दिलीप-देवानंद और राज कपूर के दौर के ठीक बाद या उसके दौरान ही हिंदी सिनेमा में सुपरस्टारडम की शुरुआत हुई। इस दौर में राजेश खन्ना रौमांटिक किरदारों में नजर आते रहे। वे दिलीप कुमार की परंपरा में थे। किशोर कुमार की आवाज़ गीतों के लिए परदे पर राजेश खन्ना की आवाज़ बन गई। राजेश खन्ना दरअसल एक मैटिनी आइडल थे।
बाद अपने जमाने के टॉप आइडल राजेश खन्ना के लिए जनता के बीच एक खास क़िस्म का हिस्टिरिया था।
लेकिन उनके ज़माने तक समाज में बहुत कुछ बदल रहा था। सिनेमाई परदे पर पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गाने लोगों को पसंद तो आ रहे थे और दुनियावी मुश्किलों को लोग कुछ देर के लिए भूल तो जाते लेकिन यह महज इसलिए था क्योंकि दर्शक के पास विकल्प नहीं थे।
मुख्यधारा के सिनेमा में विकल्प नहीं थे और दर्शक अभी तक गंभीर कला सिनेमा को झलने के मूड में नहीं था। ऐसे में कुरते और पैंट का काकटेल चलता रहा.. किशोर कुमार की आवाज़ में गाने बजते रहे, फिल्में हिट होती रहीं लेकिन इनमे समाज का सच नहीं था।
राजेश खन्ना के कुरते और पैंट के कॉकटेल की भी कहानी है, खासकर उनके शर्ट को बाहर रखने की भी। उनकी कमर ज्यादा फैली हुई थी, तो उसे ढंकने के लिए शर्ट बाहर रखना ज़रुरी था। राजेश खन्ना के गरदन को अदा से हिलाना एक स्टाइल स्टेटमेंट बन गया। रोमांस के बाद०शाह बन चुके खन्ना पेड़ों के इर्द-गिर्द ही दौड़-दौड़ कर नायिकाओं के आगे पीछे गाने गाते रहे। हां, आनंद जैसी कुछ फिल्में ज़रुर बेहतर थीं, लेकिन इनमें निर्देशक की कुशलता अधिक नायक की अपनी छवि कम थी। जाहिर है, सिनेमा का एक बेहद प्रचलित मुहावरा विलिंग सस्पेंसन ऑफ़ डिसविलिफ़ सच होता दिख रहा था।
लेकिन तब राजेश खन्ना के इस सुनहरे सपनों वाले हवाई किले को तोड़ने वाली एक बुलंद शख्सियत की ज़रुरत थी। और ये शख्सियत सिनेमा में दस्तक दे चुकी थी।
1 comment:
रोचक जानकारी है आपकी इन पोस्ट्स में...सिनेमा का इतिहास समटने का अद्भुत काम कर रहे हैं आप...अब अमिताभ की कहानी सुनने को मिलेगी...इंतज़ार है...
नीरज
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