आखिर उस व्यक्ति का क्या किया जाये जिसका सब कुछ – मन, आत्मा, स्वभाव और संस्कार – स्त्री का है और शरीर पुरुष का। हमारा समाज आज भी इस जटिल स्थिति का सामना विवेकपूर्ण ढंग से नहीं कर पा रहा है। ऐसे व्यक्तियों को या तो अपमान मिलता है या पुरुष वेश्या की गाली।
‘जस्ट एनादर लव स्टोरी’ बांगला रंगमंच के पहले समलैंगिक कलाकार चपल भादुड़ी के अतीत और वर्तमान की मार्मिक गाथा है जो अब 70 साल के हो चुके हैं। उन्हें कोलकाता में लगभग भुला दिया गया है और उनके जीने का सहारा केवल उनकी यादें हैं।
अपने जमाने में वे स्त्री पात्रों की भूमिका निभाने वाले अकेले सबसे बड़े कलाकार थे। मंच पर उनका स्त्री का अभिनय जादू पैदा करने वाला था। आज का एक सफल फिल्मकार अभिरूप सेन उनके जीवन पर एक वृत्तचित्रनुमा फीचर फिल्म बनाना चाहता है।
अभिरूप सेन घोषित रूप से खुद एक समलैंगिक व्यक्ति है। चूंकि वह बहुत अमीर और प्रभावशाली है इसलिए उसको वह सब कुछ नहीं झेलना पड़ता है जिसे चपल भादुड़ी ने झेला था। फिल्म में चपल भादुड़ी ने खुद अभिनय किया है और उनके अतीत का चरित्र ऋतुपर्णो घोष ने निभाया है।
ऋतुपर्णो घोष ने इस चरित्र के साथ-साथ समलैंगिक फिल्मकार का चरित्र भी निभाया है। वे दोहरी भूमिका में हैं और उनकी दोनों भूमिकाएं अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल का काम करती हैं।
इस फिल्म में ऋतुपर्णो घोष ने दोनों भूमिकाओं में विलक्षण काम किया है। एक निर्देशक के रूप में अपनी कई फिल्मों – उनीशै एप्रिल, चोखेरबाली, दोसोर आदि – से विशिष्ट पहचान बनाने वाले ऋतुपर्णो घोष की स्पष्ट छाप इस फिल्म पर दिखाई देती है।
फिल्म का एक-एक फ्रेम एक-एक एक्शन, एक-एक संवाद और एक-एक कट ऋतुपर्णो घोष का लगता है। चपल भादुड़ी और ऋतुपर्णो घोष के चरित्रों की टकराहट उनके बीच एक अद्भुत बहनापा पैदा करती हैं, जो उनकी अमीरी और छद्म आजादी के कवच को तोड़ती हुई उन्हें उनकी नियति तक ले जाती है। उनकी नियति है समाज में हाशिये की जिंदगी जीना और जीवन भर भावनात्मक संघर्ष झेलना।
चपल भादुड़ी अपने जमाने में अपना अधिकतर समय अपने पुरुष प्रेमी की पत्नी के साथ सह-अस्तित्व की खोज में गंवा देता है, तो अभिरूप सेन को आज के उत्तर आधुनिक समाज में भी वही सब दोहराना पड़ता है।
फिल्म के अंतिम दृश्यों में अभिरूप सेन (ऋतुपर्णो घोष) के पुरुष प्रेमी की पत्नी गर्भवती है और वह अपने हक के लिए उनसे एक आत्मीय बातचीत करती है। एक मार्मिक संवाद है जिसमें अभिरूप पूछता है कि यदि वह शरीर से औरत होता तो भी क्या उसे यही प्रतिक्रिया झेलनी पड़ती। जाहिर है तब इस प्रेम त्रिकोण का एक दूसरा ही रूप होता।
फिल्म बिना कोई फुटेज बर्बाद किये इस प्रेम त्रिकोण के एक-एक सामाजिक और भावनात्मक पक्षों पर दार्शनिक अंदाज में विचार करती है। ऋतुपर्णो घोष की यह फिल्म अपने अनोखे विषय के कारण नहीं, अपनी सिनेमाई कलात्मकता और समझ के कारण महत्वपूर्ण है।
आश्चर्य है कि बंगाल के इस जीनियस फिल्मकार की नई फिल्म ‘नौकाडूबी’ को इस फिल्मोत्सव में बहुत अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिली है। सुभाष घई की कंपनी मुक्ता आर्ट्स ने इसे प्रोड्यूस किया है। बांगला फिल्मों के सुपर स्टार माने जा रहे प्रसेनजीत चटर्जी और राइमा सेन जैसे कलाकारों ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई है।
यह फिल्म रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक प्रेम कहानी पर आधारित है। जो 1920 के बंगाल में घटित होती है। उसी दौरान इस पर एक मूक फिल्म भी बनी थी। बाद में सुनील दत्त और तनूजा अभिनीत ‘मिलन’ फिल्म में इसी कहानी को दोहराया गया था।
---अजित राय
2 comments:
kabhai kabhi aisa bhi ho jata hai jab jatil muddon par baat karne mein admi ghabrata hai unse bachne ki koshish karta hai. is koshish mein mudde peeche chut zaroor jaate hain lekin khatm nahi ho jate. yeh film unhi muddon par ek sarthak bahesh ko pehel deti hai.
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