भारतीय सिनेमा जब हिन्दी सिनेमा में तब्दील हुई, यानी मूक फिल्में जब सवाक फिल्मों का रूप लेने लगीं तो उसकी भाषा हिन्दी ही थी। या मान लीजिए कि हिन्दुस्तानी थी। हिन्दुस्तानी इसलिए क्योंकि थियेटर के नाम पर लोकप्रिय पारसी थियेटर था, कलाकार उनके पास थे और थियेटर की भाषा उर्दूनुमा हिन्दी थी। उनके पास आबादी के लिहाज से बड़ा दर्शक वर्ग भी था।
उन दिनों जब कागज पर हिन्दी का विकास हो ही रहा था और हिन्दी क्लिष्ट और आसान के बीच झूल रही थी, सिनेमा ने तय कर लिया था कि ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाने के लिए हिन्दी को आसान होना होगा। कई स्टूडियो ऐसे रहे जहां हिन्दी फिल्मों के संवाद लिखवाने के लिए गैर-हिन्दी भाषी या हिन्दी कम जानने वाले लेखक रखे जाते थे, जो आसान हिन्दी लिख सकें। आप याद करें, उन दिनों संवाद अधिक लोगों की समझ में लाने के लिए उनकी द्विरूक्ति होती थी। प्रमथेश बरूआ की देवदास को याद कीजिए, अरे देवदास तुम आ गए, हां पारो, मैं आ ही गया—सरीखे संवाद।
हिन्दी लोगों की ज़बान पर चढ़ने लगी। फिल्मों का बाजार पेशावर से लेकर चटगांव तक था। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक। तो हिन्दी ने अपना परचम लहराना शुरू कर दिया मेरा जूता है जापानी रूस में हिट था तो सूरीनाम, फिजी, मॉरीशस में होना ही था। अमिताभ बच्चन उजबेकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक शहंशाह रहे।
आजादी के बाद हिन्दी संस्कृतनिष्ठ होती गई, और उर्दू फारसी की तरफ बढ़ गई। विभाजन की खाई के बाद उर्दू को मुसलमानों की भाषा करार दिया गया। लेकिन हिन्दी के इस संस्कृतकरण ने हिन्दी को लोगों की ज़बान नहीं बनने दिया था। लोग हिन्दी बोल तो रहे थे, लेकिन उनकी हिन्दी वह हिन्दी नहीं थी जो लिखी जाती थी।
रेडियो, गीतमाला, हिन्दी गीतो ने हिन्दी को ज़बान पर ला दिया। लेकिन हिन्दी ज़बान पर भले ही चढ़ गई हो। लोग सलमान-शाहरूख क असर में आज भी फिल्मी संवाद दोहरा लें, शोले के कितने आदमी थे से लेकर एक बार मैने कमिटमेंट कर दी...तक या फिर हम तुममें इतने छेद करेंगे...जैसे महापॉपुलर संवाद तक, लेकिन हिन्दी को पढ़ाई की भाषा बनने में अभी भी वक्त लगेगा।
जब तक हिन्दी रोजगार देने वाली भाषा नहीं बनेगी, तब तक इसका प्रसार भी नहीं होगा। हिन्दी साहित्य पढ़ने वाला या तो हिन्दी का शिक्षक बन सकता है या अनुवादक। हिन्दी के साहित्य को समृद्ध करने के लिए अनुवाद के काम को प्रकाशक कर तो रहे हैं लेकिन हिन्दीवालों की पढ़ने की आदत छीजती जा रही है।
विज्ञान की कोई मान्यता प्राप्त आखिरी किताब कौन सी है जो हिन्दी में छपी हो। हिंदी के अनुवादकों की क्या औकात है यह तो खुद अनुवादक ही बता सकता है या प्रकाशक। वैसे तो प्रकाशकों के सामने हिन्दी के लेखको की भी क्या औकात, लेकिन अगर कोई शख्स विज्ञान, या दर्शन के किताब को हिन्दी में अनुवाद कर भी दे तो क्या छपेगा कौना छापेगा और उस शख्स को भाषा की सेवा करने का तमगा मिलने के अलावा क्या मिलेगा यह सब जानते हैं।
