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Wednesday, March 7, 2018

एक पाठक की नज़र से "ये जो देश है मेरा"

मेरी किताब, ये जो देश है मेरा पर समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी है, मेरे अनुज सदृश रामकृपाल झा ने, 

एक सामान्य पाठक जब किसी क़िताब को पढ़ना शुरू करता है और पढ़ते हुए उसे ख़त्म करता है, इन 3-4 घंटे के दौरान वह लेखक द्वारा प्रस्तुत कथा, कथानक और कथ्य में अपने आप को खोजते हुए लगातार जुड़े रहने का यत्न करता है। अगर लेखक अपनी प्रस्तुति से पाठक को इन 3-4 घंटे तक जोड़ने में सफल रहता है तो क़िताब सफल मानी जाती है । (इस विचार पर मतभिन्नता हो सकती है )

"ये जो देश है मेरा" कोई कहानी , उपन्यास या उपन्यासिका नहीं है। यह किताब भुखमरी, विस्थापन और सूखे के दंश को झेलते हुए उन लाचार किसान, आदिवासियों और विस्थापितों के दर्द को समेटे हुए आंकड़ों और भावनाओं की एक रिपोर्ट है, (रिपोर्ताज) जिसे पढ़ते हुए आप कई मर्तबा भावुक होंगे और शायद झुंझला जाएंगें।

पांच हिस्से में लिखी गई यह रिपोर्ट शुरुआत में अपनी कसावट, बेहतर आंकड़े और सुंदर शब्द संयोजन के साथ सामने आती है। बुंदेलखंड के सूखे से जूझते हुए किसान, किसान के परिवार और उससे होती हुई आत्महत्या के आंकड़े हृदयविदारक हैं।

पढ़ते हुए यह एहसास होने लगता है कि खेती जुआ समान ही तो है। किसान बैंकों से कर्ज लेते हैं, कर्ज के पैसे से बीज बोते हैं, फ़सल उग आती है और फिर सूखा पड़ जाता है। स्थिति अब भयावह हो जाती है। ना खाने को पैसे बचते हैं ना कर्ज़ चुकाने को! बाकी जो शेष बच जाता है वो फांसी का फंदा होता है जिसे किसान किसी शर्त पर ठुकरा नहीं सकता है।

कई मामले में राज्य सरकारों ने इसे गृह क्लेश का भी कारण बताया है ।

मेरे समझ से गाँव में रहने वाले लोगों में गृह क्लेश के ज्यादातर मामलों का अगर पोस्टमार्टम किया जाए तो यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि ग़रीबी गृह क्लेश का प्रमुख कारण है ।

जब एक माँ, अपने नई ब्याही बेटी और दामाद का अपने घर में स्वागत कुल जमा एक किलो अनाज से करती है और यह रिपोर्ट आप पढ़ रहे होते हैं तब आपके अंदर कुछ चटक रहा होता है जिसे केवल आप महसूस करते हैं ।

रिपोर्टर की रिपोर्ट आगे बढ़ती है जहाँ,
जब एक जवान बेटी अपने शादी में होने वाले खर्चे के लिए अपने पिता द्वारा लिए जाने वाले संभावित कर्ज और परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले विभीषिका से चिंतित होकर (पिताजी को आत्महत्या ) एक दिन चुपचाप डाई (बालों में लगाया जाने वाला रसायन) पीकर मरने की कोशिश करती है और पूरा तंत्र कुछ नहीं कर पाता है। ये सब पढ़ते हुए आप भन्नाकर रह जाते हैं !

लोग आत्महत्या कैसे कर लेते हैं एक आध की बात हो तो ठीक है पर मुआमला जब दहाई नहीं सैंकड़ों में हो तो विषय चिंताजनक और ध्यान देने योग्य होती है ।

मैंने घास की रोटियों पर न्यूज़ चैनलों की कई बार रिपोर्टिंग देखी है किंतु इस विषय को गौर से पढ़ते हुए यह सोचना बेईमानी लगती है कि हम जो पढ़ रहे हैं वो सिर्फ सच है,सच के सिवा कुछ भी नहीं है ।

यह सच है की सूखे के इस प्रेत को यूँ ही नहीं आना पड़ा है। लोगों ने प्रकृति और पर्यावरण का अनुचित दोहन करते हुए ढ़ोल और मृदंग की थाप पर इसे आमंत्रण दिया है जो अब ब्रह्मपिशाच सा बन गया है ।

हालांकि लेखक ने यह जिक्र नहीं किया है आखिर कैन और बेतवा नदी के किनारे बसे इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने कभी इन दोनों नदियों पर बांध बनाने को लेकर कोई मांग क्यों नहीं उठाई है जिससे किसानों को सूखे की समस्या से थोड़ी बहुत निजात मिल जाती / हुई होगी।

8000 कूनो पालपुर वनवासी के विस्थापन के साथ क़िताब का मध्य भाग में  थोड़ी ढीली हो जाती है इसके ये मायने नहीं है कि आंकड़े ग़लत और उलूल जुलूल हो जाते हैं। लेखक अपनी भावनाओं को हम जैसे पाठकों के सामने लाने में थोड़े से चूक गए हैं।

पर जैसे ही ये रिपोर्ट नियामगिरी के पहाड़ों और उनके असली हकदारों के बीच पहुंचती है आप जंगल के हरियाली और प्रकृति के बीच कहीं खो से जाते हैं। यहाँ सब कुछ वास्तविक है। महिलाओं और पुरुषों के फ़ैशन भी समानान्तर हैं। 

शहरीकरण के दौर से जूझती एक संभ्रांत महिला और नियामगिरि की एक आदिवासी महिला के बीच लेखक द्वारा की गई ईमानदार तुलना आपको भाव-विभोर कर देती है। एक आदिवासी कन्या की मुस्कुराहट उसके धंसे गालों में से सफ़ेद झांकते दांत मिलियन डॉलर वाली स्माईल की मिथक को सत्यापित करने वाली रिपोर्ट आपके चेहरे पर मुस्कुराहट की एक लकीर सी छोड़ देती है।

ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से समुद्री जल स्तर के बढ़ने से डूब रहे तटीय प्रदेश की कहानी है सतभाया। समुद्र गाँव को लगातार डुबाए जा रहा है और साथ में डूब रही है लोगों की भावनाएँ। लोग बाग मजबूर हैं विस्थापन के लिए। घर छोड़कर चले जाना कितना कष्टदायक होता है यह बताते हुए सतभाया के विस्थापित भावुक हो जाते हैं ।

खैर !

पांच रिपोर्टों को समेटे यह रिपोर्ताज देश की मुख्यधारा को छोड़ उन लोगों की कहानी है जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं और ताउम्र किसी भी कीमत पर अपने जंगल देवता को छोड़ना पसंद नहीं करते हैं । सरकारें इन्हें मुआवजा तो देती है पर इनके बेहतरी के लिए क्या करती है यह सरकार ही जानती है। कुल मिलाकर यह रिपोर्ताज़ भावनओं और मजबूरियों से बुनी एक स्वेटर है जिसे पहनकर आप भावविभोर हो जाएंगे ।


Sunday, February 11, 2018

ये जो देश है मेरा की गौरव झा की समीक्षा

आज सुबह ही यह किताब पढ़कर खत्म की, तो सोचा दो-चार लाइनें लिख दी जाएं इस किताब के बारे में, जिसे हमारे मामा ने लिखा है। यह देश के जमीनी हकीकत की कहानियां हैं, जो उन्हें पत्रकारिता के दौरान अनेक जगह में किये गए यात्राओं से मिली हैं। उन जानकारियों, अनुभवों को उन्होंने बहुत रिसर्च के बाद किताब की शक्ल दी है।

इस किताब में भारत के पांच हिस्सों और वहां के लोगों का दर्द ए हाल बयां किया गया है। बुंदेलखंड (मध्य प्रदेश/उत्तरप्रदेश) के लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं, कूनो पालपुर (मध्य प्रदेश) के सहरिया जनजाति पर अभ्यारण्य की वजह से  विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, नियामगिरि (ओडिशा) के डंगरिया-कोंध जनजाति पर बॉक्साइट खनन के लिए विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है, सतभाया पंचायत (ओडिशा) के लोगों को बढ़ते समंदर का खतरा परेशान किये हुए है, लालगढ़ (पश्चिम बंगाल) के लोगों को नक्सलियों-पुलिस-राजनीतिक पार्टी के कैडर का खतरा हमेशा परेशान करता रहता है।

आपको पढ़कर यह भी पता चलेगा कि ऐसा नही है कि इन परेशानियों के निपटारे के लिए सरकारों ने प्रयास नही किये। ढेरों प्रयास किये गए और किये जा रहे हैं। बजट आवंटित किए जा रहे हैं, स्थानीय लोग भी प्रयास कर रहे हैं। पर एक चीज की कमी हर जगह दिख रही है वह है उन योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी, लापरवाही, लूट-खसोट, अनियमितता।

उन जगहों के इतिहास, भूगोल, वर्तमान और भविष्य के बारे में काफी विस्तार से चर्चा की गई है।

आमलोगों से बातचीत करके उनकी समस्या को सामने रखने का बेहतरीन प्रयास आपको किताब में दिखेगा। हर इलाके के परेशानियों को आंकड़ों सहित दर्शाने के कारण उसे समझना आसान हुआ है, कई बारीक जानकारियां मिलेंगी आपको उन जगहों के बारे में, परिस्थिति के बारे में इस किताब को पढ़कर।

साथ में यह भी पता चलता है कि लेखक ने इसके लिए कितनी मेहनत की होगी।

एक बार जब आप किताब पढ़ना शुरू कीजियेगा तो आपको उन क्षेत्रों के बारे में जानने की इच्छा इतनी बढ़ जाएगी कि बिना खत्म किये किताब छोड़ना मुश्किल होगा। आपके भी जेहन में ये सवाल आएगा कि विकास के मायने सबके लिए एक ही पैमाने से तय किये जा सकते हैं क्या??

बेहतरीन किताब को लिखने के लिए मामा जी को बधाई। जय हो,शुभ हो।

Friday, July 7, 2017

ये जो देस है मेराः बूंद चली पाताल

बुंदेलखंड हमेशा से कम बारिश वाला इलाका रहा है, लेकिन 2002 से लगातार सूखे ने मर्ज़ को तकरीबन लाइलाज बना दिया है. यह जमीनी रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की ज़रूरत है. साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे.

