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Tuesday, June 17, 2025

चावल और भेड़ का जीन संपादनः जैव-तकनीक में भारत की तीन उपलब्धियां, जो भविष्य की नींव रखेंगी

-मंजीत ठाकुर

युद्ध के मैदान में पाकिस्तान को पीटने की खबरों के शोर-शराबों के बीच दो ऐसी खबरें आईं, जिन पर कम ही लोगों का ध्यान गया, लेकिन जिसका असर आने वाले वक्त में किसी क्रांति से कम नहीं होगा.

पहली, दुनिया में पहली बार भारत के कृषि वैज्ञानिकों ने जीनोम एडिटिंग के जरिए धान की दो नई किस्में तैयार की हैं. चावल की इन दो नई किस्मों को कम पानी और कम खाद तथा उर्वरकों की जरूरत होगी. ये बदलते मौसम के प्रति प्रतिरोधी गुणवत्ता वाली होंगी और इनकी पैदावार भी मौजूदा किस्मों की तुलना में तीस फीसद अधिक होगी. फसल भी सामान्य समय से बीस दिन पहले तैयार हो जाएगी. इन दो किस्मों के नाम डीआरआर-100 या कमला और पूसा डीएसटी राइस-1 रखे गए हैं और उम्मीद की जा रही है कि दोनों बीज देश के धान उत्पादन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकेंगे.

दूसरी खबर, कश्मीर से आई जो अभी पहलगाम आतंकवादी हमलों के बाद से नकारात्मक रूप से खबरों में बना हुआ था और ऑपरेशन सिंदूर में कश्मीर पाकिस्तान की ज़द में था. लेकिन, शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है और इसे एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में मील का पत्थर माना जा रहा है.

वैज्ञानिकों ने इस मेमने में 'मायोस्टैटिन' जीन को एडिट किया है. यह जीन शरीर में मांस बनने के लिए जिम्मेदार होता है. इस संपादन के बाद नई किस्म वाली इस भेड़ में मांस की मात्रा तीस फीसद तक बढ़ जाएगी. इससे पहले यह गुण भारतीय भेड़ो में नहीं होती थी.

कुछ लोगों में जीएम फसलों को लेकर एक चिंता रही है लेकिन ध्यान रहे कि जीनोम एडिटिंग जेनेटिक मॉडिफिकेशन या जीएम नहीं है. जीनोम एडिटिंग में उसी पौधे में मौजूद डीएनए में एडिटिंग के जरिए डीएनए सीक्वेंसिंग बदली जाती है. जीनोम एडिटिंग एक सटीक तकनीक है जिसमें किसी जीव के डीएनए में छोटे-छोटे बदलाव किए जाते हैं. इसमें किसी विशेष जीन को काटा, हटाया या बदला जा सकता है. यह प्रक्रिया आमतौर पर CRISPR-Cas9 जैसी तकनीकों से की जाती है. इस विधि में बाहरी डीएनए को जीव के जीनोम में नहीं जोड़ा जाता, बल्कि प्राकृतिक जीन को ही संशोधित किया जाता है.

वहीं जेनेटिक मोडिफिकेशन (जीएम) में किसी दूसरे जीव का जीन लेकर उसे लक्षित जीव में जोड़ा जाता है. मसलन, बैक्टीरिया का जीन यदि किसी पौधे में जोड़ा जाए तो वह पौधा कीट प्रतिरोधी बन सकता है. यह परिवर्तन स्वाभाविक रूप से नहीं होता और इसे ‘ट्रांसजेनिक’ प्रक्रिया कहा जाता है.

इस प्रकार, जीनोम एडिटिंग अधिक सटीक और प्राकृतिक उत्परिवर्तन के करीब मानी जाती है, जबकि जीएम तकनीक में बाहरी जीन जोड़ने से अधिक जैविक परिवर्तन होते हैं.

यह क्रांतियां मौन हैं लेकिन कुछ समय के बाद इनके मुखर होने के संकेत दिखने लगेंगे. जलवायु परिवर्तन और बारिश के पैटर्न में आ रहे बदलावों से फसल चक्र को फिर से दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. मॉनसून के बीच में आ रहे लंबे ड्राई स्पैल धान की पैदावार पर नकारात्मक असर डाल रहे हैं और सिंचाई पर निर्भरता बढ़ रही है, जबकि भूमिगत जल के सोते सूखते जा रहे हैं. डीजल या बिजली चालित पंपों से सिंचाई खेती में इनपुट लागत को बढ़ा रही है, इससे किसानों का मुनाफा सिकुड़ता जा रहा है.