एक और बात यह है कि हिन्दी मे जो साहित्य लिखा जा रहा है वह उत्कृष्ट तो है लेकिन लोकप्रिय नहीं हो पाता। जो लोकप्रिय है वह लुगदी ही है। सैकड़े में एक दो उत्कृष्ट लेखन होता है जो मास लेवल पर पसंद किया जाता है। वरना क्या वजह है कि गोरखपुर से लेकर झारखंड के देवघर तक चेतन भगत की किताब तो बिक जाती है, लेकिन किसी बड़े हिन्दी लेखक का उपन्यास नहीं बिकता।
इसकी एक वजह तो मुझे यह भी दिखाई देती है कि हिंदी का लेखक इस अहंमन्यता का शिकार होता है कि वह स्वांतः सुखाय लिख रहा है। तो फिर उसे बाजार का मोह नहीं होना चाहिए। प्रकाशकों की नीयत भी कुछ वैसी ही होती है। दूसरी बात, हिंदी का लेखक कहते ही हम सीधे साहित्यकार क्यों मान लेते हैं? हिंदी का लेखक कथेतर साहित्य भी तो लिख सकता है। लेकिन मुझे दुख है यह कहते हुए कि हिंदी में कथा हो या कथेतर पढ़ने वाले कम ही बचे हैं।
एक दो मिसालें मैं और देना चाहता हूं। अंग्रेजी के बेस्ट सेलर का खिताब शायद एक लाख प्रतियों के बाद मिलता है लेकिन अनु सिंह चौधरी की नीला स्कार्फ 2100 प्रतियो के बाद और नॉन रेजिडेंट बिहारी उससे भी कम प्रतियों के बिकने के बाद बेस्ट सेलर घोषित हो गए। सिर्फ इसलिए क्योंकि हिंदी में पाठक कम हो गए हैं। आप ही बताएं कि अनिल कुमार यादव का यात्रा वृत्तांत ये भी कोई देस है महराज या अजय तिवारी का डोंगी में डगमग सफर जैसा यात्रा वृत्तांत हाल में क्यों नहीं लिखा गया।
हमें खोजना होगा उस वजह को, कि आखिर क्यों हिंदी में पाठक नहीं बचे हैं। वरना हिन्दी फिल्मों के दर्शक न सिर्फ हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। हिन्दी गानों का जलवा बरकरार है और सिर्फ गानों के दम पर न जाने कितने म्युजिक चैनल अपनी दुकान चला रहे हैं। एफएम रेडियो भी मनोरंजन के नाम पर गाने ही तो परोसते हैं। वह भी फिल्मी।
साइबर संसार में हिन्दी ब्लॉगिंग अब गंभीरता की तरफ बढ़ गई है। फेसबुक के आने के बाद ब्लॉगिंग में सिर्फ संजीदा लोग बच गए हैं। हिंदी में कंटेंट की कमी तो नहीं है। लेकिन छपे हुए सामग्री के स्तर पर विविधता जरूरी है।
फेसबुक पर हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी है। रवीश कुमार ने जिस लप्रेक को शुरू किया उसे गिरीन्द्र नाथ झा ने रवीशमैनिया नाम देकर लगातारता दी। विनीत कुमार और गिरीन्द्र की कहानियों को भी राजकमल प्रकाशन ने लप्रेक श्रृंखला के तहत ही छापा है। हमारा फलक भी लप्रेक से प्रेरित था, लेकिन अगर 15 हजार सदस्यों वाले समूह में लोग कहानियां लिख रहे हैं और हिंदी में लिख रहे हैं तो समझिए कि इंटरनेट पर भी हिंदी का वक्त उज्जवल है।
मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि अभी तक नेट की पहुंच सिर्फ पैसे वाले अंग्रेजीदां तबके तक थी। स्मार्ट फोन पर हिंदी लिखने की छूट, और स्मार्टफोन के हर हाथ तक पहुंच ने यह सुनिश्चित कर दिया है, कि आने वाला वक्त हिंदी का ही है। सिनेमा, रेडियो और टीवी पर हिंदी का जलवा है। साइबर संसार में बढ़त बन रही है। बस सोचना है साहित्यकारों को, कि आखिर उत्कृष्टता और लोकप्रियता (कभी कभी एक चीज दोनों मुकाम हासिल कर लेती है, लेकिन सिर्फ कभी-कभी) दोनों में वह क्या चुनना चाहती है।
