कहते हैं यह मुक़द्दर का ढकोसला है,
जो हमारे दर्मियां फ़ासला है।
न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।
कुछ नहीं है।
लगता है ऐसा कि
मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
जो भी था,
ज़ाया कर चुका हूं
जिंदगी नोनी की तरह
मुझको खा चुकी है।
आहिस्ता-आहिस्ता
चौकड़ी उठ गई है
शराब की वो बोतल हूं मैं
जो पी जा चुकी है।
(ऩोनी- मिट्टी का नमक जो ईंट को खराब कर देता है)
जो हमारे दर्मियां फ़ासला है।
न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।
कुछ नहीं है।
लगता है ऐसा कि
मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।
जो भी था,
ज़ाया कर चुका हूं
जिंदगी नोनी की तरह
मुझको खा चुकी है।
आहिस्ता-आहिस्ता
चौकड़ी उठ गई है
शराब की वो बोतल हूं मैं
जो पी जा चुकी है।
(ऩोनी- मिट्टी का नमक जो ईंट को खराब कर देता है)
3 comments:
न कहीं तुम हो,
न कहीं मैं हूं
ना कहीं कोई कारवां है।प्यार की खुबसूरत अभिवयक्ति..
यह खालीपन हर ओर से भरने का प्रयास करता है मन।
इस छोटी सी कविता में एक पूरा जीवन है। आज पहली बार पढ़ा आपको। वैसे भी कविताओं से कुछ ज्यादा प्रेम है मुझे.. और अच्छी कविताएं आजकल कम ही देखने को मिलती हैं। यह कविता भले ही एक सोच हो जो यूं ही बहकर कागज पर उतर गई हो, मगर इसमें जो सहजता है वह इसका आकर्षण है..
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