Saturday, June 13, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात



अपने स्कूली दिनों में कायदे से बेवकूफ़ ही था। पढ़ने-लिखने से लेकर सामाजिक गतिविधियों तक में पिछली पांत का खिलाड़ी। क्रिकेट को छोड़ दें, तो बाकी किसी चीज़ में मेरी दिलचस्पी थी ही नहीं। बात तबकी है जब मैं महज सात-आठ साल का रहा होऊंगा।.. मेरे छोटे-से शहर मधुपुर में तब, दो ही सिनेमा हॉल थे, वैसे आज भी वही दो हैं।


लेकिन सिनेमा से पहली मुलाकात, याद नहीं कि कौन सी फिल्म थी वह- मम्मी के साथ हुई थी। मम्मी और कई पड़ोसिनें, मैटिनी शो में फिल्में देखने जाया करतीं। हम इतने छोटे रहे होंगे कि घर पर छोड़ा नहीं जा सकता होगा। तभी हमें मम्मी के साथ लगा दिया जाता होगा। बहनें भी साथ होतीं.. तो सिनेमा के बारे में जो पहली कच्ची याद है वह है हमारे शहर का मधुमिता सिनेमा..।


यह पहले रेलवे का यह गौदाम थी, थोड़ा बहुत नक्शा बदल कर इसे सिनेमा हॉल में तब्दील कर दिया था। ्ब इस हॉल को पुरनका हॉल कहा जाता है। महिलाओं के लिए बैठने का अलग बंदोबस्त था। आगे से काला पर्दा लटका रहता.. जो सिनेमा शुरु होने पर ही हटाया जाता। तो सिनेमा शुरु होने से पहले जो एँबियांस होता वह था औरतों के आपस में लड़ने, कचर-पचर करने, और बच्चों के रोने का समवेत स्वर।


लेडिज़ क्लास की गेटकीपर भी एक औरत ही थीं, मुझे याद है कुछ शशिकलानुमा थी। झगड़ालू, किसी से भी ना दबने वाली..। चूंकि हमारे मुह्ल्ले की औरतें प्रायः फिल्में देखनो को जाती तो सीट ठीक-ठाक मिल जाती। शोहदे भी उस वक्त कम ही हुआ करते होंगे, ( आखिरकार हम तब तक जवान जो नहीं हुए थे) तभी औरतों की भीड़ अच्छी हुआ करती थी।


बहरहाल, फिल्म के दौरान बच्चों की चिल्ल-पों, दूध की मांग, उल्टी और पैखाने के बीच हमारे अंदर सिनेमा के वायरस घर करते गए। हमने मम्मी के साथ जय बाबा अमरनाथ, धर्मकांटा, संपूर्ण रामायण, जय बजरंगबली, मदर इंडिया जैसी फिल्में देखी। रामायण की एक फिल्म में रावण के गरज कर - मैं लंकेश हूं कहने का अंदाज़ मुझे भा गया। और घर में अपने भाईयों और दोस्तों के बीच मैं खुद को लंकेश कहता था।

मेरे पुराने दोस्त और रिश्तेदार अब भी लंकेश कहते हैं। वैसे लंकेश का चरित्र अब भी मुझे मोहित करता है, और इसी चरित्र की तरह का दूसरा प्रभावी चरित्र मुझे मोगंबो का लगा। लेकिन तब तक मैं थोड़ा बड़ा हो गया था। और मानने लगा था कि अच्छी नायिकाओं का सात पाने के लिए अच्छा और मासूम दिखने वाला अनिल कपूर या गुस्सैल अमित बनना ज्यादा अहम है।

to be cont...

3 comments:

sushant jha said...

मैने पहली फिल्म देखी थी सौतन..राजेश खन्ना की...मधुबनी के शंकर टाकीज में...समझ मे कुछ नहीं आया..उम्र होगी 3-4 साल...सिर्फ याद इतना है कि हिरोइन व्यथित मन से गाना गाती है..मैं तेरी छोटी बहना हूं....समझ न मुझको सौतन....कई महिलाएं साथ थी..ननिहाल से आया था देखने...उस वक्त फिल्म देखना उत्सव होता था। लोग कई दिन पहले से तैयारी करते थे...और कई दिन बात तक चर्चा करते थे। मुझे याद है मैं जब रोने लगा...था प्रेम चोपड़ा को देखकर तो मुझे फुसलाने के लिए मेरे ममेरे भाई ने एक बैलून खरीद कर ला दिया था जो घर आते ही फूट गया। रास्ते में एक लोहे के उस जमाने के पुल ने मुझे आकर्षित किया...घर आकर मैं पुल को पाने के लिए रोने लगा...मुझे एक दूसरे पुल के पास ले जाया गया जो सीमेंट का बना था...लेकिन मुझे तो लोहे का पुल चाहिए था। इसके अलावा क्या-क्या तो याद आता है...टीवी का पदार्पण ताजा-ताजा हुआ था...हम ननिहाल में मुखियाजी के घर जाकर टीवी देखते थे...सिनेमा विनोद खन्ना की...और मिथुन की...उस समय लगता था मुखिया जी के परिवार के लोग वास्तव में जमींदार हैं जो पलंग पर बैठे होते थे और हम जमीन पर। आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो सिर्फ एक मीठा एहसास होता है...उस जिंदगी को जीने की जो सिर्फ हमारी थी...जो अब शायद म्यूजियम में भी नहीं मिलेगी...लेकिन दुख ये जानकर हुआ कि मुखिया जी का परिवार बदहाल हो गया है...वो वक्त के साथ नहीं बदल पाये....शायद सिनेमा इन्ही बदलावों को कैद करने का और इसके गवाह बनने का माध्यम है।

Sundip Kumar Singh said...
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Sundip Kumar Singh said...

गाँव में दिवाली-दशहरा पर देवी स्थान पर चलने वाले वीडियो पर फिल्में देखते-देखते बड़े हुए. जहाँ तक मुझे याद है कोल्कता में घर वालों के साथ पहली फिल्म सिनेमा हाल में -जय संतोषी मां- या -क़यामत से क़यामत तक- देखी थी. इसके बाद गाँव आकर कई बार घर वालों के साथ सिनेमा हाल जाना हुआ. खुद पहली बार मौका मिला जब इंटरमेदिएट में नाम लिखाने के लिए शहर गया. घर वापस लौटकर कहा कि नाम लिखाने के लिए बड़ी संख्या में लोग आये थे इसलिए देर हो गयी. पहला प्रयोग था और सफल रहे- घर वालों को यकीं दिलाने में. फिर जब पढाई के लिए घर से बाहर निकले तो किसी से छुपाने कि जरूरत ही नहीं पड़ी.