उन दिनों जब कागज पर हिन्दी का विकास हो ही रहा था और हिन्दी क्लिष्ट और आसान के बीच झूल रही थी, सिनेमा ने तय कर लिया था कि ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाने के लिए हिन्दी को आसान होना होगा। कई स्टूडियो ऐसे रहे जहां हिन्दी फिल्मों के संवाद लिखवाने के लिए गैर-हिन्दी भाषी या हिन्दी कम जानने वाले लेखक रखे जाते थे, जो आसान हिन्दी लिख सकें। आप याद करें, उन दिनों संवाद अधिक लोगों की समझ में लाने के लिए उनकी द्विरूक्ति होती थी। प्रमथेश बरूआ की देवदास को याद कीजिए, अरे देवदास तुम आ गए, हां पारो, मैं आ ही गया—सरीखे संवाद।
हिन्दी लोगों की ज़बान पर चढ़ने लगी। फिल्मों का बाजार पेशावर से लेकर चटगांव तक था। नेपाल से लेकर श्रीलंका तक। तो हिन्दी ने अपना परचम लहराना शुरू कर दिया मेरा जूता है जापानी रूस में हिट था तो सूरीनाम, फिजी, मॉरीशस में होना ही था। अमिताभ बच्चन उजबेकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक शहंशाह रहे।
आजादी के बाद हिन्दी संस्कृतनिष्ठ होती गई, और उर्दू फारसी की तरफ बढ़ गई। विभाजन की खाई के बाद उर्दू को मुसलमानों की भाषा करार दिया गया। लेकिन हिन्दी के इस संस्कृतकरण ने हिन्दी को लोगों की ज़बान नहीं बनने दिया था। लोग हिन्दी बोल तो रहे थे, लेकिन उनकी हिन्दी वह हिन्दी नहीं थी जो लिखी जाती थी।
रेडियो, गीतमाला, हिन्दी गीतो ने हिन्दी को ज़बान पर ला दिया। लेकिन हिन्दी ज़बान पर भले ही चढ़ गई हो। लोग सलमान-शाहरूख क असर में आज भी फिल्मी संवाद दोहरा लें, शोले के कितने आदमी थे से लेकर एक बार मैने कमिटमेंट कर दी...तक या फिर हम तुममें इतने छेद करेंगे...जैसे महापॉपुलर संवाद तक, लेकिन हिन्दी को पढ़ाई की भाषा बनने में अभी भी वक्त लगेगा।
जब तक हिन्दी रोजगार देने वाली भाषा नहीं बनेगी, तब तक इसका प्रसार भी नहीं होगा। हिन्दी साहित्य पढ़ने वाला या तो हिन्दी का शिक्षक बन सकता है या अनुवादक। हिन्दी के साहित्य को समृद्ध करने के लिए अनुवाद के काम को प्रकाशक कर तो रहे हैं लेकिन हिन्दीवालों की पढ़ने की आदत छीजती जा रही है।
विज्ञान की कोई मान्यता प्राप्त आखिरी किताब कौन सी है जो हिन्दी में छपी हो। हिंदी के अनुवादकों की क्या औकात है यह तो खुद अनुवादक ही बता सकता है या प्रकाशक। वैसे तो प्रकाशकों के सामने हिन्दी के लेखको की भी क्या औकात, लेकिन अगर कोई शख्स विज्ञान, या दर्शन के किताब को हिन्दी में अनुवाद कर भी दे तो क्या छपेगा कौना छापेगा और उस शख्स को भाषा की सेवा करने का तमगा मिलने के अलावा क्या मिलेगा यह सब जानते हैं।
एक और बात यह है कि हिन्दी मे जो साहित्य लिखा जा रहा है वह उत्कृष्ट तो है लेकिन लोकप्रिय नहीं हो पाता। जो लोकप्रिय है वह लुगदी ही है। सैकड़े में एक दो उत्कृष्ट लेखन होता है जो मास लेवल पर पसंद किया जाता है। वरना क्या वजह है कि गोरखपुर से लेकर झारखंड के देवघर तक चेतन भगत की किताब तो बिक जाती है, लेकिन किसी बड़े हिन्दी लेखक का उपन्यास नहीं बिकता।
