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Monday, August 22, 2022

राष्ट्र की निरंतरता? चलिए, भूगोल के इतिहास की बात करते हैं

मंजीत ठाकुर

राष्ट्र की निरंतरता वाली पोस्ट ने और उस पर आ रही टिप्पणियों ने मुझे इस संदर्भ में और अधिक पढ़ने के लिए प्रेरित किया. तो मैंने सोचा क्यों न 'शुरू से शुरू किया जाए?'

तो जो मैं लिख रहा हूं, यह तकरीबन 'भूगोल का इतिहास' है. आप को इससे अधिक जानकारी है तो बेशक कमेंट में साझा करें. कमेंट बॉक्स में अतिरिक्त ज्ञान सिर्फ 'हिंदी' में स्वीकार किए जाएंगे.

बहरहाल, बात तब की है, जब धरती का सारा भूखंड (लैंड मास) एक साथ था. इस एकीकृत भूखंड का नाम रखा गया 'रोडिनिया'. महान भूगोलज्ञ अल्फ्रेड वैगनर के 'महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धांत' के मुताबिक—जो उन्होंने 1915 में प्रकाशित अपनी किताब द ओरिजिन ऑफ कॉन्टिनेंट्स ऐंड ओशन में दिया था—यह विचार दिया गया है कि यह रोडिनिया विषुवत रेखा के दक्षिण में था.

आज से कोई 75 करोड़ साल पहले यह महाद्वीपीय भूखंड टूट गया और उस समय इसका क्या आकार और आकृति रही थी इस बारे में भूगोलज्ञ एकमत नहीं हैं. इसलिए हम यह भी नहीं जानते कि अपना 'भारतवर्ष' इसमें कहां फिट बैठता था.

और उस वक्त धरती पर जीवन भी एककोशीय जीवों से अधिक का नहीं था. इसलिए ‘राष्ट्र’ की परिभाषा क्या होगी यह भी यूरोपीय विद्वानों ने तय नहीं किया था. मोटे तौर पर इस युग को आप 'प्री-कैम्ब्रियन' मान सकते हैं. बहरहाल, अपने 'इंडिया, दैट इज भारत' में आज भी उस युग की निशानी मौजूद है. अरे, वही अपनी अरावली श्रेणी. (हालांकि हाल में झारखंड में भी दुनिया की सबसे पुरानी चट्टान होने की खबर आई थी, पर जो भी हो.)

भूगोलज्ञ कहते हैं, यह अरावली अपने जमाने के कांग्रेस पार्टी जैसा मामला था. हिमालय से भी ऊंची थी यह श्रेणी. लगता था कि कभी घिसेगी ही नहीं. लेकिन वक्त की मार से अरावली घिस कर अपशिष्ट पर्वत बन गया है और कांग्रेस की ही तरह अपने महान अतीत की छाया मात्र रह गया है. इन दिनों कटवारिया सराय में गुटखा खाकर थूकते आइआइएमसी के बच्चे यह नहीं जानते कि वह दुनिया की सबसे पुरानी भूवैज्ञानिक संरचना पर थूक रहे हैं.

अस्तु.

जीवाश्मों से मिले संकेतों ने यह बताया है कि आज से कोई 53 करोड़ साल पहले दुनिया में जटिल जीवों का 'अचानक' (अचानक को लिटरल मीनिंग में मत समझिएगा. भूवैज्ञानिक घड़ी में अचानक कोई, ‘फटाकदेनी’ से होने वाली घटना नहीं होती) विकास होने लगा . यहां इस ‘अचानक’ का मतलब है कई करोड़ साल, जिसको हम 'कैंब्रियन विस्फोट' कहते हैं.

अगले 7-8 करोड़ साल में उस समय के विश्व में विभिन्न किस्म के जीवों का विकास हुआ.