मैंने देश के विभिन्न इलाकों में माइनर विस्थापनों पर और अल्पविकसितइलाकों की स्थिति पर बहुत लंबे समय तक नजर रखने के बाद एक किताब लिखी हैः ये जो देस है मेरा। इस किताब का पहला अध्याय, 'बूंद चली पाताल' बुंदेलखंड की समस्या पर आधारित है.

किस तरह पानी ने बुंदेलखंड को बेपानी बना दिया है, उसकी रपट में मैंने केस स्टडीज और आंकड़ो का सहारा लिया है. कुछ परंपरा की बातें भी हैं, हल्के फुल्के इतिहास की भी.  इसमें, जरूरी आंकड़े भी हैं, ताकि सनद रहे और वक्त पड़ने पर काम आए. कोशिश की है, ज़रूर कुछ न कुछ छूट गया होगा, लेकिन उसे मानवीय भूल माना जाए.

इस किताब के छपने में रेणु अगाल जी के साथ, रेयाज़ुल हक़ का भारी योगदान है. जिन्होंने तकरीबन डांट-डांटकर मुझसे लिखवाया. अन्यथा मैं पर्याप्त या पर्याप्त से भी अधिक आलसी हूं.

पुस्तक अंशः

बुंदेलखंड का नाम हमेशा सुभद्रा कुमारी चौहान की पंक्तियों की याद दिलाता रहा है, बुंदेले-हरबोलों के मुंह सुनी गई कहानियों वाला बुंदेलखंड। जिसके नाम से आल्हा-ऊदल याद आते रहे, जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धंसी अढाई हाथ...। महोबे का पान, और चंबल का पानीः बुंदेलखंड के बारे में अच्छा-अच्छा सा बहुत कुछ सुना था।
बुंदेलखंड की जिस माटी के गुण कवि गाते नहीं थकते थे, लगता है वह माटी ही थक चली है। सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है। कुछ तो सूखे ने, कुछ सूखे की वजह से कर्ज़ ने, और बाकी बैंकों-साहूकारों के छल-कपट-प्रपंच ने बुंदेलखंड को किसानों की नई क़ब्रगाह बना दिया है।

बुंदेलखंड की धरती का सच, अब न तो आल्हा-ऊदल जैसे वीर हैं, न कीरत सागर, मदन सागर जैसे पारंपरिक तालाबों वाली उसकी पहचान। अब शायद किसानों की आत्महत्या और व्यापक पलायन ही इसकी पहचान बन गया है। बुंदेलखंड की अंदरूनी तस्वीर भयानक और अंदर तक हिला देने वाली है। बुंदेलखंड के किसानों में आत्महत्या की एक प्रवृत्ति हावी होने लगी है। बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर ज़िलों में न जाने कितने गांव हैं, जहां ज़्यादातर घरों में दरवाज़ों पर ताले लटक रहे हैं। हर गांव में ऐसे घर हैं, जिनमें अकेले बुज़ुर्ग बचे हैं और जो भूख से रिरियाते फिर रहे हैं। गांव के कई घरों में सिर्फ़ महिलाएं बची हैं। सात ज़िलों के चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा लोग इलाक़े से पलायन कर गए हैं। इतनी बड़ी आबादी दिल्ली में रिक्शा चलाती है, इटावा में ईंट-भट्ठों पर काम करती है, सूरत में मज़दूरी करती है।
खाली घरों और घरवालों को अपने प्रियजनों की वापसी की इंतज़ार है और धरती को पानी का।

जीने की जानलेवा शर्तः कर्ज़

गढ़ा गांव में ही सुराजी का घर भी है। उनके घर में दो मौतें हुई हैं। राज्य सरकार के अधिकारी उनके घर की आत्महत्याओं को भी ‘गृह-कलह’ से हुई मौतें बताते हैं। सुराजी के घर में नितांत अकेलापन पसरा रहता है। बीवी बहुत पहले भगवान को प्यारी हो गई। सुराजी की एकमात्र पोती का ब्याह हो गया तो सुराजी ने चैन की सांस ली थी। 2010 में एक दिन जब पोती अपने पति के साथ घर आई तो हालात सूखे की वजह से बदतर हो चुके थे।
बताते हुए सुराजी की आंखें डबडबा जाती हैं, ‘पिछले ही साल, पोती और उसके पति पहली बार अपने घर आए, घर में सेर भर भी गल्ला (अनाज) नहीं था।’ इसी अपमान से भरे सुराजी के बेटे ने पास के नीम के पेड़ से फांसी लगा ली। सुराजी तर्जनी से सामने नीम का पेड़ दिखाते हैं। पिता की आत्महत्या के अपराधबोध में पोती ने भी जान दे दी। सुराजी के दुख में सारा गढ़ा गांव साथ है। लेकिन गांव के हर किसी के साथ परिस्थितियां कमोबेश ऐसी ही हैं।
नीम का वह पेड़ गांव भर के लिए अपशगुन का प्रतीक बन गया है, और यह अब भी हरा है, उस पर सुराजी की आहों का कोई असर नहीं हुआ है।

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बुंदेलखंड में आत्महत्या करने वाले किसानों की गिनती उत्तर प्रदेश सरकार के आंकड़ों से काफी ज़्यादा है। राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में 56 और 2016 में 163 किसानों ने आत्महत्या की और उनकी मौत की वजहें भी कुछ अलग ही रहीं। लेकिन, इलाके में काम कर रहे किसान नेता शिवनारायण सिंह परिहार के पास एक ऐसी डायरी है जिसमें तस्वीरों के साथ किसानों के नाम-पते दर्ज़ हैं जिन्होंने कर्ज़ के मर्ज़ से छुटकारा पाने का रास्ता मौत को ही समझा। शिवनारायण ने काले रंग की इस डायरी को ‘मौत की डायरी’ नाम दिया है और यह राज्य सरकार के आंकड़ों को मृतक किसानों के नाम-पते के साथ झुठलाती है। इस डायरी के मुताबिक, पिछले 20 महीनों में उप्र के तहत बुंदेलखंड के सात ज़िलों में करीब साढ़े आठ सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली है।

पिछले दो साल भी खेती की हालत कुछ ठीक नहीं रही है और उत्तर प्रदेश सरकार भी अपनी रिपोर्ट में 2015-16 में खरीफ की फसल में 70 फीसदी का नुकसान मान रही है। अकेले बांदा में 95,184 हेक्टेयर रकबे में दलहन और तिल की खेती चौपट हुई है। यहां छोटे सीमांत किसानों ने 68,241 हेक्टयेर में तिल, ज्वार, बाजरा, अरहर और धान बोया था, जिसकी लागत भी वसूल नहीं हो सकी।
बुंदेलखंड के सभी तेरह ज़िलों में साल 2010-2015 के बीच कुल मिलाकर करीब 3000 किसानों ने आत्महत्या की है। यह आत्महत्याओं का आधिकारिक आंकड़ा है जो राष्ट्रीय मीडिया में कभी-कभार और उस इलाके में अमूमन सुर्ख़ियां पाता रहता है। इसमें आत्महत्या की कोशिशों के मामले शामिल नहीं हैं, क्योंकि आत्महत्याओं की गिनती करते वक़्त उन्हें नहीं गिना जाता। इसके बावजूद अगर नज़र रखी जाए, तो बुंदेलखंड में हर तीसरे दिन किसी न किसी ज़िले से किसी न किसी किसान की आत्महत्या की ख़बर आ ही जाती है।

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Monday, February 13, 2017

बुंदेलखंड में ग्लैमरस डाकू और सियासत

एक फिल्म थी पान सिंह तोमर जिसमें पान सिंह कहता है कि चंबल में डकैत नहीं होते, बाग़ी होते हैं। लेकिन चुनावों के मद्देनज़र अगर चित्रकूट इलाके में इन डकैतों की सियासी चहलकदमी देखें तो कहा जा सकता है कि इस इलाके में डकैत नहीं, सियासत में घुसने की तमन्ना भी होती है।

यह बात और है कि खुद ददुआ ने अपने परिवार को और बाद में ठोकिया ने भी अपने परिवार को सियासत की राह दिखाई और दोनों ही इस इलाके के नामी और इनामी डकैत रहे हैं।

चित्रकूट और आसपास के इलाके में पिछले तीन दशकों से डकैतों का राजनीति में प्रभाव रहा है। ददुआ यही कोई चार दशक पहले जरायम के पेशे में उतरा था और उसने इस इलाके में काफी आतंक मचाया था।

साल 1977-78 के आसपास अपने आंतक का राज कायम किया और सियासत में हर कोई उसके असर को अपने पक्ष में करना चाहता था। उसका राजनीति में इतना दखल था कि ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक, हर कोई चुनाव जीतने के लिए उसका आशीर्वाद चाहता था।

सबसे पहले कम्युनिस्ट पार्टी के रामसजीवन सिंह पटेल ने ददुआ के सहयोग से विधानसभा का चुनाव जीता था, पहले उनकी सीट कर्वी हुआ करती थी, बाद में चित्रकूट सीट हो गई। अगले दो चुनाव तक ददुआ की मदद कम्युनिस्ट पार्टी को मिलती रही।

उधर ददुआ ने मानिकपुर सीट पर दद्दू प्रसाद को मदद दी और वह लगातार तीन बार विधायक रहे। वह बीएसपी के थे।

1993 में कर्वी सीट पर आर के पटेल बीएसपी ने ददुआ का सहयोग लिया। इनका राजनीति में उदय तो हुआ लेकिन पहला चुनाव हार गए थे। 1996 से दो बार लगातार विधायक रहे, लेकिन उस समय ददुआ का नारा थाः वोट पड़ेगा हाथी पर, नहीं तो गोली खाओ छाती पर।

साल 2007 में भी इस सीट से बीएसपी ही जीती, लेकिन बीएसपी से टिकट मिला था दिनेश प्रसाद मिश्र को, जो ददुआ के सफाए के नारे पर वोट मांगने पहुंचे और चुनाव जीत भी गए। 2007 के चुनाव के बाद ददुआ पुलिस मुठभेड़ में मारा गया। उनसे पहले कर्वी सीट पर जीत रहे आर के पटेल तब तक समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए थे और चुनाव हार गए। 2009 में पटेल ने लोकसभा का चुनाव सपा के टिकट पर जीता, लेकिन तब तक ददुआ मारा जा चुका था।