दूसरी तरफ हमें और अधिक अन्न उपजाने की जरूरत है क्योंकि देश की आबादी डेढ़ अरब को पार कर गई है और खाद्यान्न आदि में आत्मनिर्भर ही नहीं, सरप्लस होकर ही हम किसी भी रणनीतिक चुनौतियों का सामना कर पाएंगे. खाद्य सुरक्षा के साथ ही, सरप्लस अनाज हमारे विश्व व्यापार को अधिक व्यापकता देगा.

लेकिन बड़ा फायदा यह होगा कि पंजाब में चावल उगाने के लिए जो 5000 लीटर प्रति किलोग्राम और बंगाल में जो 3000 लीटर प्रति किलोग्राम पानी की जरूरत होती है उसको कम किया जा सकेगा. बढ़ती आबादी और कम होते जल संसाधनों के मद्देनजर यह बेहद महत्वपूर्ण खोज है.

शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ऐंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) के वैज्ञानिकों ने भारत की पहली
जीन संपादित (जीन एटिटेड) भेड़ की किस्म भी तैयार की है 


इन सब चुनौतियों के मद्देनजर ही, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘माइनस 5 और प्लस 10’ का नारा दिया है. इसके तहत, धान के मौजूदा रकबे में से पांच मिलियन हेक्टेयर कम क्षेत्र में दस मिलियन टन ज्यादा चावल उगाने का संकल्प है. खाली हुए पांच मिलियन रकबे को दलहन और तिलहन के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश होगी. किसानों को अत्यधिक पानी की खपत वाली चावल की खेती से दलहन और तिलहन की ओर ले जाने की कोशिशें अभी बेअसर साबित हुई हैं.

गेहूं और चावल की खेती पर तिलहन और दलहन की तुलना में प्राकृतिक मार कम पड़ती है. एमएसपी के कारण पैदावार बेचने में भी दिक्कत नहीं होती. बहरहाल, जीनोम एडिटिंग का अन्य फसलों के बीजों पर भी प्रयोग होने लगे तो किसान अपनी लाभकारी उपज के प्रति आश्वस्त हो सकेगा. और इसकी मिसाल है, भेड़ की नई जीन संपादित नस्ल, जो अधिक मांस उत्पादित करने में सक्षम होगी.

जलवायु परिवर्तन और तेजी से घटते भूमिगत जल भंडारों के मद्देनजर अगले दस साल में दुनिया में खाद्य उत्पादन रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाएगा. भारत में जैव-प्रौद्योगिकी की यह नई खोजें भविष्य की ओर बढ़ाया मजबूत कदम है.

Sunday, August 29, 2021

दुनिया का पहला सच्चा वैज्ञानिक इब्न अल-हैतम

हुआ यूं कि मिस्र का खलीफा नील नदी में हर साल आने वाले बाढ़ से बड़ा हैरान था. उसने एक साइंसदान को कहा कि वह नील नदी की बाढ़ से निबटने का कोई हल निकाले. वह वैज्ञानिक उन दिनों बसरा में था और उसने दावा किया कि नील नदी के बाढ वाले पानी को पोखरों और नहरों के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है और उस पानी को गर्मी के सूखे दिनों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

अपना यह सुझाव लेकर, वह वैज्ञानिक काहिरा आया, और तब जाकर उसे यह इल्म हुआ कि इंजीनियरिंग के लिहाज से उसका सिद्धांत अव्यावहारिक है. लेकिन मिस्र के क्रूर और हत्यारे खलीफा के सामने अपनी गलती मान लेना, अपने गले में फांसी का फंदा खुद डालने जैसा ही था, ऐसे में उस वैज्ञानिक ने तय किया कि सजा से बचने के लिए वह खुद को पागल की तरह पेश करे.

नतीजतन, खलीफा ने उसे मौत की सजा तो नहीं दी, लेकिन उसको उसी के घर में नजरबंद कर दिया. उस वैज्ञानिक को मनमांगी मुराद मिल गई. अकेलापन और पढ़ने के लिए बहुत कुछ.