लेकिन माराज, अजूबा जे भवा, कि सुपरकॉन्टिनेंट रोडिनिया (इसको टीवी न्यूज वाले पटकथा लेखक पत्रकार क्या लिखेंगे, महा-महाद्वीप!) के जो टुकड़े हुए थे सो महागठबंधन की छतरी तले आ गए. और आज से कोई 27 करोड़ साल उन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे भूखंडों का विलय हो गया और एक बार फिर एकमात्र सुपर महाद्वीप तैयार हो गया. इसका नाम पड़ा, पेंजिया.

इसके चारों तरफ पानी ही पानी था. एकदम बड़का महासागर. अनंत. उसका नाम रखा गया है 'पेंथालसा'.

पेंजिया का जो नक्शा भूगोल विज्ञानियों ने तैयार किया है उसमें अपना इंडिया, जो कि तब ‘राष्ट्र’ नहीं था, वह अफ्रीका, मेडागास्कर, अंटार्कटिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच वैसे ही फंसा हुआ था, जैसे मुकेश सहनी बिहार की सियासत में फंस गए हैं.

तो इसी पेंजिया पर, आज से कोई 23 करोड़ साल पहले डायनोसोरस का अस्तित्व सामने आया था.

लेकिन धरती सियासत की तरह बेचैन बनी रही. प्लेटों में संयुक्त परिवार से छिटकते बच्चों की तरह गतिविधियां जारी रहीं. कोई 17.5 करोड़ साल पहले जुरासिक युग (इसको सतयुग, त्रेतायुग की तरह का युग समझ कर व्याकुल नहीं होना है, ‘एरा’ को मैंने ‘युग’ लिख दिया है) में धरती फिर सन सतहत्तर वाली जनता पार्टी की तरह बिखरने लगी.

पहले तो इंदिरा काल के कांग्रेस की तरह पेंजिया भी दो-फाड़ हो गया. उत्तर वाला हिस्सा 'लॉरेशिया' कहा गया. इसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया (अपना इंडिया उस वक्त एशिया में नहीं था) का हिस्सा शामिल था. दक्षिण वाले महाद्वीपीय टुकड़े को 'गोंडवानालैंड' कहा गया. इस हिस्से में थे अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया और हां, इसी में था इंडिया दैट इज भारत, जो तब वेस्टफेलिया की संधि से निकली परिभाषा के मुताबिक ‘राष्ट्र’ नहीं था.

लेकिन गोंडवाना से आपको कुछ याद नहीं आ रहा? यह शब्द मध्य भारत की एक जनजाति गोंड के नाम पर रखा गया है.

लेकिन तब इस दोनों बड़े दलों में भी जनता पार्टी सरीखा बिखराव चलता रहा. आज से कोई 15.8 करोड़ साल पहले भारत और मेडागास्कर अफ्रीका से वैसे ही अलग हो गए जैसे जनता नामधारी दल से समता पार्टी हुई थी. और फिर 13 करोड़ साल पहले ये दोनों अंटार्कटिका से अलग हो गए.

लेकिन भारत के मन में कुछ और था. वह उस वक्त भी भारत नेहरू के गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पालन कर रहा था और कोई 9 करोड़ साल पहले भारत ने मेडागास्कर से भी राह जुदा कर ली और धीरे-धीरे रूस की तरफ (मने उत्तर की तरफ) कदम बढ़ाने शुरू कर दिए. 9 करोड़ साल पहले भारत की विदेश नीति नेहरू की नीति का पालन कर रही थी. इसको कहते हैं महानता. बूझे?

वली मोहम्मद वली ने लिखा है न,

किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता

खैर, भारतीय भूखंड उत्तर की तरफ सरकता रहा. उत्तर से उसकी नजदीकी वैसे ही बनी रही जैसे यूक्रेन संकट के बावजूद भारत अप्रत्यक्ष रूप से रूस के साथ बना रहा. वैसे ही, जैसे अदीब सहारनपुरी ने लिखा है.