ददुआ के बाद इलाके में एक नए डकैत ठोकिया का आंतक कायम हो चुका था और सियासत में भी उसकी चलती बढ़ गई। ठोकिया ने अपने परिवार के लोगों को सियासत में उतारा और ज्यादातर अपने सजातीय उम्मीदवारों का ही समर्थन किया। उसने इस मामले में कभी बसपा को तो कभी सपा को समर्थन किया।

इलाके के तीन बड़े नेताओ आर के पटेल, रामसजीवन पटेल और दद्दू प्रसाद पर ददुआ को संरक्षण देने का मुकदमे भी दर्ज हुए थे।

आज की तारीख में यानी 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में ददुआ के समर्थने में जीतने वाले विगत के सारे प्रत्याशी जो कभी बसपा में थे, आज चार विभिन्न दलों से मैदान में है। सभी एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक रहे हैं।

इनमें से दो, आर के पटेल और दद्दू प्रसाद बसपा के सरकार में मंत्री भी रह चुके हैँ। इलाके में आतंक का पर्याय बन चुका ठोकिया 2008 में बसपा के शासनकाल में ही मार गिराय गया, लेकिन तब तक इलाके में नया डकैत बबली उभर चुका था। ददुआ, ठोकिया, रागिया, गुड्डा और बबली और गुप्पा ये सभी इस इलाके में सियासत में खासी दखल देते रहे हैं।

जब से उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव का बिगुल बजा, तभी से चित्रकूट और उसके आस-पास के क्षेत्रों में डकैतों ने अपनी चहलकदमी बढ़ा दी है। ददुआ, ठोकिया, बलखडिया और रागीया जैसे कुख्यात दस्यु सरगनाओं के खात्मे के बावजूद चुनाव में अपनी हनक दिखाने को लेकर चित्रकूट के कई इलाकों पर इनामी डकैतों में भी स्पर्धा है।

चित्रकूट जिले के चार इनामी सरगनाओं में बबली कोल, गोपा यादव, गौरी यादव और ललित पटेल ने अपने-अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए फतवे देने शुरू कर दिए हैं। मानिकपुर मऊ के जंगलों में इनका आना-जाना बढ़ गया है।

इलाके के लोगों का कहना है कि डकैतों ने पहले तो समझा-बुझाकर वोटरों को अपने-अपने प्रत्याशी को जिताने की बात कही है। कुछ ने धमकी भरे शब्दों का प्रयोग भी शुरू कर दिया है। ग्रामीणों के अनुसार बबुली, गौरी यादव, गोपा यादव और ललित पटेल गिरोह के बदमाश गांवों के चक्कर काट रहे है।

चित्रकूट की दोनों विधानसभाओं में लड़ने वालों में एक तरफ कुख्यात डकैत ददुआ का पुत्र वीर सिंह पटेल समाजवादी पार्टी से कर्वी विधानसभा क्षेत्र से प्रत्याशी है। वहीं मऊ मानिकपुर विधानसभा से डकैतों का संरक्षण लेने के आरोपी रहे दद्दू प्रसाद, आर के सिंह पटेल, चंद्रभान सिंह पटेल चुनाव मैदान में हैं।

ठीक है, कि कभी पान सिंह तोमर में इरफान ने कहा था कि बीहड़ में बाग़ी होते हैं और डकैत तो संसद में होते हैं और हम सब को यह बात नागवार गुज़री थी, लेकिन कम से कम इतना तो कहा ही जा सकता है कि बाग़ी भले ही चित्रकूट के जंगल में हो लेकिन यूपी विधानसभा के कई सदस्य उनकी मदद लेकर ही विधायकी पाते हैं।

Thursday, April 28, 2016

सूखे की वजह है सूखती परंपराएं

अभी अखबार भरे पड़े हैं, सूखे से जुड़ी खबरों से। आज एक खबर देखी, मय फोटो के। खबर थीः झारखंड के कुछ इलाकों में लोग रेत ढोने वाले ट्रकों से रिसते हुए पानी को बाल्टियों में इकट्ठा कर रहे हैं।

खबरें हैं, और बड़ी हिट खबरें हैं कि सूखा प्रभावित क्षेत्रो में पानी ट्रेन के ज़रिए पहुंचाया जा रहा है। हम मानते हैं कि देश में सूखा बड़ा खतरनाक है। वैज्ञानिक इसका ठीकरा (जाहिर है, वैज्ञानिक तर्को और तथ्यों के साथ) पिछले साल अल नीनो और इस बार ला-नीना पर फोड़ रहे हैं।

मैं अल नीनो और ला-नीना की व्याख्या नहीं करूंगा। जरूरत भी नहीं। लेकिन देश में यह अकाल कोई पहली दफा तो नहीं आय़ा होगा! पानी की जरूरत पूरा करने के लिए हम हमेशा पानी के आयात पर ही क्यों निर्भर रहते हैं?

मित्रों, दुनिया में वॉटरशेड मैनेजमेंट भी एक चीज़ होती है। हिन्दी में इसे जलछाजन प्रबंधन कहते हैं। यह पानी जमा करने की तकनीक है। इस तकनीक में कुछ भी नासा की खोज नहीं है। बहुत मामूली तकनीक है कि किसी भी इलाके के सबसे ऊंचे बिन्दुओं के बीच का इलाका जलछाजन क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र में बरसे हुए पानी को जमा करके और उसी के हिसाब से उसको खर्चे करने की कोशिश करनी चाहिए। जलछाजन क्षेत्र में उपलब्ध पानी के ही हिसाब से फसलों का चयन भी करना चाहिए। यानी, यह तकनीक पानी को करीने से खर्च करने की भी बात बताता है।

अब जरा, फसलों के चयन की बात करते हैं। ज़रा बताइए तो, कम पानी के इलाको में धान उगाने की बुद्धि किसने दी थी? पंजाब जैसे कम पानी के इलाके में बासमती क्यों उगाया जाता है? जिस झारखंड के सूखे की बात मैंने बिलकुल शुरू में की है, वहां 170 सेंटीमीटर से अधिक बरसात होती है। कहां जाता है सारा का सारा पानी?

साफ है कि हम सारे पानी को यूं ही बह जाने देते हैं।

सूखे से बचाव के लिए, या खेतों और घरों तक पानी पहुंचाने के लिए बाध बनाकर नहर से पानी पहुंचाना फौरी फायदा दे सकता है। लेकिन, नहरों के किनारे मिट्टी में लवणता भी पैदा होती है। सिंचाई के लिए ट्यूबवैल से पानी खींचेंगे, तो भूमिगत जल का स्तर पाताल जा पहुंचता है। ज़मीन में दरारें फटती हैं। पंजाब, हरियाणा में ऐसी बहुतेरी जगहें हैं जहां जमीन में गहरी दरारें फट गई हैं।

बुंदेलखंड में तालाबों की बड़ी बहूमूल्य परंपरा रही थी, लेकिन आधुनिक होते समाज ने तालाब को पाटने में बड़ी तेजी दिखाई। मदन सागर, कीरत सागर जैसे बड़े तालाब कहां हैं आज बुंदेलखंड में। उनमे गाद भर गई है। गाद हमारे विचारों में भी है इसलिए हमने तालाबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है।

खेतों में आहर-पईन की व्यवस्था खत्म हो गई। तो भुगतिए। अब भी देर नहीं हुई है। तालाबों को फिर से जिंदा करने की जरूरत है। नए तालाब खोदने की जरूरत है, लेकिन ठेकेदार के मार्फत नहीं, गंवई तकनीक के ज़रिए। तालाब यानी जलागार, नेष्टा वाला तालाब। जैसलमेर के पास नौ तालाब एक सिलसिलेवार ढंग से बने हैं। यानी एक में पानी जरूरत से ज्यादा हो जाए तो नेष्टा, यानी निकास द्वार के जरिए पानी दूसरे तालाब में जाकर जमा हो।

असल में हमारे पुरखे, बूंद-बूंद पानी की कीमत समझते थे। तभी तो बिहार के लखीसराय के राजा को एक चतुर पंडित ने सूखे के दौरान चतुराई भरी सलाह दी थी। राजा अपनी रानी को अपरूप सुंदर बनाना चाहता था। पंडित ने कहा कि रानी साल में हर रोज अलग-अलग तालाब के पानी से नहाए तो उसके चेहरे की चमक हमेशा बरकरार रहेगी। आनन-फानन में राजा की आज्ञा आई, और लखीसराय के इलाके में तीन सौ पैंसठ तालाब खुद गए।

रानी ताउम्र सुंदर बनी रही कि नहीं पता नहीं। लेकिन उस इलाके को अकाल का कभी सामना नहीं करना पड़ा।

तो बात बड़ी सीधी है। अभी भी यह फैसला लिया जाए कि फसलों को पानी की उपलब्धता के आधार पर उगाया जाएगा। जिस इलाके मे पानी कम है वहां धान उगाने की जिद मत कीजिए। थोड़ी देर बाजार को भूलिए। वैसे भी, ज्वार-बाजरा उगाने और खाने में हेठी है क्या?

बरसात के पानी को इकट्ठा कीजिए। हर घर की छत से पानी बरबाद होता है बरसात में। छत के पानी को जमा कीजिए। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।

मंजीत ठाकुर

Wednesday, November 23, 2011

कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले-भाग दो

....पिछली पोस्ट से आगे...

क्षिणी मध्य-प्रदेश और खानदेश के सिवनी, छिंदवाडा, चंद्रपुर के गोंड साम्राज्य में तालाब बनवाने के लिए बनारस के कारीगरों को बुलवाया गया था. ये लोग विस्थापित होकर यहीं बस गए और उन्होंने न सिर्फ गांव-गांव में हजारों तालाब बनाए, बल्कि पानी के वितरण की एक चाकचौबंद व्यहवस्था भी निर्मित की. इस व्यवस्था में तालाब के कारण विस्थापित होने वालों को तालाब के पास की जमीन देने और गांव के भूमिहीन को पानी के वितरण की समिति का मुखिया बनाने जैसे प्रावधान थे.

मर्जी और मजबूरी में पलायन, विस्थापन की ऐसी कहानियां ऊपरी तौर पर भले ही दाल-रोटी के लिए रोजगार के लिहाज से की गई लगती हों, लेकिन इनमें वैसी गरीबी, दयनीयता दिखाई नहीं देती जैसी आज के थोकबंद पलायन में पग-पग पर दिख जाती है. परदेस जाकर रोजी-रोटी कमाना तो हमेशा मजबूरी में ही हुआ करता है, मगर यह आज की तरह अपने आत्मसम्मान को बेचकर नहीं होता था. आमंत्रित या जजमानी करने वाला समाज भी पलायन करने वालों की मजबूरी का उपहास उडाने के बजाए उनकी क्षमताओं, हुनर का सम्मान करता था.

