पीपली लाइव हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के राजनैतिक कमेंट्स को फिर से पढ़ने सरीखा है। आप पैनेपन को अगर महसूस नहीं कर सकते तो आपको यह फिल्म नहीं देखनी चाहिए।
हर चीज की तरह पीपली लाइव को देखने के दो नजरिए हो सकते हैं, पहला नज़रिया तो मीडिया की अतिसक्रियता वाला है। दूसरा नज़रिया, गांव के किसानों की आत्महत्या का है। पूरी फिल्म में सिनैमेटोग्रफी जानदार है..। बहुत दिनों के बाद, संभवतः वेलकम टू सज्जनपुर के बाद- मैंने गांव का पैनोरमिक व्यू अपने खालिस और सही रुप मे रुपहले परदे पर देखा।
पीपली लाइव समाज या प्रशासन, मीडिया या राजनीति शहर और गांव को निशाना नहीं बनाती। यह सिर्फ अपने अस्तित्व के लिए परेशान तंत्रों द्वारा ओढ़ ली गई जिम्मेदारी की चादर को खींच देती है। ढाई सौ या ज्यादा में टिकट खरीद कर पॉपकॉर्न और ठंडा पीते हुए इस फिल्म का मजा एकआयामी होकर रह जाता है।
दरअसल, फिल्म में संजीदगी लाने वाले मुझे महज दो पात्र लगे, एक राकेश- जो छोटे अखबार का रिपोर्टर है...और दूसरा होरी महतो। पीपली लाइव में राकेश और होरी ही लेखक-निर्देशक की सोच, जिज्ञासा, मजबूरी और दुखद अंत का संवाहक है।
पीपली लाइव समाज की विडंबनाओं और विद्रूपताओं को उजागर करती हुई नत्था, बुधिया, झुनिया, बूढ़ी मां, होरी के जीवन का परिचय देती है। नत्था की आत्महत्या की घोषणा खबर है, लेकिन होरी की गुमनाम मौत का कोई गवाह नहीं है। निश्चित ही अनुषा के मानस में प्रेमचंद की गोदान का नायक होरी जिंदा रहा होगा।
पूरी फिल्म में आर कई बार नत्था को देखते हैं। उनके हिस्से में संवाद कम हैं...लेकिन रघुवीर यादव ने अपने कंधे पर कई जिम्मेदारियां ढोई हैं। फिर भी यादव का किरदार भी बहुआय़ामी नहीं हो पाया है।
जो सीन आपको याद रखना चाहिए और जिस सीन को ज्यादातर लोग रिकॉगनाइज़ नहीं कर पाएऐगे वह है विभिन्न बाइट्स और लोगों के चेहरों के मोंटाज के बीच कठपुतलिय़ों का इंसर्ट..और फिर राकेश को जब पता लगता है होरी की मौत का तब उसे मीडिया की असलियत और जिंदगी की असलियत का भान होता है। उस दौरान आप देखते हैं कि एक लड़की रस्सी पर अपना संतुलन बनाने की कोशिश कर रही होती है।
कभी मीडिया में रही अनुशा रिज़वी के लिए यह सीन बड़ा इंपॉर्टेंट रहा होगा। उनकी पटकथा का जानदार हिस्सा..यह सीन संतुलन साधने की सीमारेखा बताता है।
बहरहाल, पीपली लाइव हमारे किसानों की दशा पर एक डॉक्यु-ड्रामा सरीखा है। लेकिन कुछेक लूपहोल्स भी है। जैसे कोई भी चैनल अपने ओबी वैन को छतरी तान कर सड़क पर चलने की इजाजत नहीं देगा। यह गलती अनुशा ने कैसे की मुजे नहीं पता।
दूसरे, दीपक (अर्थात् चौरसिया) का किरदार ज्यादा हल्का और इंडियाटीवीनुमा है। लेकिन वहीं अंग्रेजी की पत्रकार (संभवतः- बरखा) ज्यादा संतुलित नजर आती है। इसके मुझे कुछ कारण पहले ही नजर आ गए। फिल्म शुरु होने से पहले ही प्रणय और राधिका को धन्यवाद दिया गया है। ऐसे में अंग्रेजी चैनल से जुड़ी रहीं अनुषा अंग्रेजी के पक्ष मे ही खड़ी नजर आएं तो क्या हैरत?
बहरहाल, पूरी फिल्म प्रशासन और और सरकार, मीडिया और राजनितिज्ञों पर कटाक्ष करती जाती है। इस फिल्म को आर्ट और कमर्शियल सिनेमा के बीच की कड़ी होने का पूरा हक़ है।
लेकिन फिल्म देखने जा रहे हैं, तो इसकी गालियों बेहद ओरिजिनल चरित्रों और संवादों पर हंस कर वापिस मत आ जाएं। इससे निर्देशक की कोशिशों पर पानी फिर जाएगा। अच्छो हो आप व्यंग्य और विद्रूप को समंझें ....व्यंग्य सिर्फ हंसी में उडाने की चीज़ नहीं।
और हां, दस्तावेज़ की तरह बनी ये फिल्म आने वाले दिनों में सिनेमा के विद्यार्थियों को स सिनेमा पर समाज के असर पढाने के काम आएगी।
6 comments:
लोग कुछ भी कहें पर इस फिल्म ने हिंदी पत्रकारों के मुंह पर तमाचा मारा है. चैनल के नाम पर पूरे दिन नुक्कड़ वाली नौटंकी देखते हैं लोग. अब भी वक्त है हिंदी वाले अंग्रेजी वालों से कुछ सीख लें.
मैंने फिल्म देखी है...आपकी राय से शत प्रतिशत सहमत हूँ...
नीरज
वैसे कुछ झलकिया "ए वेडनसडे "में भी शुरूआती दौर में दिखाई गयी थी ..ओर बरसो पहले एक पिक्चर आयी थी ..प्रथा उसमे राजनैतिक गठजोड़ से लेकर ओर दूसरी समस्याओं पे सही तहरीर थी....इस पिक्चर को हिप करने वाले भी मीडिया के लोग है .जो वाह वाह करते है पर स्टूडियो में जाकर फिर भूल जाते है ....यकीन न हो तो आमिर के इंटरव्यू के बाद जितने भी प्रोग्राम हिंदी चैनल पर हुए देख लो....
पर इन बहसों से परे मै ऐसी फिल्मो का स्वागत करता हूँ.....मेन स्ट्रीम का किसी नायक का इनसे जुड़ना अच्छी खबर है .बरसो पहले शशि कपूर ने भी ऐसा ही किया था
bahut hi majedar or bahuaayami vivran tha.. acha laga padh ke.. or bahut khuch janne ko mila...
bahut hi majedar or bahuaayami vivran tha.. acha laga padh ke.. or bahut khuch janne ko mila...
dilchasp.bahut santulit moolyankan hai aapka.padh kar naya drishtikon mila film ko saraahne ka.
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