दूसरे अंक से आगे...
आमतौर पर बदतमीज माने जाने वाले अभिजीत से इस तरह लजाने की उम्मीद कोई भी नही करता था।
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वह सावधानी से उधर उधर ताक रहा था, कि कोई उसे अनामिका से बातें करते ना देख ले। ...आखिर बदतमीजों का भी अपना ईमान होता है, एक छवि होती है। अपनी छवि से बाहर आए नही कि बस लोग ताड़ लेंगे और आपसे डरना बंद कर देंगे।
लेकिन अभिजीत किसी से नही डरता था...मौत से भी नही। लेकिन यह कहने की बातें थीं...अब जब मौत दरवाजे पर खड़ी-सी है, उसे डर-सा लगने लगा है।
कई सारे बचे हुए काम याद आने लगे हैं...।
इस दुविधा का कोई इलाज है..। अभिजीत दफ्तर से छुट्टी पर चल रहा है। अपने लाइलाज रोग के बारे में न तो बात करना चाहता है और न ही जिंदगी से ऐसा कोई खास लगाव है..। लेकिन पिछले दस बारह दिनों से उसके सामने अपने बेटे का चेहरा घूम जाता है। अपने तमाम करिअर मे, और कॉलेज के दिनों में- जब से प्रशांत उसे जानता है- अभिजीत हमेशा हंसने-हंसाने छींटाकशी करने, मजाक उड़ाने की विचारधारा का प्रतिबद्ध सिपाही रहा है...लेकिन पिछले कुछ दिन अभिजीत को बदल रहे हैं।
सिंतबर महीने के आखिरी दिनों में- जब भादों की तेज धूप होनी चाहिए थी, दिल्ली में काले बादल छाए हैं। हुमक-हुमक कर बारिश हो रही है।
अय़ोध्या में मंदिर, यमुना में कथित बाढ और ऐसी ही तमाम खबरों के बीच कोई शाकालनुमा बाबा टीवी पर नमूदार हो जाते हैं..। अभिजीत संजीदगी की सीमाओं को पार कर जा रहा है।
80 हजार करोड़ से ज्यादा को घोटाला, खेल आयोजन समिति के मुखिया पर गबन का आरोप है, गबन का शक है। अतीत में हमारे नेताओं ने आजादी पाने के लिए जो लड़ाई लड़ी, उसमें क्या ऐसे ही गबन के सपने थे..?
जस्ट फॉरगेट द पास्ट...।
आज के लोग परंपरा और मूल्यों से ऊपर उठ चुके हैं..उनके लिए कामयाबी हर हाल में हासिल की जाने वाली चीज है। लेकिन अनामिका ऐसी नहीं थी। जीवन मूल्यों में गहरी आस्था उसंकी गहरी आँखों में साफ दिखता था।
यह आस्था उसके सवालों में झलकने भी लगी थी। सीनियर पोजीशन पर पहुंच चुके अभिजीत के लिए अपने ही ऑरगेनाइजेशन में जूनियर के साथ चाय पीते देखा जाना शर्मिंदगी भरा था..। लेकिन अभिजीत को कोई इस पर टोक नही पाता था।
अनामिका और अभिजीत लंच साथ-साथ ही लेने लगे थे। उन्ही साथ के शुरुआती पलों में कभी अनामिका ने पूछा था, 'तुम पत्रकार बने ही क्यों...?'
जीवन की तमाम दुश्वारियों को झेलकर इस पोजीशिन तक पहुंचे..अभिजीत के लिए यह कहना बिलकुल आसान नही था कि दुनिया की तमाम नौकरियों के लिए किसी न किसी वोकेशनल कोर्स की जरुरत होती है, जिसमें पैसे लगते हैं, और पैसे उसे देगा कौन...
जिस दिन दिल्ली के लिए उसने ट्रेन पकड़ी थी, उसके बड़े भाई ने साफ कह दिया था। उस साफगोई में थोड़ी मुलायमियत भी थी, थोड़ी मासूमियत भी, थोड़ी चालाकी भी और थोडी बेचारगी भी। भाईसाहब ने टुकड़े-टुकड़ों में जो कहा था, उसका लब्बोलुआब यह था कि चूंकि उनका खुद का भी परिवार है और उनकी आमदनी बहुत कम है, ऐसे में दिल्ली जाने पर वह घर से किसी किस्म की मदद-खासकर आर्थिक मदद- की उम्मीद न रखे।
यूं भी बाबूजी की खेती अब कोई फायदे का सौदा रही नही। बाबूजी के हाथ-पैर चलते नहीं। खेत बटाई पर हैं..तो उधर की आमदनी से उदर चल जाए वही बहुत है। ऐसे में अच्छा यही है कि अभिजीत अपना सही इंतजाम कर
ले..........
अभिजीत ने सामने बालकनी में रखी कुरसी पर जमते हुए अखबार फैला दिए। तमाम तरह की आशंकाओं से भरा अखबार...किसी भी भाषा में पढो सबसे पहले आशंकाओं की खबरें।
कोई अच्छी खबरें क्यों नही छापता फ्रंट पेज पर..फ्लायर बना कर..एकदम आठ कॉलम में..??
कोई तो अच्छी खबर हो...कि अनामिका ने तमाम शिकवे-शिकायतें नजरअंदाज करते हुए उसे माफ कर दिया है...कि अनामिका ने काली-घनेरी जुल्फों से उसके सिर को ढंक दिया है..कि उसकी तलाक लेने पर उतारु पत्नी घर लौटने को राजी है..कि उसकी चिर-शिकायती मुद्रा प्रसन्न है..या उसका बेटा उसकी गोद में है किलक रहा है।
अभिजीत ने खुद को बंटा हुआ पाया।
अनामिका का हताश होता जा रहा प्रेमी...अपनी पत्नी का पति...या फिर अपने बेटे का बाप...जिसे कोई गैर-जिम्मेदार कहता है कोई अभागा...।
जारी
4 comments:
जारी रहिये..बढ़िया प्रवाह चल रहा है.
बहुत बढ़िया .... आगे की प्रतीक्षा में...
I think this title is not suit this story.This is my thinking.You can continue with this title.
bahut badhiya .....maza aa raha hai...keep it up :)
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