ऐसा पलायन, विस्थापन समाज को आपस में एक-दूसरे को समझने का मौका देता था. जहां एक तरफ खेतिहर मैदानी समाज पहाड़ी आदिवासियों के रहन-सहन, खान-पान और कठिन हालातों से निपटने की आदतें सीखता था, वहीं दूसरी तरफ सुदूर आंध्र, उत्तराखंड या ओडीशा के लोग उसे नई तकनीकें सिखाते थे. कुंए से पानी निकालने के लिए रहट की तकनीक मध्य-प्रदेश के किसानों को पंजाब से करीब सौ साल पहले विस्थापित होकर आए लोगों ने सिखाई थी.

ऐसा नहीं है कि आज के पलायनकर्ता, विस्थापित हुनरमंद नहीं हैं. अपने-अपने इलाकों में खेती-किसानी और दूसरे रोजगार करने वाले ये लोग सीखने, समझने में माहिर होते हैं. आखिर बुंदेलखंड में बेहद संवेदनशील पान, परवल और सब्जियों की खेती और हाल में आया पीपरमेंट ऐसे लोगों की बदौलत ही फला-फूला है.

दूसरे इलाकों की तरह शिक्षा में बदहाल, लगभग पिछड़ा माने गए पर्यटन क्षेत्र खजुराहो के दर्जनों युवा आजकल फ्रेंच, जर्मन, पुर्तगाली जैसी भाषाएं सीख रहे हैं. इसी बुंदेलखंड में कपड़े, धातु और मिट्टी के कलात्मक कामों की लंबी परंपरा रही है. ऐसी हुनरमंद आबादी को उनके घर के आसपास ही काम उपलब्ध करवाया जा सकता है. सरकारें विकास को केवल भारी-भरकम बजट आकर्षित करने का जरिया मानती हैं, लेकिन क्या समाज और उसके साथ जुड़ी ढेरों औपचारिक-अनौपचारिक संस्थाएं ऐसा कर सकती हैं?
 

कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले

---राकेश दीवान
( भोपाल में राकेश दीवान जी से मुलाकात हुई, एक सेमिनार मेँ। मेरी फिल्म पर उनकी प्रतिक्रिया वाकई उत्साह बढाने वाली थी। उनका यह लेख बिना छापे मन नहीं मान रहाः गुस्ताख)

पलायन की चपेट में चकरघिन्नी होते लोगों को यह जानकारी चौंका सकती है कि एक जमाने में हुनरमंद पलायन करने वालों को पूजा भी जाता था. अपने-अपने इलाकों की मौजूदा बदहाली के बवंडर में फंसकर दाल-रोटी कमाने के लिए सैकडों मील दूर, अनजान इलाकों में जाने वाले आज भले ही शोषित, गरीब और बेचारे कहे-माने जाते हों, लेकिन एक समय था जब उन्हें उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था. 

महाकौशल, गोंडवाना और बुंदेलखंड समेत देश के कोने-कोने में बने तालाब, नदियों के घाट, मंदिर इसी की बानगी हैं. सुदूर आंध्रप्रदेश के कारीगर पत्थर के काम करने की अपनी खासियत के चलते इन इलाकों में न्यौते जाते थे. काम के दौरान उनके रहने, खाने जैसी जरूरतों की जिम्मेदारी समाज या घरधनी उठाता था और काम खत्म हो जाने के बाद उनकी सम्मानपूर्वक विदाई की जाती थी. गोंड रानी दुर्गावती के जमाने में बने जबलपुर और उसके आसपास के बड़े तालाब, नदियों पर बनाए गए घाट इन पलायनकर्ताओं की कला के नमूने हैं. 
गुजरात से ओडीशा तक फैली जसमाओढन की कथा किसने नहीं सुनी होगी? इस पर अनेक कहानियां, नाटक लिखे, प्रदर्शित किए गए हैं, लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि यह जसमाओढन और उनका समाज पलायन करने वालों का समाज था. परंपरा से ओडीशा, छत्तीसगढ़ के कारीगर मिट्टी के काम में माहिर माने जाते हैं. बडे तालाबों, कुओं की खुदाई के लिए इन्हें आमंत्रित किया जाता था और इनके साथ भी आंध्र के पत्थर के कारीगरों की तरह सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था.
कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले


तालाब बनाने वाले पलायनकर्ताओं में छत्तीसगढ़ के रमरमिहा संप्रदाय के लोग भी शामिल हैं, जो अपने पूरे शरीर पर रामनाम के गोदने गुदवाते हैं. तालाब रचने के अपने बेहतरीन काम के कारण इन्हें दूर-पास के इलाकों में सादर बुलाया जाता है.

एक जमाने में दुरूह यात्राओं की कठिनाइयों को झेलते बंजारे देश भर में पालतू पशुओं और मसालों के व्यापार की गरज से लंबी दूरियां तय किया करते थे. बीच-बीच में उनका बसेरा तो हो जाता था, लेकिन जानवरों को पानी पिलाने कहां जाएं? ऐसे में वे अपनी हर यात्रा के ठौर-ठिकानों के आसपास तालाब खोदते जाते थे. लाखा बंजारे का बनवाया बुंदेलखंड के सागर का विशाल तालाब इन्हीं में से एक है. ऐसे अनेक जलस्रोत इन पलायनकर्ता बंजारों के पारंपरिक मार्ग पर आज भी देखे, उपयोग किए जाते हैं.

छत्तीसगढ़ के जशपुर में पानी के तेज बहाव से बनी बरसों पुरानी आटा पीसने की चक्की उत्तराखंड से पलायन करके आए पंडितों की सलाह पर बनी थी. ये पंडित आदिवासी, मराठा राज्यों, जमींदारियों में पंडिताई के लिए आते थे और अपने जजमानों को हिमालय के पहाड़ों में आजमाई गई कुछ-न-कुछ नई तकनीक दे जाया करते थे.

खेती को उद्योग का दर्जा दिलाने और इस नाते कटाई, बोनी, निंदाई, गुड़ाई आदि के लिए तरह-तरह की मशीनों की तरफदारी करते लोगों की नजरों से कुछ साल पहले तक दिखाई देते चैतुए अब ओझल हो गए हैं. पलायन की मार से बदहाल हो रहे बुंदेलखंड, मालवा, महाकौशल इन्हीं चैतुओं की दम पर अपनी खेती किया करते थे. आसपास के अपेक्षाकृत कम पानी के एकफसली और आमतौर पर आदिवासी इलाकों से ये लोग कटाई के चैत मास में आते थे और इसीलिए उन्हें चैतुआ कहा जाता था. 


पलायन या प्रवास

साल के दो-तीन महीने पलायन करने वाले इन चैतुओं को रबी के संपन्न इलाकों से न सिर्फ भरपूर अनाज और मजदूरी मिलती थी, बल्कि उनके रहने, खाने की व्यवस्था भी की जाती थी. कई जगहों पर तो साल-दर-साल आते रहने की वजह से उनका स्थायी नाता तक बन जाता था.

आमतौर पर सुंदर, गहरे रंगों के परिधानों से सजे-धजे राजस्थान के गाडिया लुहार सडकों के किनारे आज भी दिखाई पड़ जाते हैं. कहा जाता है कि कभी किसी राजा से अनबन हो जाने के कारण इन लोगों ने विरोधस्वरूप काले कपड़े पहनकर लगातार घुमन्तू बने रहने का प्रण लिया था. यह प्रण आज भी बरकरार है और उंट, बकरी समेत अपने बाल-बच्चों, घर-गृहस्थी के साथ सतत पलायन करते ये गाडिया लुहार गांव-गांव में खेती, कारीगरी के लोहे के जरूरी औजार बनाते दिख जाते हैं.

ऐसा नहीं रहा है कि लोग अपनी-अपनी जड़-जमीनों को छोडकर केवल मौसमी पलायन के लिए ही दो-चार महीने का प्रवास करते रहे हैं. अपनी काबिलियत के बल पर उन्हें बिना प्रमाणपत्र के स्थायी निवासी बनने का निमंत्रण भी दिया जाता था और कभी-कभी तो वे उन इलाकों के राजा तक बन जाते थे. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव राज का इतिहास ऐसे ही बैरागियों के बसने का इतिहास रहा है.

ये बैरागी हरियाणा, पंजाब से उनी कपड़े, कंबल आदि लाकर गांव-गांव बेचते थे और फुरसत मिलने पर भजन गाया करते थे. गर्म कपड़ों के व्यापार ने उनकी गृहस्थी संभाली, लेकिन भजन गायन ने उन्हें राजा बना दिया. असल में सुरीले भजन गाने पर उन्हें समाज से जो एक-एक पैसा मिलता था, उसे वे जोड़ते जाते थे और कई बार तो यह रकम इतनी अधिक हो जाती थी कि छोटे-मोटे राजा, जमींदार उनसे कर्ज तक ले लिया करते थे.

राजनांदगांव से सटी छूरा रियासत के आदिवासी राजा द्वारा अपने राजपाट को गिरवी रखकर लिए गए ऐसे ही कर्ज में स्थिति कुछ ऐसी बनी कि चुकारा नहीं हो पाया. कर्ज में डूबते-उतराते महाबली अमरीका से लेकर टुटपुंजिए पाकिस्तान तक से उलट छूरा के राजा को कर्ज में डूबी रियासत नामंजूर थी, लेकिन गली-मुहल्ले में भजन गाने वाले बैरागियों को भी राजपाट की झंझटों से कोई मोह नहीं था. भारी मान-मनुहार के बाद बैरागियों ने आखिर राजनांदगांव में अपना चमीटा गाड़ दिया और सबसे पहला काम किया-विशाल रानीताल बनवाने का. बाद के इतिहास में इन बैरागी राजाओं के रेल लाइन डलवाने, अनेक तालाब खुदवाने, अकाल में देश की शुरूआती कपडा मिल ‘सेंट्रल क्लॉथ मिल’ (जो बाद में शॉ वालेस कंपनी की मिलकियत में ‘बंगाल-नागपुर क्लॉथ मिल’ उर्फ ‘बीएनसी’ के नाम से मशहूर हुई) बनवाने जैसे अनेक लोकहित के काम दर्ज हुए.