मंज़िलें न भूलेंगे राह-रौ भटकने से
शौक़ को तअल्लुक़ ही कब है पाँव थकने से

लेकिन जब मिलन होता है तो विस्फोट भी होता है (यार, मुझे यहां विस्फोट की जगह कुछ और लिखना था) तो 'री-यूनियन हॉटस्पॉट' पर जैसे ही अपना वाला टुकड़ा गुजरा, ज्वालामुखीय गतिविधियां शुरू हो गईं. इलाका वही मुंबई के आसपास का पश्चिमी घाट वाला है. आप कभी माथेरान जाएं तो पच्छिम की तरफ मुंह करके खड़े होंगे, तो आपको इस भूवैज्ञानिक घटना के सुबूतों के दीदार भी होंगे.

लेकिन यह ज्वालामुखीय क्रिया वैसी नहीं थी जैसी जूपिटर पर तब फूटती है जब धरती पर साबू को गुस्सा आता है. ज्वालामुखीय विस्फोट से अपन आम तौर पर यही मानते हैं कि टीप जैसा तिकोना पहाड़ होगा और उसकी चोटी से जोरदार बम जैसा धमाका होगा. आग की लपटें निकलेंगी और धुआं निकलेगा. पर यहां ज्वालामुखीय गतिविधियां वैसी नहीं थीं.

यहां की घटना तो वैसी थी कि जैसे बड़े फोड़े पर सुंदर नर्स ने हौले से चीरा लगा दिया हो, आप नर्स की लिपस्टिक का शेड समझने की कोशिश में मीठे दर्द को भूल जाएं और मबाद आराम से, रिस-रिसकर मुहब्बत की तरह फैल रहा हो, फैलता ही जा रहा हो और इतना फैला हो कि पूरा दक्कन ट्रैप बन जाए. मने मुंबई से लेकर मधुपुर तक और हरिलाटांड़ से लेकर हैदराबाद तक, पूरा लावा फैल गया. एक दम पतला लावा, जैसे पतला दही चूड़े पर फैल जाता है.

जारी

Monday, August 28, 2017

टाइम मशीनः विद्यापति की जिद

#टाइममशीन #गंगा #एकदा #विद्यापति

चार कहार पालकी लिए जा रहे थे. पालकी में थे आखिरी सांसे गिन रहे मैथिल-कोकिल विद्यापति. गंगाभक्त विद्यापति अपने आखिरी दिन गंगातट पर बिताना चाहते थे. सो दुलकी चाल चल रहे कहार पालकी लिए सिमरिया घाट को जा रहे थे.

आगे-आगे पालकी लेकर कहरिया और पीछे-पीछे महाकवि के सगे-सम्बन्धी। अलसभोर से चलते-चलते सांझ ढल आई तो विद्यापति ने कहारों से पूछा: "गंगा और कितनी दूर हैं?"
"ठाकुरजी, करीब पौने दो कोस।" कहरियों ने जवाब दिया। महाकवि एकाएक बोल उठे: "पालकी यहीं रोक दो। गंगा यहीं आएंगी।"
"ठाकुरजी, गंगा यहां से दो कोस दूर हैं। वह यहां कैसे आएगी? धीरज धरिए, एक घंटे के अन्दर हमलोग सिमरियाघाट पहुंच जाएंगे।"
विद्यापति अड़ गएः "अगर एक बेटा जीवन के अन्तिम क्षणों में अपनी मां से मिलने इतनी दूर आ सकता है तो क्या गंगा पौने दो कोस भी न आएंगी?"
खैर, लोगों ने इसको विद्यापति का बुढ़भस समझा. लेकिन आश्चर्य! सुबह जब सब जगे तो देखा गंगा हहराती हुई वहां से कुछ ही दूर बह रही थी.
विद्यापति मुदित मन गा उठेः 
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे
छोड़इत निकट नयन बह नीरे।।
विद्यापति ने वहीं प्राण त्यागे. लेकिन आज भी समस्तीपुर से थोड़ा आगे मऊबाजितपुर नाम की जगह पर गंगा अपनी मूल धारा से थोड़ा उत्तर खिसकी दिखती है.

