(जिंदगी में जो असल दिखता है वह कल्पना का भ्रम है, और जो भ्रम है दरअसल वही वास्तविकता है। 'सर्टीफाइड कॉपी' अब्बास किरियोस्तामी की ताजा फिल्म है..इस पर विस्तार से लिख रहे हैं अजित राय)
अब्बास किरोस्तामी की नयी फिल्म ‘सर्टीफाइड कॉपी’ 2010 इस वर्ष कॉन फिल्मोत्सव का एक प्रमुख आकर्षण रही है। इस फिल्म में उत्कृष्ट अभिनय के लिए जूलियट बिनोचे को कॉन फिल्मोत्सव में सर्वश्रेष्ठ अभिेनेत्री का पुरस्कार मिल चुका है।
भारत के 41वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे देखने के लिए दर्शक इतने उतावले हो गए कि टिकट खिड़की खुलने के तुरंत बाद ही पहला शो हाउस फुल हो गया। दर्शकों, समीक्षकों और फिल्म-प्रेमियों की जबर्दस्त मांग पर आयोजकों को रात के 10 बजे वाले शो में इसका दोबारा प्रदर्शन रखना पड़ा।
भारत के 41वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे देखने के लिए दर्शक इतने उतावले हो गए कि टिकट खिड़की खुलने के तुरंत बाद ही पहला शो हाउस फुल हो गया। दर्शकों, समीक्षकों और फिल्म-प्रेमियों की जबर्दस्त मांग पर आयोजकों को रात के 10 बजे वाले शो में इसका दोबारा प्रदर्शन रखना पड़ा।
कहा जा रहा है कि इस विश्वप्रसिद्ध ईरानी फिल्मकार की यह पहली यूरोपीय फिल्म है, जिसे फ्रांस और इटली के सहयोग से उन्होंने पूरा किया है। फिल्म की भाषा अंग्रेजी और फ्रेंच है और यह केवल दो चरित्रों के आसपास बुनी गयी है।
कहानी के नाम पर सिर्फ इतना है कि एक ब्रिटिश कला समीक्षक इटली के एक गांव में आर्ट गैलरी चलाने वाली एक महिला से मिलता है, दोनों 15 वर्षों से शादी शुदा हैं और एक दिन के लिए ऐसे मिलते हैं, मानो वे वास्तविक जीवन में पति-पत्नी हों। पूरी फिल्म उनकी एक दिन की मुलाकात की अनेक छवियों, मनोभावों, दृश्यों और उतार-चढ़ाव को प्रस्तुत करती है। आर्ट गैलरी की मालकिन की भूमिका में जूलियट बिनोचे के अभिनय की दुनिया भर में तारीफ हो रही है।
कहानी के नाम पर सिर्फ इतना है कि एक ब्रिटिश कला समीक्षक इटली के एक गांव में आर्ट गैलरी चलाने वाली एक महिला से मिलता है, दोनों 15 वर्षों से शादी शुदा हैं और एक दिन के लिए ऐसे मिलते हैं, मानो वे वास्तविक जीवन में पति-पत्नी हों। पूरी फिल्म उनकी एक दिन की मुलाकात की अनेक छवियों, मनोभावों, दृश्यों और उतार-चढ़ाव को प्रस्तुत करती है। आर्ट गैलरी की मालकिन की भूमिका में जूलियट बिनोचे के अभिनय की दुनिया भर में तारीफ हो रही है।
अब्बास किरोस्तामी अपनी फिल्मों में सच्चाई और कल्पना के विभ्रम पैदा करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी फिल्म ‘वेयर इज माई फ्रेंड्स हाउस’ (1990) ने उन्हें विश्व सिनेमा के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार के रूप में स्थापित किया था।
‘सर्टीफाइड कॉपी’ में आख्यान के तौर पर उन्होंने अपनी बहुचर्चित फिल्म ‘क्लोज-अप’ के अधूरे काम को पूरा किया है। ‘क्लोज-अप’ में एक व्यक्ति ईरान के मशहूर फिल्मकार मोहसिन मखमल बाफ बनकर एक फिल्म बनाने की कोशिश करता है।
हालांकि हम यहां वांग कार वाइ की ‘इन द मूड फॉर लव’ को भी याद कर सकते हैं।
‘सर्टीफाइड कॉपी’ में आख्यान के तौर पर उन्होंने अपनी बहुचर्चित फिल्म ‘क्लोज-अप’ के अधूरे काम को पूरा किया है। ‘क्लोज-अप’ में एक व्यक्ति ईरान के मशहूर फिल्मकार मोहसिन मखमल बाफ बनकर एक फिल्म बनाने की कोशिश करता है।
हालांकि हम यहां वांग कार वाइ की ‘इन द मूड फॉर लव’ को भी याद कर सकते हैं।