लगभग ऐसी ही कहानी मंडला जिले के उत्पादक हवेली क्षेत्र की भी है, जहां गोंड राजाओं ने कृषि में पारंगत लोधी जाति को बसाया था. लोधियों ने जंगल साफ करके खेत-तालाब बनाने की तजबीज के जरिए इलाके को बेहतरीन पैदावार का नमूना बना दिया. यहां भी बाद में इन्हीं लोधियों ने राज स्थापित किया और वीरांगना अवंतिबाई जैसी रानियां बनीं. ये वे ही अवंतीबाई हैं, जिनके नाम पर आज का विशाल बरगी बांध बनाया गया है. 




....जारी


Wednesday, August 31, 2011

बुंदेलखंड की बेटियां

सरकारी योजनाओं का जंजाल अनपढ़ गांववालों के लिए एक उलझाऊ तानाबाना है।

इसी तानेबाने में फंस कर रह गई उत्तर प्रदेश सरकार की विशेष वृक्षारोपण योजना। साल 2008 में यूपी सरकार ने 10 करोड़ पेड़ लगाने की योजना बनाई। इस काम में वन विभाग के साथ-साथ विद्युत विभाग, पीडब्ल्यूडी, सिंचाई विभाग, पंचायतें और प्राइवेट ठेकेदार लगे। हर पेड़ की लागत बैठी तकरीबन 600 रुपये..पैसा था मनरेगा और वन विभाग का..लेकिन बुंदेलखंड के किसी जिले में वो 10 करोड़ पेड़ कहीं नहीं दिखते।

इस वृक्षारोपण की मॉनीटरिंग करने वाले पी के सिंह कहते हैं कि उन्हें ज्यादातर पौधे पॉलीथीन बैग समेत ही मिले, उन पर मिट्टी डालने की जहमत भी नहीं उठाई गई थी, उन्हें यूं ही गड्ढों में फेंक दिया गया था।

केंद्र सरकार ने 7,277 करोड़ रुपए का पैकेज पिछले साल नवंबर में बुंदेलखंड को दिया। इनमें से 3,506 करोड़ रुपए उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड के हिस्से आएंगे। हालांकि इस रकम से उम्मीदें बढनी चाहिए थीं...लेकिन उम्मीदों से अधिक चिंताओं ने सिर उठाना शुरू कर दिया है।

ये चिंताएं इतनी बड़ी राशि की लूट से जुड़ी चिंताएं हैं, क्योंकि यह रकम भी उसी चैनल के जरिए और उन्हीं योजनाओं पर खर्च होनी है जिनकी कहानी हमने आपको दिखाई है।

2010-11 में केन्द्र सरकार ने बुंदेलखंड को दिए पैकेज से मिले पैसों में राज्य सरकार के 10 विभाग शामिल किए गए। इनकी योजनाओं को 2 साल के लिए मंजूरी मिली। उम्मीद तो जगी लेकिन प्रबंधन की असलियत कुछ और ही है।

बांदा जिले को 2010-11 के लिए 213 करोड़ रुपये आवंटित हुए। जिनमें से पहले साल 10 सरकारी महकमों को 40 करोड़ दिए गए।

पशुपालन विभाग 1.75 करोड़ रुपयों में से महज 4 लाख रुपये खर्च कर पाया। जबकि, भूमि विकास विभाग 5.22 करोड़ में से 2.37 करोड़, लघु सिंचाई विभाग 12.01 करोड़ में से 7.95 लाख, कृषि विभाग 5.30 लाख में से 3.20 करोड़, सिंचाई विभाग 12.89 करोड़ में से 9.72 करोड़ रुपये ही खर्च कर पाया।

इस तरह बांदा जिले को आवंटित 40.38 करोड़ रुपयों में महज 29.73 करोड़ ही खर्च हो पाए और 10.65 करोड़ रुपये बगैर खर्च हुए वापस चले गए। पशुपालन विभाग को पैकेज के तहत 28 कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र खोलने थे और इसके लिए 1 करोड़ 44 लाख रुपये उसे मिले भी, लेकिन पशुपालन विभाग एक भी गर्भाधान केन्द्र खोलने में नाकाम रहा।

जिस क्षेत्र में और जिस काम में सरकारी मशीनरी नाकाम रही, वहीं कुछ लोगों के व्यक्तिगत प्रयासों ने साबित किया कि हिम्मत और लगन हो, इच्छा हो तो कोई भी काम नामुमकिन नहीं रहता।

हालांकि, इन व्यक्तिगत प्रयासों से बुंदेलखंड की हर समस्या का स्थायी समाधान मुमकिन नहीं, लेकिन ये प्रयास उम्मीद जगाते हैं..और नई राह दिखाते हैं।

नई राह दिखाने वाली शख्सियतों में से एक हैं नीतू सक्सेना। उनकी दुबली काया पर मत जाइए, एमए पास यह लड़की बुंदेलखंड की असली बेटी है। फौलादी इरादों वाली नीतू ने अपने आस-पास आत्महत्याओँ का दौर देखा। पिता के भी उसी राह चले जाने के डर ने उनके अंदर एक नई राह को रौशनी दिखाई।

नीतू सक्सेना ने अपनी सहेलियों रीना और गुड़िया परिहार के साथ घर-घर जाकर पहले तो कर्जदारों और भूखे परिवारों की सूची बनाई। इनमें से उनके गांव में छह परिवार बूखमरी के शिकार निकले। नीतू ने इसके लिए नई राह खोज निकाली।

महिलाओं को दादरा यानी गाने बजाने के लिए इकट्ठा किया। बुंदेलखंड में दादरा के दौरान आखत की परंपरा है। यानी गाने के लिए आने वाली महिलाएं अपने साथ अनाज लाकर इकट्ठा करती है, जो बुलावा देने वाले नाई का होता है। लेकिन यहीं नीतू ने एक छोटा-सा बदलाव किया।

आखत में आने वाला अनाज नीतू ने भूखे परिवारों में बांट दिया। नीतू का यह प्रयास आज अगल-बगल के 58 गांवों में फैल चुका है। लेकिन, नीतू सिर्फ अनाज बांट कर ही चुप नहीं बैठी..। उन्होंने महिलाओं को साथ लेकर आसपास के नलों के पास बेकार पड़े पानी को जमा करने के लिए वॉटर रिचार्ज पिट बनाए। इससे सूखे पड़े नल भी जी उठे।


...सवाल है कि बुंदेलखंड को क्या चाहिए...बुंदेलखंड को ईमानदार कोशिशों की जरुरत है। साफ-सुथरी सरकारी मशीनरी अगर आम लोगों को साथ लेकर कोशिश करे तो सूखता जा रहा बुंदेलखंड शायद फिर जी उठे। समाज को पानीदार बनाने की कोशिशे...और लोगो के साथ की जरुरत है बुंदेलखंड को। वरना अकाल पड़ने से ज्यादा खतरनाक है अकेले पड़ जाना। 

संकट के समय समाज में एक दूसरे का साथ निभाने की परंपराएं पूंजी की तरह थीं...संवेदना की इस पूंजी के सहारे हमने कई बड़े संकट पार किए हैं। लेकिन सवाल है कि मशीनरी में आए ईमानदारी के अकाल का क्या करें..सवाल ये भी है कि संवेदना की पूंजी हमारे पास बची भी है या नहीं।



Thursday, August 18, 2011

राहत के सूखे चैक- बुंदेलखंड का सच

बुंदेलखंड का त्रासदी सिर्फ बारिश की कमी ही नहीं है। प्रशासन में समझदारी और संवेदनशीलता की कमी हालात को बदतर बना रहे हैं। सरकारी मशीनरी के चक्कर में आम जनता चकरघिन्नी बनी है।सूखा राहत में 12 रुपये के चैक किसानों को दिए गए हैं..ये आखिर माजरा क्या है?


2002 से ही सूखे की स्थिति से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने सूखा राहत अभियान चलाया..और किसानों को इसके लिए मुआवजा भी दिया। लेकिन..10 बीघे के काश्तकार के लिए सूखा राहत की रकम अगर 12 रुपये हो तो... तो आपको ये एक मज़ाक लग सकता है।

..थोड़ा कड़वा सही, लेकिन सच यही है कि सूखा राहत के नाम पर किसानों को 12, 15, 27, 30 और 39 रुपये के चैक राज्य सरकार ने दिए हैं। मालूम हो कि इन चैकों को भुनाने के लिए खुलने वाले बैंक खाते का खर्च 500 रुपये आता है।

सुशील कुमार, मंझोले किसान हैं। उनके तीन भाईय़ों को सरकार ने 30-30 रुपये के सूखा राहत चैक दिए। चैक तुलसी बैंक का है। सुशील कहते हैं, ये राज्य सरकार ने हमारे साथ अच्छा मजाक किया है, सूखा राहत के नाम पर।

लेकिन बुंदेलखंड में सूखे से राहत पाना कोई मजाक नहीं।

पानी की समस्या से निजात पाने के लिए ही बड़े किसानों ने ट्यूब वैल का सहारा लिया। ट्यूब-वैलों के बढ़ते चलन से भूमिगत जल का दोहन बढता गया...और अब यह जलस्तर खतरनाक तरीके से नीचे जा रहा है। 

 
पूरे यूपी-बुंदेलखंड में समूचे खेती लायक ज़मीन का 41 फीसदी ही सिंचित है। कुल सिंचित भूमि का 48 फीसद नहरों से, 4 फीसद कुओं से, 7 फीसद निजी स्रोतों से और 41 फीसद बाकी के दूसरे साधनों से सींचा जाता है। ट्यूब वैल और पंपिंग सैट इन्ही बाकी के 41 फीसद में आते हैं।

जाहिर है, भूमिगत जल पर दबाव काफी बढा है।

साल 2003 में बांदा में भूमिगत जलस्तर 0.75 मीटर, चित्रकूट में 1.05 सेमी, महोबा में 2.11 सेमी, और हमीरपुर में 1.55 सेमी था। साल 2005 में भूमिगत जलस्तर घटकर बांदा में 1.02 सेमी, चित्रकूट में 1.79 सेमी, महोबा में 1.89 सेमी, और हमीरपुर में 1.59 सेमी हो गया। जबकि, 2006 में इसी ट्रेंड में बांदा में यह 1.62 सेमी, चित्रकूट में 2.19 सेमी, महोबा में 2.09 सेमी, और हमीरपुर में 1.69 सेमी तक चला गया।

बारिश की कमी से भूमिगत जलस्तर रिचार्ज नहीं हो पा रहा..और सूखे की वजह से लगातार हो रहे दोहन ने धरती का कलेजा तार-तार कर दिया।