Tuesday, August 8, 2017

टाइम मशीनः शिवः अमर्ष

सती के अथाह प्रेम में डूबे शिव उनकी बेजान देह लिए हिमालय की घाटियों-दर्रों में भटकते रहे. न खाने की सुध, न ध्यान-योग की. सृष्टि में हलचल मच गई, सूर्य-चंद्र-वायु-वर्षा सबका चक्र गड़बड़ हो गया.

तारकासुर ने हमलाकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था. प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी. तारकासुर की अंत केवल शिव की संतान ही कर सकती थी, सो ब्रह्मा चाहते थे कि अब किसी भी तरह शिव का विवाह हो जाए. बिष्णु ने अपने चक्र से सती की देह का अंत तो कर दिया, लेकिन महादेव का बैराग बना रहा. 

चतुर इंद्र ने प्रेम के देवता कामदेव को बुलाया था. 

कामदेव जानते थे शिव को. उनकी साधना के स्तर को और उनके प्रचंड क्रोध को भी. इंद्र का आदेश था तो कामदेव ने डरते-डरते हां कर दी थी।
कामदेव कैलाश पहुंचे तो वहां का बर्फ़ीला वातावरण देखकर निराश हो गए. इस निर्जन में साधना-तपस्या तो की जा सकती है, प्रेम के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं. कामदेव ने कैलाश के इस बर्फीले मौसम को वसन्त में बदल दिया. हल्की-हल्की बयार बहने लगी, पत्थरों की जगह फूल खिल गए, भौंरो की गुनगुनाहट गूंजने लगी, हवा में खुशबू तैरने लगी और पूरे माहौल में फगुनाहट चढ़ आया. नदियों का कल-कल बहता पानी, फूलों की क्यारियां...प्रेम के लिए ज़रूरी हर चीज पैदा कर दी थी कामदेव ने।

लेकिन कामदेव भूल गए थे शिव को कौन बांध सका है आजतक...जिसकी मरजी से हवाएं चलती हों, सूरज निकलता हो, चांद-सितारे जगमगाते हों, धरती घूमती हो, समंदर में लहरें उछाहें मारती हो, उसको कामदेव बांधने चले थे!

कामदेव ने अपने प्रेम की प्रत्यंचा पर पुष्पबाण चढ़ाकर शिव की तरफ मोड़ा ही था कि अचानक मौसम बदल गया. नदियों का पानी खौलने लगा, धरती में दरारें पड़ गई और उनसे लावा बहने लगा. भयानक भू-स्खलन हुआ. जोर के बवंडर में शिव की तीसरी आंख खुल गई थी।

पलभर में कामदेव की देह में आग लग गई और वह भस्म होकर राख बन गए. 

Tuesday, July 25, 2017

टाइम मशीनः अनुरक्ति


शिव सीरीजः अनुरक्ति

गौरी के लिए रात-दिन बराबर हो गए. न नींद, न भूख-प्यास. आंखों में आंसू भरे रहते थे और हृदय में शिवजी। कभी कन्द-मूल-फल का भोजन होता, कभी जल और कभी तो कई-कई दिनों का उपवास. प्रेम में पड़ी गौरी के बचपने ने उनको उमा बना दिया तो भोजन के लिए पत्तों का भी त्याग करके वह ‘अपर्णा’ बन गईं.

नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु/नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु।।
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि/सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि।।


यह कमसिन उम्र और ऐसी घोर तपस्या. एक पैर पर खड़ी गौरी ने देखा एक साधु सामने खड़े थे, ये किसके प्यार में पड़ गई हो तुम बेटी! न रहने का ढंग, न खाने का शऊर, खुद क्या खाएगा तुम्हें क्या खिलाएगा? भांग-धतूरा?

एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन/नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन।।
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन/कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन।

न रूप, न गुण...सिर के सारे बाल सफेद...देह में राख मली हुई..हुंह अघोरी कहीं का...गौरी की आंखें क्रोध से लाल हो गईं. लेकिन साधु से कुछ न बोलते हुए वह कहीं और तपस्या करने जाने लगीं. लेकिन यह क्या, वही साधु सामने रास्ता रोककर खड़ा था. गौरी को गुस्सा आ गयाः क्यों जी, बड़े ढीठ हो। इतनी बातें कहीं, फिर भी समझ नहीं आता? किसने भेजा है तुम्हें, मुझे बहकाने के लिए?

साधु ने मुस्कुराते हुए बांहे फैला दीं। गौरी का गुस्सा बांध तोड़ने के लिए बेताब हो गयाः अरे दुष्ट साधु, तुम बातों से नहीं मानोगे? जानते नहीं मन ही मन मैं शिव को पति मान चुकी हूं और मेरे सामने ऐसी ओछी हरकत कर रहे हो? इससे पहले कि मैं तुम्हें शाप देकर भस्म कर दूं, निकलो यहां से। साधु मुस्कुरा उठे थे। लेकिन साधु को तुरंत अपनी गलती का अहसास हुआः साधु बने शिव ने खुद को देखा...और फिर असली रूप में आए. प्यार से पुकारा था उन्होंनेः देवि!

गौरी ने सिर उठाकर देखा तो सामने शिव...उनकी पूरी दुनिया. उनके जीवन का लक्ष्य़...वह ख़ुद. शिव कौन? खुद गौरी ही तो!

गौरी और शिव एक हो गए. प्रेम की बेल हरी हो गई.

Wednesday, July 19, 2017

टाइम मशीनः शिवः खंड चारः भस्मांकुर

 भस्मांकुर 


बारात शहर के ठीक बीचों-बीच बाज़ार से गुज़र रही थी. बारात में, भूत-प्रेत- राक्षस- किन्नर-चुड़ैलें- किच्चिनें...बैताल, ब्रह्मराक्षस हैं...कोई दांत किटकिटाता...कोई शंख बजाता...कोई दुंदुभी पीटता...

गौरा तोर अंगना/ बड़ अजगुत देखल तोर अंगना
एक दिस बाघ-सिंह करे हुलना/ दोसर बरद छह सेहो बऊना...
गौरा तोर अंगना



उधर, महल में बड़ी गहमा-गहमी थी। बारात दरवज्जे पर आ गई है. गौरी की सखियां बेहद हैरत में थीः दूल्हा! मत मूछो दिदिया। पूरी देह में राख, माला की जगह नाग, बाल तो जाने कब से नहीं धोए...रथ की जगह बैल पर सवार हैं दूल्हे शिव.

सखियां ठठाकर हंस पड़ीं. लेकिन गौरी की आंखों में खुशियां दमक रही थीं. शिव को जो नहीं जानता, वह उनके रूप पर जाएगा, जो जानता है वह मन को पढ़ेगा. मेरे शंकर! मेरे भोलेः गौरी का मन हो रहा था वह भी झरोखे में जाकर नंदी बैल पर सवार भोलेनाथ को देखे,
सखियां गा उठी थीं,
शिव छथि लागल दुआरी, गे बहिना,
शिव छथि लागल दुआरी
इंद्र चंद्र दिग्पाल वरूण सब,
चढ़ि-चढ़ि निज असवारी गे बहिना
शिव छथि लागल दुआरी...

पिता पर्वतराज ने शिव से उनका वंश पूछा था. शिव कहीं शून्य में ताकते चुपचाप बैठे रहे. फुसफुसाहटें तेज़ हो गईं. सन्नाटा खिंच गया।

गौरी की मां मैना ने नारद को टहोका दियाः अब कुछ बोलते क्यों नहीं? बताइए न पहुना के खानदान के बारे में?

नारद ने कहाः ‘पर्वतराज, भगवान महादेव स्वयंभू हैं. इन्होंने खुद की रचना की है. इनका एक ही वंश है – ध्वनि. प्रकृति में अस्तित्व में आने वाली पहली चीजः ध्वनि... यह ध्वनि है- ओम्...

