Monday, August 15, 2011

चल उड़ जा रे पंछीः बुंदेलखंड का सच

पिछले पोस्ट से आगे...

बांदा जिले में ही सूखे की कहानी का यह सबसे बुरा किस्सा है। गांव में सारे पानी के स्रोत सुख गए। एक धनी-मानी घर को छोड़कर, सिर्फ एक तालाब बचा था, जिसमें पानी गड्ढे में बचा था। उसके लिए भी मारा-मारी।

पानी की मारामारी में कभी पानी मिल पाता कभी नहीं। उस पैसेवाले के घर के पास ही रहती थी वह महिला। पड़ोस से पानी, जेट पंप से लेना आसान भी था, और साफ पानी भी मिल जाता था। एक दिन मौका देखकर उस घर के मनचले नौजवान ने महिला को छेड़ दिया। महिला चुपचाप चली आई। तीन-चार दिन वह पडोसी के घर पानी लेने नहीं गई। लेकिन कोई रास्ता न था।

पानी फिर लेने गई तो वह नौजवान ढीठाई पर उतर आया था। आखिरकार, एक बाल्टी की पानी एक महिला की इज्जत बैठी।

इस खबर ने बुंदलेखंड के लोगों को आंदोलित किया, और कई गांवों में तालाब खोदने जैसे प्रयास शुरु हुए। लेकिन प्यास बुझाने का कोई मुकम्मल इंतजाम नहीं हो पाया।


भूख और प्यास ने बुंदेलखंड के लोगों को अपना घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल की आंतरिक समिति की रपट के मुताबिक झांसी जिले से लाख 58 हजारललितपुर से लाख 81 हजारहमीरपुर से 4लाख 17 हजारचित्रकूट से लाख 44 हजारजालौन से लाख 38हजारबांदा से लाख 37 हजार, और महोबा से लाख 97 हजार किसान अपना घर-बार छोड़कर बाहर निकल चुके हैं।

यानी सात जिलों की 82 लाख की आबादी में से 32 लाख लोग बुंदेलखंड से बाहर रह रहे हैं। यह पूरी आबादी का 40 फीसदी से ज्यादा है।

वीर आल्हा-ऊदल की धरती....जिन्होंने कभी मैदान में पीठ नहीं दिखाई। उन्हें पानी अपनी धरती छोड़ने पर मजबूर कर रहा है। जिन्हें हमलावरों की फौजे हरा नहीं पाई...उन्हें पानी ने हारने पर मजबूर कर दिया है।

पानी की कमी ने बुंदेलखंड के अतर्रा इलाको को भी बदल डाला है।  अतर्रा डेढ़ दशक पहले तक एशिया की दूसरी सबसे बड़ी धानमंडी हुआ करती थी। उस वक्त तक यहां 37 चावल की मिलें हुआ करती थीं। लेकिन आज की तारीख में सारी की सारी बंद हो चुकी हैं।

अतर्रा के मिलों के सारे पल्लेदार (चावल मिलों में काम करने वाले) बेरोज़गार हो गए हैं। जाहिर है, वह अब अगल बगल के शहरों इटावा के ईंट भट्ठों का रुख कर रहे हैं, या फिर दि्ल्ली जैसे शहरों में रिक्शा चला रहे हैं। दरअसल,. पिछले कुछ साल में बुंदेलखंड में नहरों का कमांड एरिया सिकुड़ गया है। 

बुंदेलखंड का यह इलाका एशिया में बांधों की सबसे ज्यादा घनत्व के लिए जाना जाता है। बांध की तली में जमी गाद  से बांधों की क्षमता बहुत कम हो गई है। साथ ही नहरों में भी जमा गाद की बरसों से सफाई नहीं हुई है। ऐेसे में पानी कम खेतों तक ही पहुंच पा रहा है। 

राजस्व विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, बांदा जिले में पिछले साल कुल 3.4 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि में से सिर्फ 27 हजार हेक्टेयर भूमि को ही इन बांधों से पानी मिल पाया था।


सिंचाई विभाग के लोग ऐसे में किसानों को बताना भी ठीक नहीं समझते। पहले जब बारिश ठीक होती थी, या नहरों का पानी इतना कम नहीं आता था तो किसान धान की फसल के लिए बीज खेतों में डालते थे, लेकिन जब बिचड़े खेतों में ही सूख जाने लगे, तो पता लगा नुकसान बहुत गहरा है। 

(पंद्रह साल पहले तक बुंदेलखंड में 54 दिन बरसात के होते थे। लेकिन अब ...बरसात के ये 54 दिन घटकर 20 हो गए हैं।)

नहरों और बांधों की क्षमता पहले से 65 प्रतिशत कम हो गई है, और धान का उत्पादन पहलेसे महज 30 फीसद ही रह गया है। ...अतर्रा का मशहूर सेला चावल बीते दिनों की बात हो गई है। यहां के किसान पुराने जमाने की शरबती और ऐसी ही दुर्लभ धान की नस्लों को याद कर आह भरते हैँ। 



5 comments:

shanti deep said...

किसी महिला की आबरू की कीमत मात्र एक बाल्टी पानी है, उसपर भी सरकारी महकमें के लोग ५४ को २० बनाने में जी जान से जुटे हैं, आखों करूदों के वारे न्यारे हो रहे हैं, वाह भाई वाह ........यह है हाल भारत का इंडिया में रहने वालो को वैसे भी भारत का हाल कभी नहीं दिखा है...

Udan Tashtari said...

उस मजबूर महिला का क्या कहें...कैसा समाज हो गया है.....

Rahul Singh said...

कृषि प्रधान देश...

विभूति" said...

समाज की विडम्बना....

Sundip Kumar Singh said...

मंजीत तुमने बुंदेलखंड की सूखी धरती में अपनी जिंदगी काट रहे लोगों की कठिनाई को बहुत अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया है।