अब यह कुदरत का कहर है या धरती के भीतर से लगातार खींचे जा रहे पानी की वजह, बुंदेलखंड में धरती कई जगहों पर फट पड़ी है। सूखे के बाद कुदरत का ये एक और क़हर बुंदेलखंड के लोगों को डरा रहा है। 

क्या बुंदेलखंड को सूखे से बचाने का एकमात्र ज़रिया बारिश ही है..? क्या कोई और उपाय नहीं..? उपाय है..और था।

बुंदेलों ने इस सूखे इलाके को हरा रखने के पुख्ता इंतजाम किए थे। तालाब बनाकर। लेकिन बदलते राज और समाज ने तालाबों को बिसरा दिया।


सूखे की वजह से पूरे बुंदेलखंड के करीब 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं। हालांकि, कुछ खर्च से उन्हें फिर से इस्तेमाल के लायक बनाया जा सकता है। लेकिन, ठेकेदारों और अधिकारियों के लिए नए कुएं-तालाब खुदवाना फायदे का सौदा होता है।

इसकी मिसाल हैं कुलपहाड़ तहसील के बरजोरा करन। बुंदेलखंड में सरकार की 30,000 कुएं खोदने की योजना के तहत बरजोरा करन की जमीन में कुएं खोदने को मंजूरी मिली। लेकिन पानी नहीं निकला...क्योंकि बरजोरा करन के बेटे ने 5 हजार की रिश्वत देने से इनकार कर दिया था।

ठेकेदार ने उनके पहले से ही खुदे हुए सूखे कुएं में थोड़ी खुदाई कर दी, और फिर उसे वैसे ही छोड़ गए।

बरजोरा के भाई इस समझौते के लिए तैयार थे...ऐसे में थोड़ी ही दूर पर उनके खेत में खुदे कुएं में पानी निकल आया।


ऐसी गड़बडियों का विस्तार तालाब की तरह चौड़ा है। राज्य सरकार की योजना थी, 30 हजार तालाब खुदवाने की। नारा था, खेत का पानी खेत में। इसके तहत ठेकेदारों के ज़रिए मॉडल तालाब खुदवाए गए।

इन मॉडल तालाबों के चारों ओर बाड़ लगी है। तर्क ये कि इससे तालाबों के किनारे लगाए गए पेड़ सुरक्षित रहेगे। ..लेकिन बाड़ से घिरी इस जमीन से पेड़ भी अदृश्य हैं, पानी भी..। इस जमीन को तालाब कहना बहुत मुश्किल है..जब तक कि यहां मॉडल तालाब का साइन बोर्ड न लगा हो।

खेत का पानी खेत में के नारे ने कई छोटे किसानों के खेत छीन लिए। तालाब खुदवाने के दौरान स्थानीय लोगों के तजुरबे को तवज्जो नहीं दी गई। नतीजा ये कि तालाब सबसे ऊंची जमीन पर खोद डाले गए। नतीजतन ये तालाब बारिश का पानी मापने के कटोरे बनकर रह गए हैं। कई किसान अब इन तालाबों की वजह से अपना सर पीट कर रह गए हैं।


तालाबों के ये काम मनरेगा के पैसे से किए गए थे। सोच ये थी कि शायद इससे सूखे से त्रस्त लोगों को थोड़ी राहत मिल जाएगी।

लेकिन महोबा जिले में मनरेगा लागू करने वाली पंचायत ही गड़बडियों की जड़ साबित हो रही है। जिले के बेलाताल विकास खंड के बमहोरी गांव में कच्ची सड़क बनाने का काम चल रहा है। लोग मनरेगा में काम तो कर रहे हैं...लेकिन उनके पास जॉब कार्ड नहीं है। सवाल है कि अगर जॉब कार्ड नहीं है तो मजदूरों को भुगतान कैसे होता है..? भुगतान होता है नकद, जो कि मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है।

मनरेगा के तहत काम कर रहे मजदूरों में महिलाएं भी हैं। लेकिन, न तो पानी पिलाने वाले की व्यवस्था है न बच्चों की देखभाल करने वाले की। मेडिकल किट की बात तो भूल ही जाइए। पंचायत सदस्य खुद काम के मेट बने हैं..इसके लिए रोजाना सौ रुपये उन्हें मिलते भी हैं, लेकिन हमें उनसे सवालों के जवाब नहीं मिलते। 

इस काम में बच्चे भी लगे हैं। काम में बच्चों का लगाना भी मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है। बच्चों का पैसा उनके मां बाप को मिलता है। खाता नहीं है, जॉब कार्ड नहीं है..

भुगतान होता कैसे हैं..मेट साहब के पास फिर से जवाब नहीं..। मजदूरों का पिछला भुगतान भी बकाया है.. मेट साहब के पास इसका भी जवाब नहीं. वो ब्लॉक दफ्तर पर टालते हैं।

कुलपहाड़ तहसील में ही कर्रा गांव कौशल किशोर चतुर्वेदी बैंक के हाथों ट्रैक्टर और साढे तीन एकड़ जमीन गंवाने के बाद कौशल खेती छोड़कर मजदूरी में लगे। अब मनरेगा की मजदूरी उनके उसी बैंक के खाते में आई जिससे उन्होंने कर्ज लिया था। अब बैंक पहले उनसे कर्ज चुकाने को कह रहा है, उसके बाद ही वह मनरेगा की मजदूरी का भुगतान करेगा।

अब कौशल किशोर बकाया रकम केलिए बैंक का चक्कर काटने का भी कोई फायदा नहीं देखते। निराश आंखों से अपने बाकी के खेतों की तरफ देखते हैं।

कर्रा गांव के ही अमर सिंह, 2008-09 से ही मनरेगा के तहत किए गए अपने काम की मजदूरी के लिए भटक रहे हैं..वह न तो उनके जॉब कार्ड में दर्ज है न वन विभाग वाले बता रहे हैं। टालमटोल का यह खेल, चिंता पैदा करता है।

बेसहारा हनसू की वृद्धावस्था पेशन पिछले तीन साल से बंद है। उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अनपढ़ गांववालों के लिए यह सब एक उलझाऊ तानाबाना है।

जारी....

Monday, August 15, 2011

चल उड़ जा रे पंछीः बुंदेलखंड का सच

पिछले पोस्ट से आगे...

बांदा जिले में ही सूखे की कहानी का यह सबसे बुरा किस्सा है। गांव में सारे पानी के स्रोत सुख गए। एक धनी-मानी घर को छोड़कर, सिर्फ एक तालाब बचा था, जिसमें पानी गड्ढे में बचा था। उसके लिए भी मारा-मारी।

पानी की मारामारी में कभी पानी मिल पाता कभी नहीं। उस पैसेवाले के घर के पास ही रहती थी वह महिला। पड़ोस से पानी, जेट पंप से लेना आसान भी था, और साफ पानी भी मिल जाता था। एक दिन मौका देखकर उस घर के मनचले नौजवान ने महिला को छेड़ दिया। महिला चुपचाप चली आई। तीन-चार दिन वह पडोसी के घर पानी लेने नहीं गई। लेकिन कोई रास्ता न था।

पानी फिर लेने गई तो वह नौजवान ढीठाई पर उतर आया था। आखिरकार, एक बाल्टी की पानी एक महिला की इज्जत बैठी।

इस खबर ने बुंदलेखंड के लोगों को आंदोलित किया, और कई गांवों में तालाब खोदने जैसे प्रयास शुरु हुए। लेकिन प्यास बुझाने का कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं हो पाया।


भूख और प्यास ने बुंदेलखंड के लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल की आंतरिक समिति की रपट के मुताबिक झांसी जिले से लाख 58 हजारललितपुर से लाख 81 हजारहमीरपुर से 4लाख 17 हजारचित्रकूट से लाख 44 हजारजालौन से लाख 38हजारबांदा से लाख 37 हजार, और महोबा से लाख 97 हजार किसान अपना घर-बार छोड़कर बाहर निकल चुके हैं।

यानी सात जिलों की 82 लाख की आबादी में से 32 लाख लोग बुंदेलखंड से बाहर रह रहे हैं। यह पूरी आबादी का 40 फीसदी से ज्यादा है।

वीर आल्हा-ऊदल की धरती....जिन्होंने कभी मैदान में पीठ नहीं दिखाई। उन्हें पानी अपनी धरती छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। जिन्हें हमलावरों की फौजे हरा नहीं पाई...उन्हें पानी ने हारने पर मजबूर कर दिया है।

पानी की कमी ने बुंदेलखंड के अतर्रा इलाको को भी बदल डाला है।  अतर्रा डेढ़ दशक पहले तक एशिया की दूसरी सबसे बड़ी धानमंडी हुआ करती थी। उस वक्त तक यहां 37 चावल की मिलें हुआ करती थीं। लेकिन आज की तारीख में सारी की सारी बंद हो चुकी हैं।

अतर्रा के मिलों के सारे पल्लेदार (चावल मिलों में काम करने वाले) बेरोज़गार हो गए हैं। जाहिर है, वह अब अगल बगल के शहरों इटावा के ईंट भट्ठों का रुख कर रहे हैं, या फिर दि्ल्ली जैसे शहरों में रिक्शा चला रहे हैं। दरअसल,. पिछले कुछ साल में बुंदेलखंड में नहरों का कमांड एरिया सिकुड़ गया है। 

बुंदेलखंड का यह इलाका एशिया में बांधों की सबसे ज्यादा घनत्व के लिए जाना जाता है। बांध की तली में जमी गाद  से बांधों की क्षमता बहुत कम हो गई है। साथ ही नहरों में भी जमा गाद की बरसों से सफाई नहीं हुई है। ऐेसे में पानी कम खेतों तक ही पहुंच पा रहा है। 

राजस्व विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, बांदा जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था।


सिंचाई विभाग के लोग ऐसे में किसानों को बताना भी ठीक नहीं समझते। पहले जब बारिश ठीक होती थी, या नहरों का पानी इतना कम नहीं आता था तो किसान धान की फसल के लिए बीज खेतों में डालते थे, लेकिन जब बिचड़े खेतों में ही सूख जाने लगे, तो पता लगा नुकसान बहुत गहरा है। 

(पंद्रह साल पहले तक बुंदेलखंड में 54 दिन बरसात के होते थे। लेकिन अब ...बरसात के ये 54 दिन घटकर 20 हो गए हैं।)

नहरों और बांधों की क्षमता पहले से 65 प्रतिशत कम हो गई है, और धान का उत्पादन पहलेसे महज 30 फीसद ही रह गया है। ...अतर्रा का मशहूर सेला चावल बीते दिनों की बात हो गई है। यहां के किसान पुराने जमाने की शरबती और ऐसी ही दुर्लभ धान की नस्लों को याद कर आह भरते हैँ। 



Wednesday, August 10, 2011

बेपानी होते समाज की कहानीः बुंदेलखंड का सच

पिछली पोस्ट से आगे...