नारद ने कहा ओम्...और उसके साथ ही पूरी प्रकृति से आवाज़ आई
ओम...हवा ने, नदियो ने, पेड़ों ने, समंदर ने, पत्थरों ने, चिड़ियो ने, तितलियो ने...सबने एक साथ दोहरायाः ओम्...

पर्वतराज समझ गए. वक्त जयमाला का आ पहुंचाः लेकिन गौरी
एक पल के लिए रुकी थी. जयमाला से ठीक पहले गौरी ने शिव के
सामने अपनी हथेली खोल दी थी. उनकी हथेली में थोड़ी राख थी।
कामदेव की देह की राख.

शिव मुस्कुराए और उन्होंने वह राख चुटकियों मे उठाकर विवाह मंडप के नीचे डाल दियाः सबने देखा, वहां एक अंकुर निकल आया था.

फिर शिव ने सबको कहाः कामदेव बिना शरीर जगत के हर जीव में मौजूद रहेंगे...प्रेम के रूप में. गौरी ने शिव को और शिव ने गौरी को जयमाला पहनाई तो गणों ने जयघोष कियाः हर-हर महादेव!

Saturday, July 8, 2017

टाइम मशीन चारः अमर्ष

सती के अथाह प्रेम में डूबे शिव उनकी बेजान देह लिए हिमालय की घाटियों-दर्रों में भटकते रहे. न खाने की सुध, न ध्यान-योग की. सृष्टि में हलचल मच गई, सूर्य-चंद्र-वायु-वर्षा सबका चक्र गड़बड़ हो गया.
तारकासुर ने हमलाकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था. प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी थी. तारकासुर की अंत केवल शिव की संतान ही कर सकती थी, सो ब्रह्मा चाहते थे कि अब किसी भी तरह शिव का विवाह हो जाए. बिष्णु ने अपने चक्र से सती की देह का अंत तो कर दिया, लेकिन महादेव का बैराग बना रहा.
चतुर इंद्र ने प्रेम के देवता कामदेव को बुलाया था.
कामदेव जानते थे शिव को. उनकी साधना के स्तर को और उनके प्रचंड क्रोध को भी. इंद्र का आदेश था तो कामदेव ने डरते-डरते हां कर दी थी।

कामदेव कैलाश पहुंचे तो वहां का बर्फ़ीला वातावरण देखकर निराश हो गए. इस निर्जन में साधना-तपस्या तो की जा सकती है, प्रेम के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं. कामदेव ने कैलाश के इस बर्फीले मौसम को वसन्त में बदल दिया. हल्की-हल्की बयार बहने लगी, पत्थरों की जगह फूल खिल गए, भौंरो की गुनगुनाहट गूंजने लगी, हवा में खुशबू तैरने लगी और पूरे माहौल में फगुनाहट चढ़ आया. नदियों का कल-कल बहता पानी, फूलों की क्यारियां...प्रेम के लिए ज़रूरी हर चीज पैदा कर दी थी कामदेव ने।
लेकिन कामदेव भूल गए थे शिव को कौन बांध सका है आजतक...जिसकी मरजी से हवाएं चलती हों, सूरज निकलता हो, चांद-सितारे जगमगाते हों, धरती घूमती हो, समंदर में लहरें उछाहें मारती हो, उसको कामदेव बांधने चले थे!
कामदेव ने अपने प्रेम की प्रत्यंचा पर पुष्पबाण चढ़ाकर शिव की तरफ मोड़ा ही था कि अचानक मौसम बदल गया. नदियों का पानी खौलने लगा, धरती में दरारें पड़ गई और उनसे लावा बहने लगा. भयानक भू-स्खलन हुआ. जोर के बवंडर में शिव की तीसरी आंख खुल गई थी।
पलभर में कामदेव की देह में आग लग गई और वह भस्म होकर राख बन गए.