दस साल बाद जब उस खलीफा की मौत हुई, तब जाकर वैज्ञानिक छूटा. यह वापस बगदाद लौट गया और तब तक उसके पास बहुत सारे ऐसे सिद्धांत थे, जिसने उसे दुनिया का पहला सच्चा वैज्ञानिक बना दिया.

उस वैज्ञानिक का नाम था, इब्न अल-हैतम जिसने दस साल की नजरबंदी के दौरान भौतिकी और गणित के सौ से अधिक काम पूरे कर लिए थे.

हम सब जानते हैं और पढ़ते आ रहे हैं कि सर आइजक न्यूटन ही दुनिया के अब तक के सबसे महान वैज्ञानिक हुए हैं, खासकर भौतिकी (फिजिक्स) की दुनिया में उनका योगदान अप्रतिम है.

सर आइजक न्यूटन को आधुनिक प्रकाशिकी (ऑप्टिक्स) का जनक भी कहा जाता है. न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गतिकी के अपने नियमों के अलावा लेंसों और प्रिज्म के अपने कमाल के प्रयोग किए थे. हम सबने ने अपने स्कूली दिनों में, प्रकाश के परावर्तन और अपवर्तन के उनके अध्ययन के बारे में जाना है और यह भी कि प्रिज्म से होकर गुजरने पर प्रकाश सात रंगों वाले इंद्रधनुष में बंटकर दिखता है.

लेकिन, न्यूटन ने भी प्रकाशिकी के अपने अध्ययन के लिए एक मुस्लिम वैज्ञानिक की खोजों का सहारा लिया है जो न्यूटन से भी सात सौ साल पहले हुए थे.

वैसे, आमतौर पर यही माना जाता है, और खासतौर पर विज्ञान के इतिहास की चर्चा करते समय यही कहा जाता है कि रोमन साम्राज्य के उत्कर्ष के दिनों के बाद और आधुनिक यूरोप के रेनेसां (नवजागरण) की बीच की अवधि में कोई खास वैज्ञानिक खोजें नहीं हुईं. पर यह एकतरफा बात है और जाहिर है, भले ही यूरोप अंधकार युग में रहा हो, पर यह जरूरी नहीं है कि बाकी दुनिया में भी ज्ञान के मामलें में अंधेरा छाया था. असल में, यूरोप के अलावा बाकी जगहों पर बदस्तूर वैज्ञानिक खोजें चल रही थीं.

अरब प्रायद्वीप के इलाके की बात करें तो नवीं से तेरहवीं सदी के बीच का दौर वैज्ञानिक खोजों के लिहाज से सुनहरा दौर माना जा सकता है.

इस दौर में गणित, खगोल विज्ञान, औषधि, भौतिकी, रसायन और दर्शन के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई. इस अवधि के बहुत सारे विद्वानों और वैज्ञानिकों में एक नाम था इब्न अल-हैतम का, जिनका योगदान सबसे बड़ा माना जा सकता है.

अल-हसन इब्न अल-हैदम का जन्म 965 ईस्वी में इराक में हुआ था और उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तौर-तरीकों का जनक माना जाता है.

आमतौर पर माना जाता है कि वैज्ञानिक तौर-तरीकों से खोज करने में घटनाओं की परख, नई जानकारी हासिल करना या पहले से मौजूद जानकारी को ठीक करना या उसे प्रेक्षणों तथा मापों के आंकड़ों के आधार पर फिर से साबित करना, संकल्पनाएं नाकर उनके आंकड़े जुटाना है और इस तरीके की स्थापना का श्रेय 17वीं सदी में फ्रांसिस बेकन और रेने डिस्कार्तिया ने की थी, पर इब्न अल-हैतम यहां भी इनसे आगे हैं.

प्रायोगिक आंकड़ों पर उनके जोर और एक के आधार पर कहा जा सकता है कि इब्न अल-हैदम ही इस ‘दुनिया के पहले सच्चे वैज्ञानिक’ थे.

इब्न अल-हैदम ही पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह बताया कि हम किसी चीज को कैसे देख पाते हैं.

