Saturday, July 7, 2012

सुनो! मृगांका:16: मुसाफिर

जब वह स्टेशन पर उतरा तो हर तरफ़ धुआं-धुआं सा था। खजौली- छोटा-सा स्टेशन। ठंड में दुकानों के चूल्हों से निकला धुआं और घना हो गया। रात के इस वक्त गांव के लोग एक नींद सोकर उठ जाते हैं। अभिजीत ने घड़ी देखी.. रात के साढ़े दस बज रहे थे।

खजौली बेहद छोटा स्टेशन है। महज दो प्लेटफॉर्म वाला स्टेशन। पहले यहां से छोटी लाईन गुजरती थी। दुनिया की रफ्तार से बेखबर जानकी एक्सप्रैस अपने नाम और गति के विरोधाभास को सच साबित करती चलती। जानकी वगैरह गाड़ियों में डीजल इंजन तो बहुत बाद में लगे। पहले तो काले-काले भीमकाय भाप के इंजन चला करते थे।

भारतीय सीमा में आखिरी रेलवे स्टेशन जयनगर तक छोटी लाईन जाती थी। जयनगर से आगे नेपाल के शहर जनकपुर तक नैरो गेज़ पर खिलौने जैसी ट्रेन चला करती। उस खिलौना-ट्रेन का सफ़र बेहद दिलचस्प हुआ करता। जो लोग कलकत्ता वगैरह घूम आए थे, वह हांकते कि इस रफ्तार से चलने वाली गाड़ी में तो आप लग्घी-पेशाब वगैरह भी करने के लिए चलती गाड़ी से उतर सकते हैं, फिर शंका का निबटारा करने के बाद पुनः चढ़ सकते हैं। लोगों की बातचीत में इतनी अतिशयोक्ति की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है।

बहरहाल, बाहर निकलकर हाथ सिकोड़े अभिजीत चाय की दुकानों के सामने खड़ा हो गया।

खजौली स्टेशन पर भी स्टेशन के आगे से गुजरती सड़क को स्टेशन रोड कहा जाता है। तो स्टेशन से सटी दो-एक चाय की दुकानों को छोड़कर बाकी की दुकानें कब की बंद हो चुकी थीं। अंधेरे का साम्राज्य-सा फैला था। चांद का एक चोटा-सा टुकड़ा रौशनी बिखेरने की नाकाम कोशिश में जुटा था।

अभिजीत जब भी चांद को देखता है उसे मृगांका की याद बेतरह आ जाती है। उसके पॉकेट में सिगरेट थी, लेकिन माचिस नहीं था उसके पास...उसके गृहनगर से यहां तक के सफ़र में किसी राहगीर साथी ने लेने के बाद माचिस लौटाने की जहमत उठाई नहीं..।

गरमी काफी थी लेकिन गांव के खुली हवा में ओस की हल्की तरावट थी। पेड़ों के पत्तों से हवा सरसराती हुई बह रही थी। हवा में मौजूद ऊमस से थोड़ी राहत मिली थी।

सारे रास्ते उसे ट्रेन में पसीने की तमाम किस्म की गंधों से दो-चार होना पड़ा था। विज्ञान कहता है कि किसी भी दो आदमी के पसीने की बू अलग होती है लेकिन सच तो यह था कि उसे ट्रेन में जो भी आदमी मिला, पसीने से नहाया मिला और सबकी देह की बू एक-सी लगी। इस बू या बदबू में कुछ और आयाम जोड़ देते थे, कभी साफ न किए गए ट्रेन के यूरिनल, और उसमें कमोड के ऊपर कर दिए गए पाखाने और वॉश बेसिन कहे जा रहे टीन के चौकोर टुकड़े में उल्टियां, गुटखे का रंगीन थूक...। और भी बहुत कुछ।


दो-एक बंद पड़ी नाश्ते की दुकानों के ठंडे पड़ रहे चूल्हों से सटकर और उसकी राख पर आराम फरमा रहे कुत्ते अलसाए से पड़े थे। अभिजीत थोड़ा आगे बढा, तो दो-तीन रिक्शेवाले अपने रिक्शों से दूर चाय की दुकान पर बतिया रहे थे। केतली की टोटी से भाप निकलता हुआ साफ़ दिख रहा था। अल्यूमिनियम की केतली में लाल कोयले के अंगारों की रौशनी... उजली पृष्ठभूमि पर लाल रंग... बेहतर कॉम्बिनेशन! उसने ने सोचा।

वह चाय की उस दुकान तक बढ़ गया। उबलती चाय देखकर पता नहीं दिलके किसी कोने में दबी चाय पीने की इच्छा जाग गई। चाय के एक कप का ऑर्डर देकर उसने दुकानदार से माचिस मांगी। सिगरेट का धुआं उसेक चेहरे के आसपास घुमड़ता रहा। जयनगर जाने वाली आखिरी गाड़ी से उतरे एकमात्र पैसेंजर को देखकर रिक्शेवाले चौकन्ने हो गए।

सिगरेट आधी खत्म होते न होते चाय आ गई। कांच का ग्लास..पता नहीं बुद्धकाल में या उससे भी पहले कभी किसी सभ्यता के दौरान मांजी-धोई गई होंगी। लेकिन वर्तमान स्थिति यह है कि कभी सफेद रहा गिलास किनारो पर भूरा पड़ने लगा है। माटी के कुल्हड़ से मिलते-जुलते रंग का। उसने ग्लास की सफाई को ज्यादा तवज्जो नहीं दी।

रिक्शेवाले लपक कर उसतक पहुंच गए। खैनी को होठों में दबाकर फटी धोती में हाथ पोंछते हुए एक रिक्शेवाले ने पूछा, "कहां जाइएगा?"