Tuesday, July 4, 2017

टाइम मशीन 3ः शिवः बैराग

अपने घर विशाल यज्ञ की सफलता से सम्मोहित दक्ष प्रजापति ने समारोह में दामाद शिव को न्योता नहीं दिया था. अभिमान से बेटी सती को सुनाया था दक्ष नेः "अघोरी शिव देवताओं में उठने-बैठने लायक नहीं. देवताओं से लकदक कपड़े, सुगंधित तेल-फुलेल और कीमती गहने...कुछ भी तो नहीं पाखंडी शिव के पास." सती की बहनें ओट से खिलखिला पड़ी थीं।

सती का चेहरा गुस्से और अपमान से लाल पड़ता चला गया। उसके खुद के पिता ने त्यागी, सहनशील, सबसे प्रेम करने वाले शिव को पाखंडी कहा! सती गुस्से में भर उठीः मान-अपमान से परे शिव विषपायी हैं तो वह तांडव भी करते हैं!

मानो यह चेतावनी थी आने वाले विनाश की...और देखते ही देखते सती विशाल यज्ञकुंड के भीतर कूद गई थीं.

सन्नाटा छा गया। ऋषियों का मंत्रजाप रुक गया। मंडप के किनारे बज रही वीणाओं की झनकार थम गई। लोगो की मानो सांस रूक गई। सूरज की रौशनी का तेज खत्म हो गया, हवा भी स्थिर हो गई।

दक्ष को काटो तो खून नहीं। वह शिव के विरोधी तो थे लेकिन उनकी अपनी ही बेटी उनकी दुश्मनी की बलि चढ़ गई थी। सती की मां आंगन में पछाड़े खा-खाकर रोने लगी थीं।

पता नहीं कैसे, अचानक चारों तरफ से काले-काले बादल घिर आए थे। घुप्प अंधेरा छा गया। तेज़ हवाएं चलने लगीं। इस मौसम में बारिश नहीं होती थी कभी दक्ष के राज्य में, लेकिन आसमान से कड़कती बिजली के बीच न जाने कैसे मोटे-मोटे बड़े-बड़े ओले गिरने लगे, और बारिश की तो मत पूछिए। धारासार! इतनी जोरदार बरसात कि एक हाथ दूर कुछ नजर न आता था। सारे देवता और आम लोग मंडप से उठकर ओट की तलाश करने लगे थे।

अंधेरे और बरसात के बीच कुछ भी तभी नजर आता था, जब बादलों में तेज़ बिजली कड़कती थी। महल और मंडप की सारी रौशनियां पहले ही बुझ गई थीं। घुप्प अंधेरे में बस एक रौशनी थी, उस हवन कुंड की, जिसमें सती ने कूदकर जान दे दी थी। पवित्र माहौल अचानक डरावना हो गया था।

हवन कुंड की बुझी हुई आग में से बस लाल रंग के अंगारों की रौशनी थी और उसी रौशनी में सबने देखाः जटाएं खोले, हाथों में त्रिशूल लिए, बाघों की खाल कमर में लपेटे, एक भयानक-सा साया वहां खड़ा है। भयानक सायाः जी नहीं, यह तो गुस्से में भरे शिव खुद आ पहुंचे थे। रुद्राक्ष की मालाएं टूटकर नीचे बिखर गईं थी। जिधर देखो सांप ही सांप नजर आ रहे थे।

सती के अंगरक्षक बनकर आए वीरभद्र के ललकारते ही शिव के गण डमरू बजाते हुए पूरे आंगन में फैल गए। लोग सिहर उठे। डमरू की आवाज उस वक्त हमेशा की तरह आशीर्वाद जैसी नहीं, बल्कि दहशत लाने वाली लग रही थी और लग रहा था शिव डमरू की ताल पर नाच रहे होः तांडव नाच।

हर कोई बस अपनी सांस रोके अगली घटना का इंतजार कर रहा था।

पलक तक नहीं झपका सका था कोई कि दक्ष प्रजापति का कटा हुआ सिर आंगन में लुढ़कता हुआ नज़र आया। हर कोई खामोश था। सब जानते थे गलती दक्ष की थी। सबने उसके बाद इतना ही देखाः शिव ने हवनकुंड में सती की बेजान देह उठाकर कंधे पर रखी और चल दिए। 


