Tuesday, July 29, 2008

इश्क और बरसात के दिन

बरसात के दिन खूब नॉस्टेल्जिक करते हैं मुझे। दिल्ली में तो रिमझिम होती है।
मकान बचपन के दिन में हम देखते थे कि आसमान हठात् काले रंग का हो जाता था। और बौछारें शुरु..। कमरे में बैठे हैं.. उजाला घटने लगा.. मां ने आदेश दिया.. आंगन से कपड़े उठा लाओं जबतक कपड़े उठाने गए.. तब तक तरबतर..। बड़ी बड़ी बूंदें.. ऐसी मानो किसी बंगालन कन्या के बड़े-बड़े नैन हों।


बरसात होती तो हमारे घर के चारों तरफ जो खाली ज़मीन थी उसमें अरंडी वगैरह के झाड़ उग जाती॥ हरी चादर बिछ जाती। हमारे पैतृक गांव से बाढ़ की खबर आती। मकान बह जाते, क्यों कि फूस से बने होते थे। मकान क्या होते थे, झोंपड़ियां हुआ करती थीं, बांस के फट्टों को बांधकर उनमें अरहर की सूखी टहनियां कोंचकर मिट्टी से लीप दिया जात। हो गई दीवार तैयार, तो ऐसे मकान के लिए क्या रोना।


गांव में हमारे मकान को उंचे टीले की तरह मिट्टी भरकर बनाया गया बाद में। फिर बरसात में बाढ़ आने के बाद आंगन तक पानी आता तो सही लेकिन घर नहीं गिरता। नीचे उतरते ही बड़ा मैदान, जिसके बीचों-बीच पाकड़ का बड़ा-सा पेड़ है। लोग कहते हैं कि उसमें शिव के गण भैरव का निवास है। भैरव बाबा॥। उनका चबूतरा भी बचा रहता। कमर तक पानी..हमारे चचेरे भाई मछलियां ढूंढते।


उस भैरव बाबा के उस आंगन से घर के आंगन के लिए चढ़ाई करते वक्त हम चढाई पर फिसलन से धड़ाके से गिरते थे। कई लोगों ने बगटुट भागने के दौरान खुद को दंतहीन पाया।

बहरहाल, मधुपुर, झारखंड का क़स्बा है, जहां हम पिताजी के निधन के बाद भी रहते रहे। लाल मिट्टी का शहर.. बरसने के फौरन बाद पानी गायब.. कहां जाए पता ही नहीं। सड़क उँची-नीची। पत्थरों भरी। वहां बंगाल का बहुत प्रभाव था। लड़कियों के जिस स्कूल के पीछे हम खेलने जाते वहां घास की चादर बिछ जाती। एक झाडी़, जिसका नाम पता नहीं उसमे पीले-पीले फूलों को देखकर मन खिल जाता। भटकटैया के फूल चूसते, मीठेपन का अहसास होता। दूब की चादर पर लाल-लाल बीर बहूटियों को पकड़ लेते। हथेलियों पर लाल बीर बहूटियो को देखकर हम आपस में बातें करते कि यही रेशम के कीड़े हैं। लेकिन बाद में पता चला कि रेशम के कीड़े अलग होते हैं। दरअसल बीर बहूटियों के थोरेक्स बड़े मखमली होते थे तो हमारी जुगाड़ तकनीक ने उसे रेशम का कीड़ा मान लिया था। अस्तु॥

असली मज़ा तो तब आता, जब स्कूल जाने के वक्त जोरदार बारिश हो रही हो, सुबह से ही। माताजी, फिर भी नहीं मानती और छाता लेकर स्कूल के अंदर तक खदेड़ आतीं। बदले में हम वापसी में काले रंग के चमड़े के जूतों में मिट्टी लपेसकर लाल कर आते। गीले जूतों से अगले दीन स्कूल जाने की संभावना प्रायः खत्म हो जाती।

लेकिन उसेक बाद घर आते ही जूतों की हालत देखकर माताजी उन्हीं जूतों से हमें दचककर कूटतीं। हमारे कई सीनियर बरसात में प्रेम-ज्वर से पीडि़त हो जाते। बाद में भाभी ने बरसात होते ही चाय और पकौड़े का चलन शुरु किया, जिसे हम आज भी जारी रखने के मूड में हैं। हमारे मन में आज भी बरसात का मतलब जमकर बरसना होता है। दिल्ली में तो महज फुहारें होती है। बाद में जब हमने सिगरेट पीना शुरु किया तो चोरी छिपे बारिश होते हुए और अपने दोस्त की प्रेमिका के घर के सामने से भींगते हुए सिगरेट पीने का मज़ा ही कुछ और होता। हां, मीरा के घर के सामने हम सिगरेट को अपने होंठों में ले लेते। ताकि दोस्त की इमेज पर असर न पड़े।

हम लोग कई बार दूर गांव की तरफ निकल जाते थे। झारखंड का ये इलाका हरियाली के लिए मशहूर है, और उस हरियाली को मैं आज भी अपने अंदर जिंदा महसूस करता हूं। हरियाली तो दिल्ली में भी है लेकिन पता नहीं क्यों झारखंड की हरियाली में जो गंध थी, यहां महसूस नहीं हो पाती। झारखंड में इस वक्त पलाश के जंगल में पत्ते आ जाते हैं। और साल के हरियाली में अलग-अलग शेड्स आ जाते हैं।

3 comments:

बालकिशन said...

बरसात में भींग कर मज़ा आ गया दोस्त.
बहुत सी यादें ताज़ा हो गई.

नीरज गोस्वामी said...

बचपन के दिन भी क्या दिन थे...उड्ते फिरते तितली बन...बहुत रोचक ढंग से लिखी है अपने बचपन की बारिश की यादें...फोटो भी गज़ब के हैं.
नीरज

Udan Tashtari said...

वाकई, बहुत सी यादें ताज़ा हो गई...आभार यादगार लम्हों मे लौटा ले चलने का.