उन्होंने अपने प्रयोगों के जरिए यह साबित किया कि कथित एमिशन थ्योरी (जिसमें बताया गया था कि हमारी आंखों से चमक निकलकर उन चीजों पर पड़ती है जिन्हें हम देखते हैं) जिसे प्लेटो, यूक्लिड और टॉलमी ने प्रतिपादित किया था, गलत है. इब्न अल-हैदम ने स्थापित किया कि हम इसलिए देख पाते हैं क्योंकि रोशनी हमारे आंखों के अंदर जाती है. उन्होंने अपनी इस बात को साबित करने के लिए गणितीय सूत्रों का सहारा लिया था. इसलिए उन्हें पहला सैद्धांतिक भौतिकीविद भी कहा जाता है.

लेकिन इब्न अल-हैदम की प्रसिद्धि पिन होल कैमरे की खोज के लिए अधिक है और इसतरह उनके हिस्से में प्रकाश के अपवर्तन (रिफ्रैक्शन) के नियम की खोज का श्रेय भी आना चाहिए. इब्न अल-हैदम ने प्रकाश के प्रकीर्णन (डिस्पर्शन) की खोज भी की कि किसतरह प्रकाश विभिन्न रंगों में बंट जाता है. इब्न अल-हैदम ने छाया, इंद्रधनुष और ग्रहणों का अध्ययन भी किया और उन्होंने यह भी बताया कि पृथ्वी के वायुमंडल से किस तरह प्रकाश का विचलन होता है. इब्न अल-हैदम ने वायुमंडल की ऊंचाई भी तकरीबन सही मापी और उनके मुताबिक पृथ्वी के वायुमंडल की ऊंचाई करीबन 100 किमी है.

कुछ जानकारों का कहना है कि इब्न अल-हैतम ने ही ग्रहों की कक्षाओं की व्याख्या की थी, और उनकी इसी बात के आधार पर बाद में कॉपरनिकस, गैलीलियो, केपलर और न्यूटन ने ग्रहों की गतिकी का सिद्धांत दिया.

(यह लेख इल्म की दुनिया सीरीज का हिस्सा है)

Sunday, June 13, 2021

क्या आप डॉ बुशरा अतीक को जानते हैं?

डॉ. बुशरा अतीक कई मायनों में प्रेरणास्रोत हैं. पहली बात तो यही कि वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की छात्रा रही हैं और उन्हें पिछले साल 2020 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान पुरस्कार शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया गया है. उन्हें यह पुरस्कार मेडिकल साइंस के क्षेत्र में उनके अहम योगदान के लिए दिया गया है.

यह योगदान छोटा-मोटा नहीं है.

आइआइटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ बायोलजिकल साइंसेज ऐंड बायोइंजीनियरिंग में प्रोफेसर बुशरा अतीक की अगुआई में कई संस्थानों को मिलाकर बनी टीम ने एक अध्ययन किया और कैंसर के 15 फीसद मरीजों पर असर डालने वाले बेहद आक्रामक स्पिंक 1-पॉजिटिव (SPINK1-positive) प्रोस्टेट कैंसर के एक सब-टाइप की मॉलेक्यूलर मैकेनिज्म और उसकी पैथोबायोलजी का पता लगा लिया.

डॉ अतीक ने अपनी बीएससी, एमएससी और पीएचडी का पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी से की. बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के मिशीगन सेंटर फॉर ट्रांसलेशनल पैथोलजी में उन्होंने डॉ अरुल चिन्नैय्या के तहत पोस्टडॉक्टोरल फेलो के रूप में प्रशिक्षण हासिल किया.

डॉ अतीक के शोध में कैंसर बायोमार्कर्स, कैंसर जीनोमिक्स, नॉन-कोडिंग आरएनए, ड्रग टारगेट और प्रोस्टेट कैंसर जैसे विषय शामिल हैं.

उनका काम प्रोस्टेट, स्तन और बड़ी आंत के कैंसर पर केंद्रित है. उनका शोध कैंसर बायोमार्कर और मॉलेक्यूलर बदलावों पर आधारित है जिससे प्रोस्टेट और स्तन कैंसर में बढ़ोतरी होती है.

वेबसाइट फर्स्टपोस्ट को दिए अपने इंटरव्यू में वह कहती हैं, “हमारी प्रयोगशाला कैंसररोधी उपचार के टारगेट्स की खोज करना चाहती है.” वह साथ में कहती हं कि इन टारगेट्स की पहचान से कैंसर का जल्दी ही पता लगाया जा सकेगा, और यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि जल्दी से पता लगने से कामयाबी के साथ उपचार होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.

