Wednesday, August 11, 2010

पिता को खोना सबसे बड़ा नुकसान है...

सावन की अमावस्या मेरे पिता की पुण्यतिथि होती है..। यह तारीख कल थी..। पिता रोज़ याद आते हैं लेकिन कल उन्हें याद करने की कई वजहें पैदा हो जाती हैं।

मैं मानता हूं कि जीवन में मां की मौजूदगी उसी तरह ज़रुरी होती है जैसे कि पौधे के लिए पानी। लेकिन पिता की मौजूदगी वैसी ही होती है जैसे उसी पौधे के लिए धूप, जैसे आंगन में नीम का छायादार पेड़...। मेरे पिता कोई बहुत असादारण इंसान नहीं थे। असाधारण इस अर्थ में कि उन्होंने किसी अंबानी की तरह न तो कोई बिज़नेस अंपायर खड़ा कर दिया, न अमिताभ की तरह कोई इतना नाम पैदा कर पाए कि बेटे-बेटियों यानी हमलोगों का भविष्य कुछ सुरक्षित कहा जा सके।


मेरे पिता महज एक टीचर थे। टीचरी उनका खानदानी पेशा था..मेरे पिता यानी रामदेव ठाकुर के पिता भी टीचर थे..क्योंकि आजादी के आंदोलन से जुड़ने खासकर गरमपंथियों से जुड़ने की वजह से सरकार ने खेती की सारी जमीनें छीन लीं। उनदिनों मिथिला दरभंगा महाराज की ज़मींदारी में था, और उनके दायाद-बांधव होते हुए भी अंग्रेज सरकार के खिलाफ होना कोई बुद्धिमानी मानता न था। उनदिनों भी टीचरी कोई पेट पालने का जरिया तो नहीं था कि ट्यूशन वगैरह पढ़ा लेते।

तो पिताजी का जीवन गरीबी में शुरु हुआ और खत्म भी गरीबी में ही हुआ। गरीबी से निकलने का न तो उन दिनों कोई उपाय था, आज भी नहीं है।

हाल ही में घर गया था, मधुपुर, तो पिताजी के हस्तलेख में कविता-पुस्तक पर नजर पड़ी। मां ने अमानत की तरह इसे गोदरेज के आलमिरे में संभाल रखा है। लॉकर में। कविता-पुस्तक कोई किताब नहीं है, यह लाल-नीली-हरी रोशनाई से पिताजी के सुंदर हस्तलेख में उनकी रचनाओं का संकलन भी है और उनकी डायरी भी।

उस दौर में जब पूरे देश में रौमांस का जादू सर चढ़कर बोलता था और देव आनंद और उसके बाद राजेश खन्ना लोगों के आइडल थे, पिताजी ने सिनेमा को कभी आम आदमी का माध्यम नहीं माना। उनके हिसाब से सिनेमा भूखे लोगों की भूख नहीं मिटा सकता है और यह भूखे लोगों की भूख को उसी तरह कुछ देर के लिए सुन्न कर देता है जैसे सिरदर्द की गोली दर्द को खत्म नहीं करती सुन्न कर देती है तंत्रिका तंत्र को।

मेरे पिता हारमोनियम, सितार और तबले बहुत अच्छी तरह बजा लेते थे। कविताएं लिखते थे..उनकी कविताओं में मैथिली कविताएं बाहुल्य में हैं। एक सब्जी होती है तोरी- जिसे मैथिली में कहते है झिंगुनी, या झिमनी। उसपर कविता है...उसके हरे पन पर उसके ताज़ेपन पर।

खैर..पिता को मैंने तब खो दिया जब मैं यह भी नहीं जानता था कि जीवन है क्या...जीवन में चीजों और इंसानों की अहमियत क्या होती है...जब मैंने बोलना भी नहीं सीखा था। 1982 से 2010....28 साल कम नहीं होते। अतीत की गर्द हर चीज़ पर जम जाती है। लेकिन पिता की स्मृतियां ऐसी हैं कि लगता है पिता आज भी मेरे सामने खड़े हैं। बेशक, उनकी तस्वीर कुछ धुंधली सी है।

दिक्कत ये कि पिता को तस्वीरें खिंचवाने से नफरत। बस , उनकी एक ही तस्वीर हमारे पास बची थी। और वह थी उनके शव के पास बिसूरती मां और हम सारे बच्चे..। वह तस्वीर हमें हमेशा विचलित ही करता है। फिर मेरे अध्वसायी बड़े भैया ने पिता के कॉलेज, मधुबनी से उनकी तस्वीर निकलवायी। अब वह एक कॉपी के तौर पर हमारे सामने हमारे दिलों के पास है।

मेरे पिता चित्रकला में भी हाथ आजमाते थे। रोशनाईयों से द्विआयामी चित्र उकेरना उनका शगल था। और इसी वजह से उनके कई विद्यार्थियों में चित्रकला की लगन भी लगी। पिता की मृत्यु के ठीक बाद सुरेश मांवडिया, जो बीएचयू से ताजा-ताजा बीएफए कर निकले थे या उस दौरान पढाई कर ही रहे थे...उनका एक पोट्रेट बनाकर मां  को भेंट की थी।

बहरहाल, पिता और उनके मूल्यों ने झंझावातों से हमें निकाला है। विरासत में कोई दौलत वह छोड़ नहीं पाए, लेकिन अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाने की उनकी चाहत पर हम कितने खरे उतर पाए यह तो वह स्वर्ग से ही देख पा रहे होंगे।

लेकिन फिर भी यह तय है कि जिन परिस्थितियों से मैं दो-चार हुआ, जो संघर्ष करना पड़ा, वह शायद पिता जीवित होते तो मुझे नहीं करना होता। जिन पलों में मुझे जीवन के आगे झुक कर समझौता करना पडा, पिता होते तो शायद मुझ जैसे कमजोर पौधे को सहारा दे देते...पर अफसोस। पिता को खोना दुनिया का सबसे बड़ा नुकसान है.....

5 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत संवेदनशील पोस्ट ..

डॉ .अनुराग said...

समझ सकता हूँ...इस दर्द को....ओर उम्मीद करता हूँ इन दुखो के बाद आप एक बेहतर पिता....बेहतर बेटे ....ओर एक बेहतर इनसान बन पायेगे

उन्मुक्त said...

मन को छू गयी।

राज भाटिय़ा said...

आप की आज की पोस्ट ने बहुत कुछ याद दिला दिया, आप के दुख मै हम आप के साथ है, आप ने लिखा है कि....विरासत में कोई दौलत वह छोड़ नहीं पाए, अरे इतने अच्छॆ संस्कार डाल गये आप सब मै, यह दोलत सब से बडी दोलत है विरासत मै, आप के पिता जी को नमन

vidhi mehta said...

This autobiography really touch my heart. I think that you have struggled so much to reach this post. It is more important to have you good thoughts.I think that you got good thinking from your father. You can remeber your father by good thinking,and all that things he liked.like maithili poet,paintings etc.