 पानी की कमी ने बुंदेलखंड के समाज को बेपानी बना दिया है। बादल रुठे, तो केत वीरान हो गए। हर गांव में कई बदोलन बाई हैं, जो भूख से रिरियाती फिर रही हैं, कहीं बच्चों को घास की रोटी खाने पर मजबूर होना पड़ रहा है..यह सब उस देश में जहां पॉपकॉर्न और पित्सा कल्चर पॉपुलर कल्चर के नाम से जाना जा रहा है। क्या हमें शर्मिन्दा होना चाहिए?

हमारे एक ब्लॉगर दोस्त राहुल सिंह ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि क्या बुंदेलखंड में यह समस्या हमेशा से रही है? क्या यह इलाका पहले से खुशहाल रहा है...?

मुमकिन है मेरे पोस्ट से उन्हें एक एक कर जवाब मिलता जाएगा। 
बुंदेलखंड के ज्यादातर लोग खेती करते हैं...तकरीबन 85 फीसदी लोगों के पेट भरने का ज़रिया खेती ही है। लेकिन, पिछले कई साल से बादल रुठ गए..खेत वीरान हो गए। 

सूखा...जिसने किसानों के हलक सुखा दिए। हालांकि, सूखा बुंदेलखंड के लोगों के लिए नई बात नहीं है, नई बात जो है वह है इससे होने वाली तबाही। सूखे ने उत्तर प्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड की आधी से ज्यादा खेती को तबाह कर दिया है। 

गहराते सूखे को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2008 में एक केंद्रीय टीम बनाई। 2008 में आई उसकी रिपोर्ट के मुताबिक, 19वीं और 20वीं शताब्दी के 200 वर्षों में इस इलाके में केवल 12 साल सूखे के थे। यानी इस दौरान  सूखा हर 16 साल में एक बार पड़ता था। लेकिन 1968 से लेकर पिछली सदी के आखिरी दशक में हर पांचवां साल सूखा रहने लगा। 

....और अब तो पिछले दस साल से बुंदेलखंड पानी की बूंद-बूंद को तरस रहा है।

पिछले दशक भर से बारिश की मात्रा साल दर साल कम होती गई है। बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश के सात जिलों की बारिश की मात्रा बताती है कि स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैँ।

साल 2 हजार तीन-चार में औसत सालाना बारिश की मात्रा 987 मिलीमीटर थी, जबकि साल 2 हजार 4-05 में यह 530 मिलीमीटर, 2005-06 में 424 मिलीमीटर, 2006-07 में 330 मिलीमीटर, 2007-08 में 240 मिलीमीटर ही हुई।


सूखे की गंभीरता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि बुंदेलखंड के अधिकतर किसान पिछले साल खरीफ फसल की अपनी लागत भी हासिल नहीं कर पाए। खेती चौपट होने के कारण आपदा जैसी स्थितियां तो बननी ही हैं।

..आपदा जैसी इस स्थिति ने बदोलन बाई का परिवार ही उजाड़ दिया। 
बदोलन की भूख से देश को शर्मिन्दा होना चाहिए.


बदोलन बाई का घर किसी भी कोण से झोंपड़ा भी नहीं लगता। तीन तरफ की गिरी हुई दीवारों ने घर को खंडहर कहलाने लायक नहीं छोड़ा है। 

चित्रकूट जिले के पवा गांव की बदोलन के पति भूमिहीन मजदूर थे। कई साल से चल रहे सूखे ने जब 2007 में भयावह रुप अख्तियार किया तो बदोलन के पति को मजदूरी मिलनी भी बंद हो गई। पूरा परिवार भुखमरी की चपेट में आ गया।

..आखिरकार बदोलन के पति को आखिरी बार भूख लगी...। पिता की मौत के बाद बदोन का बड़ा लड़का दिमागी संतुलन खो बैठा, छोटा दिल्ली जाकर रिक्शा चलाने लग गया।

अब गांव में बदोलन अकेली भूख से जूझ रही है। उसके विक्षिप्त हो चुके लड़के को गांववाले दया से कुछ खिला देते हैं। लेकिन, ये सारी स्थिति बयान करते समय विगलित होने का दौर आता है। उम्र में मेरी दादी जैसी बदोलन कभी मेरे तो कभी अभय निगम (कैमरामैन) के पैरों पर गिरी जाती है। 'सब राज-काज चलत दुनिया में, एक हमारे सुधि न ले है कोई...' उसकी शिकायत में भारतीय प्रजातंत्र का पोस्टमॉर्टम हो जाता है।




मेरे मन में एक साथ शर्मिंन्दगी और गुस्से के भाव आते हैं। व्य़वस्था के खिलाफ़ मेरे मन में एक और परत बैठ जाती है।

लेकिन भूख से जूझने वाली बदोलन अकेली नहीं है। चित्रकूट के पाठा इलाके में कई ऐसे घर हैं, जहां के बच्चों को खर-पतवार यानी चौलाई की रोटी खानी पड़ रही है। घर में आटे की कमी है, लेकिन भूखों की पेट का क्या करें...जंगली खर-पतवार को पीसकर आटे में मिलाकर खाने का बंदोबस्त किया जा रहा है। 

तीन-चार घरों में जाता हूं, महिलाएं सिल-बट्टे पर चौलाई कूटती हैं, उसे आटे में मिलाकर रोटियां तैयार करती हैं। दिखने में यह रोटीपालक-परांठे जैसा ही है, लेकिन घास की रोटी मूलतः घास की रोटी होती है। दिखने में चाहे जैसी हो...।


मुझे याद आते हैं दिल्ली के मॉल्स में घूमते वो बच्चे, कैप्री पहने बच्चे, कई सौ रुपये की आइसक्रीम पर हाथ साफ कर जाने वाले, सिनेमा देखने जाएं तो मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न के साथ कोक के कॉम्बो ऑफर के लिए सैकड़ों खर्च कर देने वाले, अपनी ही उम्र के न जाने कितने बच्चों की रोटी का हिस्सा खा जा रहे हैं। 



मौज-मजे के लिए पॉपकॉर्न खाने के आदी हो रहे देश में यह घटना दिल दहला देने वाली है।

बेपानी होते समाज की कहानी
यह भूख अकेली नहीं, इसका साथ दे रही है प्यास..।


यूपी-बुंदेलखंड के सात जिलों के कुल 4551 गावों में से करीब 3 सौ में ही साल भर पीने का पानी रहता है, जबकि 74 गांवों में सिर्फ एक महीने पीने का पानी मिलता है।

पानी के संकट का सबसे बडा असर पड़ता है महिलाओं पर। उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का बड़ा हिस्सा पानी ढोने में गुज़र जाता है। 

पूरे बुंदेलखंड के लगभग 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं - या तो मरम्मत के अभाव में वे गिर गए हैं या वे सूख गए हैं। 

पानी का संकट पूरे बुंदेल समाज को बेपानी बना रहा है। पूरा समाज पानी के लिए तरस रहा है। लोग गंदा पानी पीने के मजबूर हैं। 

आपने शायद पहले कभी देखा न होगा...कि एक ही गड्ढे से सूअर और इंसान दोनों ही पानी पी रहे हैं। लेकिन सड़क के एक ओर गड्ढे से पानी लेती लड़की को देखता हूं, पानी बेहद गंदा है। उससे भी जुगुप्सापूर्ण बात ये कि लड़की के ठीक पीछे पानी पी रहा सूअर दिखता है। 

सारी मानवीयता भूलकर मैं राजकुमार पर चिल्लाता हूं, शूट कर, शूट कर, विजुअल बना। वह पूरी ईमानदारी से अपना काम करता है। मेरे अंदर का आदमी धीमी मौत मर रहा है उस वक्त। उस वक्त मैं सिर्फ एक रिपोर्टर की तरह देख रहा हूं। 

बोतलबंद पानी के बढ़ते बाजार भारत में मैं अगर अमानवीय रुख अपना रहा हूं, तो यह घटना अमानवीयता से कुछ ज्यादा ही है। 

हम केन नदी तक पहुंचते हैं। कुछ लोग पीने के लिए पानी ढोकर ले जा रहे हैं। पानी बैलगाडियों से ढोई जा रही हैँ। किनारे गंदा पानी है, मछलियां मरी पड़ी है, बगल में बैल भी पानी में घुसे हैं, कुछ लोग नदी की बीच धारा से पानी ले कर आ रहे हैं, कमर भर पानी में घुस कर...इन लोगों को लग रहा है कि शायद नदी की बीच धारा से पानी लाने पर उसकी गुणवत्ता बोतलबंद पानी जैसी हो जाएगी। 

पानी ढो रहगी महिला शिकायत करती है, सारे नल और कुएं सूख चुके हैं। इसी पानी में मुरदे पड़े रहते हैं...लेकिन पानी कहीं और मिलता ही नहीं। पानी के इसी संकट ने कई बार आबरु का व्यापार भी करवाया है। एक बाल्टी पानी रके लिए एक महिला को अपनी इज़्ज़त तक दांव पर लगानी पड़ी। लेकिन वह कहानी अगली कड़ी में।




जारी....

Friday, August 5, 2011

बुंदेलखंड का सच-अंतर्गाथा चौथी किस्त


पिछली पोस्ट से जारी...