2019 में, डॉ. अतीक ने उस टीम की अगुआई कर रही थी जिसने जिसने स्पिंक1 पॉजिटिव प्रोस्टेट कैंसर सबटाइप के आणविक तंत्र और रोगविज्ञान को खोज निकाला. डॉ अतीक ने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया, "हमने पाया कि EZH2 प्रोटीन का बढ़ा हुआ स्तर SPINK1 पॉजिटिव कैंसर में इन दो माइक्रोआरएनए के संश्लेषण में कमी को ट्रिगर करता है. और दो माइक्रोआरएनए के निम्न स्तर बदले में SPINK1 के अधिक उत्पादन की ओर ले जाते हैं.,

उन्होंने सीएसआइआर-सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ और कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के प्रोस्टेट कैंसर पर काम करने वाले अन्य समूहों के सहयोग से आइआइटी कानपुर के अन्य शोधकर्ताओं के साथ हाल के एक अध्ययन में इस बात का पता लगाया कि एंड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी, जिसका उपयोग प्रोस्टेट के उपचार के लिए किया जाता है, वह इसे ठीक करने के बजाय इसे बढ़ा देता है. प्रोफेसर अतीक ने रिसर्च मैटर्स को बताया, “फिलहाल, प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों के लिए एण्ड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी के व्यापक उपयोग को देखते हुए, हमारे निष्कर्ष खतरनाक हैं. प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों को एंटी-एंड्रोजन थेरेपी देने से पहले काफी सोच-विचार लेना चाहिए.”

अब बुशरा भारतीय आबादी के म्युटेशनल परिदृश्य को जीन सीक्वेंसिंग के जरिए खोजना चाहती हैं. इसके साथ ही वह ऐसी विधि भी खोज निकालना चाहती हैं जिसके तहत प्रोस्टेट कैंसर के खास बायोमार्कर्स विकसित किए जा सकें और जिसकी पहचान महज यूरिन टेस्ट के जरिए ही हो सके. अभी प्रोस्टेट ग्रंथि में 12 छेद मोटी सुइयों से करके बायोप्सी की जाती है और तब उस कैंसर का पता लगाया जाता है. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है, “बायोप्सी होते देखना ही काफी दर्दनाक है, और इस वजह से मुझे लगता है कि कोई खून के परीक्षण या यूरिन बेस्ड जांच का तरीका खोजा जाना चाहिए.” डॉ अतीक को लगता है कि प्रोस्टेट कैंसर की जांच के लिए यूरिन टेस्ट में बायोमार्कर्स खोजे जा सकते हैं.

भारत के सबसे बड़े विज्ञान पुरस्कार के बाद डॉ बुशरा अतीक के लिए उनका महिला होना मायने नहीं रखता. लेकिन करियर की शुरुआत में उनके एक सहपाठी ने उन्हें अंडर-ग्रेजुएट कॉलेज में टीचर बनने की सलाह दी थी. जाहिर है, डॉ. बुशरा ने उसकी बात को तवज्जो नहीं दी थी.

आज भी उनकी सलाह यही है, धीरज रखो और आलोचनाओं को आड़े न आने दो.

लगता तो यही है कि भारतीय विज्ञान का भविष्य डॉ बुशरा अतीक जैसे वैज्ञानिकों के हाथ मे सुरक्षित है.

Monday, May 24, 2021

जब अंग्रेजों को पहली बार पड़ी थी रॉकेट की मार

वाकया 1780 का है. पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में अंग्रेजों और मैसूर के बीच युद्ध हो रहा था. इस लड़ाई को दूसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (एंग्लो-मैसूर वॉर) भी कहा जाता है. अंग्रेजों की अगुआई कर्नल विलियम बेली कर रहे थे और मैसूर का नेतृत्व हैदर अली के हथ में था. अचानक, एक उड़ता हुआ आग का गोला आया और अंग्रेजों के बारूद भंडार में आग लग गई. पर वह कोई तोप का गोला नहीं था, हैदर अली की सेना की तरफ से आवाज़ करती और सीटी बजाती हुई लंबी बारूद भरी बांस की नलियां उड़कर आतीं और अंग्रेजी सेना को ध्वस्त करती जा रही थी.