" लक्ष्मीपुर-ठाहर"

सवाल पूछने वाले उस रिक्शेवाले ने दूसरे रिक्शेवाले से कुछ कहा जिसका आशय शाय़द ये था कि ये मेरी तरफ ही जा रहे हैं, मैं इन्हें छोड़कर घर निकल लूंगा। दूसरा रिक्शेवाला भी प्रतिवाद किए बिना साइड हो गया। धीरे-धीरे अजनबी को लिए रिक्शा बस्ती से बाहर निकलने लगा।

रिक्शेवाले ने स्टेशन रोड छोड़कर गली पकड़ ली। ये गली क़स्बे के बीच से होकर गुजरती थी। सड़कें कभी, बहुत ज़माने पहले, आज़ादी के ठीक बाद या मुमकिन है कि दूसरी बड़ी लड़ाई के दौरान कोलतार की बनी थी, लेकिन अब नई सदी में सड़क के नीचे पड़े पत्थरों ने विद्रोह में सर उठाना शुरु कर दिया था। ठीक वैसे ही जैसे इस इलाके के दलित सर उठाके चलने लगे हैं, और सड़क पर यहां-वहां अलकतरे के अवशेष बचे हैं, वैसे ही जैसे दबंग जातियों के कुछ परिवार अभी भी अपनी दबंगई क़ायम किए हुए हैं। लेकिन इससे राहगीरों को ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ता।

स्टेशन रोड के दुकानदार और सब्जीवाले सरकार से सहयोग करना जानते हैं, और शायद अपनी इसी भावना से वशीभूत होकर या फिर जनसेवा की पवित्र भावना के तहत अपनी दुकानों, घरों और ठेले का कूड़ा सड़क पर डाल देते हैं।

सड़क पर समाजवाद फैलाते थूथन उठाकर घूमते सूअर, बैल-गाय बकरियों और इंसानों ने अपने पैरों, गाड़ियों के पहियों से उन्हे थौआ-थौआ करके हर ओर बिखेर दिया है। ऐसे में पता ही नहीं लगता कि सड़क शुरु कहां हो रही है और खत्म कहां हो रही है। 'तुझमें मैं और मुझमें तू है' की तर्ज़ पर सड़क और कूडे एकमेव हो गए हैं..कूड़े और सड़क का फर्क ही नहीं। साम्यवाद का असली रूप तो यहीं दिखता है।

अभी देऱ रात हो रही है वरना मुर्गे, कुत्ते, सूअर, गाय, गधे, इँसान सब एक साथ एक तरह से नज़र आते हैं।

रिक्शों साइकिलो के पहिए, बैलगाडी़ के पहिए तक आधे धंस जाते हैं इन कचरों में। बरसात की जाने दें, जेठ की दुपहरी में भी सड़क का कीचड़ नहीं सूखता। गरमी में भी रिक्शा इस कीचड़ में धंसा जा रहा था। सूअर इन कचरों में मुंह मार कर निकलते हैं और साथी सूअरों से कहते हैं- आनंद अखंड घना था। बहरहाल, उसी सड़क से, जिसकी चर्चा हम कर रहे हैं, और जो बरसात में नाले का भव्य रुप धारण कर लेती है और जो बरसात रुपने के ठीक बाद ऐनोफेलिस, एडीज और क्यूलेक्स और नामालूम किन-किन नस्लों के मच्छरों का पनाहगाह और ख्वाबगाह होता है- रिक्शा दुबककर दुलकी के साथ एक खडंजा पर चढ़ गया।

अभी तक जिस रिक्शे की गति कीचड़ से बाधित थी, वह अचानक थोड़ी तेज़ हो गई, पर बाधा दौड़ में हिस्सा ले रहे किसी धावक की तरह वह फुदक-फुदककर आगे बढ़ रहा था।

क्रमशः

4 comments:

निवेदिता श्रीवास्तव said...

अगली किस्त की प्रतीक्षा है ........

eha said...

कहानी के सीन को आपने बहुत ही संजीदगी से पिरोया है....दृश्यों पर प्रयोंग सफल रहा.....

Anonymous said...

जय हो,

बेमिसाल लेखन... देर हो गयी पढ़ने में.

दीपक बाबा said...

जय हो,

बेमिसाल लेखन... देर हो गयी पढ़ने में.