‘सर्टीफाइड कॉपी’ में आर्ट गैलरी चलाने वाली एक फ्रेंच महिला (जूलियट बिनोचे) एक ब्रिटिश लेखक और कला समीक्षक (विलियम शिमेल) से उलझती हुई दिखाई गई है, जिसने अभी-अभी कलाकृतियों की कॉपी करने के चलन पर अपना लेक्चर पूरा किया है।
ऊपर से देखने पर यह एक व्यस्क किस्म की रोमांटिक स्टोरी लग सकती है, जो किसी के साथ कहीं भी घटित हो जाता है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें किरोस्तामी का यह दर्शन छिपा हुआ है कि हमारी दुनिया और जीवन में दरअसल असली या वास्तविक कुछ भी नहीं होता, सब कुछ कहीं-न-कहीं से ‘कॉपी’ किया गया है।
यूरोप के कुछ समीक्षक इस फिल्म को यूरोपीय कला फिल्मों की नकल भी बता रहे हैं, जो दरअसल असल से भी अधिक वास्तविक है।
ऊपर से देखने पर यह एक व्यस्क किस्म की रोमांटिक स्टोरी लग सकती है, जो किसी के साथ कहीं भी घटित हो जाता है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि इसमें किरोस्तामी का यह दर्शन छिपा हुआ है कि हमारी दुनिया और जीवन में दरअसल असली या वास्तविक कुछ भी नहीं होता, सब कुछ कहीं-न-कहीं से ‘कॉपी’ किया गया है।
यूरोप के कुछ समीक्षक इस फिल्म को यूरोपीय कला फिल्मों की नकल भी बता रहे हैं, जो दरअसल असल से भी अधिक वास्तविक है।
फिल्म का एक दृश्य |
अधिकतर शॉट क्लोजअप में लिए गए हैं और फिल्म मंथर गति से दोनों चरित्रों के संवादों के माध्यम से आगे बढ़ती है। फिल्म बड़ी सूक्ष्मता से एक स्त्री और एक पुरुष के रिश्तों की हकीकत और उसके बाहरी आवरणों की पड़ताल करती है।
बाहर से जो दिखता है वह तथा अंदर से दरअसल जो होता है वह, दोनों चरित्रों का यह संबंध दरअसल वैध विवाहित संबंध की कॉपी है। किरोस्तामी यहां बड़ी खूबसूरती से यह स्थापित करते हैं कि भले ही उस स्त्री के पास विवाहित होने की वैधानिक स्थिति नहीं है लेकिन पुरुष के प्रति उसकी सारी भावनायें वैध हैं।
यह फिल्म अच्छे अर्थों में ईरान के इस मास्टर फिल्मकार का एक सिनेमाई विचलन है, जो इसे उनकी पहली फिल्मों से अलग करता है। उन्होंने लोकेशन का खूबसूरती से इस्तेमाल तो किया है लेकिन किसी टूरिस्ट गाइड की तरह नहीं।
उनका सारा जोर अपने दोनों चरित्रों पर है। पटकथा इतनी कसी हुई है कि दर्शक कई बार संवादों को सुनते हुये अमूर्त और दार्शनिक किस्म की कल्पना में खो जाता है। जूलियट बिनोचे ने अपने चरित्र में कई तरह के मनोभावों को जिस कुशलता के साथ निभाया है, वह अभिनय के लिए एक क्रांतिकारी परिघटना बन जाती है।
एक और दृश्य |
जाहिर है यह अब्बास किरोस्तामी की फिल्म है जो सबके लिए नहीं है, इसका आनंद उठाने के लिए दर्शक को थोड़ा सा बौद्धिक और भावनात्मक रूप से संवेदनशील होना पड़ेगा। लेकिन यदि आप एक बार किरोस्तामी की सिनेमाई दुनिया में चले गये तो बीच में वे आपको उठने का मौका नहीं देंगे।
किरोस्तामी की दूसरी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी कहानी का कोई निश्चित अंत नहीं किया गया है। यह काम दर्शकों पर छोड़ दिया गया है कि वे अपने हिसाब से इस कहानी को उसकी मंजिल तक पहुंचा दें।
2 comments:
फिल्म प्रेमियों का दिल लूटने वाली पोस्ट। छिपी हुई कलियों यानी छिपकलियों का कहना है कि बिन बोले अब मुझे, नहीं कहना है
aapke ghar me gusne ki gustakhi pehli bar ki,or socha k pehle kyon nahi....khair ab to aana-jana laga rahega. latest post ne sab padne par majbur kar diya...filmo se prem tha, ise padne k bad or gehra ho gaya.. shukriya...
Post a Comment