बराबरी में चल रहा यह युद्ध अचानक, अंग्रेजों के हाथ से निकल गया क्योंकि यह मुंजनीकें (रॉकेट) हजार गज दूर से चलाए जा रहे थे और अंग्रेजी बंदूकों में उतनी दूर मार करने की काबिलियत नहीं थी. अंग्रेज लोग पहली दफा रॉकेट देख रहे थे.

यह कमाल किया था मैसूर के रॉकेट दस्ते ने, और हैदर अली के वक्त में मैसूर की सेना में इस दस्ते में 1,200 लोग थे. इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया. शायद यह अंग्रेजों की भारत में सबसे बुरी हार थी. अंग्रेज हैरान थे कि आखिर कैसे हिंदुस्तानियों ने यह रॉकेट बनाया है!

बहरहाल, हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इन रॉकेटों का मैसूर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ी सेना ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ आंग्ल-मैसूर युद्ध में इस्तेमाल किया. बाद में, अंग्रेजों ने इस तकनीक में दिलचस्पी दिखाई और इसे 19वीं सदी में और अधिक विकसित किया. टीपू सुल्तान ने जब इसमें कुछ आवश्यक सुधार किए तो इनकी रेंज बढ़कर सवा मील (2 किमी के आसपास) हो गई.

इतिहासकारों के लिहाज से, विस्फोटकों से भरे रॉकेट का पहला प्रोटोटाइप हैदर अली ने विकसित किया था, जिसे उनके वारिस और बेटे टीपू सुल्तान ने आगे बढ़ाया. इनमें बारूद भरने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था और इसमें तलवारें जुड़ी होती थीं.

टीपू सुल्तान इस रॉकेट में संतुलन कायम करने के लिए इनमें बांस का भी इस्तेमाल किया था. उनके प्रोटोटाइप को आधुनिक रॉकेट का पूर्वज कहा जा सकता है. इसमें किसी भी अन्य रॉकेट की तुलना में अधिक रेंज, बेहतर सटीकता और कहीं अधिक विनाशकारी धमाका करने की क्षमता थी. इन विशेषताओं की वजह से इसे उस समय दुनिया का सर्वश्रेष्ठ हथियार माना जाने लगा.

1793 में भारत में ब्रिटिश सेनाओं के उप-सहायक जनरल मेजर डिरोम ने बाद में मैसूरियन सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाले रॉकेटों के बारे में कहा, “कुछ रॉकेटों में एक चैम्बर था, और वे एक शेल की तरह फटे; दूसरे रॉकेट, जिन्हें ग्राउंड रॉकेट कहा जाता है, उनकी गति सांप जैसी थी, और उनसे जमीन पर हमला करने पर, वे फिर से ऊपर उठते, और फिर जब तक उनमें विस्फोट खत्म नहीं हो जाता तब तक हमला करते।”

टीपू ने रॉकेट टेक्नोलॉजी पर और अधिक शोध करने के लिए श्रीरंगपटनम, बैंगलोर, चित्रदुर्ग और बिदानूर में चार तारामंडलपेट (तारों के बाज़ार) की स्थापना की.

यह कच्चे लोहे के बने रॉकेट अधिक ताकतवर होते थे क्योंकि इनके चैंबर लोहे के थे और यह बारूदी शक्ति का अधिक दवाब झेल सकते थे. इसलिए टीपू सुल्तान ने 1792 से 1799 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ इनका बड़ी कुशलता से इस्तेमाल किया.

टीपू सुल्तान ने एक मिलिट्री मैन्युअसल लिखा था जिसका नाम है फतह-उल-मुजाहिदीन जिसमें 200 रॉकेट विशेषज्ञों को हर मैसूरी ब्रिगेड में तैनात करने का उल्लेख है. मैसूर में 16 से 24 इन्फैट्री ब्रिगेड थे. इन रॉकेट चलाने वालों को लक्ष्य साधने की गणना करने के लिए बारीकी से प्रशिक्षित किया गया था. इन के रॉकेट लॉन्चर भी ऐसे थे जो लगभग एक साथ पांच से दस रॉकेट्स एक साथ लॉन्च कर सकते थे.

हालांकि, आज श्रीरंगपटनम में बहुत कुछ नहीं बचा है, जो टीपू सुल्तान और उनके बनाये रॉकेट के बारे में बता सके लेकिन विश्व सैन्य इतिहास पर मैसूरियन रॉकेट की छाप हमेशा रहेगी.