मेरे जीवन में दो चीज़े बड़ी प्रॉमिनेंट रहीं हैं, मैं थियेटर में आगे और कक्षा में पीछे बैठना ही पसंद करता हूं। लोगों को थोड़ा स्ट्रेंज लग सकता है, लेकिन है ये सच ही। वजह ये कि दोनों ही जगह पर एक्शन होता है। कक्षा में आगे बैठने वाले विद्यार्थी चुपचाप एकटक मास्साब के मुखमंडल को निहारा करते थे। हमारा इन चीज़ों में कोई भरोसा नहीं था। मैं और हमारे चार साथी साइंस की क्लास के सिवा हर क्लास में पिछली बेंचों पर बैठते थे।
मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे।
माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है।
होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.। बहरहाल, बात महज उन मास्साब की नहीं, यूं ही याद आ गए तो लिख दिया।
बात मैं अपनी जिंदगी में प्रॉमिनेंट चीजों की कर रहा था। पता नहीं क्यों मुझे वह चीजे ही पसंद आती हैं, जो दूसरे के लिए पसंदीदा नहीं होती। मैंने जीवन में जो चाहा, अबी तक मिला नहीं, चाहा कि दुनिया से अंग्रेजी और संस्कृत जैसे विषयों के व्याकरण मटियामेट हो जाएं.. नहीं हुए। थकहार कर कामचलाऊ अंग्रेजी सीखी। संस्कृत से तौबा ही कर ली। आगे पढ़ने की ज़रुरत ही नहीं थी।
मन में जबरदस्त इच्छा थी, लंबा होने की। किशोरावस्था में क्रेज़ था, ६ फुट २ इंच लंबा होने का। लंबाई का यह ग़ैर-सरकारी मानक अमिताभ ने तय कर दिया था। हम उसमें भी पीचे छूट गए, लंबाई ५ फुट १० इंच पर जाकर टिक गई। चाहते थे कि लड़कियों से बात करें लेकिन उस ज़माने में हमारी शकल इस कदर बेवकूफाना थी और हम इस कदर लिद्दड़ थे कि लड़कियां हमसे दूर भागती थीँ।
क्रिकेटर बनने की हसरत तो एक क्रिकेट बॉल के दाम सुनने के बाद ही पूरे हो गए। एक्टर बनने का विचार मन में भी नही आया। हां, फिल्मों में पार्श्व गायक हम ज़रुर बनना चाहते थे लेकिन उसमें कुछ बुनियादी दिक्कतें थीं। ऐसा नहीं कि गाना नहीं आता था। बस सुर-ताल थोड़े कमजो़र थे। ईमानदारी से कहें तो थोड़े नहीं बहुत कमजो़र थे। बस हमें पता नहीं चलता था कि कमजोर हैँ। हम उधर गाना शुरु करते, उधर कौए पेड़ से उड़ जाते।
बहरहाल, हसरतें खत्म नहीं हुई हैं। दुनिया भर घूमने की इच्छा है। अब इच्छा है कि सही मायनेमें अच्छा इंसना बनूं लेकिन हालात-ये हालात ही हैं जो फिल्मों में भी नायको को प्रति-नायक बना देते हैं- बनने नहीं दे रहे। बस मुंह में ऊंगली डालकर लोग झूठ-सच बुलवा रहे हैं।
मजा़ आता था। पिछली बेंच पर बैठकर हम आपस में इशारों में बातें करते। संस्कृत की किताब में भर कर इंद्रसभा और दफा ३०२ पढ़ते। दफा ३०२ में वैसे तो अपराध कथाएं होती थीं लेकिन हम खासतौर पर उन एकाध पैराग्राफ पर ध्यान जमाते जो ज़रा अश्लील होती थीँ। लेकिन वह अश्लीलता भी उतनी ही थोड़ी-सी थी, जितनी हमारे संस्कृत माटसा-ब की मूंछे।
माटसा-ब की मूछें नाक के पास तो दस-बारह बालों वाली होती थी, लेकिन होठों के कोर तक पहुंचते-पहुंचते उसकी आबादी वैसे ही घट जाती जैसे कि जर्मनी में इंसानों की घट रही है।
होठ जहां खत्म होते हैं वहा उनकी मूंछ में महज एक बाल बच पाता था. साइबेरिया निष्कासित सोवियत नागरिक-सा, या फिर किसी शापित एकांतवासी गंधर्व सरीखा। राजकुमार स्टाइल में मूंछें, करीने से तराशी हुई.। बहरहाल, बात महज उन मास्साब की नहीं, यूं ही याद आ गए तो लिख दिया।
बात मैं अपनी जिंदगी में प्रॉमिनेंट चीजों की कर रहा था। पता नहीं क्यों मुझे वह चीजे ही पसंद आती हैं, जो दूसरे के लिए पसंदीदा नहीं होती। मैंने जीवन में जो चाहा, अबी तक मिला नहीं, चाहा कि दुनिया से अंग्रेजी और संस्कृत जैसे विषयों के व्याकरण मटियामेट हो जाएं.. नहीं हुए। थकहार कर कामचलाऊ अंग्रेजी सीखी। संस्कृत से तौबा ही कर ली। आगे पढ़ने की ज़रुरत ही नहीं थी।
मन में जबरदस्त इच्छा थी, लंबा होने की। किशोरावस्था में क्रेज़ था, ६ फुट २ इंच लंबा होने का। लंबाई का यह ग़ैर-सरकारी मानक अमिताभ ने तय कर दिया था। हम उसमें भी पीचे छूट गए, लंबाई ५ फुट १० इंच पर जाकर टिक गई। चाहते थे कि लड़कियों से बात करें लेकिन उस ज़माने में हमारी शकल इस कदर बेवकूफाना थी और हम इस कदर लिद्दड़ थे कि लड़कियां हमसे दूर भागती थीँ।
क्रिकेटर बनने की हसरत तो एक क्रिकेट बॉल के दाम सुनने के बाद ही पूरे हो गए। एक्टर बनने का विचार मन में भी नही आया। हां, फिल्मों में पार्श्व गायक हम ज़रुर बनना चाहते थे लेकिन उसमें कुछ बुनियादी दिक्कतें थीं। ऐसा नहीं कि गाना नहीं आता था। बस सुर-ताल थोड़े कमजो़र थे। ईमानदारी से कहें तो थोड़े नहीं बहुत कमजो़र थे। बस हमें पता नहीं चलता था कि कमजोर हैँ। हम उधर गाना शुरु करते, उधर कौए पेड़ से उड़ जाते।
बहरहाल, हसरतें खत्म नहीं हुई हैं। दुनिया भर घूमने की इच्छा है। अब इच्छा है कि सही मायनेमें अच्छा इंसना बनूं लेकिन हालात-ये हालात ही हैं जो फिल्मों में भी नायको को प्रति-नायक बना देते हैं- बनने नहीं दे रहे। बस मुंह में ऊंगली डालकर लोग झूठ-सच बुलवा रहे हैं।
3 comments:
हजारो ख्वाहिशे ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले....चचा .गालिब कह गये है...ना
वाह जी वाह तभी कहते हैं होत विरवान के चिकने पात
आप बडे होकर जरूर कुछ बनोगे
very good, really interesting!
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