Friday, October 8, 2010

खुले बालों वाली लड़की- चौथी किस्त

तीसरे अंक से आगे....

अभिजीत ने खुद को बंटा हुआ पाया।

अनामिका का हताश होता जा रहा प्रेमी...अपनी पत्नी का पति...या फिर अपने बेटे का बाप...जिसे कोई गैर-जिम्मेदार कहता है कोई अभागा...।


अभिजीत को सिर भारी लगने लगा। लगा, किसी ने माथे पर चक्की रख दी हो। पेट में पहले से ही दर्द था..डॉक्टर ने क्या कहा वह सिर्फ प्रशांत को पता है। जहां तक अभिजीत को बताई गई थी, वह जान गया था कि अब उसकी जिंदगी में दर्द हमेशा हमसफर बनकर रहेगा।

डॉक्टर ने  यही बात कही थी..दर्द हमेशा रहेगा।


लेकिन नासपीटे डॉक्टर को क्या मालूम कि यही चीज तो अभिजीत के साथ हमेशा रही है। कभी दिल में, कभी पेट में, और कभी दिमाग में..दर्द ।

अभिजीत ने जितना दर्द सहा, उतना ही बांटा भी शायद। यही बात  अनामिका कहती थी। अना को नही मालूम की अभिजीत दर्द के उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां से वापस लौटना नामुमकिन है। कौन बताएगा उसे... ?

अभिजीत को लगा सूरज का सारा भार उसी के सर पर है।

सूरज सिर पर चढ़ता जा रहा था..। उन्ही दोपहरों में लंच साथ खाए जा रहे थे..बातों का सिलसिला लंबा खिंचने लगा था, कॉफी और चाय साथ पी जा रही थीं..और मोबाइल फोन के इनबॉक्स सिर्फ अनामिका के मेसेज से भरे पड़े होते थे।

छोटी-छोटी बातों के संदेश। आज ये खाया, ये पहना ..यहां गई, उससे मिली। बातों का अनंत सिलसिला...रिपोर्ट फाइल करने के बाद भी अनामिका की एक झलक पाने को वह दफ्तर में जमा रहता।

जब भी अभिजीत अनामिका के सामने रहता...वह अचानक अपनी घनेरी जुल्फें खोल लेती। अना की जुल्फों के आगे काहे का सावन..और काहे के आषाढ़ के मेघ।

बाहर बादल फिर बरसने लगे थे।

अबकी बार  दिल्ली में आषाढ क्या, सावन क्या और क्या भादों, जमकर बरसात हुई है।

वह भी बरसात का ही मौसम था...न्यूज़ रुम में अना के खुले बाल... बाहर शची इंद्राणी के।  हरे पेड़ो की पृष्ठभूमि में गिरती बौछारें कभी भी ऐसी भली नहीं लगी थीं उसे। अभिजीत कभी बरसात के इस रोमानी अंदाज को पहचान ही नही पाया था। बचपन में बरसात का मतलब था, गिलास-कटोरी जो भी मिले लेकर दौड़ जाना और उस जगह पर लगा देना, जहां से खपरैल टपकती थी।

घनेरी जुल्फें खुलतीं तो अंधेरा छा जाता। लेकिन उस अंधेरे में अभिजीत की ज़बान बंद हो जाती। वह कई दिनों तक पेशोपेश में पड़ा रहा।

पहले खबरों के  मेसेज, फिर चुटकुले..फिर आपसदारी की बातें..हॉबीज़। मोबाईल हरदम हाथ में. पता नही कब मेसेज आ जाए। फिर बातों का सिलसिला...।

बातों का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता। दफ्तर के पीछे लॉन में अभिजीत दिन में कई बार जाकर सिगरेट फूंक आता, और बोगनवेलिया के गाढ़े हरे रंग के पत्तों पर उसका नाम नाखूनों से लिख आता। घनेरी जुल्फों को मादक बना देती थीं, उसकी गहरी आंखें। सांवली-सी सूरत...अभिजीत ठगा-सा रह जाता था।

ठगा-सा एक बार फिर रह गया अभिजीत जब सूरज सिर के ऊपर से निकल कर उसकी छाती  की ओर चढ़ गया और प्रशांत ने धमक कर कहा, 'चलो।'

'किधर....?'

'हम पहाड़ों की तरफ चल रहे हैं...शायद अल्मोड़ा, या नैनीताल ...कहीं भी।'

'काहे भाई..।'

'हरिद्वार नजदीक पड़ेगा साले।' प्रशांत ने चिढ़कर कहा।

'हां हरिद्वार नजदीक पडेगा, लेकिन बरसात का मौसम है, मर गया तो लकडियां भी गीली मिलेंगी। धुआं-धुआं कर जलूंगा।'

वैसे ही स्साले कौन सा उपकार कर रहे हो जीकर..प्रशांत ने फिर से कहा। ...'तुम्हारे तलाकनामे के पूरे काग़ज़ात आ गए हैं। टेबल पर रख दिए हैं। ....चूतिए.... पैदा हुए थे तो क्या कपार पर कुत्ते से मुतवा कर आए थे..' यह चिढ नही थी, बरसों पुराना दोस्ती का प्यार था।

4 comments:

Udan Tashtari said...

लगा कि बरसों पुराना दोस्ती का प्यार है....:)

हास्यफुहार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। नवरात्रा की हार्दिक शुभकामनाएं!

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प...ओर वाकई गुस्ताख सी


.टेम्पलेट बदलो.....खुलने में ज्यादा समय ले रहा है ......ओर सूट नहीं कर रहा तुम्हारे मूड को....

vidhi mehta said...

nice
But it seems that in the story no happy moments, only sad moments.