अवतार कृष्ण हंगल की मौत को लोग एक 95 साल के बुजुर्ग अदाकार की मौत मानते होंगे। मैं नहीं मानता। ए के हंगल को मैं मौजूदा भारत में एक प्रतीक की मौत के तौर पर देखता हूं। आप अगर सिनेमाई भाषा से परिचित हैं तो आप मेटाफर और सिंबल यानी बिंब और प्रतीक से भी परिचित होंगे...आज सिनेमा जगत से एक धर्मनिरपेक्ष और बौद्धिक मार्क्सवादी प्रतीक चला गया।
आज के भारत को देखिए, कोकराझार है, मुंबई में उन्माद है, बेंगलुरु से पलायन करते पूर्वोत्तर के लोग हैं...धार्मिक चरमपंथ है, दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर के सामने प्रदर्शन करते और पानी की बौछारें झेलते राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरे सामाजिक कार्यकर्ता हैं...देश अनिर्णय और संभ्रम का शिकार है। ऐसे ही वक्त में एक प्रतीक पुरुष आता है या फिर अंधियारे को और गहरा देने के लिए चला जाता है। अवतार कृष्ण हंगल की मौत ऐसे ही अमावस का प्रतीक है।
उन्माद को कम करने वाला वह बुजुर्ग मौलाना ही ए के हंगल है, जो गांववालों को कहता है कि पूछूंगा ख़ुदा से उसने मुझे गांव पर क़ुरबान करने के लिए दो-तीन और बेटे क्यों न दिए। यह एक दृश्य महज एक फिल्म का दृश्य नहीं, इसमें लेखक-निर्देशक ने चाहे जो सोच कर उनसे करवाया हो, लेकिन सच है कि यही बाव उनकी निजी जिंदगी का सच भी था।
उनकी आत्मकथा पढ़ रहा था, उनने ज़िक्र किया है संभवतः बाबरी विध्वंस की घटनाओं के दौरान किसी चमरपंथी ने कार्यकर्ताओं को कहा था कि ए के हंगल मत बनो और सदभावना के उपदेश मत झाड़ो, चलो आगे बढ़ो। यह वाकया ही ए के हंगल की छवि के लिए काफी है।
ऐसा नहीं कि ए के हंगल की यह सिनेमाई छवि बस परदे तक ही सीमित थी। निजी जिंदगी में भी उनके मकसद, उनकी विचारधारा हमेशा सांप्रदायिक सद्भाव की थी और वामपंथ के प्रति उनका झुकाव तो खैर जगजाहिर ही है। रंगमंच के लिए प्रतिबद्ध इस कलाकार ने हमेशा इप्टा के लिए काम किया, उसके लिए चंदा जुटाया और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव से लगातार संपर्क में बने रहे थे।
उनकी अदाकारी कहीं से लाउड नहीं थी, संवाद रट कर अदा करने की बजाय हमेशा उसे समझ कर बोला हंगल साहब ने, अपने जीवन के शुरुआत में उन्होंने टेलरिंग में कौशल हासिल किया था। कताई की उनकी हाथ की सफाई उनकी अदाकारी में भी दिखती रही और निजी जीवन में भी, जहां आखिर तक एक भी वैचारिक सूत उनने उधड़ने न दिया।
अब जबकि सिनेमा में ज्यादातर औसत प्रतिभा वाले सितारों की भीड़ है और उनमें से भी अधिकतर की बौद्धिक क्षमता भी औसत से खराब ही है...ए के हंगल जैसे प्रतिबद्ध बौद्धिकों का जाना, सिनेमा का नुकसान भी है और रंगमंच का भी।
आज के भारत को देखिए, कोकराझार है, मुंबई में उन्माद है, बेंगलुरु से पलायन करते पूर्वोत्तर के लोग हैं...धार्मिक चरमपंथ है, दिल्ली में प्रधानमंत्री के घर के सामने प्रदर्शन करते और पानी की बौछारें झेलते राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से भरे सामाजिक कार्यकर्ता हैं...देश अनिर्णय और संभ्रम का शिकार है। ऐसे ही वक्त में एक प्रतीक पुरुष आता है या फिर अंधियारे को और गहरा देने के लिए चला जाता है। अवतार कृष्ण हंगल की मौत ऐसे ही अमावस का प्रतीक है।
उन्माद को कम करने वाला वह बुजुर्ग मौलाना ही ए के हंगल है, जो गांववालों को कहता है कि पूछूंगा ख़ुदा से उसने मुझे गांव पर क़ुरबान करने के लिए दो-तीन और बेटे क्यों न दिए। यह एक दृश्य महज एक फिल्म का दृश्य नहीं, इसमें लेखक-निर्देशक ने चाहे जो सोच कर उनसे करवाया हो, लेकिन सच है कि यही बाव उनकी निजी जिंदगी का सच भी था।
उनकी आत्मकथा पढ़ रहा था, उनने ज़िक्र किया है संभवतः बाबरी विध्वंस की घटनाओं के दौरान किसी चमरपंथी ने कार्यकर्ताओं को कहा था कि ए के हंगल मत बनो और सदभावना के उपदेश मत झाड़ो, चलो आगे बढ़ो। यह वाकया ही ए के हंगल की छवि के लिए काफी है।
ऐसा नहीं कि ए के हंगल की यह सिनेमाई छवि बस परदे तक ही सीमित थी। निजी जिंदगी में भी उनके मकसद, उनकी विचारधारा हमेशा सांप्रदायिक सद्भाव की थी और वामपंथ के प्रति उनका झुकाव तो खैर जगजाहिर ही है। रंगमंच के लिए प्रतिबद्ध इस कलाकार ने हमेशा इप्टा के लिए काम किया, उसके लिए चंदा जुटाया और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव से लगातार संपर्क में बने रहे थे।
उनकी अदाकारी कहीं से लाउड नहीं थी, संवाद रट कर अदा करने की बजाय हमेशा उसे समझ कर बोला हंगल साहब ने, अपने जीवन के शुरुआत में उन्होंने टेलरिंग में कौशल हासिल किया था। कताई की उनकी हाथ की सफाई उनकी अदाकारी में भी दिखती रही और निजी जीवन में भी, जहां आखिर तक एक भी वैचारिक सूत उनने उधड़ने न दिया।
अब जबकि सिनेमा में ज्यादातर औसत प्रतिभा वाले सितारों की भीड़ है और उनमें से भी अधिकतर की बौद्धिक क्षमता भी औसत से खराब ही है...ए के हंगल जैसे प्रतिबद्ध बौद्धिकों का जाना, सिनेमा का नुकसान भी है और रंगमंच का भी।
1 comment:
विनम्र श्रद्धांजलि..
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