इसकी पूरी कहानी को आप यहां य़ू-ट्यूब पर सुन सकते हैं---
शिव-सती की कहानी

Friday, June 30, 2017

टाइम मशीन 2ः क़िस्सा नल-दमयंती

नल को दमयंती से प्यार था और दमयंती को नल से. न कभी मिले, न कभी देखा...बस आवाज़ सुनी. दोनों सपनों में एक-दूसरे को देखते, कभी कश्मीर की वादियों में मिलते. चिनार के नीचे बिछी बर्फ़ीली चादर पर अंधेरी रातों में चलते, नश्तर चुभोती हवा में हाथ थामे सबसे चमकते तारे को निहारते और फिर सीसीडी के भीतर जाकर हॉट-चाकलेट और ब्राउनी ऑर्डर करते. 

वे कभी जंगलों में मिलते, कभी रेगिस्तान में. कभी दमयंती नल को अपने हाथों से आलू के परांठे खिलाती, कभी दोनों साथ झूले पर झूलते हुए अतीत और भविष्य बतियाते.
लेकिन दोनों कभी मिले नहीं थे. 

...और अब दमयंती का स्वयंवर था. स्वयंवर में दिलेर और सुंदर राजकुमारों, कमनीय देवताओं की भीड़ में नल कहीं दुबका हुआ था.
देवताओं को भी दमयंती पसंद थी और उनतक दमयंती के मुहब्बत के क़िस्से पहुंच चुके थे. आनन-फानन में देवताओं ने नल का बाना धर लिया. दमयंती परेशान. पांच-पांच नल जैसे लोग! कौन है असली?
दमयंती पास गई तो देखाः पांच में से सिर्फ एक की परछाईं है, माथे पर पसीने की बूंद है, देह की एक ख़ास गंध है, जिसे सूंघकर दमयंती ने कहा था- "मुझे तुम पसंद हो. तुम्हारी गंध भी."

दमयंती ने पसीने-देहगंध और परछाईं वाले इंसान नल को चुन लिया.

#टाइममशीन #एकदा #प्रेमकहानी

Monday, June 19, 2017

टाइम मशीन 1ः फौलाद

दोनों बालकों को दीवार में चिनवाया जा रहा था. मिस्त्री एक-एक ईंट रखता और दीवार ऊंची हो जाती. सरहिन्द के दीवान सुच्चा सिंह ने कई बार दोनों को समझाने की कोशिश की थीः इस्लाम अपना लो. आखिर, दोनों की उम्र ही क्या थी? बड़ावाला जोरावर सिंह करीब आठ साल का, और दूसरा फतेह तो सिर्फ छह का. लेकिन दोनों बालक तो मानो फौलाद के बने थे. डिगे तक नहीं. डिगते भी क्यों? आखिर दोनों फौलादी शख्सियत गुरु गोविन्द सिंह के बेटे थे. 

इनके दो भाई चमकौर में वीरगति हासिल कर चुके थे और इनके दादा गुरू तेगबहादुर ने दिल्ली में शहादत दी थी.
अचानक जोरावर की आंखों से आंसू बहने लगे थे. धारासार.
सुच्चा सिंह को लगा, शायद बच्चा डर गया हो, अब बात मान ले.
सुच्चा सिंह ने पूछाः क्यों जोरावर डर लग रहा है? रो क्यों रहे हो?
“दीवान साहब, डरते तो मुर्गे-तीतर हैं. हम क्यों डरें, हम तो दशमेश के बेटे हैं. ये आंसू तो इसलिए निकल रहे हैं क्योंकि मैं पैदा तो फतेह के बाद हुआ लेकिन आज शहादत की बारी आई, तो वह मुझसे पहले शहीद का दर्जा पा लेगा. मैं लंबा हूं न...”
सुच्चा सिंह अवाक् रह गया. दीवार चिनती गई, ऊंची...और ऊंची.