाल के दिनों में, उस पर क्या असर होगा, यह बात साफ नहीं है। हालिया रिपोर्ट बताते हैं, कि सूखे की वजह से गांवों के लोगों ने उपभोक्ता सामानों पर खर्च को सीमित कर दिया है। उत्तर प्रदेश के शामली इलाके में गन्ना किसानों का करोड़ो का बकाया है और इसलिए इस इलाके के बाजारों में मुर्दनी छाई है।

लेकिन सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद गांव की अर्थव्यवस्था में क्या और कैसे जान आएगी, इस पर राय स्पष्ट नहीं हो पाई है। खासकर किसानों की आमदनी को दोगुना करने के सरकार के संकल्प को कैसे पूरा किया जाएगा, वेतन आय़ोग की सिफारिशों के लागू होने से उस पर अमल कैसे होगा, यह सवाल भी संदेह के घेरे में है।

जो भी हो, यह तय है कि महंगाई बढ़ेगी और हमारी-आपकी जेब पर हर महीने बच्चों की शिक्षा के लिए अदा की जाने वाली फीस बढ़ेगी। सेवा कर के पहले ही 15 फीसद हो जाने से महंगाई दर हमारे लिए सुरसा बनी बैठी है।

लेकिन, वैश्विक मंदी के बीच अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए यह उपाय कई उपायों में से एक है, लेकिन असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए अंधेरा कम नहीं होगा।



मंजीत ठाकुर