Tuesday, August 21, 2012

ये लक्ष्मण नहीं, कारीगर का संन्यास है...

मुझे नहीं पता कि ज्यादातर लोग वीवीएस लक्ष्मण की किस छवि को याद रखेंगे...मुझे उऩकी वही छवि याद है जो बल्ले के इस कलाकार के लिए सबसे मुफीद है। पीले हैंडल वाले बल्ले को एक हाथ से  और दूसरे में अपना हैलमेट उठाए हुए दर्शकों का अभिवादन स्वीकार करते हुए।

लक्ष्मण विजेता नहीं रहे, वो पूरी टीम के बिखर जाने  पर आखिर कोशिश कर रहे योद्धा रहे। जब क्रिकेट के बड़े बड़े सूरमा नाकाम हो जाते, तब किसी द्रविड़ के साथ लक्ष्मण  को जूझते देखा। ऑस्ट्रेलिया जैसी विजेता टीम के मंह से फॉलोऑन के बाद मैच खींच लेना बस लक्ष्मण  के बूते की ही बात थी।


लक्ष्मण हैदराबाद की कलाईयों के जादू की रवायत के हकदार रहे थे, उनके बाद अब कौन....

हमने उन्हें कभी छक्का उड़ाते नहीं देखा। शायद उड़ाया भी हो, लेकिन ऐसे लॉफ्टेट शॉट खेलना उनकी शैली के विपरीत था। हम तो उन्हे कलाईय़ों के जादूगर के रूप में जानते रहे। गेंद पैड की तरफ आई नहीं कि सीमारेखा के पार।

करिअर में कई बार चोटिल होने और टीम से बाहर होने के बाद लक्ष्मण को खुद की अहमियत साबित करने में वक्त लगा था। लेकिन एक बार जब स्थापित हो गए, तो लक्ष्मण टेस्ट टीम के लिए अपरिहार्य हो गए।

गांगुली की टेस्ट टीम को स्थापित करने में और माही की टीम के नंबर एक तक ले जाने मे लक्ष्मण की भूमिका पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। बस मुझे दिक्कत हुई तो यही कि अब जबकि 20-ट्वेंटी से हम जैसे क्रिकेट प्रशंसकों का मोह भंग हो गया है और वनडे में कोई मज़ा रहा नहीं, तो टेस्ट में ही क्रिकेट अपने शास्त्रीय रूप में मौजूद है।

लक्ष्मण जैसे कारीगर के, जो छेनी हथौड़ी से बारीकी से नक्शबंदी की तरह अपनी पारी की नक्काशी करते थे, उनके विलो के बल्ले के प्रहार और लेदर की गेंद के टकराहट से जो संगीत पैदा होता था, अब कहां मिलेगा। गेंद पर प्रहार सहवाग भी करते हैं, लेकिन उनके प्रहार में मारक कर्कशता होती है, लक्ष्मण के प्रहार में संगीत होता था।

लक्ष्मण का संन्यास लेना तय था। बढ़ती हुई उम्र आज नहीं तो कल, उन्हे संन्यास लेने पर मजबूर करती ही, लेकिन क्या ही अच्छा होता कि इतने बड़े खिलाडी़ को एक उम्दा पारी खेलने के बाद संन्यास लेने दिया जाता।




3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

उन्हें सदा ही जूझते देखा है..

Vartika said...

बात सही है। सुंदर और सटीक लेख।

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