देश की प्रतिव्यक्ति आमजदनी से यूपी-बुंदेलखंड की प्रतिव्यक्ति आय तीन गुनी कम है। यह तो सिर्फ आंकड़ा है, जमीनी हकीकत ज्यादा बदतर है

गढा़ गांव से हम निकले तो बारिश ने इलाके की काली चिकनी लसेदार मिट्बुंटी से गठजोड़ कर लिया था। हमारी गाड़ी घुटनों (पहियों ) तक धंस चुकी थी। आसपास के गांववालों ने मदद की। खुद पुष्पेन्द्र भाई भी कपड़े घुटनों तक चढा कर मैदान में कूदे। कार को धकेलते घसीसते हम उसे पक्की सड़क तक ले आए। 


लेकिन इस कसरत में जितना तन थका, उससे ज्यादा मन थका था। वापसी में में सोचता रहा कि आखिर क्या वजह है इस इलाके में बढी हुआ आत्महत्याओं के पीछे। 


बैंक और साहूकारों के कर्जों को इऩ आत्महत्याओं के पीछे मानने की खासी वजहें हैं।

मिसाल के तौर पर, बांदा जिले के खुरहंड गांव के इंद्रपाल तिवारी को अपने बीघे जमीन के लिए ट्रैक्टर की कोई खास जरूरत नहीं थीलेकिन एक ट्रैक्टर एजेंट के दबाव में आकर उन्होंने 2004 में अतर्रा स्थित भारतीय स्टेट बैंक से इसके लिए लाख 88 हजार रुपए कर्ज लिए। फसलों से बीज तक न निकल पाने के कारण उनकी हालत खस्ता थी इसलिए वे उसकी किस्तें नहीं चुका पा रहे थे। 

आखिरकार 2006 में झांसी स्थित मेसर्स सहाय एसोसिएट्स के कुछ लोग तिवारी के पास आए और खुद को बैंक का आदमी बताकर उनका ट्रैक्टर छीन कर ले गए। तिवारी ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से आरटीआई कानून के तहत बैंक से जानकारी मांगी। पता चला, बैंक ने रिकवरी एजेंसी सहाय एसोसिएट्स के जरिए ट्रैक्टर को तिवारी से लेकर लाख 99 हजार रु में नीलाम कर दिया था।
यह तो एक बानगी भर है...ऐसे कई मामले हैं, जिनमें बैंको का मनमाना रवैया सामने आता है।

बुंदेलखंड के ग्रामीण बैंकों की किसानों पर मौजूदा कुल बकाया रकम 4,370 करोड़ रुपये से ज्यादा ही है। यह 2010 के कुल बकाया रकम 3,613 करोड़ रुपये से 21 फीसदी ज्यादा है।

बांदा जिले में मार्च 2011 तक बैंक की रकम वापस करने में नाकाम रहने वाले कर्जदारों में एक लाख से ज्यादा लोग छोटे और सीमांत किसान हैं, और इन पर बैंकों का 453 करोड़ रुपया बकाया है। बांदा जिले में 31 मार्च 2011 तक खेती के काम के लिए दिए गए कुल बकाया कर्ज की रकम 740 करोड़ से ज्यादा थी।

पड़ोसी जिलों जालौन, ललितपुर, झांसी हमीरपुर, महोबा और चित्रकूट में भी स्थिति इतनी ही बदतर है। जालौन जिले में किसानों पर बैंको का करीब 866 करोड़, झांसी में 776 करोड़, ललितपुर में 645 करोड़, हमीरपुर में 575 करोड़, महोबे में 455 करोड़ और चित्रकूट में 311 करोड़ रुपये बकाया है।

आखिर, बुंदेलखंड की यह हालत कैसे हुई..। लोग बैंको का कर्ज क्यों नहीं चुका पा रहे।

कहते हैं कि प्रतिव्यक्ति आय से इलाके की खुशहाली का पता चलता है। बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले सात जिलों में चित्रकूट जिले में प्रति व्यक्ति आय सिर्फ 9106 रुपये है। जबकि इन सात जिलों में बांदा में यह 14,117 रुपये, जालौन में 16,711 रुपये, महोबा में 15,744 रुपये, हमीरपुर में 15,984 रुपये, ललितपुर में 14,872 रुपये और झांसी में 21,397 रुपये हैं।

जबकि भारत के प्रतिव्यक्ति आय की बात करें तो जिस दौरान के आँकड़े मैंने दिए हैं, उस दौरान यानी 2009-10 में 46, 533 रुपये था। 2011 के फरवरी में देश की प्रतिव्यक्ति आमदनी 54 हजार रुपये के आसपास है। 

लेकिन प्रतिव्यक्ति आय का यह आंकड़ा भी महज एक झलकी भर है। ज़मीनी हक़ीक़त इन आकड़ों को और भी डरावना बनाते हैं...

Saturday, July 30, 2011

बुंदेलखंड का सच-अंतर्गाथा तीसरा हिस्सा

पिछले पोस्ट से आगे---

सिर्फ प्रह्लाद सिंह जैसे जीवट वाले इंसान ही हैं, जो त्रासदी से निपट रहे हैं। उन्ही के गांव गढ़ा की राजकिशोर ने जीने की हर उम्मीद छोड़ दी है। राजकिशोर के पति ने अपनी खेती को बेहतर बनाने के लिए एजेंटों के झांसे में आकर ट्रैक्टर खरीद तो लिया, लेकिन साल-दर-साल के सूखे ने जिंदगी को भी नीरस बना दिया। तिस पर, ट्रैक्टर नीलामी के लिए हर हफ्ते आने वाले नोटिसों ने जीना हराम कर रखा था।

एक दिन ऐसा हुआ कि राजकिशोर के पति का ट्रैक्टर चोरी हो गया। शाम को वे घर तो लौटे लेकिन देर रात उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। अब राजकिशोर और उनकी युवती होती बेटी के लिए रोजी-रोटी मुहाल है। इज्जतदार किसान की विधवा घर-घर जाकर झाडू-कटकी करती है। लेकिन जिनके घर में वह झाडू-कटकी करती हैं, उनकी भी हालत कोई अच्छी नहीं। राजकिशोर अपनी बेटी के विवाह की चिंता में घुली जाती हैं। हमसे बातें करते समय उनकी आंखों से उनकी मजबूरी बह निकलती है।

हमारे बगल में ही सुरादी बैठे हैं। उनके घर में दो मौते हुई हैं। राज्य सरकार के अधिकारी उनके घर की आत्महत्याओं को गृहकलह का नाम देती है।

सुराजी के घर में अब कोई नहीं। बीवी बहुत पहले भगवान को प्यारी हो गई। एकमात्र पोती को ब्याह कर उऩका बेटा निश्चिंत हो गया था। लेकिन, एक दिन जब बेटे के बेटी दामाद घर आए तो सूखे की वजह से हालात बदतर हो चुके थे। पिछले ही साल की बात है।
बुंदेलखंड में किसानों की मौत का जिम्मेदार कौन है?


....सुराजी की आंखें डबडबा जाती हैं। पिछले ही साल, पोती और उसके पति पहली बार अपने घर आए, घर में सेर भर भी गल्ला नहीं था। इसी संकोच के मारे सुराजी के बेटे ने पास के नीम के पेड़ से फांसी लगा ली। ...सुराजी तर्जनी से सामने नीम का पेड़ दिखाते हैं। पिता की आत्महत्या के अपराधबोध से पोती ने भी जान दे दी। सुराजी के साथ-साथ वहां दालान पर जमा पूरा समुदाय रो पड़ा।

नीम का पेड़ अब भी हरा है, उस पर सुराजी की आहों का कोई असर नहीं..।

हमारी पूरी टीम स्तब्ध होकर देखती रहती है। बाहर दालान में हम बैठे हैं। बारिश हो रही है। पुष्पेन्द्र भाई के कहने पर गांववाले हमारे लिए रोटी और करेले की सब्जी लेकर आते हैं। घर पर में खाने के मामले में बहुत नकचढा माना जाता हूं...आजतक कभी करेला खाया नहीं।

पहली बार जिंदगी में खाने की अहमियत सामने दिखती है। (पढा और सुना बहुत था) मां की हिदायत को पोटली याद आ जाती है। मां आज भी कहती है, बेटा, अन्न अन्नपूर्णा है। इसे बेकार न जाने दो।

पता नहीं क्यों मैं रुआँसा हो उठता हूं। सामने प्रह्लाद सिंह है, राजकिशोर हैं...सुराजी हैं। निवाला अंदर नहीं जा रहा..पहली बार करेला कड़वा नहीं लग रहा। मैं खाना खत्म करता हूं। आशुतोष शुक्ला भी संजीदा हैं..।

खाने की थाली समेटने आती है सोनू। पुष्पेन्द्र भाई बताते हैं, इसने भी जान देने की कोशिश की थी। वजहः सोनू के पिता रामकिशोर बैंक के कर्जदार हैं। बड़ी बहन की शादी में दो-तीन लाख और चढ़ गए। 8वीं में पढ़ने वाली सोनू ने सोचा अगर वही न रहे, तो पिता को शादी की चिंता भी न करनी होगी, और न ही कर्ज लेना पड़ेगा।

कर्ज के बोझ और उसके बाद आत्महत्या से बचाने के लिए एक रात सोनू डाई ( बाल रंगने वाले रसायन) को पीकर सो गई। वक्त रहते ही उसका उपचार शुरु कर दिया गया और सोनू बचा ली गई।
सोनू के पिता घटना बयान करते-करते अचानक चुप होकर शून्य में निहारने लगते हैं।

सोनू भी हमसे बात करने सो थोडा़ कतराती है। आशुतोष पूछते हैं, मरने की कोशिश कर क्या साबित करना चाहती थी, वह मासूमियत से बताती है, जब हमहीं ना रहेगें तो पापा को कर्ज नहीं लेना पडेगा ना। आशुतोष के पास जवाब नहीं है, मैं कैमरामैन राजकुमार को कुछ प्रोफाइल और क्लोज-अप शॉट्स लेने के निर्देश देने में खुद को व्यस्त कर लेता हूं।

आखिर उम्र से पहले बड़ी हो गई, इस लड़की से क्या पूछूं...क्या टीवी माध्यम का सबसे बदनाम सवाल....? मरते वक्त कैसा लग रहा था?

मेरे अंदर का शख्स मुझसे पूछ रहा था, इस व्यवस्था के खिलाफ कोई हथियार क्यों न उठा ले, मेरे अँदर का पत्रकार इस बात का पूरा समर्थन कर रहा था। दोपहर बाद हमें वहां से निकलना था, कैमरामेन कुछ शॉट्स लेने में व्यस्त हो गया।

मैं और आशुतोष सिगरेट पीने के बहाने एक कच्ची दुकान में रुक गए। उसने आदर से बिठाया, सिगरेट दी और कहने लगा कि अब तो आप लोगों के ही हाथ ही है सब..।

गढा गांव नाउम्मीदी की जीती-जागती मिसाल बन गया है। हम केन को फिर से पार कर उस जगह आ गए। रास्ते फिसलन भरे हो गए थे।मैं फिर सोचने लगा था, क्या जीने के रास्ते सच में इतने ही फिसलन भरे हो जाते हैं...??

....जारी