इसकी एक वजह तो मुझे यह भी दिखाई देती है कि हिंदी का लेखक इस अहंमन्यता का शिकार होता है कि वह स्वांतः सुखाय लिख रहा है। तो फिर उसे बाजार का मोह नहीं होना चाहिए। प्रकाशकों की नीयत भी कुछ वैसी ही होती है। दूसरी बात, हिंदी का लेखक कहते ही हम सीधे साहित्यकार क्यों मान लेते हैं? हिंदी का लेखक कथेतर साहित्य भी तो लिख सकता है। लेकिन मुझे दुख है यह कहते हुए कि हिंदी में कथा हो या कथेतर पढ़ने वाले कम ही बचे हैं।
एक दो मिसालें मैं और देना चाहता हूं। अंग्रेजी के बेस्ट सेलर का खिताब शायद एक लाख प्रतियों के बाद मिलता है लेकिन अनु सिंह चौधरी की नीला स्कार्फ 2100 प्रतियो के बाद और नॉन रेजिडेंट बिहारी उससे भी कम प्रतियों के बिकने के बाद बेस्ट सेलर घोषित हो गए। सिर्फ इसलिए क्योंकि हिंदी में पाठक कम हो गए हैं। आप ही बताएं कि अनिल कुमार यादव का यात्रा वृत्तांत ये भी कोई देस है महराज या अजय तिवारी का डोंगी में डगमग सफर जैसा यात्रा वृत्तांत हाल में क्यों नहीं लिखा गया।
हमें खोजना होगा उस वजह को, कि आखिर क्यों हिंदी में पाठक नहीं बचे हैं। वरना हिन्दी फिल्मों के दर्शक न सिर्फ हैं बल्कि बढ़ रहे हैं। हिन्दी गानों का जलवा बरकरार है और सिर्फ गानों के दम पर न जाने कितने म्युजिक चैनल अपनी दुकान चला रहे हैं। एफएम रेडियो भी मनोरंजन के नाम पर गाने ही तो परोसते हैं। वह भी फिल्मी।
साइबर संसार में हिन्दी ब्लॉगिंग अब गंभीरता की तरफ बढ़ गई है। फेसबुक के आने के बाद ब्लॉगिंग में सिर्फ संजीदा लोग बच गए हैं। हिंदी में कंटेंट की कमी तो नहीं है। लेकिन छपे हुए सामग्री के स्तर पर विविधता जरूरी है।
फेसबुक पर हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ी है। रवीश कुमार ने जिस लप्रेक को शुरू किया उसे गिरीन्द्र नाथ झा ने रवीशमैनिया नाम देकर लगातारता दी। विनीत कुमार और गिरीन्द्र की कहानियों को भी राजकमल प्रकाशन ने लप्रेक श्रृंखला के तहत ही छापा है। हमारा फलक भी लप्रेक से प्रेरित था, लेकिन अगर 15 हजार सदस्यों वाले समूह में लोग कहानियां लिख रहे हैं और हिंदी में लिख रहे हैं तो समझिए कि इंटरनेट पर भी हिंदी का वक्त उज्जवल है।
मैं यह बात इसलिए भी कह रहा हूं कि अभी तक नेट की पहुंच सिर्फ पैसे वाले अंग्रेजीदां तबके तक थी। स्मार्ट फोन पर हिंदी लिखने की छूट, और स्मार्टफोन के हर हाथ तक पहुंच ने यह सुनिश्चित कर दिया है, कि आने वाला वक्त हिंदी का ही है। सिनेमा, रेडियो और टीवी पर हिंदी का जलवा है। साइबर संसार में बढ़त बन रही है। बस सोचना है साहित्यकारों को, कि आखिर उत्कृष्टता और लोकप्रियता (कभी कभी एक चीज दोनों मुकाम हासिल कर लेती है, लेकिन सिर्फ कभी-कभी) दोनों में वह क्या चुनना चाहती है।
3 comments:
nice lekh. but iske style typical hindi lekh wala hai. Hai hindi ke sath kya hua. hindi bhashiyon tumne bhasha nahin padhi... but actually problem ye hai ki lekhan ka ausat starr ghatiyaa gaya hai. main mool hindi bhashi nahi lekin yehi lagta hai. prakashak to har bhasha ke aisehi hain... urudu ki baat na karo. if your name is not ghalib javed or gulzar... koi chance nahin...
