Tuesday, June 7, 2011

कविता- दांत दर्द के नाम

मैं अपने आप को जब आईने में देखता हूं,
चेहरे पर एक दर्द की गहरी छाया नजर आती है,
हंसता हूं,
तो एक फूल (अंग्रेजीवाला) बन जाता हूं,
पलभर में,
मेरे आगे,मेरे पीछे
मेरी हालत पर, सब लोग हंसते हैं
मुझे मौसम पुराने याद आते हैं,
कहते हैं अगर ये बत्तीसवें दांत जिन्हे न हो,
दुनियावी मामलो में कहे जाते
बच्चे हैं
अगर समझदारी यूं दर्दनाक मंजर होके आती है,
कसम से,
नासमझ अच्छे हैं।
न खाया जाए, भले से
न दर्शन ठंडे-गरम का,
ये सब दर्शन-फलसफास
जीवन में भरम का,
कहीं दांतों से किसी को अक्ल आती है?
अगर दांतों से आती है,

कहूं में आपसे कि--
दाढ अक्ल की नहीं ये,
शैतान की खाला है,
जो अचानक कच्चे ही फूटा है,
मेरे सीने का छाला है।

ये ऐसी टीस है,
हर वक्त तेरे होने का अहसास होता है,
तू जब भी याद आता है,
मेरे दिल कस के रोता है,
तू ईश्वर है या माशूका,
उससे क्या होता है,
अकल की दाढ
उगती है तो
हरेक शख्स रोता है।।

2 comments:

Rahul Singh said...

अक्‍लमंदी की कविता. (मंदी उर्दू वाली)

Udan Tashtari said...

हा हा...

हाय!! फूल (हिन्दी वाला)सा चेहरा इस मुई अकल दाढ़ के चक्कर में मुरझा कर एकदम फूल (अंग्रेजी वाला) सा दिखने लगा है...

डर बस इत्ता सा है कि अंग्रेजी का असर लम्बा चलता है...देश को देखो, ६४ सालों में नहीं उबर पाया है....कहीं उस चक्कर में पता चला कि दर्द तो कल को तो ठीक हो गया दो दिन में मगर चेहरा फूल (अंग्रेजी वाला) सा ही रह गया.

प्रभु से प्रार्थना ही कर सकते हैं हम....देश के लिए प्रार्थना करते करते तो उम्र के इस पड़ाव तक आ ही गये हैं.