pardon my bhasha... hindi mein apna haath ek balaang....
अच्छा लेख है। हिंदी को पढने वाले वाकई कम हैं। इसका एक कारण ये भी है ज्यादातर व्यक्ति अंग्रेजी की तरफ मुड़ रहे हैं। आजकल प्राइवेट नौकरियाँ ही रोजगार का मुख्य साधन है। और वहाँ नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी की जरूरत से हर कोई वाकिफ है। अब टेक्नोलॉजी के माध्यम से हिंदी में भी मेल लिखे जा सकते हैं। लेकिन फिर भी कॉर्पोरेटस की de facto अंग्रेजी है। चाहे प्रेजेंटेशन हो या मेल, आपको अंग्रेजी का ही उपयोग करना पड़ता है। ऐसे में हिंदी वाला अंगेजी की तरफ ध्यान देता, उसे सलाह दी जाती है कि अंग्रेजी की किताब पढ़ें, अखबार पढ़े। अंग्रेजी में कठिन शब्द आता है तो गूगल में उसका अर्थ खोजता है और याद करता है। अगर ऐसे ही हिंदी में कोई कठिन शब्द आता है तो वो लेखक को गरियाता है कि कितने कठिन हिंदी लिखी है। ये सोच का फर्क है। हर जगह हम देखते हैं। जब बॉलीवुड जो कि एक हिंदी सिनेमा है उसमे काम करने वाली अदाकारा कंगना रानौत पे जोक इसलिए बनते हैं क्योंकि उनकी अंग्रेजी कमजोर है तो आप सोच सकते हैं कि हिंदी के प्रति सोच कैसी है।
इसके इलावा एक और बात है जो हिंदी में पाठकों की कमी के लिए कारण है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में पढने का रिवाज ही नहीं है।मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से ये कह रहा हूँ। यहाँ उपन्यास पढना और पत्ते खेलना एक सामान और वक्त की बर्बादी का जरिया माना जाता है। ये सोच लगभग हर घर में है। बारहवीं तक मैंने भी हिंदी का कोई उपन्यास नहीं पढ़ा था। जहाँ अंग्रेजी में १० वी में village by the sea पाठ्यक्रम का हिस्सा था, वहीं हिंदी में कोई ऐसा बाल उपन्यास हिंदी के पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं था। कॉलेज के चार सालों में काफी अंग्रेजी के उपन्यास पढ़े।फिर अमृता प्रीतम जी का जेबकतरे और पिंजर पढ़ा। उसके बाद अब नौकरी कर रहा हूँ, पैसे कमा रहा हूँ तो हिंदी के साहित्य को खरीद के पढता हूँ। ये सब बातें इसलिए बता रहा हूँ कि यही हमारे युवाओं के साथ होता है। उनका हिंदी साहित्य से जुड़ाव बचपन से ही नहीं है। इसलिए वो चेतन भगत को तो पढ़ते हैं लेकिन सुरेन्द्र मोहन पाठक को नहीं पढ़ते। जबकि पाठक साहब के उपन्यास मुझे अच्छे लगते हैं बनिस्पत भगत साहब के उपन्यासों के। हमारे लोग अरुंधती रॉय,झुम्पा लाहिरी को तो पढ़ते हैं लेकिन ममता कालिया,मैत्रेयी पुष्पा, मन्नू भंडारी या चित्रा मुद्गल जी का नाम भी उन्होंने नहीं सुना होता है।
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